असल में कोई भी शिक्षक उन्हीं गुणों को प्रतिबिम्बित कर सकता है जो उसमें स्वयम् हों। इसी तरह एक समावेशी शिक्षक वही हो सकता है जो समावेशन के गुणों को धारण करे। आखिर होता क्या है समावेशन ? इसे समझने हेतु हम यहाँ सहारा ले रहे हैं सोसाइटी ऑफ़ ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट (SHRM )द्वारा प्रदत्त परिभाषा का –
“ऐसे कार्य वातावरण की उपलब्धि हैं जिसमें सभी व्यक्तियों के साथ उचित और सम्मान जनक व्यवहार किया जाता है, उन्हें अवसरों और संसाधनों तक समान पहुँच होती है और वे संगठन की सफलता में पूरी तरह से योगदान दे सकते हैं।”
आंग्ल अनुवाद
“The achievement of a work environment in which all individuals are treated fairly and with respect, have equal access to opportunities and resources, and can fully contribute to the success of the organization.”
अर्थात इन कार्यों को सम्पादित कराने वाला समावेशी शिक्षक की श्रेणी में आएगा। समावेशी शिक्षक से सामाजिक और व्यावहारिक अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं अतः समावेशी अध्यापक निम्न गुण धारण करने वाला ही होगा।–
01 – श्रेष्ठ समायोजक / Best adjuster
02 – सत्य समर्थक व पक्षपात रहित / Truthful and unbiased
03 – सकारात्मक चिन्तक /Positive thinker
04 – अनुशासन प्रिय / Discipline-loving
05 – संवेदन शील व सहानुभूति युक्त / Sensitive and sympathetic
06 – सदा सक्रिय / Always active
07 – आशावादी / Optimistic
08 – सञ्चार कौशल युक्त / Having communication skills
09 – स्वमूल्याँकन के प्रति सचेत/ Conscious of self-evaluation
11 – उत्साह और उत्सुकता युक्त / Enthusiastic and curious
12 – पूर्वाग्रह मुक्त / Unprejudiced
13 – सृजनात्मक / Creative
14 – आजीवन सीखने वाला / Lifelong learner
15 – धैर्ययुक्त व सहयोगी / Patient and cooperative
16 – अच्छा श्रोता / Good listener
वास्तव में आज का समाज और कार्य प्रदाता को समावेशी शिक्षक से बहुत सी आशाएं हैं और वे चाहते भी हैं की नित्य बदलती परिस्थितियों से समावेशी अध्यापक साम्य बनाये लेकिन उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी से समाज, कार्य प्रदाता और शासन व्यवस्था सभी भागते नज़र आते हैं जबकि दोनों का संयुक्त प्रयास यथोचित परिणाम देने में समर्थ होगा।
भारत में जब हम किसी समस्या के निदान की बात करते हैं तो हमारा ध्यान शिक्षा की ओर आकर्षित होता है और जब हम शिक्षा समस्या की और दृष्टि पात करते हैं तो हमारा सम्पूर्ण ध्यान, शिक्षा व्यवस्था में परीक्षा सुधार की ओर जाता है और विविध शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि शिक्षा व्यवस्था में कतिपय सुधार अपेक्षित हैं जो समय की मांग है। वर्तमान समय में प्रगति के साथ तालमेल की आवश्यकता पूर्ति हेतु विविध आयोगों ने भी परीक्षा सुधार को आवश्यक माना और अपनी संस्तुतियां दीं।
विविध आयोगों के सुझाव / Recommendations of various commissions –
यद्यपि परीक्षा सुधार पर अलग अलग शिक्षाविदों की राय भिन्न है और क्षेत्रीयता का प्रभाव भी दृष्टिगत होता है लेकिन हम यहाँ केवल आज़ादी के बाद के कुछ आयोगों और 2020 की शिक्षा नीति के परिदृश्य में इसका अध्ययन करेंगे।
राधाकृष्णन कमीशन के सुझाव / Recommendations of Radhakrishnan Commission –
राधाकृष्णन कमीशन ने परीक्षा प्रणाली में सुधार हेतु निम्न सुझावों की ओर ध्यानाकर्षित किया – 1 – रटने की योग्यता की परीक्षा समाप्त हो।/The test of rote learning ability should be abolished.
– रटने की जगह विश्लेषण,संश्लेषण,व ज्ञान को महत्ता 2 – आवश्यकतानुसार पृथक मूल्यांकन विधियों का प्रयोग/Use of different evaluation methods as per the need – वाद विवाद, कार्य कलाप,परियोजना कार्य आदि
3 – मूल्याङ्कन प्रक्रिया वार्षिक न होकर वर्ष पर्यन्त हो /The evaluation process should be year-round instead of annual
4 – परीक्षा के महत्त्व में कमी/Reduction in the importance of exams
5 – परीक्षा पैटर्न में परिवर्तन / Change in exam pattern
6 – तनाव में कमी के प्रयास / Efforts to reduce stress
मुदालियर कमीशन के सुझाव / Recommendations of Mudaliar Commission –
मुदालियर कमीशन ने परीक्षा प्रणाली में सुधार हेतु निम्न सुझावों की संस्तुति की –
1 – वाह्य परीक्षा की संख्याओं में कमी / Reduction in the number of external exams
2 – वस्तुनिष्ठता का सम्यक प्रयोग / Proper use of objectivity
3 – व्यक्तिपरकता के प्रभाव में कमी / Reduction in the influence of subjectivity
4 – रटने की शक्ति को हतोत्साहित करना / Discouraging rote learning
भारत ऋषियों मुनियों की ज्ञान परम्परा से जुड़ा है। हमारे पूर्वज, ऋषि, मुनि ने आदि काल से आत्म को समझने की कोशिश की, इस नश्वर संसार से उसका क्या सम्बन्ध रहा। इस शोध में बहुत से पड़ाव और तत्व शामिल होते चले गए। क्रमशः अन्तिम सत्य और मानव व्यक्तित्व का अध्ययन करने की विशद आवश्यकता महसूस की गयी। सत्य और अंतिम सत्य की तलाश का कार्य शिक्षा के माध्यम से बखूबी अंजाम दिया गया और मानव व्यक्तित्व का ज्ञान मनोविज्ञान की श्रेणी में आया। भारत में शिक्षा मनोविज्ञान परम सत्य के दार्शनिक सत्य पर अवलम्बित रहा।
मनोविज्ञान को मन का विज्ञान, व्यवहार के विज्ञान आदि नामों से भी जाना गया। व्यावहारिक पक्ष जुड़ने की कारण इसकी आवश्यकता ने नित्य नए आकाश छुए और आज इसका परिक्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। सम्पूर्ण की बात न कर आज हम केवल शिक्षा मनोविज्ञान के सम्बन्ध में विचार करेंगे। प्रसिद्द भारतीय विचारक एस ० के ० मंगल अपनी पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान के पृष्ठ 21 पर लिखते हैं –
“शिक्षा मनोविज्ञान व्यावहारिक मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें मनोविज्ञान विषय के नियम, सिद्धान्त एवं क्रिया विधि आदि को शिक्षा के क्षेत्र में काम में लाने का प्रयत्न किया जाता है।”
आंग्ल अनुवाद
“Educational psychology is that branch of practical psychology in which an attempt is made to use the rules, principles and methods of psychology in the field of education.”
EDUCATIONAL PSYCHOLOGY: Concept & definitions
शैक्षिक मनोविज्ञान: अवधारणा और परिभाषाएँ –
हमारे यहाँ सब कुछ पाश्चात्य ज्ञान से तलाशने की आदत पड़ी और आजादी के बाद भी शासन उसी से प्रभावित रहा इसीलिये भी हम परमुखापेक्षी होते हुए बात की शुरुआत अरस्तु से करते हैं मनोविज्ञान विकास अवधारणा को स्पष्ट करते हुए स्किनर महोदय का मानना है कि –
“शिक्षा मनोविज्ञान का आरम्भ अरस्तु के समय से माना जा सकता है। पर शिक्षा मनोविज्ञान के विज्ञान की उत्पत्ति यूरोप में पेस्टोलॉजी, हर्बर्ट, और फ्रोबेल के कार्यों से हुई, जिन्होंने शिक्षा को मनोवैज्ञानिक बनाने का प्रयास किया।”
“Educational psychology can be traced back to the time of Aristotle. But the science of educational psychology originated in Europe with the work of Pestalozzi, Herbart, and Froebel, Who tried to make education psychological.”
शिक्षा के द्वारा सत्य विवेचित, शोधित, स्थापित होता है और मानव मन उसे निर्दिष्ट करता है विविध अवधारणायें शिक्षा मनोविज्ञान की महती आवश्यकता अनुभूत करते हैं और विविध विज्ञ जन उसे इस तरह पारिभाषित करते हैं।
सीखने सिखाने को बुनियादी आवश्यकता मानते हुए स्किनर महोदय कहते हैं –
“शिक्षा मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जो शिक्षण एवम् सीखने से सम्बन्धित है।”
“Educational Psychology is that branch of psychology which deals with teaching and learning.” Skinner, 1958, p.1
कुछ इसी तरह की भावों की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है क्रो व क्रो के इन विचारों में –
“शिक्षा मनोविज्ञान व्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक के सीखने सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन और व्याख्या करता है।”
“Educational Psychology describes and explains the learning experiences of an individual from birth through old age.” – Crow & Crow, 1973, p.7
समाज और शिक्षा को अभिन्न मानते हुए नौल व अन्य कहते हैं –
” शिक्षा मनोविज्ञान मुख्य रूप से शिक्षा की सामाजिक प्रक्रिया से परिवर्तित या निर्देशित होने वाले मानव व्यवहार के अध्ययन से सम्बन्धित है।”
“Educational Psychology is concerned primarily with the study of human behaviour as it is changed or directed under the social process of education”
– Noll & others: Journal of Educational Psychology, 1948, p.361
प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक पील महोदय ने संक्षिप्त व सार गर्भित परिभाषा दी है –
“शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा का विज्ञान है। “
“Educational Psychology is the science of Education.” – Peel,1956, p.8
शिक्षा मनोविज्ञान का क्षेत्र
Scope of Educational Psychology-
सम्पूर्ण परिवेश नित्यप्रति बदल रहा है यह परिवर्तन प्रकृति का नियम है बदलती हुई इस दुनिया की समस्याएं भी नित्य नया नया आकार ले रही हैं ऐसी स्थिति में इसका निश्चित क्षेत्र परिसीमन सम्भव नहीं है और इसे अपरिमित स्वीकार करना पड़ेगा चूँकि यहाँ हम शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र की बात कर रहे हैं इसलिए कुछ बिन्दु स्पष्टीकरण हेतु अधिगमकर्ता के दृष्टिकोण से रखने का प्रयास है। –
01 – विशेष योग्यता अध्ययन /Special ability study
02 – वंशानुक्रम वातावरण अध्ययन / Heredity, environment study
03 – सीखने सम्बन्धी अनुभव अध्ययन / Learning experience study
04 – मूल प्रवृत्तियों का अध्ययन / Basic instinct study
05 – परिस्थितिगत व्यवहार का अध्ययन / Study of situational behaviour
06 – प्रेरणाओं के प्रभाव का अध्ययन / Study of the effect of motivations
07 – मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक प्रतिक्रियायों का अध्ययन / Study of mental, physical and emotional reactions
08 – तत्सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन / Study of related problems
09 – शिक्षा के अंगो सम्बन्धी अध्ययन / Study related to parts of education
10 – विविध गुण अवगुण अध्ययन / Study of various merits and demerits
उक्त कुछ बिंदु देने का प्रयास अवश्य किया गया है लेकिन इसके अतिरिक्त इससे अधिक बिन्दु इसमें शामिल किये जा सकते हैं जैसा कि डगलस व हॉलेंड के इन विचारों से स्पष्ट है –
“शिक्षा मनोविज्ञान की विषय सामग्री शिक्षा की प्रक्रियाओं में भाग लेने वाले व्यक्ति की प्रकृति, मानसिक जीवन और व्यवहार है।”
“The subject matter of Educational Psychology is the nature, mental life and behaviour of the individual undergoing the process of education.” – Douglas & Holland, pp 29-30
इसकी व्यापकता को समझने हेतु स्किनर के ये शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं –
“शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में वह सब ज्ञान और विधियां सम्मिलित हैं, जो सीखने की प्रक्रिया से अधिक अच्छी प्रकार समझने और अधिक कुशलता से निर्देशित करने के लिए आवश्यक है। ”
“Educational psychology takes for its province all information and techniques pertinent to a better understanding and a more efficient direction of the learning process.” – Skinner
सीखने के स्थानान्तरण से आशय किसी सीखे हुए कार्य या सीखे हुए विषय का विविध परिस्थितियों में प्रयोग करने से है। जब कोई मानव किसी विषय या कौशल या सीखा गया या अर्जित ज्ञान अन्य स्थितियों में प्रयोग करना है तो इसे प्रशिक्षण का या अधिगम का स्थानान्तरण कहा जाता है।इसे पारिभाषित करते हुए क्रो व क्रो महोदय कहते हैं –
“सीखने के एक क्षेत्र में प्राप्त होने वाले ज्ञान या कुशलताओं का तथा सोचने, अनुभव करने और कार्य करने की आदतों का, सीखने के दूसरे क्षेत्र में प्रयोग करना साधारणतः प्रशिक्षण का स्थानान्तरण कहा जाता है।”
“The carry-over of habits of thinking, feeling or working of knowledge or of skills, from one learning area to another, usually is referred to as the transfer of training.” 1973, p.323
अधिगम के स्थानान्तरण को समझाते हुए कोलेनसिक महोदय कहते हैं –
“स्थानान्तरण, पहली परिस्थिति से प्राप्त ज्ञान, कुशलता, आदतों, अभियोग्यताओं या अन्य क्रियाओं का दूसरी परिस्थिति में प्रयोग करना है।”
“Transfer is the application of carry over the knowledge, skills, habits, attitudes or other responses from one situation in which time are initially acquired to some other situation.”
लगभग मिलते जुलते विचार कई विद्वानों ने सम्प्रेषित किये उनमें से एक विद्वान सोरेनसन महोदय ने सरल शब्दों में अभिव्यक्ति इस प्रकार दी –
“स्थानान्तरण में एक उपस्थिति में अर्जित ज्ञान,प्रशिक्षण और आदतों का किसी दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरित किये जाने का उल्लेख होता है।”
“Transfer refers to the transfer of knowledge, training and habits acquired in one situation to another situation.” 1948, p.387
स्थानान्तरण के प्रकार / Types of transfer
प्रशिक्षण का स्थानान्तरण मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है –
1-सकारात्मक अधिगम -स्थानान्तरण (Positive transfer of learning)
2-नकारात्मक अधिगम -स्थानान्तरण (Negative transfer of learning)
कुछ अन्य विचारक इसे निम्न दो भागों में भी बाँटते हैं।
1-उदग्र अधिगम स्थानान्तरण / Vertical transfer of learning
2-क्षैतिज अधिगम स्थानान्तरण / Horizontal transfer of learning
or
2-समानान्तर अधिगम स्थानान्तरण / Parallel transfer of learning
अधिगम स्थानान्तरण के सिद्धान्त / Principles of Transfer of Learning –
1 – मन का अनुशासन अवलम्बित शक्ति सिद्धान्त / Discipline of the mind based power theory –
इस सम्बन्ध में प्रसिद्द भारतीय दार्शनिक डॉ ० एस ० एस ० माथुर महोदय अपनी पुस्तक ‘शिक्षा मनोविज्ञान’ के पृष्ठ 358 पर लिखते हैं –
“सामान्य रूप से स्मृति सतर्कता, कल्पना, अवधान, इच्छा शक्ति व भाव आदि मस्तिष्क की शक्तियाँ एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं और यह भी मन जाता है कि इनमें से प्रत्येक सुनिश्चित इकाई के रूप में हैं।”
आंग्ल अनुवाद –
“Generally the powers of the brain like memory, alertness, imagination, attention, will power and emotions are independent of each other and it is also believed that each of these exists as a definite unit.”
इसी सम्बन्ध में प्रसिद्द शिक्षा विद एस ० के ० मंगल ने उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हुए अपनी पुस्तक ‘शिक्षा मनोविज्ञान’ के पृष्ठ 282 – 283 पर लिखा –
आंग्ल अनुवाद –
“Generally the powers of the brain like memory, alertness, imagination, attention, will power and emotions are independent of each other and it is also believed that each of these exists as a definite unit.”
इसी सम्बन्ध में प्रसिद्द शिक्षा विद एस ० के ० मंगल ने उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हुए अपनी पुस्तक ‘शिक्षा मनोविज्ञान’ के पृष्ठ 282 – 283 पर लिखा –
2 – समान तत्वों का सिद्धान्त / Principle of similar elements –
समान तत्वों का सिद्धान्त की महत्ता को बताते हुएप्रसिद्द भारतीय दार्शनिक डॉ ० एस ० एस ० माथुर महोदय अपनी पुस्तक ‘शिक्षा मनोविज्ञान’ के पृष्ठ 359 पर क्रो एवं क्रो के विचार को उद्धृत किया है –
“आधुनिक मनोविज्ञान वेत्ता इस तथ्य पर आश्वस्त हैं कि मानसिक क्रियाएं ; जैसे विचार करना, अवधान, स्मृति और तर्क आदि;अलग अलग अपना अस्तित्व नहीं रखती हैं। परन्तु किसी भी स्थिति में ये सब मानसिक क्रियाएं एक दूसरे से मिलकर क्रियाशील होती हैं। “
आंग्ल अनुवाद –
“Modern psychologists are convinced of the fact that mental functions; such as thinking, attention, memory and reasoning etc.; do not exist separately. But in any situation, all these mental functions function in conjunction with each other.”
विविध मनोवैज्ञानिकों ने विविध परीक्षणों के माध्यम से पाया कि अनेक परीक्षणों में जिनमें क्रियाएं समान थीं स्थानान्तरण पाया गया। गेट्स महोदय लिखते हैं –
“यह देखा गया है की समान तत्वों से अधिगमान्तरण का अनुपात अधिक होता है।”
“It has been observed that the rate of transfer is higher with similar elements.”
3 – सामान्य और विशिष्ट तत्वों का सिद्धान्त (Theory of ‘G’ and ‘S’ factors)
मानव में दो प्रकार की बुद्धि होती है सामान्य और विशिष्ट और इन्हीं का सम्बन्ध सामान्य योग्यता और विशिष्ट योग्यता से होता है स्पीयरमैन और विविध मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इन दोनों प्रकार की योग्यता में से स्थानांतरण केवल सामान्य योग्यता का होता है। इसी लिए कुछ विद्वान् इसे सामान्यीकरण का सिद्धान्त (Principle of generalization) कहना पसंद करते हैं भाटिया महोदय के अनुसार –
“विशिष्ट योग्यताओं का स्थानान्तरण नहीं होता है, पर सामान्य योग्यता का कुछ होता है।”
“There is no transfer in special abilities but there is some in general ability.”
अधिगम स्थानान्तरण हेतु आवश्यक तत्व / Essential elements for transfer of learning
01-निश्चित परिस्थिति /Certain situation –
किसी विशेष परिस्थिति का ज्ञान या कौशल न होने पर पहले सीखे ज्ञान या कौशल का प्रयोग विकल्प रूप में हमारे द्वारा किया जाता है लेकिन रायबर्न महोदय का मानना है –
“स्थानान्तरण, निश्चित परिस्थितियों में निश्चित मात्रा में हो सकता है।”
“There is a certain amount of transference that can take place under certain conditions.” – Ryburn (p213)
02- अधिगमार्थी की सामान्य बुद्धि / General intelligence of the learner
गैरट (Garret p 318 -319) महोदय के अनुसार –
“हाई स्कूल में अध्ययन करने वाले सामान्य बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ छात्रों में निम्नतम सामान्य बुद्धि के छात्रों की अपेक्षा स्थानान्तरण करने की योग्यता 20 गुना अधिक होती है।”
“The best average students in high school have a 20 times greater ability to transfer than those with the lowest average intelligence.”
03- अधिगमार्थी की शैक्षिक योग्यता / Educational qualification of the learner
मर्सेल महोदय के अनुसार –
“जब हम किसी बात को वास्तव में सीख लेते हैं तभी उसका स्थानान्तरण कर सकते हैं।”
“Whenever we have really learned anything, we can transfer it.” Mursell (p.225)
04- समान विषयवस्तु /Same subject matter
भाटिया (Bhatiya, p 315 ) महोदय के अनुसार -“यदि दो विषय पूर्ण रूप से समान हैं, तो 100 प्रतिशत स्थानान्तरण हो सकता है। यदि विषय बिलकुल भिन्न है, तो तनिक भी स्थानान्तरण न होना सम्भव है। ”
“If two subjects are completely similar, there may be 100 percent transfer. If the subjects are completely different, there may be no transfer at all.”
05- समान अध्ययन विधियां / Common study methods –
भाटिया (Bhatiya, p 215 ) के अनुसार –
“जिन विषयों की अध्ययन विधियां समान होती हैं उनमें थोड़ा पर वास्तविक स्थानान्तरण होता है।”
“There is little but real transfer between subjects that have similar study methods.”
06- स्थानान्तरण हेतु प्रशिक्षण / Training for transfer
गैरेट(Garrett, p.319) ने लिखा है – “विद्यालय कार्य में स्थानान्तरण की सर्वोत्तम विधि है -स्थानान्तरण की शिक्षा देना।”
“The best way to get transfer in school work is to reach for transfer.”
07- रूचि, अरुचि के विषयों का प्रभाव / Effect of subjects of interest and disinterest-
रूचि के विषय में अधिगम और अन्य क्षेत्र हेतु स्थानान्तरण सुगम व तीव्र गति से होगा क्यों कि एक क्षेत्र की निष्पत्ति से दूसरे क्षेत्र की निष्पत्ति प्रभावित होती है। जैसा कि यलोन व वीनस्टीन ने भी लिखा है। –
“अधिगम के स्थानान्तरण से अभिप्राय है -एक कार्य की निष्पत्ति दूसरी निष्पत्ति से प्रभावित होती है। “
“Transfer of learning means that performance on one task is affected by performance of another task.” – Yelon and Weinstein
08 – अधिगमार्थी की इच्छा /Learner’s desire –
मर्सेल (Mursel, p. 302 ) के अनुसार
“किसी नई परिस्थिति की अधिगम स्थानान्तरण की एक अनिवार्य शर्त है कि सीखने वाले में उसे हस्तान्तरित करने की इच्छा अवश्य होनी चाहिए।”
“An essential condition for the transfer of learning to a new situation is that the learner must have the desire to transfer it.”
अधिगम स्थानान्तरण में शिक्षक की भूमिका/ Role of teacher in transfer of learning –
जिस तरह से माता पिता एक शिशु के लिए पूरी दुनियाँ होते हैं ठीक उसी तरह अध्यापक बालक के विद्यालय में प्रवेश के उपरान्त उसकी दुनियाँ की सर्वाधिक प्रेरक शक्ति है इस लिए उसकी प्रेरणा और अधिगम स्थानान्तरण में उसकी भूमिका सर्वाधिक है शिक्षा के अंगों व विविध तत्व कैसे अधिगम स्थानान्तरण में सहायक हो सकते हैं। आइये देखते हैं इन बिन्दुओं के आलोक में –
01 – पाठ्यक्रम / Curriculum
02 – शिक्षण विधियाँ / Teaching Methods
03 – अनुशासन / Discipline
04 – अध्यापक भूमिका / Teacher Role
05 – छात्र / Students
06 – पूर्व ज्ञान व नवीन ज्ञान की सम्बद्धता /Relation between previous knowledge and new knowledge
07 – सैद्धान्तिकता व व्यवहार का समन्वय / Coordination of theory and practice
08 – स्वप्रयत्न को बढ़ावा / Promotion of self-effort
09 – नवीन अधिगम साधनों की पारस्परिक निर्भरता बोध / Understanding the interdependence of new learning tools
10 – सकारात्मक स्थानान्तरण हेतु प्रेरकत्व / Motivation for positive transfer
उक्त विविध तत्वों से यह स्पष्ट है कि उक्त के अतिरिक्त और भी बहुत सारे बिंदु हो सकते हैं जहां अध्यापक बालक की अधिगम स्तनांतरण में मदद करे क्यों कि आज दुनियाँ बहुत तेजी से बदल रही है और शिक्षा के सारे अंग बदलते परिवेश के साथ तालमेल करने में जुटे हैं। लेकिन अध्यापक भी समाज का अंग है और यदि समाज ,अध्यापक को समस्या मुक्त रखने में भूमिका का सम्यक निर्वहन करेगा तो अधिगम स्थानान्तरण सम्यक व विकासोन्मुख होगा।
ज्यों ही हमारी आँख एक नवजात शिशु के रूप में खुलती है हमें विलक्षण जगत के दर्शन होते हैं और बहुत सारे बन्धनों से हम बँधते जाते हैं इस अद्भुत सृष्टि का सृजन करने वाला सृष्टा हमारी ज्ञान परिधि से दूर रहता है और हम उसे ईष्ट या ईश कहते हैं और हम सब ईश अंश है वह पूर्ण है हम उसके अंश मात्र हैं सृजन की सम्पूर्ण शक्ति उस परम पिता में सन्निहित है लेकिन वह सृजन की शक्ति मानव में भी निहित है। जिसे सृजनात्मकता कहते हैं।
सृजनात्मकता से आशय / Meaning of creativity –
दुनियाँ में विध्वंश और सृजन की शक्तियाँ विद्यमान हैं जिन व्यक्तित्वों को दीर्घ काल तक याद रखा जाता है वे सृजन की शक्ति से संपन्न होते हैं आज विद्यार्थियों को सृजनात्मकता से जोड़ने के लिए यह परमावश्यक है कि उन्हें प्रारम्भ से एक वातावरण प्रदान किया जाए जो नवनिर्माण में सहयोगी हो। सृजनात्मकता से आशय उन शक्तियों से है जो आने वाले कल के लिए नव सिद्धान्त, नव वस्तु, नवोन्मेषी नियम या उस विचार को जन्म देते हैं जो आने वाले कल की प्रगति में सहयोगी हो।ऐसी शक्ति या क्षमता सृजनात्मकता कहलाती है।
सृजनात्मकता सम्बन्धी विविध परिभाषाएं
Various definitions of creativity –
विविध विज्ञ जनों ने अपने विचार स्तर के आधार पर सृजनात्मकता को पारिभाषित करने का प्रयास किया है कुछ प्रसिद्द विचारकों की परिभाषाएं दृष्टव्य हैं।
क्रो एवम् क्रो के अनुसार
“सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को व्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है।”
“Creativity is a mental process to express the original outcomes.”
ड्रेवडाहल (Drevdahal) के अनुसार –
“सृजनात्मकता व्यक्ति की वह योग्यता है जिसके द्वारा वह उन वस्तुओं या विचारों का उत्पादन करता है जो अनिवार्य रूप से नए हों और जिन्हे वह व्यक्ति पहले से न जानता हो।”
“Creativity is the capacity of a person to produce composition, products or ideas which are essentially new or novel and previously unknown to the producer.”
Skinner(स्किनर) महोदय के अनुसार
“सृजनात्मक चिन्तन का अर्थ है कि व्यक्ति की भविष्यवाणियां या निष्कर्ष नवीन, मौलिक, अन्वेषणात्मक तथा असाधारण हों। सृजनात्मक चिन्तक वह है जो नए क्षेत्र की खोज करता है, नए निरीक्षण करता है, नई भविष्यवाणियां करता है और नए निष्कर्ष निकालता है।”
“Creative thinking means that the predictions and or inferences for the individual are new, original, ingenious, unusual. The creative thinker is one who explores new areas and makes new observations, new predictions, new inferences.” 1973 p 529
स्टेन (Sten) महोदय के अनुसार
“जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो, जो किसी समय में समूह द्वारा उपयोगी मान्य हो, वह कार्य सृजनात्मक कहलाता है।”
“When it results in a novel work that is accept as tenable or useful or satisfying by a group at some point in time.”
कॉल एवम् ब्रूस (Colle and Bruce) के अनुसार
“सृजनात्मक एक मौलिक उत्पादन के रूप में मानव मन को ग्रहण करके अभिव्यक्त करने और गुणांकन करने की योग्यता एवम् क्रिया है।”
“Creativity is an ability and activity of man’s mind to group, express and appreciate is the form of an original product.”
सृजनात्मकता के कारक / Factors of creativity –
सृजनात्मक मानव होने के लिए उसमें कुछ तत्वों का समावेशन आवश्यक है जिन्हे कुछ विद्वानों ने आवश्यक सोपानों के रूप में भी वर्णित किया है। मन (Munn)महोदय ने सृजनात्मकता के चार कारकों का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं।
01 – तैयारी (Preparation )
02 – इन्क्यूबेशन Incubation -(समस्या से अलगाव)
03 – प्रेरणा व सहज बोध (Motivation & Illumination)
04 – जाँच पड़ताल व पुनरावृत्ति (Verification & Revision)
गिलफोर्ड [Guilford, J.P] के अनुसार
इन्होंने भी सृजनात्मकता हेतु चार कारकों को महत्त्वपूर्ण माना, जो इस प्रकार हैं –
01 – वर्तमान परिस्थिति से परे जाने की योग्यता (Ability to go beyond the current situation)
02 – समस्या की पुनर्व्याख्या (Re- explanation of Problem)
03 – सामन्जस्य (Adjustment)
04 – अन्यों के विचारों में परिवर्तन (Changing the thought of others)
सृजनात्मकता का पोषण / Nurturing of creativity –
सृजनात्मकता पर न तो किसी का एकाधिकार है और न यह प्रतिभा सम्पन्न लोगों की चेरी है। यह एक दिन में नहीं आती बल्कि निरन्तर चिंतन का परिणाम है। माता, पिता, अध्यापक, विद्यालय, मोटिवेशनल स्पीकर,पुस्तकें सभी इसमें अपनी भूमिका अभिनीत करते हैं। यह ईश्वर प्रदत्त व अर्जित ऐसा गन है जो स्वभाव का अंग बन जाता है और फिर उसी तरह की आदतों का निर्माण होता है। संस्थानों व अध्यापकों द्वारा निम्न बिन्दुओं के आलोक में सृजनात्मकता का पोषण किया जा सकता है।–
01 -स्वप्रेरकत्व को प्रश्रय / fostering self-motivation
02 – स्वविवेक आधारित उत्तर देने की स्वतन्त्रता / Freedom to answer based on one’s own discretion
03- स्वअभिव्यक्ति के अवसर / Opportunities for self expression
04 – मौलिकता को प्रोत्साहन / Encourage originality
05 – लचीलेपन की ग्राह्यता / Flexibility of acceptance
06 – उचित अवसरों की उपलब्धता / Availability of appropriate opportunities
07 – स्वस्थ आदतों का विकास / Development of healthy habits
08 – स्वयं के आदर्श का प्रस्तुतीकरण / Presentation of self-ideal
09 – मूल्याँकन प्रणाली में सुधार / Improvement in the evaluation system
10 – सामुदायिक सृजनात्मक प्रस्तुतियाँ / Community creative presentations
11 – सृजनात्मक चिन्तन अवरोध से बचाव / Avoiding the blockage of creative thinking
12 – झिझक दूर करना / remove hesitation
13 – उचित वातावरण प्रदान करना / provide appropriate enviro
प्रशिक्षितऔर अप्रशिक्षित अध्यापक में अंतर देखने को मिलता है। शासन तन्त्र भले ही समझ न पाया हो कि प्रशिक्षित अध्यापकों के होते हुए भी शिक्षा मित्र को खपाने का प्रयास किया गया और उनके किसी प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं की गयी। शिक्षा स्तर को बनाए रखने हेतु शिक्षण के साथ प्रशिक्षण की व्यवस्था परमावश्यक है। इसमें शिक्षा की तकनीकी, विविध तत्सम्बन्धी साधन शिक्षण व्यवहार, शिक्षण सूत्र आदि सभी आवश्यक हैं।
शिक्षण सूत्रों के माध्यम से अधिगम स्तर को प्रभावी बनाया जा सकता है यह शिक्षण सूत्र क्या होते हैं ? विविध शिक्षा शास्त्रियों ने इस सम्बन्ध में क्या कहा और ये कौन कौन से होते हैं आइए इस पर विचार करते हैं। शिक्षण प्रक्रिया को सरल सुबोध सुरुचि पूर्ण और प्रभावशाली बनाने हेतु कुछ नियम व सिद्धान्त जो मनोवैज्ञानिकों व शिक्षा शास्त्रियों द्वारा अनुभव के आधार पर गढ़े जाते हैं शिक्षण सूत्र कहलाते हैं।
शिक्षण प्रक्रिया को व्यवस्थित व सुगम बनाने हेतु प्राप्त मार्गदर्शन जो शिक्षक द्वारा विद्यार्थियों के प्रभावी अधिगम में मदद करते हैं शिक्षण सूत्र कहलाते हैं।
शिक्षण सूत्र की परिभाषाएं / Definitions of teaching maxims –
शिक्षण सूत्र की परिभाषा बहुत सी पुस्तकों को तलाश करने पर भी प्राप्त नहीं हुई फिर अपनी बहुत पुरानी नोटबुक से परिभाषा मिली।
डॉ ० डी ० पी ० गर्ग ने बताया –
“शिक्षण सूत्र वे साधन हैं जो शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावी बनाकर अधिगम को सफल बनाने में पूर्ण सहयोग करते हैं।”
“Teaching maxims are those means which help in making learning successful by making the teaching process effective.”
बिना किसी नाम के एक सार्थक परिभाषा गूगल से प्राप्त हुई –
“शिक्षण सूत्र, शिक्षण प्रक्रिया को सरल, प्रभावी और वैज्ञानिक बनाने के लिए मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाशास्त्रियों द्वारा विकसित किए गए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं, जो शिक्षण और अधिगम को बेहतर बनाने में मदद करते हैं।”
“Teaching principles are guiding principles developed by psychologists and educationists to make the teaching process simple, effective and scientific, which helps in improving teaching and learning.”.
एक अन्य विचारक के अनुसार –
“शिक्षण सूत्र सरल दिशा निर्देश या सिद्धान्त के अतिरिक्त और कुछ नहीं है जो शिक्षकों को निर्णय लेने और शिक्षण प्रक्रिया के अनुसार कार्य करने में मदद करते हैं।”
“Teaching formulas are nothing but simple guidelines or principles that help teachers to take decisions and act accordingly in the teaching process.”
शिक्षण के प्रमुख सूत्र / Main maxims of teaching –
शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया एक अध्यापक को उसका मंतव्य दिला सकती है यदि उसके द्वारा उपयुक्त समय पर उपयुक्त शिक्षण सूत्र प्रयोग किया जाए। यहां प्रमुख सूत्रों के माध्यम से शिक्षण सूत्र को प्रस्तुत करने का प्रयास है।
01 – ज्ञात से अज्ञात की ओर / From Known to the unknown
02 – सरल से कठिन की ओर / From Simple to complex
03 – निश्चित से अनिश्चित की ओर / From Definite to indefinite
04 – विशेष से सामान्य की ओर / From Specific to general
05 – मूर्त से अमूर्त की ओर/ प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर/ From Concrete to abstract
06 – पूर्ण से अंश की ओर / From Whole to the part
07 – आगमन से निगमन की ओर /From induction to deduction
08 – विशेष से सामान्य की ओर / From the particular to the general
09 – विश्लेषण से संश्लेषण की ओर /From analysis to synthesis
10 – मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर / From psychological to logical
11 – ठोस अनुभव से युक्तियुक्त की ओर / From concrete experience to rational
12 – प्रकृति का अनुसरण / Following nature
01 – ज्ञात से अज्ञात की ओर / From Known to the unknown
यह मानवीय स्वभाव है कि जो बाते या तथ्य हमें ज्ञात हैं उनकी ओर हमारा सहज आकर्षण होता है और उस वाद विवाद में हमारी सक्रिय सहभागिता होती है और यदि उससे जोड़कर हमें कुछ नया सिखा दिया जाता है तो अधिगम तीव्र व प्रभावी होता है। उदाहर स्वरुप एक नए व्यक्ति से हमें मित्रता करने में समय लग सकता है और यदि कोइ पुराना मित्र हमारा परिचय करा दे तो क्रिया सहज व तीव्र हो जाती है।
02 – सरल से कठिन की ओर / FromSimple to complex
जो तथ्य हमें पूर्व विदित होते हैं वे हमारे लिए सरल होते हैं इसीलिये पूर्व ज्ञान से नए ज्ञान को सम्बद्ध करना आवश्यक व समय की मांग होता है। अतः शिक्षा के क्षेत्र में हम इसी व्यवस्था का अनुकरण कर विद्यार्थी को नवीनतम ज्ञान से जोड़ते हैं। इससे अधिगम को एक व्यवस्था मिलती है और नया अपेक्षाकृत कठिन ज्ञान सहजता से सम्प्रेषित हो पता है और शिक्षार्थियों को पुनर्बलन भी मिलता है इससे प्राप्त अभिप्रेरणा नए अधिगम का आधार बनती है ।
03 – निश्चित से अनिश्चित की ओर / From Definite to indefinite
जिन तथ्यों, विचारों, सिद्धान्तों से हम पूर्व परिचित होते हैं उनपर हमारा सहज विश्वास होता है और उनका सहारा लेकर या आधार लेकर हम अनिश्चित पर भी गंभीरता पूर्वक विचार करने लगते हैं। इसी आधार पर इस शिक्षण सूत्र का जन्म हुआ है। निश्चित से अनिश्चित की और बढ़ने पर अधिगम सहज हो जाता है।
04 – विशेष से सामान्य की ओर / From Specific to general
किसी भी पाठ के स्थाई व व्यवस्थि अधिगम हेतु हमें पहले तत्सम्बन्धी विशेष उदहारण, सिद्धान्त अथवा तथ्य को बताना चाहिए और फिर उसका सामान्यीकरण करना चाहिए। इससे अधिगम सहज व प्रभावी व सहज होगा।
05 – मूर्त से अमूर्त की ओर/ प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर/FromConcrete to abstract
स्थूल तथा मूर्त सहजता से अधिगमित होता है और इसका आधार बनाकर कठिन व अमूर्त को समझाया जा सकता है इसी लिए साकार ब्रह्म से निराकार ब्रह्म का विश्लेषण सरल व बोधगम्य हो जाता है। इसलिए किसी नवीन सूक्ष्म ज्ञान से जोड़ने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में स्थूल उदहारण प्रयुक्त करते हैं।
06 – पूर्ण से अंश की ओर /FromWhole to the part
पूर्ण निश्चित रूप से अंश से बड़ा होता है इसलिए पूर्ण दिखते ही अपने आप में सम्पूर्ण सामान्य ज्ञान का रेखा चित्र जेहन में समां जाता है इसलिए पहले फूल दिखाकर कर उसके विविध अंगों को समझाना सरल होता है। हाथी दिखाकर बाद में उसके विविध अंगों का विश्लेषण सरल बोधगम्य होगा।
07 – आगमन से निगमन की ओर /From induction to deduction
आगमन विधि एक पूर्व सिद्ध तथ्य नियम, सिद्धान्त के आधार पर अन्य स्थिति में भी उसकी सत्यता प्रमाणित की जाती है इसमें हम अपने उदाहरण, प्रमाण व अनुभव का आधार लेकर समझाते हैं। निगमन में पहले सामान्यीकृत सिद्धांत, तथ्य, नियम को विद्यार्थी के सामने रखते हैं और उदाहरण बाद में बताया जाता है और अधिगम स्थायित्व प्राप्त करता है। इसीलिए शिक्षण सूत्र के रूप में आगमन से निगमन की ओर रखा गया है।
08 – विशेष से सामान्य की ओर / From the particular to the general
एक अच्छे गुरु को अधिगम प्रभावी बनाने हेतु अपने शिक्षण का प्रारम्भ विशेष उदाहरणों, तथ्यों या प्रयोग के माध्यम से करना उत्तम माना जाता है यह आधार अपनी विशिष्ट प्रेरक शक्ति के कारण नियम सम्प्रत्यय का अधिगम सरल हो जाता है।
09 – विश्लेषण से संश्लेषण की ओर /From analysis to synthesis
किसी बात का पता लगाने हेतु , खोज करने के लिए, विशिष्ट अनुसंधान के लिए विश्लेषण एक स्वाभाविक, सहज व व्यवस्थित क्रमबद्ध विधि है इसके आधार पर अधिगम कार्य प्रारम्भ करके अन्ततः हम संश्लेषण की और बढ़ जाते हैं और विश्लेषण के आधार पर संश्लेषण प्रस्तुत कर परिणाम का विवेचन पूर्ण होने पर इसे अनुसन्धानपरक दृष्टिकोण के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसीलिये प्रभावी अध्यापक अपना शिक्षण हमेशा विश्लेषण से संश्लेषण की और ले जाकर प्रभावी बनाते हैं।
10 – मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर / From psychological to logical
बाल मनोविज्ञान, शिक्षा मनोविज्ञान हमें बच्चे की आवश्यकताओं, रुचियों, योग्यताओं, क्षमताओं, दृष्टिकोण आदि के अध्ययन के प्रति सचेत करते हैं मनोवैज्ञानिकता को आधार बनाकर जब अधिगम सुनिश्चित किया जाता है तो मनोवैज्ञानिकता से तर्क पूर्णता की और बढ़ना पड़ता है इससे व्यूह रचना पाठ्यक्रम सम्प्रेषण, मूल्यांकन, व पृष्ठ पोषण सभी में गुणवत्ता परक प्रगति दृष्टिगत होती है यह अध्यापक व विद्यार्थी दोनों के हिसाब से महत्त्वपूर्ण सूत्र है।
11 – ठोस अनुभव से युक्तियुक्त की ओर / From concrete experience to rational
हर समाज समय के साथ बहुत कुछ अनुभव करता है और समाज की इकाई व्यक्ति भी निरन्तर अनुभवों से सीख लेता रहता है इन अनुभवों के आधार पर उसमें एक विशिष्ट सूझ, दृष्टिकोण, नीर-क्षीर विवेक व तर्क संगत सोच का प्रादुर्भाव होता है अर्थात ठोस अनुभव नीव की ईंट का कार्य करते हैं इसके धरातल पर ही युक्तियुक्त की और बढ़ा जाता है इसी कारण यह शिक्षण सूत्र अधिगम हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है।
12 – प्रकृति का अनुसरण / Following nature –
प्रकृति हमारी प्रथम शिक्षक है और इसकी अधिगम में भूमिका असंदिग्ध है हम प्रकृति का अनुसरण कर अधिगम को कालिक व स्थाई बना सकते हैं। प्रकृति का अनुसरण ऐसा नैसर्गिक शिक्षण सूत्र है जो निर्विवाद रूप से अत्याधिक महत्त्वपूर्ण है।
उक्त सम्पूर्ण विवेचन से यह पूर्णतः स्पष्ट है कि अधिगम प्रक्रिया किसी भी स्तर की हो लेकिन शिक्षण सूत्र का ज्ञान निः सन्देह महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करता है। अध्यापक के व्यक्तित्व में निखार आता है। बिना इसके अध्यापक एक अकुशल श्रमिक की तरह ही है।
कर्ट लेविन महोदय मूलतः एक जर्मन मनोवैज्ञानिक थे इनका 1890 में हुआ और ये बाद में अमेरिका जाकर बस गए अपने शोध के आधार पर इन्होने 1917 में मनोविज्ञान के क्षेत्र सिद्धान्त पर महत्त्व पूर्ण कार्य किया। अमेरिका के स्टेन फोर्ड(Stanford) और आईऔवा (Iowa) विश्वविद्यालय में इन्होने प्रोफेसर के रूप में योगदान दिया।
कर्ट लेविन महोदय ने अपने क्षेत्र सिद्धान्त सम्बन्धी विचारों को अभिव्यक्त करते हुए कहा
“मानव व्यवहार व्यक्ति और वातावरण दोनों का प्रतिफल है। जिसे सांकेतिक रूप में B = f (P.E) द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। “
“Human behaviour is the function of both the person and the environment expressed is symbolic term B = f (P.E).”
यहाँ
B = Behaviour (व्यवहार)
P = Person (व्यक्ति )
f = Field (क्षेत्र )
E = Environment (वातावरण)
लेविन द्वारा जो उक्त शब्द प्रयोग में लाये गए इन सबके साथ व्यवहार में मनोवैज्ञानिक शब्द भी शामिल है जैसे व्यवहार से आशय मनोवैज्ञानिक व्यवहार से है इनकी फील्ड साइकोलॉजी(Field Psychology) को टोपोलॉजिकल साइकोलॉजी (Topological Psychology) व वेक्टर साइकोलॉजी (Vector Psychology) नाम से भी जानते हैं।
लेविन के क्षेत्र सिद्धान्त में शामिल है जीवन परिक्षेत्र, वेक्टर्स व कर्षण तथा तलरूप (Topology)
जीवन परिक्षेत्र –
[वेक्टर (प्रेरक शक्ति)→ मनोवैज्ञानिक व्यक्ति ( P ) ⇶बाधाएं ⇶ मनोवैज्ञानिक वातावरण + बाधाएं ⇉⇉⇉→ लक्ष्य] जीवन क्षेत्र के बाहर का घेरा
वेक्टर्स व कर्षण –
लेविन ने अपने क्षेत्र सिद्धान्त को समझाने में जो वेक्टर्स और कर्षण का प्रयोग किया है उसका आशय यह है कि मानव के जीवन परिक्षेत्र में दो तरह की शक्तियां कार्य करती हैं जिनको हम सकारात्मक कर्षण शक्ति व नकारात्मक कर्षण शक्ति कह सकते हैं जीवन दायरे में लक्ष्य की और ले जाने वाली शक्ति सकारात्मक कर्षण शक्ति कहलाती है और लक्ष्य से दूर ले जाने वाली नकारात्मक कर्षण शक्ति कहलाती है।
इन विशिष्ट कर्षण शक्तियों की वजह से व्यक्ति लक्ष्य की ओर या लक्ष्य से दूर भागता है। इनके प्रभाव से ही लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में बढ़ने हेतु पर्याप्त प्रोत्साहन, प्रेरणा या विपरीत दिशा हतोत्साह का अनुभव करता है।
तल रूप (TPOPLOGY) –
यह अवधारण लेविन महोदय को गणित के परिक्षेत्र से प्राप्त हुई गणित में तलरूप प्रदर्शन ज्यामितीय आकृतियों का प्रयोग होता है इसी अभिव्यक्ति को भीतरी (Inside) और बाहरी (Outside) तथा सीमा रेखा (Boundary) द्वारा होती है। कौन किसके बाहर , कौन किसके भीतर, कौन किसके पीछे है। इसी कारण टोपोलॉजी की भाषा में अण्डाकार आकृति, गोल आकृति, अनियमित बहुभुज में इनकी रचना और आकृतियों में इतनी विविधता होने के बाद भी कोई अन्तर नहीं माना जाता। लेविन ने टोपोलॉजी की अवधारणा का मानव के जीवन परिक्षेत्र में प्रत्यक्षीकरण और अन्तःक्रियाओं के परिणामस्वरूप विविध बदलावों को दिखाने के लिए बहुत अच्छा उपयोग किया।
Learning and outcomes : Lewin’sField Theory –
अधिगम का सम्बन्ध मानव के व्यवहार में आने वाले परिवर्तन से है व्यक्ति के व्यवहार में होने वाला यह परिवर्तन क्षेत्र सिद्धांत के आधार पर इस प्रकार समझाया जा सकता है।
लेविन यह मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का एक जीवन दायरा होता है और उसी के मनोवैज्ञानिक दायरे में वह विचरण कर रहा होता है अपने जीवन दायरे के बारे में उसका खुद का प्रत्यक्षीकरण होता है अपनी इसी संज्ञानात्मक संरचना के आधार पर उसे तत्कालीन परिस्थिति और उसमें लक्ष्य प्राप्ति हेतु की जाने वाली क्रियाओं का बोध होता है इस लक्ष्य प्राप्ति हेतु उसे मनोवैज्ञानिक तनाव होता है जो दो तरह से दूर हो सकता है एक तो यह कि उसे लक्ष्य की प्राप्ति हो जाए या फिर दूसरे इस तरह कि वह अपने जीवन दायरे का पुनः व्यवस्थापन करे। उदाहरण स्वरुप IAS का सपना लेकर चलने वाला असफल होने पर पुनः नए ढंग से तैयारी करे या किसी और पद से जुड़ने के प्रयास में परिवर्तन करे।
अधिगम की यह मनोदशा लेविन के अनुसार यह सिद्ध करती है कि लक्ष्य प्राप्ति हेतु परिस्थिति व समय विशेष पर व्यक्ति अपने जीवन दायरे में परिवर्तन करता है और इसके तीन आधार होते हैं –
01 — भेदी करण [Differentiation]
02 — सामान्यीकरण [Generalization]
03 — पुनः संरचना [Re- structuring]
लेविन की इस अधिगम प्रक्रियाओं या व्यवहार परिवर्तन को बोध गम्य बनाने हेतु भारतीय विद्वान एस ० के ० मंगल महोदय ने निम्न तथ्यों या बिन्दुओं को समाहित किया गया जिससे इसकी व्यवहारिकता दृष्टिगत होती है।
01 — अभिप्रेरणा और अधिगम [Motivation and learning]
02 — समस्या समाधान योहयता का विकास [Development of problem solving ability]
03 — आदतों का निर्माण [Habit Formation]
04 — अधिगम व बौद्धिकता पूर्ण व्यवहार [Learning and intelligent behaviour]
EDUCATIONAL IMPLICATIONS OF FIELD THEORY
क्षेत्र सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता –
01 — अध्यापक द्वारा व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर पृथक निर्देश/Separate instruction by the teacher based on individual differences
02 — उद्देश्य व लक्ष्य स्पष्टीकरण से उसकी प्राप्ति / Achievement of objectives and goals through clarification
03 — सूझबूझ व अन्तःदृष्टि का विकास / Development of understanding and insight
04 — अधिगम क्षेत्र का उचित नियोजन, संगठन व व्यवस्थीकरण / Proper planning, organization and systematization of the learning area
05 — विभेदीकरण, सामान्यीकरण व संरचनाकरण का उपयुक्त प्रशिक्षण / Appropriate training of differentiation, generalization and structuring
06 — अधिगम का उचित नियोजन व्यवस्था तथा प्रबन्धीकरण / Proper planning and management of learning
07 — ‘जीवन दायरे के बाहर का प्रभाव नहीं’ विचार का अधिगम में प्रयोग / Use of the idea of ’no influence from outside the sphere of life’ in learning
अधिगम या सीखना ही वह जादुई शब्द है जो हमें मानवों की पंक्ति में खड़ा करता है सभी मानव जीवन में नित्य नये अनुभवों को अधिगमित कर व्यवहार में लाते हैं अनुभव, शब्दावली, व्यवहार सभी में नित्य संशोधन और प्रगति की यह यात्रा ही अधिगम है यह केवल पुस्तकें एक निर्धारित समयावधि में हमें नहीं सिखातीं बल्कि हम जीवन पर्यन्त इस मानसिक प्रक्रिया का आनन्द उठाते हैं।
अधिगम या सीखना एक जन्मजात प्रक्रिया है सीखना अनुभवजन्य है विविध विचारकों ने अधिगम या सीखने को इस प्रकार पारिभाषित किया गया है कुछ परिभाषाएं इस प्रकार हैं –
गेट्स व अन्य
“अनुभव के द्वारा व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को सीखना या अधिगम कहते हैं।” –
“Learning is the modification of behaviour through experiences,” 1946,p 318
किंग्सले एवं गैरी
“अभ्यास अथवा प्रशिक्षण के फलस्वरूप नवीन तरीके से व्यवहार करने अथवा व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं। “
“Learning is the process by which behaviour is originated or changed through practice and training.” 1957, p.12
मॉर्गन व गिल्लीलैंड के अनुसार –
“Learning is some modification in the behaviour of the organism as a result of experience which is retained for at least a certain period of time.”
“सीखना अनुभव के परिणामस्वरूप जीव के व्यवहार में कुछ संशोधन है जो कम से कम एक निश्चित अवधि तक बरकरार रहता है।”
क्रो व क्रो के अनुसार –
“सीखना आदतों,ज्ञान और अभिवृत्तियों का अर्जन है। इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित हैं और इसकी शुरुवात व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है। इसके माध्यम से व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्त्तन होता रहता है यह व्यक्ति को अपने अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती है। “
“Learning is the acquisition of habits, knowledge and attitudes, it involves new ways of doing things, and it operates in an individual’s attempts to overcome obstacles or to adjust to new situations. It represents progressive change in behaviour…… It enables him to satisfy interests or to attain goals.” 1973. p.225
FACTOR INFLUENSING LEARNING / सीखने को प्रभावित करने वाले कारक –
अधिगम को प्रभावित करने वाले कारकों पर यदि यथार्थ चिन्तन, मन्थन किया जाए तो अत्याधिक विस्तार में जाने की आवश्यकता महसूस होगी। हम यहाँ स्नातक व स्नातकोत्तर के दृष्टिकोण से व भारतीय परिवेश के उच्च शिक्षा स्तर के अधिगम प्रभावी कारकों का अध्ययन करेंगे। उच्च शिक्षा की संस्थाएं जो अस्तित्व में हैं उनमें लगभग 80 % स्ववित्त पोषित संस्थान हैं और 20 % सरकारी। इन्हें सरकारी प्रशासनिक व्यवस्था के साथ व्यक्तिगत प्रबन्धन के द्वारा चलाया जाता है। ऐसी स्थिति में निम्न पाँच महत्त्वपूर्ण कारक अधिगम को प्रभावित करने वाले नज़र आते हैं साथ ही अन्य विविध तत्वों पर भी विचार करना होगा –
01 – प्रबन्धन व विश्वविद्यालय से सम्बन्धित कारक / Factors related to management and university
02 – अधिगमार्थी सम्बन्धित कारक / Learner related factors
03 – शिक्षक सम्बन्धी कारक / Teacher related factors
04 – पाठ्यक्रम सम्बन्धी कारक / Curriculam related factors
05 – प्रक्रिया से सम्बन्धित कारक / Process related factors
01 – प्रबन्धन व विश्वविद्यालय से सम्बन्धित कारक / Factors related to management and university
(A) – महाविद्यालय प्रबन्धन का अधिगम पर प्रभाव
(B) – विश्वविद्यालय का अधिगम पर प्रभाव
02 – अधिगमार्थी सम्बन्धित कारक / Learner related factors –
यहाँ दृष्टिकोण व विद्यार्थी की विविध क्षमताएं सीधे सीधे अधिगम पर प्रभाव डालते हैं
(A) – मानसिक स्वास्थय / Mental health
(B) – शारीरिक स्वास्थय / Physical health
(C) – मूलभूत क्षमता / Basic capability
(D) – अभिप्रेरणा स्तर / Motivation level
(E) – सकारात्मक दृष्टिकोण / Positive attitude
(F) – दृढ़ इच्छा शक्ति / Strong will power
(G) – महत्वाकांक्षा / Ambition
03 – शिक्षक सम्बन्धी कारक / Teacher related factors
(A) – व्यक्तित्व / Personality
(B) – शिक्षण कला / Pedagogy
(C) – शिक्षण कौशल / Teaching skills
(D) – शिक्षण सूत्र / Teaching formula
(E) – मानसिक स्वास्थय / Mental health
(F) – समायोजन स्तर / Adjustment level
04 – पाठ्यक्रम सम्बन्धी कारक / Curriculam related factors –
(A) – यथार्थ धरातल आधारित पाठ्यक्रम / real ground based curriculum
05 – प्रक्रिया से सम्बन्धित कारक / Process related factors
(A) – परिस्थिति / Situation.
(B) – वातावरण / Environment
(C) – संसाधन / Resources
अन्य विविध कारक / Other miscellaneous factors –
(A) – स्मरण / Remembrance
(B) – विस्मरण / Oblivion / Forgetting
(C) – थकान / Fatigue
(D) – ध्यान केन्द्रीयकरण / Concentration of attention
(E) – अभिप्रेरणा नियोजन /motivation planning
कैली महोदय के अनुसार –
“अभिप्रेरणा, अधिगम प्रक्रिया के उचित व्यवस्थापन में केन्द्रीय कारक होता है। किसी प्रकार की भी अभिप्रेरणा सभी प्रकार के अधिगम में अवश्य उपस्थित रहनी चाहिए।”
आंग्ल अनुवाद –
“Motivation is a central factor in the proper organization of the learning process. Motivation of any kind must be present in all types of learning.”
वैदिक शिक्षा के उत्तरकाल के उपरान्त उसमें आई कतिपय कमियों के निवारणार्थ कतिपय परिवर्तनों की आहट महसूस होने लगी बलि प्रथा समापन , सर्व जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा आदि की आवश्यकता महसूस होने लगी ऐसे काल में महान शिक्षक व धर्म पथ निर्देशक महात्मा बुद्ध ने कुछ वैदिक और कुछ आवश्यक नवीन तथ्यों का समावेशन कर एक विशिष्ट शिक्षा पद्धति का विकास किया जिसे बौद्ध शिक्षा के नाम से जाना जाता है यद्यपि इसे धरातल वैदिक शिक्षा से मिला था इसीलिये आर ० के ० मुकर्जी ने अपनी पुस्तक एन्सिएंट इण्डियन एजुकेशन के पृष्ठ 374 पर लिखा –
“Buddhist education rightly regarded is but a phase of the ancient Hindu or Brahmanical system of education.” R.K.Mookerji : Ancient Indian Education, p.374
बौद्धशिक्षाव्यवस्था / Buddhist Education System –
बौद्ध शिक्षा व्यवस्था के अध्ययन हेतु सुविधा की दृष्टि से दो भागों प्राथमिक और उच्च शिक्षा में बाँट कर अध्ययन करेंगे। पहले प्राथमिक शिक्षा पर विचार करते हैं
प्राथमिकशिक्षा –
बौद्ध शिक्षा व्यवस्था में प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र मठ थे पहले यहाँ केवल धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था थी लेकिन ब्राह्मणीय शिक्षा से प्रतिस्पर्धा के कारण सांसारिक शिक्षा भी दी जानी लगी। 7 वीं शताब्दी में आए चीनी यात्री व्हेनसाँग के लेखों में उल्लिखित है कि प्राथमिक शिक्षा 6 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती थी और 6 माह तक पढ़ाई जाने वाली पुस्तक सिद्धिरस्तु में 49 अक्षर थे। इसके बाद शब्द विद्या, शिल्पस्थान विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या, अध्यात्म विद्या आदि पांच विद्याओं के अध्ययन का विधान था। अध्ययन का माध्यम पाली भाषा थी।
उच्च शिक्षा / Higher Education – उक्त पाँच विद्याओं का अध्ययन करने के उपरान्त प्राथमिक शिक्षा पूर्ण होती थी तथा उच्च शिक्षा का श्री गणेश होता था। यह शिक्षा बौद्ध मठों में दी जाती थी इसकी प्राप्ति उपरान्त विशेषज्ञता हासिल होती थी। धर्म, व्याकरण, दर्शन, औषधि विज्ञान, ज्योतिष आदि का अधिगम कर विशेष योग्यता की लब्धि होती थी। ए ० एस ० अल्तेकर महोदय ने लिखा –
“मठों ने अपनी उच्च शिक्षा की योग्यता से, जहाँ अध्ययन करने के लिए कोरिया, चीन, तिब्बत,और जावा ऐसे सुदूर देशों के छात्र आकर्षित होते थे, भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को ऊँचा उठा दिया। ”
“The monasteries raised the international status of India by the efficiency of their higher education, which attracted students from distant countries like Korea, China, Tibet and Jawa.” – A.S.Altekar, Education in Ancient India, p.234
वास्तव में उस काल में शिक्षा का उत्थान हुआ। नालन्दा, विक्रम शिला, ओदन्तपुरी, जगद्दला, नदिया आदि उच्च शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। नालन्दा विश्वविद्यालय को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था यहाँ लगभग 20,000 विद्यार्थियों को 4000 भिक्षुओं द्वारा शैक्षिक कार्य सम्पन्न कराया जाता था . लगभग 800 वर्षों तक भारतीय दर्शन,कला और ज्ञान का प्रसार करने वाला यह अद्भुत केन्द्र बख्तियार खिलजी द्वारा धूल धूसरित कर दिया गया। बी ० पी ० जौहरी, कुलपति, आगरा विश्व विद्यालय, आगरा ने तत्कालीन शिक्षा के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक ‘भारतीय शिक्षा का इतिहास’ में पृष्ठ 22 पर लिखा –
“विश्व विद्यालय में बौद्ध धर्म, जैन धर्म, वैदिक धर्म, वेदों, व्याकरण,ज्योतिष,पुराणों दर्शन शास्त्र और ओषधि विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी।‘’
“Buddhism, Jainism, Vedic religion, Vedas, grammar, astrology, Puranas, philosophy and pharmaceutical science were taught in the university.”
बौद्ध शिक्षा की विशेषताएं / Features of Buddhist education –
बौद्ध शिक्षा व्यवस्था में यज्ञ का स्थान संघ को स्थानान्तरित हो गया बौद्ध संघ की शिक्षा पद्धति इन्हीं संघों पर आधारित थी प्रसिद्द शिक्षाविद आर ० के ० मुकर्जी ने बताया –
“बौद्ध शिक्षा पद्धति प्रायः बौद्ध संघ की पद्धति है। जिस प्रकार वैदिक युग में यज्ञ संस्कृति के केंद्र थे उसी प्रकार बौद्ध युग में संघ शिक्षा और विद्या के केन्द्र थे। बौद्ध संसार में अपने संघों से पृथक या स्वतंत्र रूप में शिक्षा प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं था।”
“The Buddhist system is practically that of the Buddhist order or Sangha. Buddhist education and learning centred round monasteries as Vedic culture centred round the sacrifice. The Buddhist world did not offer any educational opportunities apart from or independently of its monasteries. All education sacred as well as secular, was in the hands of monks,”
बौद्ध संघों ने ज्ञान का जो पथ आलोकित किया उस शिक्षा व्यवस्था की विशेषताओं को बिन्दुवार देने का प्रयास परिलक्षित है –
एफ ० ई ० केई के अनुसार -” विद्याध्ययन आरम्भ करने की आयु 8 वर्ष थी। प्रवेश के बाद छात्र ‘श्रमण’ ‘सामनेर’ या नवशिष्य कहलाता था।”
According to F.E.K.E. – “The age for starting studies was 8 years. After admission, the student was called ‘Shraman’, ‘Samner’ or Navashishya.”
04 – प्रब्रज्या संस्कार –प्रवेश के समय पबज्जा नामक संस्कार होता था। जिसे प्रव्रज्या संस्कार भी कहा जाता था पबज्जा का अर्थ होता है बाहर जाना। विनय पिटक के अनुसार पबज्जा संस्कार के समय होने वाली क्रिया इस प्रकार थी -श्रमण सर के बाल मुण्डवा कर पीत वस्त्र धारण करता था मठ के भिक्षुओं के चरणों में श्रद्धावनत होने के उपरान्त पालथी मारकर बैठ जाता था और मठ का वरिष्ठ भिक्षु उससे तीन बार कहलवाता था –
05 – उप सम्पदा संस्कार – 8(श्रमण) +12(अध्ययन) = 20 भिक्षु (संघ सदस्य ) → तत्पश्चात ‘उपसम्पदा संस्कार’
आगरा विश्वविद्यालय के तत्कालीनकुलपति बी ० पी ० जौहरी महोदय ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय शिक्षा का इतिहास’ में बताया –
” ‘उपसम्पदा संस्कार’ संघ के कम से कम 10 योग्य भिक्षुओं की उपस्थिति में होता था। उनमें से एक श्रमण का परिचय कराता था। उसके बाद अन्य भिक्षु उनसे अनेक प्रश्न पूछते थे। उनके उत्तर सुननने के बाद उपस्थित भिक्षु यह निर्णय करते थे कि नवशिष्य ‘उपसम्पदा’ ग्रहण करने का अधिकारी है या नहीं। “
“The ‘Upasampada Sanskar’ took place in the presence of at least 10 qualified monks of the Sangha. One of them would introduce the Shramana. After that the other monks would ask him a number of questions. After hearing his answers, the monks present would decide whether Is the new disciple entitled to receive ‘Upasampada’ or not?
06 – अध्ययन अवधि –
8 वर्ष पर श्रमण के रूप में प्रवेश →12वर्ष (पबज्जा उपरान्त अध्ययन) + ‘उपसम्पदा संस्कार'(10 वर्ष ) → कुल अध्ययन अवधि 22 वर्ष
07 – विद्यार्थी नियम – बौद्ध शिक्षा प्रणाली में श्रमणों हेतु भिक्षाटन, भोजन, वस्त्र – तिसिवरा, स्नान ,अनुशासन आदि के सम्बन्ध में पूर्व निर्धारित कठोर नियम थे।
08 – शिक्षण विधि – श्रवण. मनन. आवृत्ति,वाद विवाद,तर्क, व्याख्या, विश्लेषण आदि विधियों का प्रयोग होता था। आर ० के ० मुकर्जी ने अपनी पुस्तक में ह्वेन सांग के इन विचारों को शिक्षण विधि के सम्बन्ध में उद्धृत किया –
” शिक्षक पाठ्य वास्तु का सामान्य अर्थ बताते हैं और छात्रों को सविस्तार पढ़ाते हैं। वे उन्हें परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करते हैं और कुशलता से उन्नति के पथ पर अग्रसर करते हैं। वे क्रियाशून्य छात्रों को निर्देशित करते हैं और मन्द बुद्धि विद्यार्थियों को ज्ञान के अर्जन के लिए उत्सुक करते हैं।”
“The teachers explain the general meaning and teach them the minutiae; they rouse them to activity and skillfully win them to progress; they instruct the inert and sharpen the dull.”
09 – पाठ्यक्रम –
सिद्धिरस्तु नामक बालपोथी का आधार लेकर चलने वाली बौद्ध उच्च शिक्षा विविध ज्ञान विमाओं को अपने आप में समाहित करती थी यथा -बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म, जैन धर्म, राज्य व्यवस्था, प्रशासन, दर्शन शास्त्र, तर्क शास्त्र, औषधि विज्ञान, खगोल विज्ञान,नक्षत्र विद्या, गणन विद्या, पाली, संस्कृत, न्याय शास्त्र आदि।पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में प्रसिद्द शिक्षाविद डॉ राम शकल पाण्डेय के विचार जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘भारत में शिक्षा व्यवस्था का विकास’ के पृष्ठ 38 पर दिए का उल्लेख समीचीन होगा –
“अध्यापन विधियों के अन्तर्गत वेद त्रयी एवम् अठारह शिल्पों का उल्लेख मिलता है। अठारह शिल्पों में धनुर्वेद प्रमुख था। बौद्ध ग्रंथों से ज्ञात होता है कि यहाँ धार्मिक अनुष्ठान अतीन्द्रिय विज्ञान,विधि शिक्षण एवम् आयुर्वेद की शिक्षा प्रदान की जाती थी।”
10 – गुरु शिष्य सम्बन्ध –
ए ० एस ० अल्तेकर महोदय के अनुसार –
“अपने गुरु के साथ नवशिष्य के सम्बन्धों का स्वरुप पुत्रानुरूप था। वे पारस्परिक सम्मान विश्वास और प्रेम से आबद्ध थे। “
“The relations between the novice and his teacher were final in character; they were united together by mutual reverence, confidence and affection.” – A.S.Altekar : Education in Ancient India, pp 61-62
11 – सामाजिक शिक्षा पद्धति
12 – विज्ञ मण्डलियाँ
मिरडेल महोदय के अनुसार –
“शास्त्रीय विवादों को प्रोत्साहन दिया जाता था। इस प्रकार की विज्ञ मंडलियाँ बौद्ध उच्च शिक्षा की एक अनोखी विशेषता थी।”
“Scholastic debates were encouraged. Such learned assemblies were a novel feature of Buddhist higher education.”
13 – सामान्य विद्यालयीकरण –
मिरडेल महोदय के अनुसार –
“मठ विद्यालय बहुत कुछ सामान्य विद्यालयों के समान कार्य करने लगे ,जिनमें बालक अपने परिवारों में रहकर शिक्षा प्राप्त कर सकते थे।”
आंग्ल अनुवाद
“Monastic schools began to function much like normal schools, in which children could receive education while living in their families.”
14 – स्त्री शिक्षा
ए ० एस ० अल्तेकर महोदय के अनुसार –
“स्त्रियों के संघ में प्रवेश की आज्ञा ने स्त्री शिक्षा को ,विशेष रूप से समाज के कुलीन और व्यावसायिक वर्गों की स्त्रियों की शिक्षा को बहुत अधिक प्रोत्साहन दिया। “
“The permission given to women to enter the order gave a fairly good impetus to the cause of female education, especially in aristrocratic and commercial sections of society.”
15 – शिल्प शिक्षा –
डॉ ० आर ० के ० मुकर्जी के अनुसार
” सिप्पाओं या प्राविधिक तथा वैज्ञानिक शिक्षा के ज्ञान की माँग सामान्य शिक्षा या धार्मिक अध्ययन की माँग से किसी प्रकार कम नहीं थी। “
“The demand for knowledge of the Sippas or for techinical and scientific education was not less keen than that for general education or religious studies.”
बौद्ध शिक्षा अनूठी विशेषताओं से युक्त थी बौद्ध शिक्षा को नालन्दा, तक्षशिला,विक्रमशिला,बल्लभी,ओदन्त पुरी,नदिया,मिथिला,जगद्दला आदि शिक्षा के उच्च केन्द्रों ने अन्तर्राष्ट्रीय गरिमा प्रदान की। बौद्धकालीन विश्व-विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करने वाले शिक्षार्थियों ने चीन, श्री लंका, जापान, सुमात्रा आदि देशों में भी बौद्ध शिक्षाओं का प्रसार किया।
शिक्षावादियों की बेहतरीन कण्ठ माला का अद्भुत मोती है जॉन डीवी। विलिम जेम्स से विचारों का जो प्लावन हुआ उससे प्रेरणा पाकर डीवी को जो दिशा मिली उससे जॉन डीवी ने संसार को दिग्दर्शित किया। एक सामान्य से दुकानदार का यह बेटा कालान्तर में सुप्रसिद्ध दार्शनिक के रूप में स्थापित हुआ।
डीवीकीरचनाएं / DEWEY’s creations – डीवी महोदय ने अपनी 92 साल की उम्र में लगभग 50 ग्रन्थों की रचना की। इनमें से जो ज्ञात हो पाए उन्हें यहाँ देने का प्रयास किया है –
1 – Interest and Effort as Related to Will – 1896
2 – My Pedagogic Creed – 1897
3 – The School and Society – 1899
4 – The Child and the Curriculum – 1902
5 – Relation of Theory and Practice in the Education of Teachers – 1907
6 – The School and the Child -1907
7 – Moral Principle in Education – 1907
8 – How We Think – 1910
9 – Interest and Effort in Education – 1918
10 – School of Tomorrow – 1915
11 – Democracy and Education – 1916
12 – Reconstruction and Nature in Philosophy – 1920
13 – Human Nature in Conduct -1921
14 – Experience and Nature – 1925
15 – Quest for Certainity – 1929
16 – Sources of a Science Education – 1929
17 – Philosophy and Civilization -1931
18 – Experience and Education – 1938
19 – Education of Today – 1940
20 – Problems of Man –
21 – Knowing and Known –
डीवीदर्शनकीमीमांसा / Meemansa’s of Philosophy –
इस दर्शन की मीमांसाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाएगा कि इसके मूल में क्या है किस आधार पर यह विस्तारित हुआ, इस चिन्तन का दिशा निर्धारण कैसे हुआ इसे खाद पानी कहाँ से मिला। सबसे पहले विचार करते हैं इसकी तत्त्व मीमांसा (Metaphysics)पर –
तत्त्वमीमांसा / Metaphysics –
विलियम जेम्स की वैचारिक पृष्ठ भूमि को पुष्ट करने वाला यह खुले दिमाग वाला व्यक्तित्व आत्मा परमात्मा की व्याख्या से दूर रहकर भौतिकता पर अवलम्बित रहा। इनका मानना था की संसार अनवरत निर्माण की अवस्था में रहता है यह लगातार परिवर्तनशील है इसमें कोई सर्वकालिक सत्य या मूल्य हो ही नहीं सकता। निरन्तर बदल रहे सत्य व मूल्यों हेतु प्रयोग किये जाते रहने चाहिए इसी लिए डीवी की विचार धारा प्रयोगवाद (Experimentalism) के नाम से भी जानी जाती है।
ये मानव को सामाजिक प्राणी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि वही तथ्य सही है जो मानव मात्र हेतु उपयोगी हो। मानव को पूर्ण समर्थ मानते हुए ये कहते हैं कि अपनी समस्त समस्याओं को हल करने में वह समर्थ है अपनी प्रगति का निमित्त वह स्वयम् है विविध विषम परिस्थितियों, झंझावातों से टकराने में जो मानव समर्थ वह स्वयम् अपनी उन्नति का निमित्त कारण है इस उन्नति की कोई निर्धारित सीमा नहीं है इस तरह के विचारों का सम्पोषण करने के कारण ही इनकी विचारधारा नैमेत्तिक वाद (Instrumentalism) के नाम से भी जानी गयी।
ज्ञानऔरतर्कमीमांसा(Epistemology and logic) – डीवी का स्पष्ट मत है कि ज्ञान क्रिया अवलम्बित होता है पहले समस्या आती है उसके समाधान हेतु मानव सक्रिय हो जाता है और विविध समाधानों की परिकल्पना बनाता है। इन्हें प्रयोग की कसौटी पर कसता है इस प्रकार प्राप्त सत्य को वह अंगीकृत करता है। इस प्रकार स्वहित और समाजहित हेतु सत्य स्थापन की तात्कालिक व्यवस्था के सोपान हुए –
1 – समस्या
2 – तत्सम्बन्धी विवेचना
3 – परिकल्पना
4 – प्रायोगिक कसौटी
5 – सत्य स्थापन
आचार व मूल्य मीमाँसा (Ethics and Axiology) – ये अध्यात्म या आध्यात्मिक मूल्यों पर तो विश्वास नहीं करते थे लेकिन मानव और मानव में कोइ भेद नहीं मानते थी इनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव को उसकी रूचि, क्षमता व योग्यतानुसार स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए इनका मानना था कि पूर्व निर्धारित आदर्श न लादकर प्रत्येक को अपने लिए खुद आदर्श व सत्य निर्धारण करना चाहिए। जिस आचरण व मूल्य से स्वविकास हो और समाज के विकास में बढ़ा न पहुँचे वह उचित है।
डीवी का शिक्षा दर्शन / Dewey’s philosophy of education –
आजाद भारत के जितने भी प्रधानमन्त्री हुए वे विकास के क्रम में आध्यात्मिक विकास को भी शामिल करते हैं और मनुष्य के समग्र विकास हेतु आवश्यक समझते हैं। डीवी भी मानव जीवन की विशेषता विकास को स्वीकार करता है लेकिन मानव के सामाजिक,शारीरिक व मानसिक विकास की बात प्रमुखतः करता है। वह यह भी स्वीकार करता है कि विकास हेतु अनुकूलन की स्थिति प्राप्ति हेतु वह पर्यावरण को नियन्त्रित करने का भी प्रयास करता है। इसी आधार पर वह शिक्षा के सम्बन्ध में कहता है –
“Education is the development of all those capacities in the individual which will enable him to control his environment and fulfill his possibilities.”
“The process of education is a continuous process of adjustment whose aim at each stage is to provide increasing capacity for development.”
4 – लचीले मष्तिष्क का निर्माण
5 – सामाजिक समायोजन में निपुणता
डीवी के अनुसार –
“शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी को सुखी नैतिक एवम् कार्य कुशल बनाना है। “
“The function of education is to help growing of helpness young animal in to a happy moral and efficient human being.” -Dewey
6 – लोकतन्त्रीय व्यवस्था विकास
डीवीकाशिक्षाकेअंगोंपरप्रभाव /Impact of Dewey on educational institutions – डीवी वह व्यक्तित्त्व था जो तत्कालीन व्यवस्था में यथार्थ के सन्निकट खड़ा दीख पड़ता था उसकी वाणी ऐसा ही उद्घोष करती थी लोग उससे प्रभावित हो रहे थे उसका जो दृष्टिकोण शिक्षा के विविध अंगों के प्रति था यहाँ संक्षेप में द्रष्टव्य है।–
पाठ्यक्रम / Syllabus – तत्कालीन पाठ्यक्रम सम्बन्धी विचारों से ये असंतुष्ट थे इनका साफ़ मानना था कि मानव कल्याण हेतु पाठ्यक्रम निर्माण अधोलिखित सिद्धान्तों पर अवलम्बित होने चाहिए –
01 – रूचि का सिद्धान्त / Principle of interest
02 – बालकेन्द्रित शिक्षा का सिद्धान्त /Principle of child centered education
03 – लोच का सिद्धान्त / Principle of elasticity
04 – सक्रियता का सिद्धान्त / Principle of activation
05 – सामाजिक व्यावहारिक अनुभवों का सिद्धान्त /Principle of social practical experiences
06 – उपयोगिता का सिद्धान्त / Principle of utility
07 – सानुबन्धिता का सिद्धान्त / Principle of co-relation
शिक्षण विधि / Teaching method – शिक्षण विधि के क्रियान्वयन के सम्बन्ध में इनका मानना है कि उचित सामाजिक वातावरण परमावश्यक है बिना सामाजिक चेतना की जाग्रति और सक्रिय क्रियाशीलता के विधि सम्यक आयाम ले ही नहीं पाएगी इन्होने कहा –“समस्त शिक्षा व्यक्ति द्वारा जाति की सामाजिक चेतना में भाग लेने से आगे बढ़ती है।””All education proceeds by the participation of the individual in the social consciousness of the race.”
ये किसी भी पूर्व प्रतिपादित सिद्धान्त अथवा ज्ञान को तब तक स्वीकार नहीं करते जब तक वह प्रयोग की कसौटी पर खरा न उतर जाए। ये प्रयोग को अच्छी शिक्षण विधि स्वीकार करते हैं क्योंकि इसमें अवलोकन / observation, क्रिया / action, स्वानुभव / Self experience, तर्क /Reasoning, निर्णयन / Decision making और परीक्षण सभी शामिल होता है।इसी वजह से ये करके सीखना और स्वानुभव द्वारा सीखने पर सर्वाधिक बल देते हैं। इससे प्रभावित होकर ही इनके शिष्य किल पैट्रिक ने प्रोजेक्ट मेथड (Project method) का सृजन किया। शिक्षण विधि के सम्बन्ध में डीवी के ये शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं – “विधि का तात्पर्य पाठ्यक्रम की उस अवस्था से है जो उसको सर्वाधिक उपयोग के लिए व्यवस्थित करती है। ……… विधि पाठ्य वस्तु के विरुद्ध नहीं होती बल्कि वह तो वांछित परिणामों की ओर पाठ्यवस्तु निर्देशन है।”
“Method means that arrangement of subject matter which makes it most effective in use …… Method is not antithetical to subject matter, it is the effective direction of subject matter to desired results.”-Dewey
शिक्षक / Teacher – यद्यपि ये भौतिकता से ओतप्रोत थे लेकिन गुरु के सम्मान को अपना पूर्ण समर्थन देते हैं और स्वीकार करते हैं कि वह समाज सुधारक, समाज सेवक, सम्यक सामाजिक वातावरण का निर्माता है और ईश्वर का सच्चा प्रतिनिधि है। डीवी महोदय के अनुसार –
“शिक्षक सदैव परमात्मा का सच्चा पैगम्बर होता है। वह परमात्मा के राज्य में प्रवेश कराने वाला होता है। “
“The teacher is always a prophet of true God. He leads to the kingdom of God.”
ये स्वीकार करते हैं कि अध्यापक अपने विद्यार्थी का पथ प्रदर्शक और मित्र होता है इसी भावना के आधार पर जी० एस० पुरी लिखते हैं –
“शिक्षक बालक का मित्र तथा पथ प्रदर्शक है। वह अपने छात्रों को सूचनाएं या ज्ञान प्रदान नहीं करता बल्कि वह उनके लिए ऐसी स्थिति या अवसरों को प्रदान करता है जो इन्हें सीखने में सहायता देती है। “
“The teacher is to be friend and a guide to the child .He is not transmit any information or knowledge to his pupils but he has only arrange the situation and opportunities which may enable them to learn.”
विद्यार्थी / Student – वे विद्यार्थी केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे इन्होने अपनी शिक्षा योजना में सब कुछ बाल केन्द्रित रखा है बच्चों की पूर्ण स्वतन्त्रता व चयन की पूरी छूट देते हुए ही अपना आदर्श व मूल्य निर्धारण की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। बाल केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था व बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम इसी के उदाहरण हैं।
अनुशासन / Discipline – ये शिक्षा को समाजोन्मुखी बनाकर चारित्रिक दृढ़ नागरिक का निर्माण करना चाहते हैं। ये बालक के सहयोग द्वारा उसमे आज्ञा पालन, अनुशासन, विनम्रता आदि गुणों का विकास करना चाहते हैं सहयोग व रूचि के आधार पर अनुशासन स्थापन चाहते हैं प्रजातन्त्र की सुदृढ़ता हेतु सहयोग, आत्म निर्भरता के पद चिन्ह बनाकर अनुशासन स्थापन का कार्य होना चाहिए।
डीवीकेशिक्षादर्शनकीविशेषताएं /Features of Dewey’s educational philosophy –
01 – ;साध्य के ऊपर साधन की महत्ता
02 – सत्य परिवर्तनशील
03 – कर्म प्रधान चिन्तन द्वित्तीयक
04 – समस्या (parikalpanaa,kriya nirdhaaran)
05 – योजना पद्धति
06 – प्रजातन्त्र सर्वश्रेष्ठ
07 – नैमेत्तिक वाद
08 – प्रयोग पर बल
09 – आगमन प्रमुख ,निगमन द्वित्तीयक
10 – प्रयोजनहीन कला व्यर्थ
11 – धर्म सम्बन्धी धारणा
डीवी के शिक्षा दर्शन की सीमाएं /Limitations of Dewey’s educational philosophy –
01 – साधनको प्रमुख मानना उचित नहीं
02 – विचार द्वित्तीयक कैसे सम्भव
03 – समस्त सत्य स्थापन की प्रायोगिक जाँच सम्भव नहीं
04 – कला सम्बन्धी विचार अव्यावहारिक
05 -धर्म के प्रति संकुचित दृष्टिकोण
06 -आगमन व निगमन दोनों से सत्य स्थापन
07 -सत्य परिवर्तनशील
08 -परिवर्तन को सत्य मानाने पर लक्ष्य निर्धारण सम्भव नहीं
09 – योजना पद्धति अधिक खर्चीली
उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन यह स्पष्ट करता है कि तत्कालीन रूढ़िवादी समाज को प्रगतिशील बनाने में उसका अपूर्व योगदान है उसने भौतिकता की लब्धि को ध्यान में रखकर शिक्षा को नया आयाम प्रदान करने की कोशिश की लेकिन धर्म के प्रति उसका दृष्टिकोण उचित नहीं कहा जा सकता। सत्य के निर्धारण में उसकी सोच पर आज के परिप्रेक्ष्य में पुनः विचार मन्थन इतना आवश्यक है कि इसके बिना भटकाव की स्थिति आ जायेगी। सत्य निरंतर परिवर्तनशील मानने के कारण इन सिद्धांतों में परिवर्तन आना ही है।