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वाह जिन्दगी !

यौवन के इस कालखण्ड संग कदमताल कर लेता हूँ।

November 23, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जब भी मिलता है मौका, कुछ तुकबन्दी कर लेता हूँ,

ना मर्यादा से डिगजाऊँ सो तय हदबन्दी कर लेता हूँ,

भारत में कैसे रहना है ये सब मातृभूमि सिखलाती है,

इसलिए स्व शिक्षार्थियों को इकदायरे में रख लेता हूँ।

अदना सा इक कलमकार हूँ गुस्ताखियाँ  कर देता हूँ,

राष्ट्रवाद उन्नति खातिर सिर इस भूमि पर रख देता हूँ,

यहाँ की वायु अति पावन है  बस वन्दन सिखलाती है,

सो सभी बड़ों के चरणों का मैं अभिनन्दन कर लेता हूँ।

बच्चों को सिखलाने खातिर मैं सीख न कुछभी देता हूँ,

जो उनसे करवाना चाहूँ सब पहले खुद ही करलेता हूँ,

यहाँ कर्मों में सद्कर्म परखना माँ घुट्टी में पिलवाती है,

कर्म राष्ट्र हित कौन से हों, बस इतना तय कर लेता हूँ।

इकदम जाँत पाँत सङ्कीर्णता के  मनोभाव तज देता हूँ,

हम सबरे भारत वासी हैं यह जान समझ सुख लेता हूँ,

गंगाजमुनी तहज़ीब समझने को जब बुद्धि इठलाती है,

अर्थों को अच्छी तरह समझ मैं साथ साथ चल लेता हूँ।

यह देश प्रगति की राह बढ़े सो ओछा पन खो देता हूँ,

तेज थपेड़े सह सहकर नौका को सम रस  खे लेता हूँ,

भारत है देश युवा अपना, यह सब दुनियाँ बतलाती है,

यौवन के इस कालखण्ड संग कदमताल कर लेता हूँ।   

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पितृत्व का श्रृंगार है।(Pitratv Ka Shrangaar h.)

November 20, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पिता परम पिता परमेश्वर प्रदत्त अनुपम उपहार है,

बच्चों हित फलदाई वृक्ष और संगिनी का, श्रृंगार है,

सब है गर पिता साथ है बिन पिता जीवन अनाथ है,

पितृहीन बालक लाचार है, माँ का जीवन अंगार है।

बच्चों की  खिलखिलाहट व पारिवारिक संस्कार है,

अति विस्तार है उसका वह परिवार की सरकार है,

पारिवारी जनों के लिए वो, दिशाबोधक विश्वनाथ है,

हिचकोले खाती घर नैय्या का वह प्रमुख आधार है। 

बेटे बेटियों के स्वप्न पूर्णता का, वही दृढ़ आधार है,

परिश्रम लगन निष्ठा का वह साकार प्रत्यक्षाकार है,

कण्टकाकीर्ण दुरूहमार्ग पर विपत्ति में जो साथ है,

पिता कहा जाता उसे जो त्याग का खास प्रकार है।

दुनियाँ के मरुस्थल में हरियाली का एक प्रकार है,

भय, चिन्ता, असुरक्षा भाव का, वो करता संहार है,

प्रगति समृद्धि बच्चों की उसी का सर्वाधिक हाथ है,

अपेक्षित संस्कार हस्तान्तरण का वह मुख्याधार है।

बच्चों के मन मन्दिर में, जगदीश का जो प्रकार है,

मान, मर्यादा संस्थापना का, वह मुख्य मूर्तिकार है,

वन्दनीय पौरुष जगत का, वह तो मात्र इक पार्थ है,

अधिकार छोड़ कर्तव्यों का बस लगरहा अम्बार है।    

निजआदर्शों का आराधक आगत का पालनहार है,

स्वयं के सारे दुःख छिपा सर्वसुख का वह आधार है,

उससे जन्मी जो  रचना है, भविष्य में प्रकाशनार्थ है,

हर कृति को सुन्दरतम करना, पितृत्व का श्रृंगार है।

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बाल संसार

हँसते, मुस्काते, बढ़ते जाना, अच्छा लगता है।

November 12, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

किसी का भी रोना धोना ना अच्छा लगता है,

माँ काली सी शक्ति संजोना अच्छा लगता है,

रोनाधोना केवल कमजोरी का परिचायक है,

हार न मानो ऑ भिड़ जाओ अच्छा लगता है।

समस्याओं से भग जाना, ना अच्छा लगता है,

लगातार श्रम करते रहना ही सच्चा लगता है,

मुँह लटकाना खुद गिर जाना, कष्ट दायक है,

संघर्षों से सीखते जाना अब अच्छा लगता है।

खुद अपने पर अविश्वास, ना अच्छा लगता है,

होशहवास संग आत्मविश्वास अच्छा लगता है,

संयम खो अवसाद से घिरना दुःखप्रदायक है,

सकारात्मकता से भर जाना, अच्छा लगता है।

बात बात पर घबरा जाना,ना अच्छा लगता है,

खुद सबका सम्बल बनजाना अच्छा लगता है,

समस्या को मसल हलकरना आनन्ददायक है,

रणनीति बनाना, व्यूह गढ़ना, अच्छा लगता है।

झंझावातों से कतराजाना, ना अच्छा लगता है,

तूफानों में खुद नाव चलाना, अच्छा लगता है,

मात्र जो निज स्वार्थ की सोचे,वह नालायक है,

टीम को मन्जिल पर पहुँचाना अच्छा लगता है।

कुछ हारों में अश्रु गिराना,ना अच्छा लगता है,

व्यूह प्रबन्धन शक्ति संयोजन अच्छा लगता है,

नाथ कहे जागे रह,चलते रहना फलदायक है,

हँसते, मुस्काते,  बढ़ते जाना, अच्छा लगता है।

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वाह जिन्दगी !

मैं भारत हूँ, मैं चेतन हूँ, अधूरा रह नहीं सकता।

November 9, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

मैं शोला था मैं शोला हूँ मैं शबनम हो नहीं सकता,

मैं भोला था मैं भोला हूँ, मैं शातिर, हो नहीं सकता,

वो सारी कोशिशें तेरी,   सदा नाकाम  ही  होंगी ,

मैं प्यारा था, मैं मीठा था, मैं तीखा, हो नहीं सकता। 

मैं धरती हूँ, वतन रज हूँ, मैं अम्बर हो नहीं सकता,

मैं दरिया था, मैं दरिया हूँ, समन्दर हो नहीं सकता,

वो  सारी  कोशिशें  तेरी    यहाँ  औंधी  पड़ी  होंगी,

मैं दाता हूँ, बचाता हूँ, .  मैं कातिल हो नहीं सकता।

मैं सौरभ हूँ, मैं खुशबू हूँ, सड़न मैं हो नहीं सकता,

मैं रहबर हूँ, मैं अमृत हूँ मैं विषधर हो नहीं सकता,

यहाँ  मक्कारियाँ  तेरी   सभी  मुर्दा  पड़ी  होंगी,

मैं भारत हूँ वो मस्तक है किसी का हो नहीं सकता।

मैं दिनकर हूँ, मैं सूरज हूँ, अँधेरा   हो नहीं सकता,

मैं हिमगिरि हूँ हिमालय हूँ मैं छोटा हो नहीं सकता,

यहाँ शैतानियत तेरी,       सभी खण्डित पड़ी होंगी,     

मैं  भारत हूँ, मैं  चेतन हूँ,   अधूरा रह नहीं  सकता।             

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