हिन्दुस्तान की आवाम क्यों जाग नहीं पाती है,

यथोचित  स्वगरिमा को पहचान नहीं पाती है,

आत्म के उन्नयन का सत्पथ क्यों भूलजाती है,

अन्नदाता के हिस्से में, क्यों फाँसी ही आती है।

 

साक्ष्य साक्षी,देश सहिष्णुता की सजापाता है,

बाहर वाला अनजाना ससम्मान बस जाता है,

चन्द रोज रहकर अपनी शक्ति को बढ़ाता है,

अतिथि-देवो-भव नीति को,धूल में मिलाता है।

 

पार्टी कोई हो, शिक्षा से न्याय ना कर पाती है,

मुख्यतः शिक्षाविदों को,खूनी आँसू रुलाती हैं,

नेतृत्व शक्ति ही,शैक्षिक अवरोधक बनाती है,

सरकार कोई हो, इस दायित्व से कतराती है।

 

जनता की भीरुता ही कायर बना भटकाती है,

धर्म के ठेकेदारों का, वो खिलौना बनजाती है,

लोकपरलोक के झूठे,द्वन्दों में उलझ जाती है,

परेशान खस्ता जनता कुचक्र में फँस जाती है।

 

बरबादी प्रजा की,पटकथा लिख दी जाती है,

आपस के झगड़े में सारी प्रगति रुकजाती है,

सुविधा सम्पन्नों के, संभाषण में फँस जाती है,

खूनी पँजों में उलझ,सपरिवार छटपटाती है।

 

लोकतन्त्रीय अर्थीपर क्यों प्रजा सुलाई जाएगी ?

क्यों केवल आवाम ही, हवन के काम आएगी ?

कब सद्ज्ञान का सूर्य, परवान चढ़ाया जाएगा ?

अपने भारत में, सच्चा लोकतन्त्र कब आएगा ?

Share: