विविध विचारशील मनुष्य के मानस में कभी कभी अद्भुत वेशकीमती विचार सृजित होते हैं जिसे कालान्तर में वह भूल जाता है। विचार गुम हो जाता है और कभी कभी चिन्तन पूर्णतः निठल्ला भी हो सकता है।
यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि सृजित विचार के संचयन हेतु मनुष्य का टाइम फ्री जोन में होना परम आवश्यक है उदाहरण के लिए मैं 58 वर्ष की आयु में चिन्तन हेतु मुक्त होना चाहता था, स्थितियाँ भी सृजित हुईं लेकिन जीविकोपार्जन व आर्थिक आवश्यकता की पूर्ती हेतु मुझे आज भी कार्य करना पड़ता है। जो स्वतंत्र चिंतन में बाधक है और मुझे समाज की समस्याओं पर चिन्तन से विरत करता है। सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है सबकी प्रगति एक साझा जिम्मेदारी है। हम नाकारा होकर स्वयम् को विरत नहीं कर सकते
आप महसूस कर रहे होंगे और वह सही है कि आज का शीर्षक है – दिशा बोधक चिन्तन।
मेरे वैश्विक समकालीन साथियो,
आज हम जिस दुनियाँ में जी रहे हैं और अपने अध्ययन, अधिगम के आधार पर चिन्तन के लायक हो सके हैं। वहाँ हमारे द्वारा जीविकोपार्जन हेतु किए कार्य, हमारा बहुमूल्य चिन्तन का समय छीन लेते हैं। निःसन्देह कार्य करना अच्छी बात है लेकिन समय का ऐसा नियोजन भी परम आवश्यक है कि हम अपने रूचि के क्षेत्र में कार्य हेतु समय निकाल सकें यथा – चिन्तन आधारित सृजन।
आप सभी ने यह महसूस किया होगा कि कभी विचारों का अँधड़ चलता है। बहुत से विचार मानस में मचलते हैं और कभी विचार शून्यता की सी स्थिति हो जाती है। कोई विचार शब्दों की लड़ी बन कागज़ पर नहीं उतर पाता। अक्सर मेरे साहित्यकार साथी, गजलकार, कवि और सार्थक बहस में प्रतिभागी मेरे मित्र यह कहते हैं कि आज पता नहीं क्या हुआ कोई विचार आया ही नहीं और कभी कहते हैं कि आज सृजन पर माँ शारदे की कृपा हो गयी
उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कोई भी समय विशेष हो सकता है और उस समय पर अन्य जीविकोपार्जन हेतु कार्य की मजबूरी दुनियाँ को कुछ सार्थकता से वंचित कर देती है।आज U.K, U.S.A, सम्पूर्ण यूरोप, सम्पूर्ण एशिया के समकालीन साथी विचारकों के विचारों से हम वंचित हैं कभी भाषा अवरोध बनती है, कभी समय। समय हो तो कई भाषाएँ सीखकर लाभ उठाया जा सकता है।
प्रश्न उठता है कि समय तो सबके पास समान है कोई इतने ही समय में विशिष्ट बन जाता है और कोई जड़ की स्थिति में रहता है। एक दिन में 86400 सैकण्ड होते हैं और इस समय का सार्थक नियोजन व उस पर अमल हमें सार्थक दिशा बोध दे सकता है। उम्र की और अच्छे स्वास्थय की एक सीमा है और सार्थक दिशाबोधक सृजन हेतु, वैश्विक समाज के सार्थक दिग्दर्शन हैं अच्छा स्वास्थय और अच्छी सोच दोनों आवश्यक है।
इस स्थिति के सम्यक विवेचन से स्पष्ट है कि गुरुओं का दायित्व और गुरुत्तर हो जाता है कि वे अपने विद्यार्थियों को उनके युवा काल में ही यह समझाएं कि वे कठोर परिश्रम और उपार्जन करें। इस आधार पर अपने लिए टाइम फ्री जोन बना सकें। चिन्तन की शक्ति पैसे से नहीं खरीदी जा सकती लेकिन धन चिन्तन में परोक्ष रूप से सहयोग तो करता है। अतिरिक्त धनभोगी को विलास की ओर ले जाकर अभिशप्त करता है। लेकिन एक चिन्तक को स्वस्थ चिन्तन की ओर ले जाकर विश्व के लिए उपयोगी बनाता है।
प्रशिक्षितऔर अप्रशिक्षित अध्यापक में अंतर देखने को मिलता है। शासन तन्त्र भले ही समझ न पाया हो कि प्रशिक्षित अध्यापकों के होते हुए भी शिक्षा मित्र को खपाने का प्रयास किया गया और उनके किसी प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं की गयी। शिक्षा स्तर को बनाए रखने हेतु शिक्षण के साथ प्रशिक्षण की व्यवस्था परमावश्यक है। इसमें शिक्षा की तकनीकी, विविध तत्सम्बन्धी साधन शिक्षण व्यवहार, शिक्षण सूत्र आदि सभी आवश्यक हैं।
शिक्षण सूत्रों के माध्यम से अधिगम स्तर को प्रभावी बनाया जा सकता है यह शिक्षण सूत्र क्या होते हैं ? विविध शिक्षा शास्त्रियों ने इस सम्बन्ध में क्या कहा और ये कौन कौन से होते हैं आइए इस पर विचार करते हैं। शिक्षण प्रक्रिया को सरल सुबोध सुरुचि पूर्ण और प्रभावशाली बनाने हेतु कुछ नियम व सिद्धान्त जो मनोवैज्ञानिकों व शिक्षा शास्त्रियों द्वारा अनुभव के आधार पर गढ़े जाते हैं शिक्षण सूत्र कहलाते हैं।
शिक्षण प्रक्रिया को व्यवस्थित व सुगम बनाने हेतु प्राप्त मार्गदर्शन जो शिक्षक द्वारा विद्यार्थियों के प्रभावी अधिगम में मदद करते हैं शिक्षण सूत्र कहलाते हैं।
शिक्षण सूत्र की परिभाषाएं / Definitions of teaching maxims –
शिक्षण सूत्र की परिभाषा बहुत सी पुस्तकों को तलाश करने पर भी प्राप्त नहीं हुई फिर अपनी बहुत पुरानी नोटबुक से परिभाषा मिली।
डॉ ० डी ० पी ० गर्ग ने बताया –
“शिक्षण सूत्र वे साधन हैं जो शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावी बनाकर अधिगम को सफल बनाने में पूर्ण सहयोग करते हैं।”
“Teaching maxims are those means which help in making learning successful by making the teaching process effective.”
बिना किसी नाम के एक सार्थक परिभाषा गूगल से प्राप्त हुई –
“शिक्षण सूत्र, शिक्षण प्रक्रिया को सरल, प्रभावी और वैज्ञानिक बनाने के लिए मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाशास्त्रियों द्वारा विकसित किए गए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं, जो शिक्षण और अधिगम को बेहतर बनाने में मदद करते हैं।”
“Teaching principles are guiding principles developed by psychologists and educationists to make the teaching process simple, effective and scientific, which helps in improving teaching and learning.”.
एक अन्य विचारक के अनुसार –
“शिक्षण सूत्र सरल दिशा निर्देश या सिद्धान्त के अतिरिक्त और कुछ नहीं है जो शिक्षकों को निर्णय लेने और शिक्षण प्रक्रिया के अनुसार कार्य करने में मदद करते हैं।”
“Teaching formulas are nothing but simple guidelines or principles that help teachers to take decisions and act accordingly in the teaching process.”
शिक्षण के प्रमुख सूत्र / Main maxims of teaching –
शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया एक अध्यापक को उसका मंतव्य दिला सकती है यदि उसके द्वारा उपयुक्त समय पर उपयुक्त शिक्षण सूत्र प्रयोग किया जाए। यहां प्रमुख सूत्रों के माध्यम से शिक्षण सूत्र को प्रस्तुत करने का प्रयास है।
01 – ज्ञात से अज्ञात की ओर / From Known to the unknown
02 – सरल से कठिन की ओर / From Simple to complex
03 – निश्चित से अनिश्चित की ओर / From Definite to indefinite
04 – विशेष से सामान्य की ओर / From Specific to general
05 – मूर्त से अमूर्त की ओर/ प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर/ From Concrete to abstract
06 – पूर्ण से अंश की ओर / From Whole to the part
07 – आगमन से निगमन की ओर /From induction to deduction
08 – विशेष से सामान्य की ओर / From the particular to the general
09 – विश्लेषण से संश्लेषण की ओर /From analysis to synthesis
10 – मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर / From psychological to logical
11 – ठोस अनुभव से युक्तियुक्त की ओर / From concrete experience to rational
12 – प्रकृति का अनुसरण / Following nature
01 – ज्ञात से अज्ञात की ओर / From Known to the unknown
यह मानवीय स्वभाव है कि जो बाते या तथ्य हमें ज्ञात हैं उनकी ओर हमारा सहज आकर्षण होता है और उस वाद विवाद में हमारी सक्रिय सहभागिता होती है और यदि उससे जोड़कर हमें कुछ नया सिखा दिया जाता है तो अधिगम तीव्र व प्रभावी होता है। उदाहर स्वरुप एक नए व्यक्ति से हमें मित्रता करने में समय लग सकता है और यदि कोइ पुराना मित्र हमारा परिचय करा दे तो क्रिया सहज व तीव्र हो जाती है।
02 – सरल से कठिन की ओर / FromSimple to complex
जो तथ्य हमें पूर्व विदित होते हैं वे हमारे लिए सरल होते हैं इसीलिये पूर्व ज्ञान से नए ज्ञान को सम्बद्ध करना आवश्यक व समय की मांग होता है। अतः शिक्षा के क्षेत्र में हम इसी व्यवस्था का अनुकरण कर विद्यार्थी को नवीनतम ज्ञान से जोड़ते हैं। इससे अधिगम को एक व्यवस्था मिलती है और नया अपेक्षाकृत कठिन ज्ञान सहजता से सम्प्रेषित हो पता है और शिक्षार्थियों को पुनर्बलन भी मिलता है इससे प्राप्त अभिप्रेरणा नए अधिगम का आधार बनती है ।
03 – निश्चित से अनिश्चित की ओर / From Definite to indefinite
जिन तथ्यों, विचारों, सिद्धान्तों से हम पूर्व परिचित होते हैं उनपर हमारा सहज विश्वास होता है और उनका सहारा लेकर या आधार लेकर हम अनिश्चित पर भी गंभीरता पूर्वक विचार करने लगते हैं। इसी आधार पर इस शिक्षण सूत्र का जन्म हुआ है। निश्चित से अनिश्चित की और बढ़ने पर अधिगम सहज हो जाता है।
04 – विशेष से सामान्य की ओर / From Specific to general
किसी भी पाठ के स्थाई व व्यवस्थि अधिगम हेतु हमें पहले तत्सम्बन्धी विशेष उदहारण, सिद्धान्त अथवा तथ्य को बताना चाहिए और फिर उसका सामान्यीकरण करना चाहिए। इससे अधिगम सहज व प्रभावी व सहज होगा।
05 – मूर्त से अमूर्त की ओर/ प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर/FromConcrete to abstract
स्थूल तथा मूर्त सहजता से अधिगमित होता है और इसका आधार बनाकर कठिन व अमूर्त को समझाया जा सकता है इसी लिए साकार ब्रह्म से निराकार ब्रह्म का विश्लेषण सरल व बोधगम्य हो जाता है। इसलिए किसी नवीन सूक्ष्म ज्ञान से जोड़ने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में स्थूल उदहारण प्रयुक्त करते हैं।
06 – पूर्ण से अंश की ओर /FromWhole to the part
पूर्ण निश्चित रूप से अंश से बड़ा होता है इसलिए पूर्ण दिखते ही अपने आप में सम्पूर्ण सामान्य ज्ञान का रेखा चित्र जेहन में समां जाता है इसलिए पहले फूल दिखाकर कर उसके विविध अंगों को समझाना सरल होता है। हाथी दिखाकर बाद में उसके विविध अंगों का विश्लेषण सरल बोधगम्य होगा।
07 – आगमन से निगमन की ओर /From induction to deduction
आगमन विधि एक पूर्व सिद्ध तथ्य नियम, सिद्धान्त के आधार पर अन्य स्थिति में भी उसकी सत्यता प्रमाणित की जाती है इसमें हम अपने उदाहरण, प्रमाण व अनुभव का आधार लेकर समझाते हैं। निगमन में पहले सामान्यीकृत सिद्धांत, तथ्य, नियम को विद्यार्थी के सामने रखते हैं और उदाहरण बाद में बताया जाता है और अधिगम स्थायित्व प्राप्त करता है। इसीलिए शिक्षण सूत्र के रूप में आगमन से निगमन की ओर रखा गया है।
08 – विशेष से सामान्य की ओर / From the particular to the general
एक अच्छे गुरु को अधिगम प्रभावी बनाने हेतु अपने शिक्षण का प्रारम्भ विशेष उदाहरणों, तथ्यों या प्रयोग के माध्यम से करना उत्तम माना जाता है यह आधार अपनी विशिष्ट प्रेरक शक्ति के कारण नियम सम्प्रत्यय का अधिगम सरल हो जाता है।
09 – विश्लेषण से संश्लेषण की ओर /From analysis to synthesis
किसी बात का पता लगाने हेतु , खोज करने के लिए, विशिष्ट अनुसंधान के लिए विश्लेषण एक स्वाभाविक, सहज व व्यवस्थित क्रमबद्ध विधि है इसके आधार पर अधिगम कार्य प्रारम्भ करके अन्ततः हम संश्लेषण की और बढ़ जाते हैं और विश्लेषण के आधार पर संश्लेषण प्रस्तुत कर परिणाम का विवेचन पूर्ण होने पर इसे अनुसन्धानपरक दृष्टिकोण के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसीलिये प्रभावी अध्यापक अपना शिक्षण हमेशा विश्लेषण से संश्लेषण की और ले जाकर प्रभावी बनाते हैं।
10 – मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर / From psychological to logical
बाल मनोविज्ञान, शिक्षा मनोविज्ञान हमें बच्चे की आवश्यकताओं, रुचियों, योग्यताओं, क्षमताओं, दृष्टिकोण आदि के अध्ययन के प्रति सचेत करते हैं मनोवैज्ञानिकता को आधार बनाकर जब अधिगम सुनिश्चित किया जाता है तो मनोवैज्ञानिकता से तर्क पूर्णता की और बढ़ना पड़ता है इससे व्यूह रचना पाठ्यक्रम सम्प्रेषण, मूल्यांकन, व पृष्ठ पोषण सभी में गुणवत्ता परक प्रगति दृष्टिगत होती है यह अध्यापक व विद्यार्थी दोनों के हिसाब से महत्त्वपूर्ण सूत्र है।
11 – ठोस अनुभव से युक्तियुक्त की ओर / From concrete experience to rational
हर समाज समय के साथ बहुत कुछ अनुभव करता है और समाज की इकाई व्यक्ति भी निरन्तर अनुभवों से सीख लेता रहता है इन अनुभवों के आधार पर उसमें एक विशिष्ट सूझ, दृष्टिकोण, नीर-क्षीर विवेक व तर्क संगत सोच का प्रादुर्भाव होता है अर्थात ठोस अनुभव नीव की ईंट का कार्य करते हैं इसके धरातल पर ही युक्तियुक्त की और बढ़ा जाता है इसी कारण यह शिक्षण सूत्र अधिगम हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है।
12 – प्रकृति का अनुसरण / Following nature –
प्रकृति हमारी प्रथम शिक्षक है और इसकी अधिगम में भूमिका असंदिग्ध है हम प्रकृति का अनुसरण कर अधिगम को कालिक व स्थाई बना सकते हैं। प्रकृति का अनुसरण ऐसा नैसर्गिक शिक्षण सूत्र है जो निर्विवाद रूप से अत्याधिक महत्त्वपूर्ण है।
उक्त सम्पूर्ण विवेचन से यह पूर्णतः स्पष्ट है कि अधिगम प्रक्रिया किसी भी स्तर की हो लेकिन शिक्षण सूत्र का ज्ञान निः सन्देह महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करता है। अध्यापक के व्यक्तित्व में निखार आता है। बिना इसके अध्यापक एक अकुशल श्रमिक की तरह ही है।
शोध का परिक्षेत्र अत्यन्त व्यापक है और किसी भी परिणाम तक पहुँचने हेतु पग पग पर तथ्यों के गुण दोष का विवेचन करने पर यथार्थ का बोध होता है शोध कार्य से सामान्यीकरण तक पहुँचने के लिए भी न्यादर्श के गुण दोषों को समझना परम आवश्यक है। यद्यपि न्यादर्श अत्याधिक उपयोगी है लेकिन इसके भी कुछ गुण दोष हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित कर सकते हैं।
MERITS OF SAMPLING
न्यादर्शकेगुण
01 – समय की बचत /Saving of time
02 – श्रम की बचत /Saving of labour
03 – गहन व सूक्ष्म अध्ययन /In-depth and detailed study
04 – प्रशासकीय सुविधा /Administrative convenience
05 – विशिष्ट दशाओं में उपयोगी /Useful in specific conditions
06 – लोच का गुण /Quality of flexibility
07 – मितव्ययता/ Economy
DEMERIS OF SAMPLING
न्यादर्शकेदोषअथवासीमाएं
01 – प्रतिनिधि न्यादर्श चयन दुष्कर / Representative sample selection is difficult
02 – पक्षपात की सम्भावना /Possibility of bias
03 – पर्याप्त ज्ञान का अभाव / Lack of sufficient knowledge
04 – विशिष्ट ज्ञान आवश्यक /Special knowledge required
05 – न्यादर्श पर स्थिर रहना कठिन /Difficult to stick to the sample
06 – न्यादर्श सार्वभौमिक विधि नहीं /Sampling is not a universal method
07 – न्यादर्शन प्रयोज्य की अस्थिरता / Instability of sampling subject
जब समंक एकत्रीकरण में कोई अंक बार बार आता है या वह पुनः पुनः दीख पड़ रहा है इसे ही आवृत्ति नाम से जाना जाता है और जितनी बार वह अंक आता है उसे उसकी आवृत्ति कहा जाएगा। मान लीजिये शिक्षा शास्त्र की परीक्षा में 50 विद्यार्थियों को इस प्रकार प्राप्तांक प्राप्त हुए।
आवृत्ति वितरण को जब हम प्रदर्शित करते हैं तो ऊपरी और निचली वर्ग सीमा को तालिका के माध्यम से निरूपित करते हैं अर्थात यह प्रत्येक वर्ग की चौड़ाई ही होती है इस समूहीकृत आवृत्ति वितरण को समावेशी वर्ग अन्तराल के आधार पर क्रमबद्ध किया जा सकता है।
वर्गअन्तरालसूत्र :-
वर्ग अन्तराल = उच्चतम सीमा – निम्नतम सीमा
अर्थात वर्ग अन्तराल ज्ञात करने के लिए किसी वर्ग की उच्चतम सीमा से उसी वर्ग की निम्नतम सीमा को घटा देते हैं.
वर्गअन्तरालहेतुउदाहरण (Example for Class Interval) –
वर्ग अन्तराल को वास्तविक ऊपरी परास तथा निचली वास्तविक परास के मध्य जो जो वास्तविक अन्तर होता है उसे ही वर्ग अंतराल कहा जाता है इसे हम निम्न उदाहरण के माध्यम से अच्छी तरह समझ सकते हैं –
(यहाँ हम ऊपर प्रयुक्त समंकों का ही प्रयोग कर रहे हैं। )
वर्ग अन्तराल (Class Interval) or C I
आवृत्ति (Freequency) or f
40 – 50
14
50 – 60
6
60 – 70
3
70 – 80
23
80 – 90
4
इस उदाहरण के माध्यम से तथ्य पूर्णतः स्पष्ट हो गए होंगे।
ममानवतावाद का उद्भव एक विशेष प्रकार की मानव स्थिति की अनुभूति पर
निर्भर है तथा वह अनुभूति इस मानवीय संवेदना की है जिससे आधुनिक काल का मानव घिरा
है, विज्ञान एवम् टैक्नोलॉजी की प्रगति से युक्त मानसिकता, विज्ञान
की मानकीकरण की विकृति, विश्व युद्ध की विभीषिकाओं की स्पष्ट अनुभूति, मानव के संत्रास,
कुण्ठा,
निराशा,
चिंता,
अकेलापन
व नीरसता की स्पष्ट अनुभूति – इसकी पृष्ठभूमि में मानवतावादी दृष्टि सर्जित होती
है प्रोटागोरस (Protagoras) ने 480 से 490 ईसा पूर्व कहा-
“मानव सभी बातों का माप दण्ड है जो है वह वास्तविक है और जो नहीं है
वह वास्तविक नहीं है।”
“Man is the measure of all things; of what is, that it is,
of what is not, that it is not.”
मानवतावाद का आशय उस वाद से है जिसमें मनुष्य के अस्तित्व को स्वीकार
किया गया है इसमें मानव ही सबकुछ है वह किसी का प्रतीक मात्र नहीं है उसकी
वैयक्तिकता पहचानी जा सकती है।
डॉ 0 राधाकृष्णन ने ऑक्सफ़ोर्ड में अपने एक भाषण में कहा था –
“Man has become the philosopher of man. A new humanism
is on the horizon. But this time it embraces the whole of mankind.”
– Dr. Radha Krishanan
“मनुष्य मनुष्य का दार्शनिक हो गया है। एक नया मानवतावाद क्षितिज पर
उदीयमान है किन्तु इस बार वह सम्पूर्ण मानवता को अपने में समेटे हुए है।”
मानवतावाद सम्बन्धी विचारधारा अनेक पाश्चात्य व भारतीय दार्शनिकों के
चिन्तन का विषय रही है डॉ राधा कृष्णन, जाकिर हुसैन, जवाहर लाल नेहरू,
विवेकानन्द,
रबीन्द्र
नाथ टैगोर सभी इसका समर्थन करते दीखते हैं यह दर्शन मानवता को दर्शाता है।
मानवतावादी दर्शन वह दर्शन है जो मनुष्य को सर्वोपरि मानता है उनके
अनुसार मनुष्य ही इस संसार का केन्द्र बिंदु है वह अपने भाग्य का निर्माण खुद करता
है।
ब्रह्मवादियों तथा निरपेक्ष वादियों के अनुसार –
“ब्रह्म कोई अतिरिक्त या पारलौकिक सत्ता नहीं है यह मनुष्य के स्वरुप
का ही एक आयाम है।”
वर्तमान में मानव पहचान की जो बेचैनी है उसके बीज इतिहास के अकुलाहट
युक्त पृष्ठों के बीच छिपे हैं इतिहास भी समस्त सृजन में मानव की भूमिका को नज़र
अन्दाज करने के पक्ष में नहीं है मैस्लो(Maslow) महोदय कहते हैं
–
“Humanism is a word which is used by writers in many
different senses, One of these implies that man makes up the entire framework
of human thought, that there is no God, no super human reality to which he can
be related or can relate himself.”
“मानवतावाद एक ऐसा शब्द है जो विभिन्न लेखकों द्वारा विभिन्न अर्थों
में प्रयुक्त किया गया है इनमें से एक में यह अर्थ निहित है कि मनुष्य मानव विचार
की समस्त पृष्ठ भूमि है, ईश्वर नहीं है, कोई अति मानवीय
वास्तविकता नहीं है जिससे मनुष्य को जोड़ा जा सके।”
वैज्ञानिक
मानवतावाद (Scientific
Humanism )-
वैज्ञानिक मानवता वाद जीवन के प्रति मानव केन्द्रित दृष्टिकोण है,
वैज्ञानिक
मानवतावाद सृष्टि के प्रति उसके दृष्टिकोण एवम् जीवन के लक्षण तथा मान्यताओं,
सत्य
के स्वरुप आदि के सम्बन्ध में विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है नेहरू जी ने
मानवतावाद एवम् वैज्ञानिक प्रवृत्ति के बीच के संश्लेषण को वैज्ञानिक मानवतावाद का
दर्जा दिया था।
वैज्ञानिक मानवतावादी सृष्टि को भ्रम न मानकर सत्य व विभिन्न
सम्भावनाओं से युक्त मानते हैं वैज्ञानिक मानवतावाद एक ऐसा दृष्टिकोण है जो केवल
वैज्ञानिक या केवल मानवीय नहीं है वैज्ञानिक मानवतावाद जीवन के प्रति मानव
केन्द्रित दृष्टिकोण है इस सम्बन्ध में साबिरा जैदी कहती हैं-
“It affirms in a resounding voice the dignity and
value of man and asserts unequivocaly that human happiness is the highest goal
of all social reforms.”
“यह मनुष्य की गरिमा व मूल्य की ध्वनि को पुनः
गुंजरित करता है और मानता है कि सभी समाज सुधारकों के लिए मनुष्य का सुख ही
सर्वोच्च भद्र या शिव है।”
वैज्ञानिक
मानवतावाद की शैक्षिक मान्यताएं (Educational premises of Scientific Humanism)-
1 – शिक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
2 – सर्जनात्मकता
3 – उत्तर दायित्व निर्वहन व स्वतन्त्रता के उचित प्रयोग हेतु शिक्षा
महत्त्वपूर्ण
4 – व्यावहारिकता व व्यवसाय प्रयोजन आवश्यक
मीमांसा
आधारित संक्षिप्त विवेचन-
किसी भी दर्शन को अधिगमित करने हेतु मीमांसाओं की महती भूमिका है
मानवतावाद के वास्तविक अर्थ को समझने हेतु उसकी तत्त्व मीमांसा (Metaphysics),
ज्ञान
व तर्क मीमांसा (Epistemology and Logic),एवं आचार व मूल्य मीमांसा (Ethics and
Axiology) संक्षेप में
प्रस्तुत हैं –
तत्त्व
मीमांसा – ये प्रकृति को मूल तत्त्व मानते हैं और किसी अलौकिक सत्ता पर
विश्वास नहीं करते। भौतिक जगत को सत्य मानते हुए मनुष्य को प्रकृति की श्रेष्ठतम
रचना स्वीकार करते हैं।
ज्ञान
व तर्क मीमांसा – इनके अनुसार सच्चे ज्ञान श्रेणी में पदार्थजन्य जगत व उसकी समस्त
क्रियाएं आती हैं विवेक आधारित ज्ञान व
तर्क की कसौटी पर खरा सत्य ही ज्ञान की श्रेणी में आएगा।
आचार व मूल्य मीमांसा –
मानवतावादियों की बड़ी संख्या प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सुन्दरता,सामाजिक
समानता, न्याय आदि को आचरण में उतारने व मूल्य के रूप में स्वीकारने की बात करते हैं इनके अनुसार
सम्पूर्ण मानवता की भलाई सबसे बड़ा मूल्य है।
मानवतावाद
की प्रमुख विशेषताएं (Chief Characteristics Of Humanism)-
1 – यह संसार सत्य है भ्रम नहीं। यह निरन्तर विकास की असीम सम्भावनाओं से
युक्त है।
2 – मानव सेवा हेतु मानवता वाद का अभ्युदय हुआ है।
3 – मानव शक्तिशाली है व अपनी समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है।
4 – मानव एक सृजनात्मक जीव है।
5 – मानव असीम प्रगति उन्मुख सम्भावनाओं से युक्त है और अपने भाग्य का
निर्माता है।
6 – मानवतावाद का मानव शिवम् व सुन्दरम की धारणा से युक्त है।
7 – मानवतावाद मानव को सबसे गुणयुक्त स्वीकार करता है।
8 – यह संस्कृति का पुनः जागरण करना चाहता है तथा यह मानवीय संस्कृति के
पुनरुद्धार हेतु विश्व रंगमञ्च पर अवतरित हुआ है।
9 – यह वाद विकासोन्मुखता पर विश्वास करता है और मानव को इस हेतु
विवेकयुक्त प्राणी स्वीकार करता है।
10 – मानवतावाद मानवीय प्रकृति को लचीला, परिवर्तनशील व
सहयोगी मानता है।
मानवतावादी
शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Humanistic Education)-
1 – आत्म विश्वास जाग्रत करना
2 – समस्त अन्तर्निहित शक्तियों का विकास
3 – मानवता का अधिकतम कल्याण
4 – मानव को सुखी बनाना
5 – समालोचनात्मक रचनात्मकता का विकास
“The cultivation of constructive criticism and a
critical constructiveness should be one of the foremost aims of education,
according to scientific humanism.” –
Sabira K Zaidi : Education and Humanism
(Indian Institute of Advanced Studies, Shimla 1971 p.110)
6 – सशक्त चेतना का विकास
7 – समाज
का विशिष्ट अंग बनाने हेतु आत्मबोध जाग्रत करना
8 – मानसिक
स्वास्थ्य
9 – मानवीय
मूल्य व सद् विवेक जागरण
10 – आत्म
अनुशासन की भावना का विकास
“Education to be complete must be human, it must
include not only the training of intellect but the refinement of the heart and
discipline of the spirit.” – Dr. Radha Krishanan
“शिक्षा पूर्ण होने के लिए मानवीय होना चाहिए,
इसमें न केवल बुद्धि का प्रशिक्षण शामिल करना चाहिए वरन ह्रदय का
परिष्करण तथा आत्मा का अनुशासन भी।”
मानवतावाद
व पाठ्यक्रम (Humanism and Curriculum)-
मानवतावादी पाठ्यक्रम में हृदय, आत्मिक विकास और
मानवता पर विशेष ध्यान देना चाहते हैं इस सम्बन्ध में डॉ 0 राधा कृष्णन के
शब्द भी यही इशारा करते हैं। – “No education can be regarded as
complete if it neglects the heart and the spirit.”
“कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं समझी जा सकती यदि वह हृदय तथा आत्मा की
उपेक्षा करती है।”
मानवतावादी भाषा के विकास के साथ मानवोपयोगी विषयों से मानव को जोड़ना
चाहते हैं इसीलिये मानवतावादी उद्देश्यानुरूप निम्न विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल
करना चाहते हैं –
शिक्षा के उद्देश्य
—————————-
विषय
मानसिक विकास
—————————- कला,
तर्क
शास्त्र, विज्ञान, गणित
शारीरिक विकास
—————————- व्यायाम, योग, शिल्प, क्रियात्मक शिक्षा
आध्यात्मिक विकास —————————- दर्शन, मूल्य शिक्षा, नीतिशास्त्र,
धर्म
शास्त्र
सामाजिक विकास
————————– इतिहास, साहित्य,
संस्कृति,
समाज
विज्ञान, दार्शनिक व शिक्षा शास्त्रियों की जीवनी
उक्त के अतिरिक्त मानवतावादी हर उस विषयवस्तु का समर्थन करते हैं जो
मानवतावादी विचार के प्रसार में आवश्यक हो।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –
ये जीवन से सम्बन्धित व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर
सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते हुए अधिगम कराना चाहते हैं इसीलिये तर्क विधि, प्रश्नोत्तर
विधि, समस्या
समाधान विधि, वाद
विवाद विधि पर विशेष जोर देते हैं ये उच्च मानवीय संवेदना को समेटे हुए इन्द्रिय
अनुभूत ज्ञान को भी विवेक और तर्क की कसौटी पर परखने के बाद आत्मसाती करण की
प्रेरणा देते हैं।
मानवतावाद
व शिक्षक (Humanism
and Teacher)-
मानवतावादी चाहते हैं की शिक्षण कार्य उन लोगों को मिले जो मानवीय
दृष्टिकोण पर बल देने वाले हों जैसा कि ब्रुबेकर (Brubacher) महोदय
कहते हैं –
“Humanism emphasises human nature and the human point
of view.”
“मानवतावाद मानव स्वभाव एवम् मानवीय दृष्टिकोण पर बल देता है।”
मानवतावादी शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अध्यापक
क्रान्तिकारी मानवतावादी हो एवम् निम्न गुणों से युक्त हो –
1 – शिक्षक, शिक्षण जैसे महान दायित्व बोध में सक्षम हो।
2 – अपने क्षेत्र का विद्वान् हो।
3 – मानसिक, आध्यात्मिक, शारीरिक, आन्तरिक आदि
विविध शक्तियों के सम्यक विकास हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन के योग्य
हो।
4 – मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समझ कर विकास का पथ प्रशस्त करने वाला
हो।
5 – सकारात्मक विकास व प्रेरणा देने में सक्षम हो।
मानवतावाद
व शिक्षार्थी (Humanism and Student)-
ये शिक्षार्थियों की स्वतन्त्रता व व्यक्तित्व का आदर करते हैं तथा शिक्षक व शिक्षार्थी के बीच शासक व शासित
जैसे सम्बन्धों के घोर विरोधी हैं। मानवतावादी प्रेम व सहयोग आधारित सम्बन्धों की
उम्मीद रखकर अध्यापकों से मानवतावादी दृष्टिकोण की अपेक्षा करते हैं और चाहते हैं
कि वे अपने बालकों को भय द्वन्द व तनाव से दूर रखें। इससे विद्यार्थियों में
मानवीय गुणों का विकास किया जा सकेगा।
शिक्षा
के अन्य विविध पक्ष –
1 – जन शिक्षा
2 – स्त्री शिक्षा
3 – व्यावसायिक शिक्षा
4 – धार्मिक शिक्षा
5 – यथार्थ शिक्षा
मूल्यांकन
(Evaluation)-
मानवतावाद
शिक्षा द्वारा मानव को मानवता का पाठ पढ़ाकर श्रेष्ठ नागरिक बनाना चाहता है यह
सम्पूर्ण मानवता को एक मानकर मनुष्य को विश्व का मूलभूत बिन्दु व केन्द्र मानता है यह धर्म,
जाति, राज्य, समाज किसी का भी विरोधी नहीं है यह मात्र मानव
मानव को अलग करने वाली संकीर्णताओं का विरोध करता है यह विध्वंसक आयुधों को उचित
नहीं समझता जिसने मानव मात्र के समक्ष अस्तित्व का खतरा पैदा कर दिया है।
ये
तर्क को ज्ञान का आधार मानते हैं इनके पाठ्यक्रम,शिक्षक, शिक्षार्थी,शिक्षण विधि विद्यालय आदि के विचारों का मूल
मन्तव्य मूल्य आधारित मानवीय गन्तव्य निर्धारित करना है। व्यक्तिगत भिन्नता,
जन शिक्षा, सामान शिक्षा,मूल्य आधारित शिक्षा,तर्क शक्ति उन्नयन,सृजनात्मकता उन्नयन सम्बन्धी विचार स्वागत
योग्य हैं लेकिन धर्म की जगह धार्मिक संकीर्णताओं से दूर रहने की प्रेरणा दी जानी
चाहिए।
Encyclopidia Britannica में मानवतावाद को सही पारिभाषित किया गया –
“Humanism is the attitude of mind which attaches
primary importance to mean and to his faculties, affairs, temporal aspirations
and well being,
“मानवता वाद मनुष्य के मस्तिष्क की वह अभिवृत्ति है जो मनुष्य को और
उसके विभिन्न पक्षों, कार्यों, इच्छाओ और
उसके हित को सर्वाधिक महत्त्व देती है।”
इन्होने
स्वार्थी और संकीर्ण मानसिकता को दिशा देने का भरपूर प्रयास किया लेकिन सार्थक
परिणाम आज भी दूर की कौड़ी जान पड़ते हैं मानवीय विकास के विभिन्न आयामों को समेटने
के बावजूद इनकी शिक्षा दर्शन को देन अप्रभावी
है इसे सच्चे धार्मिक दर्शन के आधारिक अवलम्ब की आवश्यकता है।
दीर्घ कालिक युवा ऊर्जा बनाये रखने के उपाय | Way to keep yourself young for long time
हमें जीवन पर्यन्त क्रियाशील रहने के लिए और शैथिल्य या बुढ़ापे में भी युवाओं जैसी ऊर्जा बनाये रखने हेतु मष्तिस्क की जाग्रत स्थिति बनाये रखने के लिए निम्न बिंदुओं पर कार्य करना होगा।
महत्त्वपूर्ण
तथ्य ( Important Facts )-
(0 1) – मष्तिस्क के वातायन में सकारात्मक विचारों के
नवीनतम झोंके आने दें।
(0 2) – मष्तिस्क को आदेश दें कि हमेशा सक्रिय रहना
सम्भव है।
(0 3) – हल्का व्यायाम हमारी दिनचर्या का हिस्सा होना
चाहिए।
(0 4) – प्रतिदिन प्राणायाम अवश्य किया जाना चाहिए।
(0 5) – टहलना एवम् खुश रहना चमत्कारिक प्रभाव
देगा।
(0 6) – सुपाच्य भोजन, फल आदि ग्रहण करके पेट ठीक रखा जाना चाहिए।
(0 7) – जल की पर्याप्त मात्रा का सेवन करें।
(0 8) – स्वच्छ वस्त्र ,शुचिता एवं एवम् उत्तम वातावरण में रहें।
(09) – आध्यात्मिक चिन्तन को दिनचर्या का अनिवार्य अंग
बनाएं।
(10) – कम बोलें, खुश
रहें, खुश रहने दें के सिद्धान्त पर कार्य करें।
(11) – अपने से कम उम्र के लोगों से मिलें उनके अच्छे
विचारों का स्वागत करें।
(12) – पुरानी अनावश्यक वस्तुओं के मोह से बचें।
(13) – अनावश्यक वस्तु एवम् विचार संग्रह न करें।
(14) – यथोचित व यथा समय पर्याप्त नींद लें।
उक्त तथ्यों से जुड़कर आप अवश्य कह उठेंगे,
वाह जिन्दगी।