अस्तित्व वाद एक ऐसा चिन्तन है जिसे दायरे में कैद करना बहुत मुश्किल है विश्लेषक कई बार इस भ्रम का शिकार हो जाते हैं कि क्या इसे दार्शनिक चिन्तन के परिक्षेत्र में स्वीकारा जाए। वस्तुतः यह एक सङ्कट का दर्शन है मानव आज स्वयं से भी अजनबी होता जा रहा है। यह विविध चिन्तनों के विरोध स्वरुप उत्पन्न हुआ है। और मानव मात्र के अस्तित्व से जुड़ा है, इसीलिए इस वाद के चिन्तन की धुरी मानव व उसका अस्तित्व ही है। अस्तित्ववाद सङ्कट (Crises) का वह दर्शन है जो बीसवीं शताब्दी की देन है और व्यक्ति के मौलिक व्यक्तिगत अस्तित्व पर बल देता है।

सोरेन किर्कगार्द, मार्टिन हीडेगर,जीन पॉल सात्रे वे प्रसिद्ध नाम हैं जो अस्तित्ववाद के पोषकों में सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।

सोरेन किर्कगार्द(Soren Kierkegaard) चाहते थे कि व्यक्ति को चयन की पूर्ण स्वतन्त्रता मिले और जो वह बनाना चाहता है उसके लिए वह स्वतंत्र हो।

मार्टिन हीडेगर(Martin Heidegger) मानते थे कि मनुष्य का अस्तित्व नश्वर है सीमित है मृत्यु सभी सम्भावनाओं का अन्त कर देती है और सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है।

जीन पॉल सात्रे Jean Paul Satre (1905 -82) ने अपने दर्शन को अस्तित्ववादी स्वीकारा है वह इस दर्शन को किसी का पिछलग्गू नहीं मानता। वे स्वीकार करते हैं कि मनुष्य का अस्तित्व किसी पूर्वसत्ता और सिद्धान्त पर निर्भर नहीं करता बल्कि वे कहते हैं  ‘मैं हूँ इस लिए मेरा अस्तित्व है।’ 

DEFINITIONS OF EXISTENTIALISM

अस्तित्व वाद की परिभाषाएं –

अस्तित्ववाद वह दर्शन है जिसमें मानव की स्वतन्त्रता के सच्चे दर्शन होते हैं इसे हम एक अभिमत के रूप में स्वीकार कर सकते हैं इसे मानव जीवनके प्रति एक दृष्टिकोण कहना भी तर्क संगत होगा आर०एन० बेक महोदय  कहते हैं –

“The term (Existentialism) refers to a type of thinking that Emphasizes human existence and the qualities peculiar to it rather than to nature or Physical world.”

अस्तित्ववाद एक प्रकार के चिन्तन की और संकेत करता है जो प्रकृति अथवा भौतिक संसार की अपेक्षा मनुष्य के अस्तित्व और उसके गुणों पर बल देता है।

एक अन्य प्रसिद्ध विचारक एच० एच० टाइटस महोदय कहते हैं –

“Existentialism is an attitude and outlook that Emphasizes human existence that is distinctive qualities of individual persons rather than man in the abstractor nature and the world in general.”

अस्तित्ववाद सामान्य रूप में विश्व और प्रकृति अथवा सामान्य मानव की अपेक्षा व्यक्तिके रूप में मनुष्य के विशिष्ट गुणों पर जोर देता है।

अस्तित्ववाद के सम्बन्ध में प्रो ० रमन बिहारी लाल का कहना है –

अस्तित्ववाद एक ऐसा बन्धनमुक्त चिन्तन है जो नियतिवाद एवं पूर्व निश्चित दार्शनिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं नियमों में विश्वास नहीं करता और यह प्रतिपादन करता है कि मनुष्य का स्वयं में अस्तित्व है और जो वह बनाना चाहता है उसका चयन करने के लिए स्वतंत्र है। इसके अनुसार मनुष्य वह है जो वह बन सका है अथवा बन सकता है और उसका यह बनना उसके स्वयं के प्रयासों पर निर्भर करता है।

अस्तित्व वाद की विभिन्न मीमांसाएँ  –

किसी दर्शन किसी को समझना उसकी मीमांसाओं को जानने से सरल हो जाता है आइये सबसे पहले जानते हैं –

अस्तित्ववाद की तत्व मीमांसा (Metaphysics of Existentialism) –

सात्रे चेतना और पदार्थ दोनों की सत्ता के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि वास्तु का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है ,मानव की चेतना में आने से पहले भी वस्तु अस्तित्व में थी,  है और रहेगी। ये मानव के अस्तित्व को व्यक्तिगत मानते थे और विश्वास करते थे कि यह उसके साथ ही समाप्त हो जाने वाला है इनके अनुसार मनुष्य जन्म के साथ अस्तित्व में आता है और मृत्यु के साथ अस्तित्व विहीन हो जाता है। हीदेगर के अनुसार हताशा,चिन्ता तथा इसके द्वारा होने वाला दुःख स्वयं प्रमाणित है इनका अनुभव प्रत्येक मानव करता है।

अस्तित्ववाद की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology of Existentialism) – 

इन विचारकों का मानना था कि मनुष्य जीवन पर्यन्त जो अनुभव विभिन्न माध्यमों से करता है और इस माध्यम से अपनी चेतना और भावनाओं को जिस प्रकार युक्त करता है वही ज्ञान है इस ज्ञान को वह स्वतंत्र तरीकों से विभिन्न विधियों द्वारा प्राप्त करता है। लेकिन यह सत्य तभी स्वीकारा जाएगा जब सत्यापित हो जाएगा। ये अनुभव जनित ज्ञान के ठीक विपरीत विचार को लेकर तर्क द्वारा ज्ञान की सत्यता को प्रमाणित करना आवश्यक मानते हैं।

अस्तित्ववाद की मूल्य व आचार मीमांसा (Values ​​and Ethics of Existentialism)-

ये मानव हेतु किसी पूर्व स्वीकृत मूल्य या आचार संहिता को स्वीकार नहीं करते,इनका तो मूल मन्त्र ही यह है की वह अपने अनुसार चयन के लिए स्वतन्त्र है ये स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्व को ही मानव जीवन के आधार भूत मूल्य मानते हैं। सात्रे कहता है कि संसार बहुत कठोर है और इस कठोरता व दुरूहता का सामना कोई तभी कर सकता है यदि वह साहसी हो। अधिकाँश अस्तित्ववादी विचारक मृत्यु को सबसे बड़ा सत्य मानते हैं और स्वीकारते हैं कि मृत्यु का ज्ञान ही मनुष्य को सही मार्ग पर लाता है।

अस्तित्व वाद के मूल तत्व और सिद्धान्त

Fundamental Elements and Principles of Existentialism-

01 – केन्द्र बिन्दु मानव मात्र 

02 – केवल भौतिक जगत सत्य

03 – नियामक सत्ता के बिना ब्रह्माण्ड का अस्तित्व

04 – निराशा व दुःख विशद तत्व

05 – जीवन अन्तिम उद्देश्य विहीन

06 – मानव की स्वतन्त्र सत्ता

07 – चयन की स्वतन्त्रता

08 – विकास की निर्भरता स्वयं पर

अस्तित्ववाद और शिक्षा

Existentialism and Education

अस्तित्ववाद और शिक्षा

Existentialism and Education

शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है और इनका समूचा ध्यान वैयक्तिकता पर है यह दर्शन एक स्वतन्त्र दृष्टिकोण तो रखता है लेकिन कहीं कहीं अन्य दर्शनों को छूटा सा दीखता है वैयक्तिकता के क्षेत्र में यह आदर्शवादियों की तरह वैयक्तिकता के महत्त्व को स्वीकारता है आत्मविकास और आत्म अनुभव के विचार भी आदर्शवादियों से साम्य रखते हैं लेकिन फिर भी यह कई विचारों में इतना अलग है कि पलायन वाद की कोइ गुंजाइश नहीं छोड़ता ये कहते हैं –

“शिक्षा मनुष्य को उसके अस्तित्व और उत्तरदायित्व का बोध कराने की प्रक्रिया होनी चाहिए।”

मानव को अस्तित्वहीनता के दौर से हटाकर उसकी पुनः प्रतिष्ठा के क्रम में शिक्षा को उपयोगी साधन स्वीकार किया है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्यों व अंगों पर जो प्रभाव परिलक्षित हुए हैं उन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया जा सकता है।

शिक्षा के उद्देश्य  (Aims of Education ) –

1 – उत्तरदायित्व की क्षमता का विकास (To Development of Responsibility)

2 – अपने भाग्य का निर्माता स्वयं (The maker of own destiny)

3 – सृजनात्मकता का विकास (Development of creativity)

4 – शक्तिशाली व साहसी बनाना (Make strong and courageous)

5 – श्रेष्ठ मानव प्रजाति का विकास (Evolution of the best human species)

पाठ्य क्रम (Curriculum) –

इनके अनुसार व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के कारण विविध विषयों को स्थान मिलना चाहिए। सौन्दर्यात्मकता और भावनाओं का महत्त्व अस्तित्ववादी महसूस करते हैं यही तो उन्हें अन्य प्राणियों से अलग करते हैं इस लिए कला,साहित्य,संगीत विषयों को स्थान मिलना चाहिए। किर्क गार्द मानव को नैतिक प्राणी मानते हैं इसलिए नीति शास्त्र की उपादेयता है। अस्तित्व रक्षार्थ व्यावसायिक विषयों को पाठ्य क्रम में स्थान आवश्यक है। धार्मिक विषयों के स्थान पर ये क्रियात्मक व वैज्ञानिक विषयों को संकट निवारणार्थ रखना चाहते हैं अर्थात भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान,जीव विज्ञान ,कृषि विज्ञान,चिकित्सा शास्त्र,व तकनीकी विषयों पर बल देना चाहते हैं।

शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –

यह समूह शिक्षण के पक्षधर नहीं हैं इसलिए निर्धारित पूर्व नियोजित शिक्षण विधियों कीजगह स्वाध्याय, चिन्तन, मनन,व अनुभव द्वारा सीखने की महत्ता प्रतिपादित करते हैं व तार्किक विधि का समर्थन करते हैं।ये विविध मंतव्यों हेतु विविध विधियों के समर्थक हैं।

शिक्षक (Teacher) –

इनका विचार है की अध्यापक अपने निर्णय बालकों पर न थोपें बल्कि उन्हें इस योग्य बनाएं कि वे अपने लिए उचित निर्णय ले सकें, विभिन्न परिस्थितियों से लड़ने हेतु उसे समर्थ बनाते हुए यह बोध भी कराना है कि वह अकेला है आत्मबोध से युक्त कर कर्मपथ पर बढ़ने का कौशल विकसित किया जाना है। इस प्रकार अध्यापक की भूमिका दुरूह है।

विद्यार्थी (Student) –

विद्यार्थी चयन हेतु स्वतन्त्र है और इस चयन व स्वतन्त्रता की रक्षा अध्यापक द्वारा की जानी चाहिए ये बालक की पूर्ण स्वतन्त्रता के  समर्थक हैं और उसके सम्मान का कार्य शिक्षा द्वारा सम्पादित होना चाहिए।

विद्यालय (School) –

जिस तरह ये विद्यार्थी की स्वतन्त्रता के पक्षधर हैं ठीक उसी तरह ये विद्यालयों को नियन्त्रण मुक्त रखना चाहते हैं  सामूहिक शिक्षा के स्थान पर व्यक्तिगत शिक्षा के पक्षधर हैं। ये मानते हैं की कुछ सिखाने या बालकों की स्वतन्त्रता छीनने के प्रयास न हों वे अपने आप ही सीखेंगे। कुछ चुने हुए लोगों का  बौद्धिक विकास कर उन्हें उत्तरदायित्व दिया जाना चाहिए।

अनुशासन (Discipline) –

ये मानते हैं की मनुष्य स्वभाव से ही अनुशासन प्रिय है और यदि उससे चयन में गलती हो जाती है तो इसका दुःख वह स्वयं भोगेगा  सुधार कर लेगा। ये किसी भी आचार संहिता के विरोधी थे। इस विचार धारा के अनुसार बालकों द्वारा उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार सच्चा अनुशासन है। 

मूल्याङ्कन (Evaluation) –

अस्तित्ववाद पूर्व निश्चित ,मान्यताओं,धारणाओं,मूल्यों,धार्मिक नैतिक अवधारणाओं से छिटक  खड़ा हो गया है। संकट ग्रस्त हेतु इसने आकर्षक छवि बनाने का प्रयास अवश्य किया पर कोइ भी भारतीय विचारक इसे न तो शैक्षिक चिंतन में स्थान दे पायेगा  दार्शनिक चिन्तन में। ये मानव हेतु कोइ ऐसा आलम्ब न दे सका जो उज्जवल भविष्य हेतु  बोधक हो। शिक्षा के हर अंग पर इस वाद का प्रभाव कोई निशाँ न छोड़ सका। इन्हें सब कुछ मानव विरोधी लगता है।यही कह सकते हैं कि इनके इरादे बुरे नहीं थे बस सही रास्ता नहीं बना सके।

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