पर्यावरण में दो शब्द निहित हैं परि +आवरण अर्थात जो हमें हर ओर से ढके हो। इसमें किसी प्रकार का असन्तुलन ही  प्रदूषण  का परिचायक है जहाँ वस्तुएं ,जल ,वायु ,आकाश हमें प्रभावित करता है वहीं विचार भी पथ भ्रष्ट हो नैतिक प्रदूषण का कारक बनाते हैं। कोई विचार या वाद किस तरह से प्रदूषण का कारक बन सकता है यह इस लेख में स्पष्ट नजर आता है :-    

                                                                        पर्यावरणीय प्रदूषण और प्रयोजन वाद

विश्व को सुन्दर से सुन्दरतम की ओर ले जाने वाला भारतीय ज्ञान यहाँ के वनों ,कन्दराओं ,पर्वतों और प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य के बीच परवान चढ़कर यह उद्घोष कर रहा था की:-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःख भागभवेत।

वैश्विक उत्थान के यह शब्द प्रकृति और मानव के रिश्तों को प्रगाढ़ करने की यात्रा के अभिप्रेरक थे काल चक्र मन्थर गति करता हुआ पाश्चात्य से प्रभावित होने की और अग्रसर हुआ मनो प्राची की लाली पर पाश्चात्य के काले छींटे पड़ गए। प्रयोजनवादी दर्शन का अभ्युदय हुआ और मानव व प्रकृति के रिश्तों में ह्रास का जो दौर शुरू हुआ वह निरन्तर अनियन्त्रित गति से दरार बढ़ाने पर तुला है व मानवीय सभ्यता के समूल विनाश का प्रमुख कारक बनता जा रहा है।

प्रयोजनवादी दर्शन का पर्यावरण पर पड़ा नकारात्मक प्रभाव :

मानव की सोच पर विभिन्न विचारों ,तथ्यों ,स्थानों ,परिवेश आदि का प्रभाव प्रत्यक्षतः दृष्टिगत होता है विभिन्न दर्शन मानव सुख में वृद्धि  अभिलाषा पर फलीभूत होते हैं लेकिन यदि कोई दर्शन दीर्घकालिक शुभ की जगह अल्पकालिक हित जैसी संकीर्ण पृष्ठभूमि पर अवलम्बित हो तो वह कालान्तर में अपना नकारात्मक प्रभाव छोड़ने लगता है पर्यावरण पर ऐसा ही नकारात्मक प्रभाव डाला है प्रयोजनवादी दर्शन ने।प्रयोजनवादी विचारक सत्य को अनन्तिम मानते हैं ,जेम्स के अनुसार :-

“सत्य कोई पूर्ण निश्चित एवं अन्तिम सिद्धान्त नहीं ,प्रत्युत वह सदा निर्माण की अवस्था में रहता है। ”

इस  तरह के विचारों ने प्रकृति से हमारे पूर्व सम्बन्धों पर कुठराघात किया जिन वृक्षों को हमारी श्रद्धा के कारण संरक्षण मिला हुआ था व प्राचीन मनीषियों ने जिनकी उपयोगिता जानकर उनके निरन्तर संरक्षण के सत्य प्रावधान किये थे वे पुनः परीक्षण एवं नवीन सत्य की तलाश में भ्रम का शिकार हो गए हमने वृक्ष काटे तो प्रकृति का चक्र हे बिगड़ गया व हरित गृह प्रभाव की समस्या खड़ी हुई। तमाल ,वट,गूलर ,तुलसी,बेल ,अशोक,आम,कदम्ब ,नीम,पलाश ,पीपल,सोम, महुआ,सेमल आदि से जुडी हमारी मान्यताएं व धार्मिक आस्थाएं विलुप्त होने लगीं और इस अश्रद्धा ने ओज़ोन परत मरम्मत के कार्य में विघ्न पैदा कर दिया इसी विचार के विकृत स्वरुप ने वन्य जीव संरक्षण के सर्वमान्य सिद्धांत को तिरोहित कर एक विषम स्तिथि को जन्म दिया।

प्रयोजनवादी विचारकों ने किसी वास्तु या विचार को तब अच्छा स्वीकार किया जब वह व्यक्ति विशेष हेतु उपयोगी हो प्रयोजनवादी विचारक विलियम जेम्स कहते हैं :-

“किसी वस्तु की सत्यता उसकी उपयोगिता के आधार पर निर्धारित की जा सकती है।”

इस क्रम में वे यह भूल जाते हैं की एक कार्य जो दूसरे की प्रगति का आधार है किसी अन्य के पतन का कारण हो सकता है। समृद्ध मानव व देशों ने इसी विचार के आधार पर प्रकृति का अत्याधिक दोहन किया व हर स्तर पर मानव प्रकृति सम्बन्धों के ह्रास का कारन बनने की स्थिति बनाई। एक देश के लोग जब समृद्धि के शिखर पर चढ़ने को उद्यत होते हैं उसी समय उनके कृत्यों के परिणाम स्वरुप दूसरे क्षेत्र अम्लीय वर्षा का शिकार हो रहे होते हैं एक राष्ट्र प्रगति कर रहा होता है तो दूसरा उनके अपशिष्ट निस्तारण का स्थल बन जाता है ,उस राष्ट्र की गरीबी उसके लोगों के स्वास्थ्य ,मानव,विकास सभी उस निस्तारण की कीमत चुकाते हैं। इस दर्शन को समृद्धों का हितैषी दर्शन कहना अतिशयोक्ति न होगा। इसने पारिस्थितिकीय असन्तुलन पैदा किया है जिसका दंश अविकसित व अर्धविकसित देश झेल रहे हैं।विकसित देश स्वहित में सत्य तलाशते हुए अपना परमाणु कचरा भी अर्धविकसित देश की सीमाओं में पहुँचाने का दुष्कृत्य कर रहे हैं।

प्रयोजनवादियों का अटल विश्वास है कि सत्य का निर्माण उसके परिणाम या फल से होता है इस पर विश्वास कर तमाम अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ अर्धविकसित देशों की धरती पर स्थापित होती हैं व फल स्वदेश ले जाती हैं तथा उस देश को मिलता है यूनियन कार्बाइड जैसी घटनाओं का दंश। वहाँ की फ़िज़ाओं में बढ़ जाता है एल्डिहाइड्स ,अमोनिया ,आर्सिंस ,कार्बनमोनोक्साइड ,क्लोरीन ,हाइड्रोजन साइनाइड हाइड्रोजनसल्फाइड ,सल्फर डाई  ऑक्साइड ,कैडमियम ,फास्फोरस  और बोरोन आदि का स्तर। उस देश के निवासी आँखों में जलन ,दमा ,कैंसर, त्वचा में जलन ,नाड़ी संस्थान के विकार ,अनिद्रा ,क्षय ,गुर्दे की क्षति ,आंत्र शोथ यहाँ तक की मृत्यु का वरण करने को विवश होते हैं ,जब की लाभ के नाम पर इन्हे मिलता है भावी विकास का झुनझुना। इस फल की तलाश के क्रम में बढ़ता है शहरीकरण ,होम होते हैं वन।एक के विकास का आधार बनाता है दूसरे का ह्रास।चन्द लोगों के वैयक्तिक लाभ की आकाँक्षा हजारों के साथ अन्याय का वातावरण बनाती है जिसका दुष्प्रभाव केवल थलचर ही नहीं जलचर व नभचर भी झेलने को मज़बूर हैं।

प्रयोजनवादियों का ‘क्रिया प्रधान  और ज्ञान गौड़’ का सिद्धान्त भी प्राकृतिक असन्तुलन बढ़ाने में आग में घी का काम करता है। बिना ज्ञान के अनियान्त्रित क्रिया उद्देश्यहीनता के कुचक्र में फँस जाती है जब की हमारा ज्ञान-विवेक ,प्राकृतिक दोहन एवं प्राकृतिक संसाधनों के सृजन में साम्य बनाये रखता है। स्वार्थपरता की अंधी दौड़ पर आधारित हमारी क्रिया सुनिश्चित दिशा प्राप्त नहीं कर पाती। जिससे बाढ़, भूकम्प,और सुनामी जैसी विध्वंसक स्थिति का निर्माण होता है इस तरह की क्रियाएं व केवल स्वराष्ट्रहित , अपना प्रयोजन सिद्ध करने हेतु हिरोशिमा, नागासाकी जैसी घटनाओं के होने का कारण बनता हैऔर होती है प्रकृति की अपूरणीय क्षति। विवेक रहित क्रियाएं अज्ञान की ही परिणति हैं जबकि ज्ञान आधारित क्रियाएं सृजन का आधार बनती हैं अत्याधिक रासायनिक खाद व कीटनाशकों का अन्धाधुन्ध प्रयोग अविवेक जनित है जो मृदा प्रदुषण ,बंजरपन व विविध रोगों की उत्पत्ति का कारण है ,एवं अन्ततः प्रकृति क्षय का।

प्रयोजनवादी वर्तमान एवं भविष्य में विश्वास कर विगत की अनदेखी करते हैं इन्हें समूची प्रचलित परम्पराएं व प्रथाएं स्वीकार्य ही नहीं हैं.संस्कृति के निर्माणक कारक दीर्घकाल में स्थायित्व प्राप्त कर पाते हैं और वही अनुभव भविष्य की आधार शिला बनाते हैं। विभिन्न जड़ी बूटियों का संरक्षण और इतिहास से सीखकर पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा इनकी भावना में शुमार ही नहीं ,वर्तमान और भविष्य की वनस्पतियों के संरक्षण का आधार  विगत का अनुभव ही बन सकता है। परम्पराएं,प्रथाएं व पुरातन रिवाज कहीं न कहीं स्थानीय वनस्पतियों के संरक्षण में महत्त्व पूर्ण भूमिका अभिनीत करते हैं।

प्रयोजनवादी निश्चित उद्देश्यों को स्वीकार न कर इसे सापेक्ष विचार मानते हैं ,प्रसिद्ध प्रयोजनवादी विचारक ड्यूवी ने कहा :-

”निर्धारित किये हुए उद्देश्य भलाई की तुलना में बुराई अधिक कर सकते हैं उनको केवल आने वाले परिणामों को जानने ,स्थितियों की देखभाल करने तथा बालकों की शक्तियों को मुक्त तथा निर्देशित करने के साधनों को चुनने के लिए सुझावों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। ”

आज भारतीय अधिसंख्य Education Aacharya ये स्वीकारते हैं कि वन संरक्षण व पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी विचार शाश्वत उद्देश्य हैं प्राकृतिक हरीतिमा मानव उत्थान का कारण बनती है विनाश का नहीं प्रकृति संरक्षण का उद्देश्य हमेशा मानव जाति का भला ही करेगा मानव तथा प्रकृति के बीच मज़बूत रिश्ते ही आने वाले कल की सशक्त बुनियाद बनेंगे।

निर्वनीकरण ,रेगिस्तानिता ,पर्यावरणीय अज्ञानता ,स्मॉग विभिन्न प्रकार के प्रदूषण यथा -वायु ,भूमि ,जल ,ध्वनि ,रेडियोधर्मिता ,पर्यावरणीय विविधता की क्षति के मूल में हमारी प्रयोजनवादी सोच की विशिष्ट भूमिका रही है। इस पाश्चात्य दर्शन की संकीर्णता सम्पूर्ण मानवता का भला कर पाएगी एवं मानव प्रकृति के रिश्ते को घनिष्ठ करेगी इसमें संशय ही संशय है ।इस विचारधारा के मार्गान्तीकरण  व शोधन की आवश्यकता है। केवल नए मूल्यों की स्थापना की जगह पुरातन सत्यम्,शिवम् ,सुन्दरम् जैसे मूल्य ही वन ,जैव विविधता ,नदी ,मानवता एवम् पर्यावरणिक चेतना को सशक्त सम्बल प्रदान कर सकते हैं।

                                                                  —————————-डॉ 0 शिव भोले नाथ श्रीवास्तव

 

 

 

 

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