Education Aacharya - एजुकेशन आचार्य
  • शिक्षा
  • दर्शन
  • वाह जिन्दगी !
  • शोध
  • काव्य
  • बाल संसार
  • विविध
  • समाज और संस्कृति
  • About
    • About the Author
    • About Education Aacharya
  • Contact

शिक्षा
दर्शन
वाह जिन्दगी !
शोध
काव्य
बाल संसार
विविध
समाज और संस्कृति
About
    About the Author
    About Education Aacharya
Contact
Education Aacharya - एजुकेशन आचार्य
  • शिक्षा
  • दर्शन
  • वाह जिन्दगी !
  • शोध
  • काव्य
  • बाल संसार
  • विविध
  • समाज और संस्कृति
  • About
    • About the Author
    • About Education Aacharya
  • Contact
शिक्षा

VISUAL ARTS IN EDUCATION

April 30, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

                                                 शिक्षा में दृश्य कला

कलाकार अपने संवेगों, भावों, अनुभूतियों, कल्पनाओं आदि के प्रदर्शन के लिए विविध प्रकार की कलाओं को माध्यम बनाता है इन विविध कलाओं में दृश्य कला, कला कृतियों का वह स्वरुप है जिसका भाव मुख्यतः दृश्य  होता है वे दृश्य इन्द्रियों द्वारा पहचानी जाती हैं तथा दृश्य भाव और सौन्दर्य का प्रकाशन करती हैं।

Definition of visual arts / दृश्य कला की परिभाषा –

कल्पनाशीलता व चिन्तन के घटक जब वातावरण की विविध शक्तियों से द्वन्द कर अपना प्रगटन कलाकार के माध्यम से इस प्रकार करते हैं कि अन्य चक्षुओं के आनन्द का कारण बनते हैं। तब कला का यह स्वरुप दृश्य कला के नाम से जाना जाता है। विकिपीडिआ के अनुसार –

“दृश्य कला, कला का वह रुप है जो मुख्यतः दृश्य प्रकृति की होती है जैसे -रेखा चित्र, चित्र कला, मूर्ति कला,…….. “

“Visual art is that form of art which is mainly of visual nature such as drawing, painting, sculpture,……”

स्टडी.कॉम के अनुसार –

“दृश्य कला से तात्पर्य उन कला रूपों से है जो दृश्य माध्यमों से अपना संदेश, अर्थ और भावना व्यक्त करते हैं।”

“Visual arts refers to those art forms that express their message, meaning and emotion through visual means.”

दृश्य कला की परिभाषा को शर्मा व सक्सैना (आर लाल बुक डिपो)  ने इन शब्दों में बांधने का प्रयास किया है –

“Visual arts are the such arts in which the articles made by an artist create their effect visually, it means they create visual experience of beauty and express feelings visually.”

“दृश्य कलाएँ ऐसी कलाएँ हैं जिनमें किसी कलाकार द्वारा बनाई गई वस्तुएँ दृश्य रूप से अपना प्रभाव पैदा करती हैं, इसका अर्थ है कि वे सौंदर्य का दृश्य अनुभव पैदा करती हैं और भावनाओं को दृश्य रूप से व्यक्त करती हैं।”

उक्त विविध परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि दृश्य कला उस कला को कहा जाता है जिसमें कलाकार की कृतियाँ दृश्य प्रभाव का प्रादुर्भाव करती हैं यह दृश्य कलाएं वह दृश्य सामग्री प्रस्तुत करती हैं जो नेत्रों को को आनन्द प्रदान करे। इन नयनाभिराम दृश्यों के उदाहरण यत्र तत्र सर्वत्र दीख पड़ते हैं जैसे भव्य महल, आकर्षक मूर्तियां, आकर्षक आभूषण, सुन्दर वस्तुयें ,कला कृतियों, भित्ति चित्रों,किलों,परकोटों, गुम्बदों आदि के रूप में ।ये दृश्य कलाएं मुख्यतः 5 भागों में बांटी जा सकती हैं।

1 – चित्र कला

2 – मूर्ति कला

3 – वास्तु कला

4 – नृत्य कला

5 – दृश्य श्रव्य कला

Importance of visual arts in Education

शिक्षा में दृश्य कला का महत्व –

शिक्षा में दृश्य कला के महत्त्व को निम्न बिन्दुओं द्वारा इंगित किया जा सकता है। –

1 – प्रभावी अधिगम 

2 – प्रेरणा व व्यावहारिकता

3 – समन्वय कौशल विकास

4 – व्यक्तित्व का समग्र विकास

5 – कल्पना शक्ति व रचनात्मक शक्ति वृद्धि

6 – सशक्त अभिव्यक्ति

7 – पैकेजिंग

8 – रोजगार प्राप्ति

9 – आत्म विश्वास वृद्धि

10 – मनोवैज्ञानिक दृढ़ता

11 – निर्णयन क्षमता

12 – ध्यान संकेन्द्रण व तार्किक क्षमता विकास

इन विविध महत्त्वों को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि दृश्य कला की प्रभाव शीलता में निरन्तर वृद्धि हो रही है बी डिज़ाइनिंग, बी आर्क आदि का प्रभावी विकास इन दृश्य कलाओं को और नए आयाम देंगे। ऐसी ऐसी कलाओं का विकास हो रहा है जो मानव सभ्यता के विकास में निश्चित ही नए आयाम जोड़ेंगी।

Share:
Reading time: 1 min
शिक्षा

CURRICULUM EVALUATION

April 28, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पाठ्यक्रम मूल्याङ्कन

काल चक्र के परिभ्रमण के साथ जो पाठ्यक्रम बनाया जाता है उसके मूल्यांकन द्वारा ही यह औचित्य सिद्ध होता है कि यह प्रासंगिक है अथवा नहीं। पाठ्यक्रम मूल्याङ्कन में यह जानने का प्रयास निहित है कि जिन व्यवहार गत परिवर्तनों, उद्देश्यों, निर्देशनों, दिशाओं और मार्ग दर्शन की अपेक्षा पाठ्यक्रम से की गयी थी वह कहाँ तक प्राप्त हुए हैं विविध स्तरों पर विविध विद्यालयी पाठ्यक्रम समाज, राष्ट्र, व्यक्ति, नैतिकता, मूल्य आदि को ध्यान में रखने के साथ ज्ञान के बोधात्मक स्तर के  विकास  को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं और अन्त में पाठ्यक्रम मूल्यांकन में इन्हे ही जानने का प्रयास किया जाता है कि उक्त उद्देश्य किस स्तर तक प्राप्त हुए हैं। इसी आधार पाए उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण की अवधारणा का विकास हुआ।

आशय व परिभाषा (Meaning and definition) –

पाठ्यचर्या विकास का एक महत्त्वपूर्ण नितान्त आवश्यक चरण है पाठ्यचर्या मूल्याङ्कन। इसके माध्यम से ही यह ज्ञात किया जाता है कि पाठ्यक्रम अपना उद्देश्य प्राप्त कर पा रहा है या नहीं। साथ ही यह अधिगम में कितना सहयोगी सिद्ध हो रहा है यह भी मूल्याङ्कन से ही ज्ञात होता है। डेविस 1980 ने बताया –

“It is the process of delineating obtaining, and providing information useful for making decisions and judgement about curricula.”

“यह पाठ्यक्रम के बारे में निर्णय लेने और निर्णय लेने के लिए उपयोगी जानकारी प्राप्त करने और प्रदान करने की प्रक्रिया है।“

एक अन्य विचारक मार्श (2004) ने बताया –

“It is the process of examining the goals, rationale and structure.”

“यह लक्ष्यों, तर्क और संरचना की जांच करने की प्रक्रिया है।“

Criteria and process of Good Curriculum Evaluation / अच्छे पाठ्यचर्या मूल्यांकन के मानदण्ड और प्रक्रिया-

यद्यपि पाठ्यचर्या मूल्यांकन के परिक्षेत्र में बहुत कार्य होना शेष है फिर भी यह स्वीकार किया जा सकता है कि पाठ्यचर्या मूल्यांकन में निम्न मानदण्डों को ध्यान में रखना चाहिए तथा मूल्याङ्कन प्रक्रिया हेतु इन्हीं बिन्दुओं को तरजीह दी जानी चाहिए।

01 – निर्धारित उद्देश्य प्राप्यता / Attainment of set objective

02- वस्तुनिष्ठता / Objectivity

03- क्रम बद्धता / Sequentiality

04- विश्वसनीयता / Reliability

05- वैधता /Validity

06- व्यापक दृष्टिकोण / Broad perspective

07- दूरदर्शिता / Foresight

08- व्यावहारिकता / Practicality

09 – सहभागिता / Participation

पाठ्यक्रम मूल्याङ्कन के प्रकार / Types of curriculum evaluation

पाठ्यक्रम मूल्याङ्कन मुख्य रूप से तीन प्रकार का कहा जा सकता है जो इस प्रकार हैं –

1 – निर्माणात्मक मूल्यांकन / Formative evaluation –

यह पाठ्यक्रम विकास के दौरान होता है। इसका उद्देश्य शैक्षिक कार्यक्रम के सुधार में योगदान देना है। किसी कार्यक्रम की खूबियों का मूल्यांकन उसके विकास की प्रक्रिया के दौरान किया जाता है। मूल्यांकन परिणाम प्रोग्राम डेवलपर्स को गति प्रदान करते हैं और उन्हें प्रोग्राम में पाई गई खामियों को ठीक करने में सक्षम बनाते हैं।

2- योगात्मक मूल्यांकन / Summative evaluation –

योगात्मक मूल्यांकन में किसी पाठ्यक्रम के अंतिम प्रभावों का मूल्यांकन उसके बताए गए उद्देश्यों के आधार पर किया जाता है। यह पाठ्यक्रम के पूरी तरह से विकसित होने और संचालन में आने के बाद होता है।

3- नैदानिक ​​मूल्यांकन / Diagnostic evaluation –

नैदानिक ​​​​मूल्यांकन दो उद्देश्यों की ओर निर्देशित होता है या तो छात्रों को निर्देशात्मक स्तर (जैसे माध्यमिक विद्यालय) की शुरुआत में उचित स्थान पर रखना या अध्ययन के किसी भी क्षेत्र में छात्रों के सीखने में विचलन के अंतर्निहित कारण की खोज करना।

Share:
Reading time: 1 min
शिक्षा

INDIAN FESTIVALS AND THEIR ARTISTIC SIGNIFICANCE IN EDUCATION

April 22, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

भारतीय पर्वों का शिक्षा में कलात्मक महत्त्व

किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति पर अवलम्बित होती है और इस संस्कृति का विकास दीर्घकालिक सभ्यता और उस क्षेत्र के व्यक्तित्वों के कठिन प्रयासों से गढ़ा जाता है।जब किसी राष्ट्र की पीढ़ियाँ दीर्घकाल तक मर्यादाओं और परम्पराओं का अनुपालन करती हैं तब रीति रिवाज और धरती से जुडी व्यवस्थाओं का उद्भव होता है। वे सर्वस्वीकार्य तब हो पाती हैं जब उनसे आस्था और विश्वास जुड़ता है। इन आस्था, विश्वास, परम्पराओं का सहज जुड़ाव पर्वों से इस प्रकार हो जाता है कि पर्व और कला आपस में इतने गुत्थमगुत्था हो जाते हैं कि समरस हो जाते हैं।

भारत पर्वों का देश है इससे लोक कलाएं स्वाभाविक रूप से ऐसी जुड़ गई हैं जिससे अलगाव की सोच भी मानस को  व्यथित करती है। भारत में जहां विविधताओं के दर्शन होते हैं वहीं देवी देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा भाव परिलक्षित होता है यहाँ भूमि पूजन किया जाता है और पृथ्वी को माँ कहा जाता है। यहाँ का सहज उद्घोष है –

 ‘जननी  जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’‘

धरती माँ के प्रति श्रद्धा की अभिव्यञ्जना अलग अलग परिक्षेत्र में विविध रूपों में होती है और इन सब का आधार बनती है कला।कला से माँ का श्रृंगार कर मानस को आध्यात्मिक आलम्बन मिलता है। विविध त्यौहारों पर धार्मिक भावना का प्रगटन विविध कलात्मक स्वरूपों  से दृष्टिगत होता है।

कलात्मक महत्ता स्थापित करती रीतियाँ व पर्व (Rituals and festivals establishing artistic importance) –

माँ भारती का श्रृंगार भूमि व भित्ति के विविध श्रंगारों में विविध पर्वों पर स्वाभाविक रूप से दिखाई पड़ता है। कुछ को यहाँ उल्लिखित करने का प्रयास है यथा

1 – रंगोली – भारत के विभिन्न प्रान्तों में रंगोली के विविध स्वरुप दृष्टिगत होते हैं वर्तमान में रंगोली बनाने हेतु गेहूँ या चावल का आटा, हल्दी, विभिन्न रंगों के लकड़ी व पत्थर के बुरादे, अबीर, गुलाल, खड़िया, विविध भूसी, विविध रंगीन चूर्ण आदि प्रयुक्त होता है। इस माध्यम से भूमि को विविध रूप अलंकृत करते हैं इनमें पत्तियों, फूलों, बेलबूटों, मङ्गलमय प्रतीकों  का प्रयोग दीख पड़ता है लेकिन इस माध्यम से ईश्वर का स्वागत (Welcome to God) अभिव्यंजित होता है। विकीपीडिया के अनुसार –

“रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा और लोक कला है अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है।”

2 – माण्डना  – यह राजस्थानी लोक कला का बेहतरीन उदाहरण है वहाँ मेहँदी माण्डने की प्रथा भी पुरातन काल से प्रचलित है विवाहित, कुँवारियाँ विविध त्योहारों पर हाथ, पैरों पर मेहँदी माण्डने का कार्य उत्साह पूर्वक करती रही हैं आज यह शरीर के विविध अंगो तक विस्तार प् चूका है और पुरुष भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। राजस्थान में विविध पर्वों, विवाह समारोहों,और उत्सवों में आज भी इसकी धूम देखी जा  सकती है। यह आलेखन केवल भूमि तक सीमित नहीं है बल्कि दीवारों,खम्भों,वाहनों आदि पर भी इन्हें बनाया जाता है। दीवाली पर चमकदार रंगों से और होली पर विविध अबीर ,गुलाल व् अन्य रंगों तक से यह चित्रण किया जाता है।

3 – अल्पना – इसमें ज्यामितीय चित्रण की प्रधानता रहती है बंगाल में इसका अधिक प्रचलन है गीली खड़िया, पत्र रस, हल्दी, चावल का अहपन आदि से विभिन्न त्यौहारों पर दीवारों पर देवी देवताओं का चित्रण किया जाता है। विधिवत पूजा भी की जाती है।

4 – गोदना – शरीर की खाल पर गुदना गुदाने की प्रथा बहुत प्राचीन है इसमें कुछ भी चित्रित करवाया जा सकता है अपने ईष्ट का चित्र, नाम, गहना, पुष्प, बेल बूटे, कुल देवता, विविध वंशों से जुड़े चित्र, विविध पर्वों के आराध्य आदि।

5 – साँझी – यह कला उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में अधिक प्रचलित है इसमें सम्पूर्ण चित्रण गोबर की पतली पतली बत्तियों के माध्यम से किया जाता है इससे सम्पूर्ण आकृति को पूर्ण कर लिया जाता है और पत्तियों व गहनों का प्रयोग कर उसे और प्रभावी बनाया जाता है विविध फिल्मों में आपने ये आकृतियाँ देखि होंगी। नवरात्रि के देवी स्वरुप की परम्परागत रूप से साँझी के माध्यम से आज भी बनाया और पूजा जाता है।

6 – विविध पर्वों पर विशिष्ट कलात्मक चित्रण –

भारत में यूँ तो विविध पर्वों की लम्बी श्रृंखला कला से युक्त रही है यहाँ कुछ को देने भर का प्रयास है।

i – अहोई

ii – करवा चौथ

iii – गोवर्धन पूजा

iv – चित्र गुप्त पूजा

v  – जन्माष्टमी

vi – दुर्गा पूजा

            अन्ततः कहा जा सकता है कि भारत में पर्वों और कलाओं का अटूट सम्बन्ध है सामाजिक अभिव्यक्त का कलाएं प्रबलतम साधन हैं और भारत में उत्तरोत्तर आनन्द प्राप्ति का कला पवित्र साधन है। कला और पर्व का यह सम्मिलन हमें सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम्,से जोड़ता है।

Share:
Reading time: 1 min
शोध

LEVELS OF MEASUREMENT / मापन के स्तर

April 21, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

मापन के स्तर

मापन की दुनियाँ निराली है हमारी दृष्टि ,हमारा दृष्टिकोण जब परिमार्जित रूप से शोध का आधार तैयार करता है तब परम आवश्यक भूमिका का निर्वहन करते हैं आँकड़े। शोध हेतु सामाजिक, आर्थिक, भौतिक, मनोवैज्ञानिक जो आँकड़े प्राप्त होते हैं उनके आधार पर ही विविध मापन सम्भव होता है। इन्ही से व्यावहारिक विज्ञानों को आधार मिलता है।  एस ० एस ० स्टीवेंस महोदय ने मापन को चार स्तरों में विभाजित किया है कुछ विज्ञ जनों ने इन स्तरों को स्केल कह कर वर्णित किया है जो इस प्रकार है –

1 – शाब्दिक स्तर (Nominal Level)  or  शाब्दिक पैमाना (Nominal Scale)

2 – क्रमिक स्तर (Ordinal Level)  or  क्रमिक पैमाना (Nominal Scale)

3 – अन्तराल स्तर (Interval Level)  or अन्तराल पैमाना (Nominal Scale)

4 – आनुपातिक  स्तर (Ratio Level)  or  आनुपातिक पैमाना (Nominal Scale)

डॉ अमरजीत सिंह परिहार ने मापन के इन चार स्तरों के आधार पर मापन के चार प्रकार इस प्रकार बताए हैं

1 – शाब्दिक मापन  (Nominal Measurement)

2 – क्रमिक मापन (Ordinal Measurement)

3 – अन्तराल मापन (Interval Measurement)

4 – आनुपातिक  मापन (Ratio Measurement)

अधिगम व अध्ययन के दृष्टिकोण से विभिन्न स्तरों को इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है

1 – शाब्दिक स्तर (Nominal Level) –

इस स्तर पर केवल गुण को ध्यान में रखा जाता है चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। इसे नामित और वर्गीकृत स्तर भी कहा जाता है। व्यावहारिक विज्ञानों में इस स्तर को प्रयोग में लाया जाता है उदाहरण के रूप में रहने या निवास के आधार पर शहरी या ग्रामीण, लिङ्ग के आधार पर महिला पुरुष , अध्ययन हेतु स्नातक स्तर पर कला, विज्ञान, वाणिज्य वर्ग में विभाजित करना। इसी तरह अगर बरेली को सुरक्षा के दृष्टिकोण से 5 भागों में बांटना हो और समस्त मोहल्लों को 5 भागों में बाँटकर बरेली-1, बरेली -2,  बरेली – 3, बरेली – 4, बरेली – 5 आदि नाम दिय जाए तो इसे नामित या शाब्दिक स्तर कहेंगे।

अतः यहाँ यह कहा जा सकता है कि गुणात्मक चरों के आधार पर मापन का यह स्तर शाब्दिक स्तर (Nominal Level) कहलाता है।

2 – क्रमिक स्तर (Ordinal Level) –

इस स्तर में गुण के आधार पर प्राणी या वस्तु का मापन करते हैं और इस आधार पर वर्ग विशेष को संकेत या नाम दे दिया जाता है। इस मापनी में विशेषताओं या योग्यताओं के आधार पर एक क्रम आरोही या अवरोही बना लिया जाता है। इसी आधार पर श्रेणी या विशेष क्रम प्रथम, द्वित्तीय, तृतीय आदि विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में प्रदान किया जाता है।इस क्रमित मापनी को कोटिकरण मापनी या क्रम सूचक मापनी भी कहते हैं। श्रेष्ठता के आधार पर विश्व सुन्दरी, खिलाड़ी,नौकरी हेतु चयन, विविध सेवाओं में चयन में यही आधार बनाता है।

3 – अन्तराल स्तर (Interval Level) –

इसे मापन के स्तरों में तृतीय स्थान प्रदान किया गया है इसमें ऊपर के दो स्तरों में सुधार किया गया है यद्यपि यह वास्तविक शून्य से प्रारम्भ नहीं होता लेकिन अन्तराल बराबर रखा जाता है इसका बहुत अच्छा उदाहरण थर्मामीटर है वास्तव में अन्तराल मापनी में वस्तु या प्राणी के किसी गुण का मापन इकाइयों के माध्यम से किया जाता है। इनमें दो लगातार अंकों के बीच समान अन्तर रहता है।इस मापनी के द्वारा सापेक्षिक मापन(Relative measurement) किया जाता है न कि निरपेक्ष मापन (Absolute measurement)।

4 – आनुपातिक  स्तर (Ratio Level) –

यह उक्त तीनों मापनियों से उच्च स्तर की है इसमें उक्त तीनों की विशेषताएं समाहित रहती हैं वास्तविक शून्य बिन्दु मौजूद रहता है और यह शून्य बिन्दु कल्पित नहीं होता। लम्बाई, दूरी, भार आदि के मापन हेतु हम यहीं से प्रारम्भ करते हैं वास्तविक शून्य बिन्दु ही अनुपात मापनी का प्रारम्भिक बिंदु मन जाता है। इस मापन द्वारा प्राप्त संख्यात्मक मान बताता है कि यह दूरी उसकी दो गुनी या चार गुनी है। इसकी लम्बाई उसकी आधी है आदि अर्थात मापित शील गुणों के मध्य अनुपात  इसके द्वारा प्राप्त संख्या द्वारानिर्धारित किया जाता है। उदाहरणार्थ यदि मेरा वजन 110 कि० ग्रा० और X महोदय का 55 कि० ग्रा० है तो हम दोनों का भार अनुपात 2 :1 हुआ। इस तथ्य से यह भी स्पष्ट होता है कि यह स्तर केवल भौतिक चरों का मापन कर सकता है अभौतिक का नहीं।

Share:
Reading time: 1 min
शोध

MEASURMENT (मापन)

by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

मापन

सम्पूर्ण विश्व और इसके विविध तत्व अपने आपको मापन से पृथक नहीं कर सकते। जहाँ परिमाण है, जहाँ अंक है, जहाँ तुलना है,  MKS, FPS या CGS कोई भी  प्रणाली हो गुण, अवगुण या मानवीय चेतना का कोई भी आयाम हो मापन की परिधि में आ जाता है।

वर्तमान काल जिसे हम विज्ञान का युग कहते हैं इसकी सम्पूर्ण प्रगति का आधार यह मापन ही है।जन्म से मृत्यु तक हर आयु वर्ग में समय, दूरी, गति, धन, नौकरी, व्यवसाय, कालांश,अध्ययन, न्यादर्श हर जगह मापन है। मापन हमारे साथ इस तरह सन्नद्य  है कि हम चाह कर भी इससे अलग नहीं हो सकते। मीठा, नमकीन, ऋतु परिवर्तन, पृथ्वी परिभ्रमण सम्पूर्ण प्रकृति इसके आगोश में अपने को सुगम बनाती है। रॉस महोदय ने तो यहाँ तक कहा –

“यदि मापन के सारे यन्त्र तथा साधन इस संसार से लुप्त कर दिए जाएँ तो आधुनिक सभ्यता बालू की दीवार की तरह ढह जायेगी।“

 “If all the instruments and means of measurement were to disappear from this world, modern civilization would collapse like a wall of sand.”

आज के सभी गैजेट्स और हमारी पूरी दिनचर्या मापन से युक्त हैं।

MEANING AND DEFINITION

आशय व परिभाषा –

यद्यपि मापन को परिभाषा में बाँधना या अभिव्यक्त करना एक दुष्कर कार्य है लेकिन अधिगम योग्य बनाने हेतु कहा जा सकता है कि परिमाणात्मक रूप से अपने अवलोकन को अभिव्यक्त करना ही मापन है। वास्तव में मापन भौतिक पदार्थ की विशेषता या गुण को अंकात्मक मान प्रदान करना है। किसी व्यक्ति के गुण, बुद्धि, मानसिक स्तर या किसी भी तुलना हेतु महत्त्व पूर्ण कारक मापन है।

एस. एस. स्टीवेन्स महोदय के अनुसार –

“मापन किन्ही स्वीकृत नियमों के अनुसार वस्तुओं को अंक प्रदान करने की प्रक्रिया है। “

“Measurement is the process of assigning numbers to objects according to certain agreed rules.”

ब्रेडफील्ड व मोरडॉक के शब्दों में –

 “मापन किसी घटना के विभिन्न आयामों को प्रतीक आबण्टित करने की प्रक्रिया है जिससे उस घटना की स्थिति का यथार्थ निर्धारण किया जा सके।“

“Measurement is the process of assigning symbols to dimensions of a phenomenon in order to characterise the status of the phenomenon as precisely as possible.” – Bradfield and Mordock

हैल्म स्टेडर महोदय ने बताया –

“मापन को किसी व्यक्ति या पदार्थ में निहित विशेषताओं के आंकिक वर्णन की प्रक्रिया के रूप में पारिभाषित किया गया है।“

“Measurement has been defined as the process of obtaining a numerical description of the extent to which a person or thing possesses some characteristics.”

            उक्त परिभाषाओं के आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि मापन से वस्तुओं, व्यक्तियों को गुण धर्मों के आधार पर अंक, शब्द, अक्षर  या संकेत प्रदान किये जाते हैं।

Functions of Measurement/ मापन के कार्य –

1 –  शील गुण निर्धारण।/ Determination of Trait

2 –  तुलना / Comparison

3 – भविष्य कथन /Prediction

4 – वर्गीकरण / Classification

5 – निदान / Diagnosis

6 – निर्देशन व परामर्श / Guidance and Counseling

7 – शोध / Research

  उक्त सम्पूर्ण विवेचन यह स्पष्ट करता है कि ज्ञान के परिक्षेत्र में जो भी नए नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं मापन भी अपने परिक्षेत्र का तदनुरूप विस्तार व रूप परिवर्तन करता जा रहा है।

Share:
Reading time: 1 min
दर्शन

मीमांसा (MEEMANSA)

April 4, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

यहाँ एक बात पूर्ण रूप से स्पष्ट करना परम आवश्यक है कि यहाँ हम उस मीमांसा दर्शन की बात करने नहीं जा रहे हैं जो भारतीय दर्शनों में कर्मकाण्ड द्वारा उद्भवित दर्शनों में गिना जाता है। यहां केवल यह बताने का प्रयास है कि एम एड का विद्यार्थी विभिन्न दर्शनों की तत्त्व मीमांसा(Meta Physics), ज्ञान व तर्क मीमांसा(Epistemology and Logic), मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) कैसे करे। परीक्षा में पूछे गए प्रश्न में प्रदत्त दर्शन की उक्त मीमांसाएं कैसे लिखकर आए।

तत्त्व मीमांसा, ज्ञान व तर्क मीमांसा, मूल्य व आचार मीमांसा

(Meta Physics, Epistemology and Logic, Axiology and Ethics)

भारतीय दार्शनिक मुख्यतः उक्त मीमांसाओं के माध्यम से किसी भी दर्शन का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने की आशा उच्च शिक्षा के विद्यार्थी से करते हैं अतः यह जानना तर्क संगत होगा कि उक्त के तहत विविध दर्शनों की व्याख्या करते समय किन बातों का विशेषतः ध्यान रखा जाए। यहां हम एक एक करके इनके बारे में जानने का प्रयास करेंगे।

1  – तत्त्व मीमांसा (Meta Physics) –

जब किसी भी दर्शन की तत्त्व मीमांसा करनी होती है है तो मुख्यतः ब्रह्माण्ड के वास्तविक स्वरुप व मानवीय जीवन की तात्त्विक विवेचना की जाती है मानव जीवन के मूल उद्देश्य व उनकी प्राप्ति के साधनों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है कोई भी शिक्षा दर्शन इसमें क्या भूमिका निर्वाहित कर सकता है, तय किया जाता है वास्तव में तत्त्व मीमांसा का क्षेत्र अत्याधिक व्यापक है इसमें सृष्टि के सम्बन्ध में तत्त्व ज्ञान अर्थात सृष्टि शास्त्र (Cosmogony),  सृष्टि विज्ञान (Cosmology) और सत्ता विज्ञान (Ontology) का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत सृष्टि – सृष्टा, आत्मा -परमात्मा और जैविक जगत के साथ मानवीय जीवन की विवेचना की जाती है साथ ही अब तक जो भी सोचा विचारा और शोधा जा चुका है सभी की तात्त्विक विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की तात्विक विवेचना करते समय निम्न तथ्यों का ध्यान रखा जाना चाहिए।  –

01 – ब्रह्माण्ड का स्वरुप ?

02 – ब्रह्माण्ड का निर्माण व  निर्माता ?

03 – ब्रह्माण्ड का मूल तत्त्व

04 – ब्रह्माण्ड का अन्तिम सत्य 

05 – ब्रह्माण्ड के अस्तित्व की प्रकृति

06 – सृष्टि स्वरुप ?

07 – सृष्टि का निर्माण व  निर्माता ?

08 – आत्मा – परमात्मा ?

09 – मानव का वास्तविक स्वरुप ?

10 – अन्तिम उद्देश्य व उद्देश्य की प्राप्ति ?

2 – ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and Logic) –

जब किसी भी दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा की बात की जाती है तो उससे आशय उसमें निहित ज्ञान के वास्तविक स्वरुप तथा ज्ञान प्रदान करने वाले साधनों व विधियों से है वस्तुतः ज्ञान मीमांसा के परिक्षेत्र में मानवीय बुद्धि, उसके ज्ञान  के स्वरुप ज्ञान की प्रमाणिकता, ज्ञान की सीमाएं, इसे प्राप्त करने की विधियाँ, ज्ञान प्राप्ति के साधन ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सम्बन्ध आदि की विवेचना की जाती है जब कि तर्क मीमांसा  के परिक्षेत्र में विविध प्रमाणों, सत्य असत्य प्रमाण,तार्किक विधियों, सत्यता व भ्रम आदि की व्याख्या की जाती है तर्क व आज तक प्राप्त ज्ञान के आधार पर तार्किक विवेचना करते हुए सत्य को शोधा जाता है। सभी की ज्ञान व तर्क मीमांसा सम्बन्धी  विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा करते समय निम्न तथ्यों का ध्यान रखा जाना चाहिए।  –

01 – ज्ञान का स्वरुप ?

02 – ज्ञान प्राप्ति के साधन ?

03 – ज्ञान प्राप्ति के स्रोत ?

04 – ज्ञान प्राप्ति की विधियाँ ?

05 – ज्ञेय और ज्ञाता सम्बन्ध ?

06 – स्मरण ?

07 – विस्मरण ?

08 – सत्य व असत्य ज्ञान का अन्तर ?

09 – ज्ञान की सत्य सिद्धि हेतु तर्क प्रमाणिकता के आधार ?

10 – विविध तर्क विधियाँ ?

3 – मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) –

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि किसी भी दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा उसकी तत्व मीमांसा पर ही आधारित होती है किसी भी समाज के शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्य क्रम, शिक्षण विधियां, अनुशासन, शिक्षक व शिक्षार्थी सम्बन्धी विविध विचार मूल्य व आचार मीमांसा से ही अनुप्रेरित होते हैं कोई भी समाज अपनी नैतिकता की पराकाष्ठा हेतु विविध सामयिक मूल्यों की स्थापना पर पूरा ध्यान केंद्रित करता है और उनको स्थापित करना चाहता है। मूल्य व आचार मीमांसा के अन्तर्गत मानव समाज के जीवन हेतु आदर्श मूल्यों को विवेचित किया जाता है मूल्य विचारों और व्यवहारों को निर्देशित करते हैं नियन्त्रित करते हैं हमारा आचरण इन्ही मूल्यों को परिलक्षित करता है जीवन में कौन से कार्य किये जाने योग्य हैं और कौन से कार्य त्याज्य हैं इनका निर्धारण नीति शाश्त्र के अन्तर्गत आता है।सभी की मूल्य व आचार मीमांसा सम्बन्धी  विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा करते समय निम्न तथ्यों का चिन्तन किया  जाना चाहिए।  –

01 –  मानवीय जीवन उद्देश्य

02 – मूल उद्देश्य प्राप्ति साधन

03 – साध्य साधन सम्बन्ध

04 – उद्देश्य प्राप्ति उपाय

05 – मूल्य वरण

06 – शाश्वत मूल्य समझ

07 – नैतिकता

08 – उच्च नैतिक मानदण्ड स्थापन हेतु आवश्यक मूल्य

09 –  करने योग्य कर्म

10 –  त्याज्य कर्म  

उक्त तत्त्व मीमांसा, ज्ञान व तर्क मीमांसा, मूल्य व आचार मीमांसा को बार बार पढ़कर हृदयंगम करना है लेकिन यह याद रहे की सम्यक मीमांसा करने हेतु उस दर्शन का गहन अध्ययन परमावश्यक है जब तक दर्शन को भली भाँति अधिगमित नहीं किया जाएगा तब तक सम्यक मीमांसा करना सम्भव नहीं होगा।

Share:
Reading time: 1 min

Recent Posts

  • Report Writing
  • चातुर्मास के सृष्टि सञ्चालक -महाकाल
  • RESEARCH INTEGRITY
  • IMPACT FACTOR
  • शुभांशु शुक्ला अन्तरिक्ष से …..

My Facebook Page

https://www.facebook.com/EducationAacharya-2120400304839186/

Archives

  • July 2025
  • June 2025
  • May 2025
  • April 2025
  • March 2025
  • February 2025
  • January 2025
  • December 2024
  • November 2024
  • October 2024
  • September 2024
  • August 2024
  • July 2024
  • June 2024
  • May 2024
  • April 2024
  • March 2024
  • February 2024
  • September 2023
  • August 2023
  • July 2023
  • June 2023
  • May 2023
  • April 2023
  • March 2023
  • January 2023
  • December 2022
  • November 2022
  • October 2022
  • September 2022
  • August 2022
  • July 2022
  • June 2022
  • May 2022
  • April 2022
  • March 2022
  • February 2022
  • January 2022
  • December 2021
  • November 2021
  • January 2021
  • November 2020
  • October 2020
  • September 2020
  • August 2020
  • July 2020
  • June 2020
  • May 2020
  • April 2020
  • March 2020
  • February 2020
  • January 2020
  • December 2019
  • November 2019
  • October 2019
  • September 2019
  • August 2019
  • July 2019
  • June 2019
  • May 2019
  • April 2019
  • March 2019
  • February 2019
  • January 2019
  • December 2018
  • November 2018
  • October 2018
  • September 2018
  • August 2018
  • July 2018

Categories

  • Uncategorized
  • काव्य
  • दर्शन
  • बाल संसार
  • मनोविज्ञान
  • वाह जिन्दगी !
  • विविध
  • शिक्षा
  • शोध
  • समाज और संस्कृति
  • सांख्यिकी

© 2017 copyright PREMIUMCODING // All rights reserved
Lavander was made with love by Premiumcoding