प्रेम और स्नेह के प्रगटन में शब्दों की भाषा मूक हो शारीरिक भाषा में बदल जाती है शब्द लरज कर होठों में थरथराहट पैदा करते हैं उसी गात भाषा का प्रगटन हैं ये पंक्तियाँ :-
जब उनके मासूम लब सहज ही थरथराते हैं,
चमकते नयनों से दृग-बिन्दु निकल आते हैं,
इन आँसुओं से इक दरिया का जन्म होता है,
ये सब दरिया मिलजुलकर समन्दर बनाते हैं।
लोगबाग समन्दर की गहराई अनन्त बताते हैं,
कई लोग बस कल्पना करके ही डर जाते हैं,
जिन लोगों को ये समन्दर खूबसूरत लगता है,
उनमें से कई तो बस तट पर ही ठहर जाते हैं।
कुछ ऐसे भी हैं, जो समन्दर में उतर जाते हैं,
लेकिन उन्हें सीप शंख मोती ही नज़र आते हैं,
पर प्रेम पराकाष्ठा पर बरबस द्वैत खो जाता है,
धीरे-धीरे उस उच्चता में वे समन्दर हो जाते हैं।
ये समन्दर वाष्प बन आदतवश बरस जाते हैं,
और ये ही जज्बाती दिलों में प्रेम रस बनाते हैं,
जिनलोगों को प्रेम केवल बवण्डर ही लगता है,
उन्हें कहो कि मासूम लबों पर हम थरथराते हैं।