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शिक्षा

VARIABILITY / विचलनशीलता

September 21, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

विचलन शीलता

जब केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप का अध्ययन किया जाता है तो अंक वितरण के मध्यमान के बारे में अधिगमित होता है परिणामों में विचलन भी देखने को मिलता है कुछ वितरणों में अंक मध्यमान के निकट और कुछ में दूर तक फैले दीख पड़ते हैं। जब किसी अंक वितरण के विविध अंक अपेक्षाकृत अपने मध्यमान के निकट रहते हैं तो विचलन शीलता (Variability) कम होती है लेकिन जब अंकों का विस्तार मध्यमान से अपेक्षाकृत दूर-दूर तक फैला होता है अर्थात विचलित रहता है तब  अंक वितरण की विचलन शीलता (Variability) अधिक होती है।

lindiquist लिन्डक्यूस्टि महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध कहते हैं –

“Variability is the extent to which the scores tend to scatter or spread above and below the average.”

“विचलनशीलता वह अभिसीमा है, जिसके अन्तर्गत अंक अपने मध्यमान से नीचे व ऊपर की ओर वितरित या विचलित रहते हैं।” 

स्पीगेल महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध में कहते हैं। –

“वह सीमा जहां तक आंकड़े अपने मध्यमान मूल्य के दोनों ओर प्रसार की प्रवृत्ति रखते हैं, आंकड़ों का विचलन कहलाती है।”

अनुवाद “The extent to which data tend to spread on either side of its mean value is called variability of data.”

गैरट  महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध में कहते हैं। –

“विचलनशीलता से तात्पर्य आँकड़ों के वितरण या प्रसार से है यह वितरण आंकड़ों की केन्द्रीय प्रवृत्ति के चारों ओर होता है।”

अनुवाद ” Variability refers to the distribution or spread of data. This distribution is around the central tendency of the data.”

Methods Of Measuring Variability

विचलनशीलता को मापने की विधियाँ –

विचलनशीलता को मापने की विधियों को दो प्रमुख भागों में विभक्त कर सकते हैं।

[A] – निरपेक्ष माप /  Absolute Measures of Dispersion

i  – प्रसार / Range

ii – चतुर्थाङ्क विचलन/ Quartile Deviation

iii – माध्य विचलन/ Mean Deviation

iv – मानक विचलन/ Standard Deviation

[B] – सापेक्ष माप / Relative Measures of Dispersion

i  – प्रसार गुणाँक / Coefficient of Range

ii – चतुर्थक विचलन गुणाँक / Coefficient of Quartile Deviation

iii – माध्य विचलन गुणाँक / Coefficient of Mean Deviation

iv – विचलन गुणाँक / Coefficient of Variance

विचलनशीलता ज्ञात करने के उद्देश्य / Objectives of determining deviation – विचलनशीलता सांख्यिकीय परिक्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है इससे हम परिणामों की सटीक स्थिति समझने में सक्षम हुए हैं, सुविधाजनक अध्ययन हेतु विचलनशीलता के अधोलिखित उद्देश्य कहे जा सकते हैं –

1 – मध्यमान की विश्वसनीयता हेतु / For reliability of mean – सांख्यिकीय विश्लेषण में विश्वसनीयता एक महत्त्वपूर्ण कारक है यही समूची गणना का दिशा निर्धारक है  अगर किसी श्रंखला में विचलन कम है तो कहा जाता है कि यह मध्यमान अंक वितरण का सही प्रतिनिधित्व करता है इसके विपरीत यदि श्रंखला में अधिक विचलन दृष्टिगत होता है तो इससे आशय है कि यह मध्यमान अंक वितरण का सही  प्रतिनिधित्व करने में अक्षम है। इस प्रकार मध्यमान की विश्वसनीयता पुष्ट होती है।

2 – यथार्थ से निकटता हेतु / To be closer to reality – मध्यमान एक प्रतिनिधिकारी शक्ति है और इसका यथार्थ बोध सत्य के निकट लाता है इसके मापन द्वारा ही यह जाना जाता है कि कौन सा परिणाम सत्य के अधिक निकट है, विचलनशीलता का यह मापन अन्य विविध गणितीय विश्लेषण का आधार बनता है और उन्हें ज्ञात करना सरल,सुबोध व लाभकारी हो जाता है ।

3 – विविध श्रृंखलाओं के तुलनात्मक अध्ययन हेतु / For comparative study of various series –   विचलनशीलता का अध्ययन ही दो या अधिक श्रंखलाओं के तुलनात्मक अध्ययन में सक्षम बनाता है यदि विचलनशीलता उच्च कोटि की है तो यह स्वीकार किया जाता है कि यहां आँकड़ों  का सामंजस्य उच्च नहीं है जबकि विचलनशीलता के निम्न कोटि के होने से आशय है कि श्रृंखला में आँकड़े सही समायोजित हैं।

            कुल मिलकर यह कहा जा सकता है विचलन शीलता के अध्ययन ने सांख्यिकीय विश्लेषण के क्षेत्र में हमें अधिक विश्वसनीय और पुष्ट बनाया है इससे परिणाम यथार्थ के अधिक निकट पहुँचे हैं।

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शिक्षा

MEDIAN (मध्यांक)

August 10, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

मध्यांक की परिभाषा, उपयोग, गणना (Definition, Uses, Computation of Median) –

जब प्रदत्त आंकड़ों की केन्द्रीय प्रवृत्ति को ज्ञात करना हो तब माध्य के सहारे की आवश्यकता के विकल्प के रूप में माध्यिका का प्रयोग किया जाता है। मध्यांक की गणना में प्रदत्त आंकड़ों को जोड़ने की जगह उसे आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित कर गणनाकी जाती है।मध्यांक को ही माध्यिका भी कहा जाता है।

मध्यांक की परिभाषा (Definition of Median) – विविध विचारकों ने मध्यांक को पारिभाषित किया है उनमें से कुछ इस प्रकार हैं –

विकिपीडिया के अनुसार –

“माध्यिका सांख्यिकी और प्रायिकता सिद्धान्त में वह मान है जो सांख्यिकीय जनसंख्या, प्रायिकता बंटन या प्रतिचयन के पदों को दो बराबर भागों में इस प्रकार बांटता है कि आधे पद इससे बड़े तथा आधे पद इससे छोटे हों। जब पदों को परिमाण अनुसार आरोही या अवरोही कर्म में व्यवस्थित किया जाता है तब बीच वाला पद माध्यिका या मध्यक  कहलाता है। “

“Median in statistics and probability theory is the value which divides the terms of statistical population, probability distribution or sampling into two equal parts in such a way that half of the terms are bigger than it and half of the terms are smaller than it. When the terms are arranged in ascending or descending order according to the magnitude Then the middle term is called Median.

गिल्फर्ड (Guilford) महोदय के अनुसार –

“मध्यांक एक ऐसा बिन्दु होता है जिसके मापन के किसी एक स्केल पर ठीक आधे अंक ऊपर की तरफ तथा ठीक आधे अंक नीचे की तरफ होते हैं।”

“The median is defined as that point on the scale of measurement above which are exactly half the cases and below which are the other half.”

एच ई गैरट (H.E.Garrett) महोदय के अनुसार –

“जब अव्यवस्थित अंक या अन्य मापक्रम में व्यवस्थित हों तो मध्य का अंक मध्यांक कहलाता है।”

“When ungrouped scores or other measures are arranged in order of size, the median is the mid- point of series.”  

 एल आर कॉनर महोदय के अनुसार –

“माध्यिका आंकड़ों की श्रेणी का वह पद मूल्य है जो समूह को दो बराबर भागों में इस प्रकार विभाजित करता है, कि एक भाग में समस्त मूल्य माध्यिका से अधिक तथा दूसरे भाग में समस्त मूल्य माध्यिका से कम होता है। “

“The Median is that value of a series of the variable which divides the group into two equal parts, one part comprising of all values greater and the other all values less than the median.”

मध्यिका की उपयोगिता / Uses of Median –

यह स्वीकार किया जाता है कि यदि वितरण का केन्द्र विशेष रूप से मध्य में हो तो मध्यमान की अपेक्षा प्रतिदर्श विभ्रम (Sampling Error) माध्यिका में कम होती है। साथ ही इसकी विविध उपयोगिताओं को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।

01 – अंक समूह का वास्तविक मध्य बिन्दु ज्ञात करने हेतु

02 – बहुलक हेतु

03 – केन्द्रीय प्रवृत्ति के अपेक्षाकृत कम शुद्ध मान हेतु।

04 – छोटे आंकड़ों के वितरण हेतु

05 – मध्यांक पर पद संख्या का प्रभाव ,पद मूल्यों का नहीं।

06 – मध्यांक का निर्धारण ग्राफ द्वारा सम्भव 

07 –असमान वितरण की स्थिति में उपयोगी

मध्यांक की गणना (Computation of Median) –

प्रदत्त आंकड़ों के आधार पर दो तरह से माध्यिका  की गणना की जाती है ।

1 – अव्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना

      (a )  – सम आँकड़े होने पर

      (b )  – विषम आंकड़े होने पर

2 – व्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना

आइए इन्हे सूत्र व उदाहरण के साथ अधिगमित करने का प्रयास करते हैं।

1 – अव्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना

      (a )  – सम आँकड़े होने पर – आंकड़ों की संख्या सम होने पर माध्यिका निकालने के लिए इस सूत्र को प्रयुक्त किया जाता है। लेकिन उससे पहले वितरण को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित कर लेते हैं।

मध्यांक  (Me) = {N /2 वां पद +(N /2 +1) वां पद } / 2 

यहाँ  N = पदों की सँख्या

एक उदाहरण के माध्यम से इसे और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।

EXAMPLE – निम्न आंकड़ों से मध्यांक की गणना कीजिए

8, 4, 7, 3, 13 , 9, 11, 12, 15, 14, 17, 19

हल –

आँकड़ों को आरोही क्रम में व्यवस्थित करने पर

3, 4, 7, 8, 9, 11, 12 , 13, 14 , 15, 17 , 19 

यहाँ आँकड़ों की संख्या = 12 ( सम ) = N

मध्यांक  (Me) = {N /2 वां पद +(N /2 +1) वां पद } / 2 

                       = {(12/2) वां पद +(12/2 + 1) वां पद}} / 2

                       =(6 वां पद + 7 वां पद) / 2

                       =(11 + 12) / 2

                        =23/2

  मध्यांक  (Me) =11.5               

      (b )  – विषम आंकड़े होने पर – आंकड़ों की संख्या विषम होने पर माध्यिका निकालने के लिए इस सूत्र को प्रयुक्त किया जाता है। लेकिन उससे पहले वितरण को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित कर लेते हैं।

मध्यांक  (Me) = (N +1)/ 2  वां पद   

यहाँ  N = पदों की सँख्या

एक उदाहरण के माध्यम से इसे और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।

EXAMPLE – निम्न आंकड़ों से मध्यांक की गणना कीजिए

8, 4, 7, 3, 13, 9, 11

हल –

आँकड़ों को आरोही क्रम में व्यवस्थित करने पर

3, 4, 7, 8, 9, 11, 13

यहाँ आँकड़ों की संख्या = 7 ( विषम )

मध्यांक (Mdn) = {(N+1) / 2} वाँ पद

                     = (7 + 1) / 2 वाँ पद

                     = 4  वाँ पद

 मध्यांक (Mdn) = 8 

2 – व्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना –

व्यवस्थित आँकड़ों से मध्यांक की गणना करने हेतु निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है 

मध्यांक(Mdn) = L+ {(N/2- F)/ Fm }  X  CI

एक उदाहरण के माध्यम से इसे और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।

EXAMPLE – निम्न व्यवस्थित आंकड़ों से मध्यांक की गणना कीजिए।

C-I47-5142-4637-4132-3627-3122-2617-21
F    3    7      5   10    9     6     7

हल-

            C-I                 C-I            F             CF
         47-51         46.5 – 51.5            347
         42-46         41.5 – 46.5            744
          37-41         36.5 -41.5             537
     ↦  32-36         31.5 -36.5             1032↦
          27-31         26.5 -31.5             922
           22-26         21.5 – 26.5             613
           17-21         16.5 – 21.5             77

                                                                                         N=47

L=31.5, N/2=47/2=23.5, F=22, Fm =10,C-I =5

मध्यांक(Mdn) = L+ {(N/2- F)/ Fm }  X  CI

मध्यांक(Mdn) =31.5+{(23.5- 22)/10}5

मध्यांक(Mdn) =31.5+0.15 X 5

मध्यांक(Mdn) =31.5+0.75

मध्यांक(Mdn) =32.25

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शिक्षा

MEAN/ माध्य 

August 4, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

माध्य  [MEAN]

माध्य की परिभाषा, उपयोग, गणना(Definition, Uses, Computation of mean) –

सांख्यिकी की दुनियाँ में केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप एक क्रान्ति से कम नहीं है, यद्यपि इसमें कई तरह के मध्यमान,मध्यांक और बहुलांक की गणना शामिल है लेकिन इस अंक में हम यहॉं केवल माध्य जिसे कुछ लोग समान्तर माध्य या अंक गणितीय माध्य के नाम से भी जानते हैं, के बारे में अध्ययन करेंगे और इस अध्ययन में मुख्यतः इसकी परिभाषा, उपयोग और गणना को शामिल करेंगे।

माध्य की परिभाषा (Definitions of mean) – जब किसी आंकड़े में प्राप्त अंकों का योग करके उस समूह की कुल संख्या (N) द्वारा विभाजित किया जाता है और इस प्रक्रिया के माध्यम से जो संख्या प्राप्त होती है उसे उस समूह का मध्यमान (Mean) कहा जाता है।

विकिपीडिया के अनुसार –

”समान्तर माध्य वह मूल्य है ,जो किसी श्रेणी के समस्त पदों के मूल्य के योग में उसकी संख्या का भाग देने से प्राप्त होता है।“

आंग्ल अनुवाद

“The arithmetic mean is the value which is obtained by dividing the sum of the values ​​of all the terms of a series by its numbers.”

रेबर और रेबर  के अनुसार –

” मूल्यों या प्राप्तांकों के समूह को मूल्यों या प्राप्तांकों की संख्या से भाग देना ही अंकगणितीय मध्यमान कहलाता है।“

 ” Arithmetic mean is the sum of a set of value or score divided by the number of value or score.”

ग्लीट मैन के अनुसार –

“किसी अंक सामग्री के समस्त अंकों के योगफल को उन अंकों की संख्या से भाग देने से जो भाग फल प्राप्त होता है उसे मध्यमान कहते हैं।“

“The mean is the sum of the separate score of the measures divided by their number.”

माध्य का उपयोग(Uses of mean) –

01 – गणना में सरलता के कारण इसकी अधिक लोकप्रिय ढंग से उपादेयता है।

02 – अनुमानित न होने की वजह से यह यथार्थ के निकट मानकर उपयोग में लाया जाता है क्योंकि इसे ज्ञात करने की एक निश्चित विधि व सूत्र है। 

03 – केंद्रीय प्रवृत्ति में इसे तुलना का महत्त्वपूर्ण आधार मानकर प्रयोग करते हैं।

04 – वितरण के प्रत्येक अंक को स्थान मिलने के कारण इसकी विश्वसनीयता अधिक है।

 05 – अधिगम में सरलता के कारण भी यह अधिक उपयोगी है।

06 – शुद्ध और विश्वसनीय गणना हेतु इसकी अधिक उपयोगिता है।

माध्य की गणना (Computation of mean) –

अव्यवस्थित और व्यवस्थित आंकड़ों के मध्यमान हेतु  सामान्य रूप से यह विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं –

1- अव्यवस्थित आंकड़ों का मध्यमान [Mean of unsystematic data]

2 – व्यवस्थित आंकड़ों का मध्यमान [Mean of systematic data]

  1. अव्यवस्थित आंकड़ों का मध्यमान [Mean of unsystematic data]-

यदि आंकड़े बिखरे हुए या अव्यवस्थित हों तो इस तरह के आंकड़ों का मध्यमान निम्न सूत्र के माध्यम से ज्ञात किया जाता है –

मध्यमान (M ) = ∑X / N

∑X = आंकड़ों का योग

N = आंकड़ों की संख्या

उदाहरण /Example –

प्रश्न  – निम्न अवव्यवस्थित आंकड़ों के मध्यमान की गणना कीजिए।

32, 36, 37, 39, 43, 47

हल – उक्त प्राप्तांकों के अनुसार

N = आंकड़ों की संख्या = 6

∑X = आंकड़ों का योग = 32+ 36+ 37+ 39+ 43+ 47 = 234

मध्यमान (M ) = ∑X / N = 234/6 = 39

प्रश्न  – इस वितरण में राम और श्याम के विगत 5 माह के प्रयुक्त विद्युत् यूनिट दिए गए हैं  दोनों का विगत 5 माह की  विद्युत खपत का मध्यमान ज्ञात कीजिए।   

क्रमाङ्क  12345
राम के यूनिट  142145168131150
श्याम के यूनिट  232243254212249

हल – उक्त प्राप्तांकों के अनुसार

N = माह की संख्या = 5

∑X = राम के यूनिट  का योग = 142+ 145 + 168 + 131+ 150 = 736

राम के यूनिट  का मध्यमान (M ) = ∑X / N = 736/5 = 147.2

N = माह की संख्या = 5

∑X = श्याम  के यूनिट  का योग = 232 + 243 + 254 + 212 + 249 = 1190

श्याम के यूनिट  का मध्यमान (M ) = ∑X / N = 1190/5 = 238

2 – व्यवस्थित आंकड़ों का मध्यमान [Mean of systematic data]  –

अभी जिन आंकड़ों का मध्यमान ऊपर निकाला गया है वह सरल है क्योंकि सीमित अर्थात कम आंकड़ों का प्रयोग किया है जब आँकड़े बहुत ज्यादा होते हैं तो मध्यमान को अन्य विधियों द्वारा ज्ञात किया जाता है। विस्तृत, जटिल तथा व्यवस्थित आंकड़ों से मध्यमान ज्ञात करने की दो विधियाँ प्रचलित हैं।

मध्यमान (दीर्घ विधि द्वारा गणना) – दीर्घ विधि द्वारा गणना करने हेतु निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है –

मध्यमान (M ) = ∑f. X / N

M = मध्यमान (Mean)

∑ = योग का चिन्ह

f  = आवृत्ति

X = वर्गान्तर का मध्य बिन्दु 

N = आवृत्तियों का योग

f. X = आवृत्ति और वर्गान्तर मध्यमान का गुणनफल

इस सूत्र के प्रयोग को निम्न उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ।

उदाहरण /Example –

प्रश्न  – निम्न आवृत्ति वितरण से दीर्घ विधि द्वारा मध्यमान की गणना कीजिए।

वर्ग अन्तराल0-45-910-1415-1920-2425-29
f479111514

 हल – उक्त प्राप्तांकों के अनुसार

वर्ग अन्तराल C- Iमध्य बिन्दु ( X)आवृत्ति( f)f. X
25-292714378
20-242215330
15-191711187
10-14129108
5-977  49
0-424    8
  N = 60∑f. X = 1060

 दीर्घ विधि द्वारा गणना करने हेतु निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है –

मध्यमान (M ) = ∑f. X / N

M = मध्यमान (Mean)

∑ = योग का चिन्ह

f  = आवृत्ति

X = वर्गान्तर का मध्य बिन्दु 

N = आवृत्तियों का योग

f. X = आवृत्ति और वर्गान्तर मध्यमान का गुणनफल

मध्यमान (M ) = ∑f. X / N

                         =1060 / 60

                         = 17.666

                         =17.67

मध्यमान (लघु विधि द्वारा गणना) – दीर्घ विधि द्वारा गणना करने हेतु निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है –

मध्यमान (M ) = A,M + (∑f. d / N) x i

M = मध्यमान (Mean)

A.M = कल्पित माध्य

∑ = योग का चिन्ह

f  = आवृत्ति

d= कल्पित मध्यमान से विचलन

N = आवृत्तियों का योग

f. d = आवृत्ति और मध्यमान से विचलन का गुणनफल

उदाहरण /Example –

प्रश्न  – निम्न आवृत्ति वितरण से लघु विधि द्वारा मध्यमान की गणना कीजिए।

वर्ग अन्तराल0-45-910-1415-1920-2425-29
f479111514

हल – उक्त प्राप्तांकों के अनुसार

वर्गअन्तरालC-Iआवृत्ति( f)कल्पित मध्यमान से विचलन (d)fXd
25-2914342
20-2415230
15-1911111
10-14 (कल्पित माध्य वर्ग)900
5-97-1-7
0-44-2-8
 N = 60 ∑f.d=68

– दीर्घ विधि द्वारा गणना करने हेतु  सूत्र  –

मध्यमान (M ) = A,M + (∑f. d / N) x i

M = मध्यमान (Mean)

A.M = कल्पित माध्य

∑ = योग का चिन्ह

f  = आवृत्ति

d= कल्पित मध्यमान से विचलन

N = आवृत्तियों का योग

f. d = आवृत्ति और मध्यमान से विचलन का गुणनफल

–दीर्घ विधि द्वारा गणना करने हेतु  सूत्र  –

मध्यमान (M ) = A,M + (∑f. d / N) x i

A,M =(10+14)/2=12

∑f. d = 68

N = 60

I = 5

मध्यमान (M ) = A,M + (∑f. d / N) x i

                      =12+(68/60) X 5

                      =12 +5.666

                      =17.666

                      =17.67

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PRESENTATION AND ORGANIZATION OF DATA

July 21, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

समंकों की प्रस्तुति और व्यवस्थापन

आशय /Meaning

सामान्यतः समंक  गुणों के उस संख्यात्मक मान को कहा जाता है , जिससे शुद्धता के एक उचित विधि द्वारा गिना जा सके या अनुमान लगाया जा सके। वास्तव में समंक तथ्यों, गुणों, विशेषताओं आदि को प्रदत्त संख्यात्मक मान ही है ।

समंक की अवधारणा व परिभाषाएं / Concept and definitions of data –

समंक के बारे में कहा जाता है कि समंक झूठ नहीं बोलते हालांकि खुद झूठे हो सकते हैं। यह वर्तमान शोध व्यवस्था की रीढ़ हैं समंक को  परिभाषाओं को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं –

बाउले महोदय के अनुसार –

“समंक अनुसन्धान के किसी विभाग से सम्बंधित तथ्यों के संख्यात्मक विवरण हैं जिन्हे एक दूसरे के सम्बन्ध में रखा जा सके। “

“Data are numerical descriptions of facts related to any department of research which can be kept in relation to each other.”

वेबस्टर महोदय के अनुसार

“एक राज्य के लोगों की स्थिति से सम्बन्धित वर्गीकृत तथ्य या सूचनाएं समंक होते हैं विशेषकर वे तथ्य जिन्हें संख्याओं में या उन संख्याओं की  सारिणियों  में या किसी भी रूप में सारिणीकृत या वर्गीकृत कर व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किये जा सकते हैं। “

“Data are classified facts or information relating to the condition of the people of a state. Especially those facts which can be presented systematically in numbers or in tables of those numbers or by tabulating or classifying them in any form. “

होरेस सेक्रिस्ट महोदय के अनुसार

“समंक तथ्यों के उन समूहों को कहा जाता है जो विविध कारणों से पर्याप्त सीमा तक प्रभावित होते हैं जिन्हें संख्यात्मक रूप में व्यक्त किया जाता है जिनकी गणना और अनुमान यथोचित परिशुद्धता के स्तर तक की जाती है। “

“Data are those groups of facts which are influenced to a sufficient extent by various causes and which are expressed in numerical form and which can be calculated and estimated to a reasonable level of precision.”

उक्त विवध परिभाषाओं के आलोक में समंक की अवधारणा को स्पष्टतः समझा जा सकता है कि समंक पूर्व उद्देश्य के आधार पर प्राप्त वे आंकिक मान हैं जिन्हे तुलना हेतु ,विश्लेषण हेतु या शोध के अन्य उद्देश्यों हेतु प्रयुक्त करते हैं इनके द्वारा संक्षिप्त सारिणी के माध्यम से सरलतम रूप से क्लिष्ट तथ्यों को भी प्रदर्शित किया जा सकता है।

आंकड़ों की महत्ता / Importance of Data –

वर्तमान युग विविध साधनों से युक्त है लेकिन फिर भी यहाँ अधिकाँश लोग समय की कमी का रोना रोते हैं ऐसे समय में समय बचाने वाली हर व्यवस्था को लोक प्रिय होना ही है ऐसा ही एक उपागम हैं समंक। समंकों ने सम्पूर्ण विश्व की प्रगति का विशेष आधार तैयार किया है इनकी महत्ता को इस प्रकार कर्म दिया जा सकता है –

01 – उद्देश्य के प्रति समर्पण Dedication to purpose

 02 – वर्गीकरण द्वारा व्यवस्थित प्रदर्शन /Systematic Display by Classification 

03 – विश्लेषण सुगम / Analysis made easy

04 – तुलनात्मक विवेचन सम्भव / Comparative analysis possible

05 – भविष्य कथन / Predictions

06 – अधिगम सरल / Easy learning

07 – नीति निर्माण में योगदान / Contribution to policy making

08- राज्य व्यवस्थापन में योग /Contribution in state administration

09 – समस्या समाधान में सहायक / Helpful in problem solving

10 –सामान्य ज्ञान में वृद्धि /General knowledge upgrade

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INTRODUCTION TO STATISTICS

July 9, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

सांख्यिकी का परिचय

सांख्यिकी शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध दो विचार धाराएं विश्लेषण का परिणाम बंटी दिखाई पड़ती हैं इसके बारे में जानना और इतिहास जानना अत्याधिक रोचक है। ऐसा कहा जाता है कि सांख्यिकी शब्द की उत्पत्ति इटैलियन भाषा के स्टैटिस्टा (Statista) शब्द से हुई है या लैटिन के स्टेटस(Status) शब्द इसके अस्तित्व में आने का कारण है। दोनों ही शब्दों का अर्थ राजनैतिक स्टेट (Political State) है प्रत्येक स्टेट को आय, व्यय, जनसंख्या, सैनिक संख्या व जन्म मरण का लेखा जोखा रखना पड़ता है कोई भी स्टेट इन आंकड़ों का सही लेका जोखा करके ही अपनी विभिन्न नीतियों को धरातल पर उतारता रहा होगा। इसी लिए ये कहा जा सकता है कि बदलते समय के साथ यही स्टैटिस्टा (Statista) ya स्टेटस (Status) शब्द Statistics(सांख्यिकी) कहा लगा। यह विचार धारा वर्णनात्मक सांख्यिकी (Descriptive Statistics)के सम्बन्ध में ज्यादा तर्क सांगत दिखाई पड़ती है।

एक अन्य विचारधारा के अनुसार यह माना  जाता है कि कि इसका जन्म वैज्ञानिकों की जगह जुआरियों की आवश्यकता के कारण हुआ। अनुमानात्मक सांख्यिकी (Inferential Statistics) की विचार धारा इस आधार पर बलवती हुई कि इटली के कुछ जुआरियों ने उस काल के प्रसिद्द वैज्ञानिक गैलीलियो की इस सम्बन्ध में राय माँगी कि किस नम्बर पर जुआ लगाएं कि जीत सुनिश्चित हो सके। गैलीलियो ने प्रसम्भाव्यता (Probability) के आधार पर जो राय दी वह उपयोगी सिद्ध हुयी।इसी समय फ़्रांस में जुआरियों ने पास्कल के प्रसम्भाव्यता सिद्धान्त  (Pascal’s Theory of Probability)के निर्माण में विशेष योग दिया।इनके अलावा सांख्यिकी विकास में बरनॉली, गॉस, बैकन व पीयर्सन का नाम भी लिया जाता है।

HISTORY OF STATISTICS

सांख्यिकी का इतिहास

सांख्यिकी के सम्बन्ध में कहा जा सकता है की इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता  इतिहास। इसका विधिवत उपयोग राजतन्त्र के समय हुआ जब राज्यों ने तर्कसंगत विकास हेतु जन शक्ति,धन शक्ति, सैन्य शक्ति,पशु शक्ति,कृषि व भूमि सम्बन्धी आंकड़ों का प्रयोग किया। जन्म दर, मृत्यु दर, वनीय संसाधन आदि की गणना हेतु सांख्यिकी राजतन्त्र की सहायिका सिद्ध हुई।

            आधुनिक सांख्यिकी के जन्मदाता व प्रवर्तक के रूप में फ्रांसिस गॉल्टन, कार्ल पियर्सन व आर ए फिशर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सांख्यिकी का वर्तमान स्वरुप विगत चार शताब्दियों में हुए अनुसंधान का परिणाम है यद्यपि इस सम्बन्ध में 1620 में प्रसिद्द गणितज्ञ गैलीलियो ने तार्किक विचार को धरातलीय आधार दिया। ग्राण्ड ड्यूक को लिखे चार पृष्ठीय पत्र में प्रायिकता के चार सिद्धान्त – अनुपात का सिद्धान्त, औसत का सिद्धान्त, योग का सिद्धान्त व गुणन के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया।

            फ्रांसिस गॉल्टन को सांख्यिकी के सह सम्बन्ध गुणांक ( Coefficient of correlation) का पता लगाने का श्रेय है . प्रसरण विश्लेषण(Analysis of Variance) हेतु आर ए फिशर का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। जेम्स बरनौली(1654 – 1705 ) ,अब्राहम डी मोइबर (1667 -1754 )  आदि गणतज्ञों ने प्रायिकता का व्यवस्थित रूपेण अध्ययन किया परिणाम स्वरुप प्रायिकता सिद्धान्त (Probability Theory) अस्तित्व में आया। सन 1733 में  डी मोइबर महोदय ने सामान्य प्रायिकता वक्र (Normal Probability Curve ) का समीकरण ज्ञात किया। पीयरे साइमन लाप्लास (1749 – 1830 ) व कार्ल फ्रेड्रिच गॉस (1777 – 1827) ने 19 वीं शताब्दी के पहले दो दशकों में प्रायिकता पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया सन 1812 में लाप्लास महोदय ने प्रायिकता सिद्धान्त पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। और इसी के माध्यम से उन्होंने अल्पतम वर्ग विधि (Least Squares Method) को सत्यापित किया। गॉस महोदय ने तो सामान्य प्रायिकता वक्र हेतु इतना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया की इनके नाम पर सामान्य प्रायिकता वक्र को आज भी गॉसियन वक्र के नाम से जाना जाता है।

            उन्नीसवीं शताब्दी प्रसिद्द गणितज्ञ ए क्युलेट (1796 -1874 ) ने सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में सांख्यिकी का प्रयोग कर बेल्जियम की उपस्थिति इस क्षेत्र में दर्ज की।इनके द्वारा प्रायिकता वक्र व अन्य सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग विविध व्यावहारिक विज्ञानों में किया गया। सर फ्रांसिस गाल्टन 1882 -1911 ने भी अपना अपूर्व योगदान सांख्यिकी को सामाजिक विज्ञानों में प्रयोग करके दिया। सह सम्बन्ध  व शतांशीय मान के प्रत्यय को गाल्टन महोदय ने ही प्रस्तुत किया। आपके साथ गणितज्ञ कार्ल पियर्सन ने भी कार्य किया। सहसम्बन्ध व प्रतिगमन (Correlation and Regression) के अनेक सूत्रों के विकास में गाल्टन महोदय ने विशेष योगदान दिया।

            बीसवीं शताब्दी सांख्यिकी के प्रयोग के हिसाब से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही। इस काल में लघु प्रतिदर्शों पर कार्य करने हेतु विविध प्रविधियों का विकास किया गया। लघु प्रतिदर्शों के विकास में अंग्रेज सांख्यिकीविद रोनाल्ड ए फिशर(1890 -1962 ) का महत्त्व पूर्ण योगदान रहा। इन्होने अपनी विविध विधियों का प्रतिपादन चिकित्सा, कृषि व जीव विज्ञानों के क्षेत्र में किया लेकिन बहुत जल्दी ही सामाजिक विज्ञानो ने इन विकसित विधियों की उपयोगिता जानकर समस्याओं के अध्ययन हेतु इनका प्रयोग प्रारम्भ कर दिया। वर्तमान समय में सामाजिक विज्ञानों के अनुसंधान कार्यों में सांख्यिकी का प्रयोग अति महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में किया जाता है।

Definition and need of Statistics

सांख्यिकी की परिभाषा एवं आवश्यकता –

सांख्यिकी को प्रारम्भिक दौर में औसत, सामान्य विज्ञान और सामान्य प्रयोग तक सीमित मान कुछ संकीर्ण परिभाषाएं दी गयीं ज्यों ज्यों इस ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया परिभाषाएं यथार्थ के अधिक निकट आईं और व्यापक दृष्टिकोण से सांख्यिकी को पारिभाषित किया गया। इसमें तत्सम्बन्धी आंकड़ा संग्रहण, वर्गीकरण, वितरण , प्रस्तुतीकरण, विश्लेषण, संश्लेषण, व्याख्या, स्पष्टीकरण सभी को समाहित किया गया। यह वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांख्यिकी के यथार्थ से तालमेल की क्षमता रखती हैं। प्रस्तुत हैं कुछ परिभाषाएं –

“सांख्यिकी औसतों का विज्ञान है।” – ब्राउले

“Statistics is the science of averages.”

“सांख्यिकी अनुमानों तथा सम्भावनाओं का विज्ञान है।” – बोडिंगटन

“Statistics is the science of estimates and probabilities.”

“सांख्यिकी वैज्ञानिक पद्धति की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध प्राकृतिक तथ्यों व घटनाओं के उन समंकों के अध्ययन से है जिनको गणना अथवा मापन द्वारा एकत्रित किया गया है।”   – एम० जी० केण्डल

” Statistics is the branch of scientific method which deals with data obtained by counting of measuring properties of population of natural phenomena.”

“सांख्यिकी किसी जाँच क्षेत्र पर प्रकाश डालने के लिए समंकों के संकलन, वर्गीकरण, प्रस्तुतीकरण, तुलना तथा व्याख्या करने  विधियों से सम्बन्धित विज्ञान है।”  – सेलिंग मेन

“Statistics is the science which deals with the methods of collecting, classifying, presenting, comparing and interpreting numerical data collected to through some light on any sphere of inquiry.”

“सांख्यिकी एक ऐसा विज्ञान है, जिसके अन्तर्गत सांख्यिकीय तथ्यों का सङ्कलन, वर्गीकरण तथा सारणीयन इस आधार पर किया जाता है कि उसके द्वारा घटनाओं की व्याख्या, विवरण व तुलना की जा सके।” – लोविट 

“Statistics is the science which deals with the collection, classification, and tabulation of numerical facts as the basis for explanation, description, and comparison of phenomena.” –  Lovitt

अभी तक दी गई परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सांख्यिकी की आवश्यकता मुख्यतः इन कारणों से है।

1 – तत्सम्बन्धी तथ्यपूर्ण आंकड़ों का संकलन / Compilation of relevant factual data

2 – प्राप्त आंकड़ों का व्यवस्थापन / Organization of received data

3 – प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण  / Analysis of received data

4 – सामान्यीकरण व भविष्य कथन / Generalization and prediction

5 – गुणों को संख्यात्मक मान प्रदान करना / Assigning numerical values ​​to properties6 – शोध हेतु परिकल्पना का निर्धारण / Determining the hypothesis for research

7 – सामान्य ज्ञान के स्तर में प्रामाणिक वृद्धि / Authentic increase in the level of general knowledge

8 – नीति निर्माण व क्रियान्वयन में योगदान / Contribution in policy formulation and implementation

सांख्यिकी के प्रकार

Types of statistics –

-सांख्यिकी को जब हम विषय सामिग्री के आधार पर विवेचित करते हैं तो सामान्यतः इसे पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है। यह पाँच प्रकार इस तरह अधिगमित किये जा सकते हैं।

 01 – सैद्धान्तिक सांख्यिकी / Theoretical Statistics

 02 – वर्णनात्मक सांख्यिकी / Descriptive Statistics

 03 – आनुमानिक सांख्यिकी / Inferential Statistics

 04 – व्यावहारिक सांख्यिकी / Applied Statistics

 05 – भविष्य कथनात्मक सांख्यिकी / Predictive Statistics

उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन में सांख्यिकी का परिचय देते हुए  इतिहास, परिभाषाएं सरलतम ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है साथ ही यह भी सरलतम रूप से बताया है कि सांख्यिकी की आवश्यकता किन कारणों से है और इसके कौन कौन से प्रकार हैं।

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शिक्षा

Admission and learning

July 2, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

प्रवेश और अधिगम

जब माता पिता के अरमानों को पंख लगते हैं तो अपने ह्रदय के टुकड़े बेटे या बेटी को विद्यालय में प्रवेश कराया जाता है वहाँ से अक्षर बोध,शब्द बोध,और ज्ञान के उच्चीकरण की एक यात्रा का प्रारम्भ होता हैजो कि प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा व तकनीकी शिक्षा से जोड़ता है। विविध स्तरों पर प्रवेश के समय एक विशिष्ट मनोदशा होती है और विविध लक्ष्यों को मानस में सजाकर कल का बालक आज का शिक्षार्थी और देश का मुकद्दर बनता है।

समय की गति अद्भुत है और अद्भुत है यह मानव तन। बहुत कुछ याद रखता है और बहुत कुछ विस्मृत करता चलता है। विविध स्तरों पर प्रवेश और उस स्तर के अधिगम के सम्बन्ध में अलग अलग विचार करेंगे तो बोध गम्यता, सरलता और सरसता बानी रहेगी। आज की पीढ़ी में निश्चित रूप से क्षमता है, कार्य करने की हिम्मत है, लक्ष्य प्राप्ति का अहसास है लेकिन पथ बहुत सरल नहीं है फिर भी इस कण्टकाकीर्ण पथ के अनुयायी होते आये हैं और इसी जिन्दादिली से दुनियाँ का अस्तित्व है।

 अधिगम की इस यात्रा में अनेकानेक पड़ाव आते हैं। जिसे इस पथ का पथिक महसूस करता है आज बहुत से मस्तिष्कों में बहुत सारी भूली बिसरी यादों का तूफ़ान हिलोरें ले रहा होगा। हमने अपने समय में जो गलतियाँ की हैं उस आधार पर नई पीढ़ी को सचेष्ट करने का प्रयास करते हैं लेकिन हम भूल जाते हैं कि समय बदलने के साथ समस्याएं बदलती हैं और उनके समाधान पाने के तरीके भी बदलते हैं इसलिए अपने विचार नई पीढ़ी पर थोपने की जगह सचेष्ट रहें। समय के साथ कदमताल करें।

आइए हम विचार करते हैं अलग अलग स्तरों पर प्रवेश और अधिगम के सम्बन्ध में साथ ही अधिगम के बाधक तत्वों पर भी विचार करके अधिगम पथ दुरुस्त रखने का प्रयास करेंगे।

स्तर आधारित वर्गीकरण –  अध्ययन की सुविधा हेतु इसका विभाजन करके जानना उपयुक्त रहेगा क्रम इस प्रकार रखा जा सकता है।

1 – विद्यारम्भ से कक्षा 8 तक

2 – माध्यमिक शिक्षा कक्षा 9 से 12 तक

3 – उच्च शिक्षा यथा स्नातक, परास्नातक, शोध आदि  

4 – तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण   

1 – विद्यारम्भ से कक्षा 8 तक – इस समय प्रवेश के साथ बाल मन में विभिन्न कौतुहल, जिज्ञासा, नवबोध आशा, स्नेह आकाँक्षा, सुन्दर शब्द,भाव,ऊर्जा से जुड़ने का विशिष्ट भाव होता है और यही वह सर्वाधिक कीमती बहुमूल्य समय होता है जहाँ माता पिता अभिभावक, शिक्षक और विद्यालय को प्रतिपल सचेष्ट रहना जरूरी है।

 यहाँ से बालमन, बाहर की दुनियाँ, विद्यालय, समाज और विभिन्न सम्बन्धों को समझना शुरू करता है। जहां माता-पिता के सपने परवान चढ़ते हैं। वहीं बालक की क्षमता, स्वास्थ्य ,वातावरण मिलकर हर बालक के लिए एक नई दुनियाँ का सृजन कर रहे होते हैं। इस प्रवेश से बालक को नई दिशा, प्राइवेट सैक्टर को धन,विभिन्न संस्थाओं को पहचान मिलती है। और मूल कारक बालक प्रभावित होता है।

इस स्तर के बालक को हम अपनी महत्त्वाकाँक्षा से दुष्प्रभावित न करें, बालक को बालक ही रहने दें. उसे रोबोट न बनाएं। एक स्तर पर एक तय पाठ्यक्रम का अवबोध हो, एक सरलता सहजता बनी रहनी आवश्यक है। कृत्रिमता के बोझ तले उनका बचपन छीनने का प्रयास न करें, उन्हें खेलने दें स्वाभाविक रूप से बढ़ने दें पढ़ने दें। बच्चों की किलकारी से, मुस्कान से, हास्य से आनन्दित हों, भाव प्रगटन सहज रहने दें उनका शाब्दिक परिमार्जन करें लेकिन सहजता से स्वाभाविकता से। उनका सारा समय न छीनें।

 केवल उस स्तर का किताबी अधिगम काफी है व्यावहारिकता से जुड़ाव का प्रयास हो प्राकृतिक रूप से बिना किसी दवाब के। ट्यूशन कक्षा शिक्षण और घरेलू व्यवहार में आदेशात्मक वाक्यों से बचें। व्यक्तित्व में निखार स्वाभाविक रूप से आने दें। तुलना के नकारात्मक प्रभाव से दूर रहने का प्रयास करें। याद रखें प्रतिस्पर्धा और अन्धी दौड़ में फर्क है। इस स्तर की मार्कशीट (अंक तालिका) सहेज कर रखना बहुत तर्क सांगत नहीं है। आज अभिभावकों की ज्यादातर यह अंकतालिकाएं कहाँ हैं पता भी नहीं होगा।

स्वाभाविक स्तरोन्नयन के साथ बालकों की समझ को विस्तार के नए आयाम मिलने दें। कम अंक आने पर मारपीट करने की जगह स्वयं की भूमिका का विवेचन करें डिब्बा बन्द, मृत भोजन की जगह पौष्टिक व ताज़ा आहार व्यवस्था पर ध्यान अपेक्षित है। आपका सौम्य व नियन्त्रित व्यवहार इस स्तर के बच्चों की जमा पूँजी है। यह संस्कार, प्राकृतिक तालमेल सहज प्रगति जीवन का मज़बूत आधार है।

2 – माध्यमिक शिक्षा कक्षा 9 से 12 तक –

आठवीं के बाद परिवर्तन की एक नई आहट सुनाई पड़ती है, बहुत से नए साथियों, नए गुरुओं, नई पुस्तकों, बदलती दुनियाँ के बदलते परिवेश से तालमेल बैठाते हमारे नन्हें मुन्ने। हमारे बेटे,बेटियों के रूप में ये नए योद्धा नई परिस्थितियों, विषयों के विस्तार से जूझने को आतुर।

 ऐसे में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है अध्यापक। स्वयं की उलझनों में उलझे अध्यापक से मुक्त शिक्षा से प्यार करने वाला अध्यापक निश्छल, सहज स्वाभाविक मुस्कान आत्म विश्वास से परिपूर्ण रहकर विद्यार्थियों को सकारात्मक दिशा दे सकता है। अभिभावकों को भी प्रशिक्षित अध्यापकों वाले विद्यालय का चयन  कर प्रवेश सुनिश्चित कराना चाहिए।

आज तक की समस्त सरकारें शिक्षा से पल्ला झाड़ने पर एक मत दिखाई देती हैं इसी वजह से निजी संस्थान लगातार अस्तित्व में आ रहे हैं जिनकी अपनी समस्याएं हैं, प्रतिस्पर्धा है। उद्देश्य धनार्जन है। शानदार इमारत की जगह अच्छा व कुशल प्रबन्धन, योग्य अध्यापक, विगत परीक्षा परिणाम, विद्यालय, अनुशासन, निष्पक्षता, संस्था व्यवहार अधिक मायने रखता है।

हमारे बालक बालिकाओं में इस स्तर पर सहज शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होने लगते हैं

यहाँ कुशल अभिभावक, कुशल अध्यापक और जिम्मेदारी निर्वहन में समर्थ विद्यालय बालक का शारीरिक, चारित्रिक, मानसिक गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करते हैं। संस्कार, नीति, व्यवहार इसी स्तर पर गढ़ा जाता है  बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था अपने सहज मोहपाश में जकड़ बालकों को दिग्भ्रमित कर सकती है।

3 – उच्च शिक्षा यथा स्नातक, परास्नातक, शोध आदि  –

            इस स्तर तक आते आते विद्यार्थी अपने अभिभावकों से प्रवेश, रूचि, अभिरुचि, पसन्दीदा क्षेत्र आदि के सम्बन्ध में विचार विमर्श की कुछ क्षमता हासिल कर लेता है। अच्छे विचार विमर्श के उपरान्त विद्यालय का उच्च शिक्षा हेतु चयन किया जाता है लेकिन कभी कभी नज़दीकी, सुविधा, जल्दबाजी आदि के आधार पर भी उच्च शिक्षा हेतु विद्यालय चयनित किया जाता है। यहाँ की शिक्षा व्यवस्था, पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सहभागिता ,क्रीड़ा प्रतियोगिता में भागीदारी आने वाले जीवन के लिए आधार का काम करती है। कुछ विद्यार्थी पढ़ने के साथ पढ़ाने के स्वप्न भी देखते हैं और तदनुकूल आचरण भी करते हैं अपने अधिगम स्तर में वृद्धि कर सफल भी होते हैं। प्रशासकीय कार्यों हेतु आधार यहां से मिल जाता है। पात्र और उसकी पात्रता विद्यार्थी की क्षमता वृद्धि के साथ बढ़ती है।

स्नातक और परास्नातक स्तर के कुछ विद्यार्थियों में एक महत्त्व पूर्ण नकारात्मक बिंदु के भी दर्शन मिलते हैं वह यह की प्रवेश के समय सपना उच्च शिक्षा और उच्च प्रतिमान कायम करने का होता है लेकिन कालांतर में यह परिदृश्य ओझिल हो जाता है।

कतिपय विद्यार्थी कई पी० जी० करने लगते हैं और दिशाहीन व दिग्भ्रमित हो जाते है। उचित निर्देशन  व परामर्श की महाविद्यालयों में कोई व्यवस्था देखने को नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि विद्यार्थी किसी भी कार्य से जुड़ जिन्दगी बचाने का प्रयास भी करेगा और दायित्व भी निभाएगा।

मध्यम स्तर का विद्यार्थी या सुविधा हीन विद्यार्थी इस स्तर पर अपने को ठगा सा महसूस करता है और सोचता है कि कोई व्यावहारिक कार्य सीखा होता तो ठीक रहता। साधन सम्पन्न या पूर्व नियोजित दिशा वाले विद्यार्थी  तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण की ओर रुख करते हैं।

4 – तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण  –

वर्तमान समय कठिन प्रतिस्पर्धा का है इसी लिए सदा शिक्षा की जगह प्रशिक्षण या तकनीकी शिक्षा को वरीयता दी जाती है। विद्यार्थी इस हेतु दूरस्थ स्थानों पर जाने में भी नहीं हिचकते। कई विद्यार्थी इस हेतु कोचिंग क्लास ज्वाइन करते हैं विगत समय में बहुत सी ख़बरें लक्ष्य न मिलने पर आत्म ह्त्या जैसे जघन्य अपराध की भी सुनने को मिली हैं। हमें याद रखना है कि हारा वही जो लड़ा नहीं।

किसी भी तकनीकी शिक्षा या ट्रेनिंग कोर्स में प्रवेश हेतु सम्यक रण नीति और उस पर अमल परम आवश्यक है। प्रवेश न मिलने पर जीने के रास्ते बंद नहीं होते दिशा बदल सकती है। कहा तो यह भी जाता है कि असफलता का मतलब है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं किया गया।

प्रवेश मिल जाने पर अल्पकालिक लक्ष्य मिलता है वास्तव में सफर की शुरुआत यहाँ से होती है। इस पर चलने हेतु निरन्तर प्रवेश के समय तय उद्देश्य को ध्यान में रखना है क्यों कि यहां से निकलने पर यथार्थ का कठोर धरातल हमारी परीक्षा लेने को तैयार खड़ा है।

अधिगम के बाधक तत्त्व – प्रवेश के समय जो मानसिक उड़ान होती है वह कालान्तर में मन्द पद जाती है उसके पीछे विविध कारण होते हैं। इनसे अधिगम दुष्प्रभावित होता है कुछ को यहाँ विवेचित किया जा रहा है आशा कि ये बिन्दु तत्सम्बन्धी के जागरण में सहायक होंगे।

01 – रूचि

02 – चन्द अभिभावक

03 – कतिपय विद्यालय

04 – अकुशल अध्यापक

05 – निर्देशन परामर्श अभाव

06 – पाठ्य क्रम

07 – मानक हीन शिक्षा व्यवस्था

08 – अध्यापकों की दयनीय स्थिति

09 – शासन की शिक्षा नीतियाँ

10 – इच्छा शक्ति का अभाव

            उक्त विचार मन्थन ह्रदय को उद्वेलित करता है आजादी के इतने वर्ष गुजरने के बाद भी शिक्षा के साथ न्याय नहीं हुआ है प्रवेश के समय की सोच और अधिगम काल व अधिगम प्राप्ति के बाद की सोच में बहुत चौड़ी खाई है भारत में प्रति व्यक्ति सीमित आय व भ्रष्टाचार भी अधिगम प्रसार की मार्ग का रोड़ा बने हुए हैं। मर्यादा हनन सामान्य बात हो गयी है और शिक्षा स्वयम् व्यापार होती दिखती है लेकिन इन विषम परिस्थिति में भारतीय युवा सुधार की आशा में कड़ी मेहनत कर रहा है आशा है कि शिक्षा व्यवस्था स्वमूल्याङ्कन करेगी। प्रवेश के समय के सपने अधिगम के साथ पूर्णता प्राप्त करेंगे . 

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शिक्षा

ENVIRONMENT

May 8, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पर्यावरण

पर्यावरण में उन समस्त तत्वों या उस सब कुछ को सम्मिलित किया जाता है जो हमें हर और से घेरे है, केवल चारों ओर से घेरे कहना उपयुक्त नहीं लगता। यहाँ यह कहना भी समीचीन होगा कि मानव से परे सब उसका पर्यावरण है। पर्यावरण पर दीर्घकाल से चिन्तन मन्थन होता आया है और अभी बहुत कुछ अध्ययन मनन की आवश्यकता है।

पर्यावरण से आशय व परिभाषा

Meaning and definition of environment

पर्यावरण मानव संचेतना का वह विशिष्ट शब्द जिसके प्रति मानवीय जिज्ञासा व रूचि दीर्घकाल से रही है और रहेगी भी।यह विविध आयामी है  इसी कारण बहुत सी परिभाषाएं एक या अधिक आयाम को तो अपने में समेटती हैं सबको नहीं। क्योंकि ज्ञान के प्रस्फुटन के साथ नया विषय नया क्षेत्र इसे अपने आप से सम्बद्ध कर लेता है। अब तक के ज्ञान के आधार पर कुछ परिभाषाएं द्रष्टव्य हैं। –

बोरिंग महोदय के अनुसार –

“एक व्यक्ति के पर्यावरण में वह सब कुछ सम्मिलित किया जाता है जो उसके जन्म से मृत्यु पर्यन्त तक प्रभावित करता है।” 

“A person’s environment consists of the sum total of the stimulation which he receives from  his conception until his death.”

सी ० सी ० पार्क (1980) के अनुसार

“मनुष्य एक विशेष स्थान पर विशेष समय पर जिन सम्पूर्ण परिस्थितियों से घिरा हुआ है उसे पर्यावरण कहा जाता है।“

“Environment refers of the sum total of conditions which surround man at a given point is space and time.”

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अनुसार –

“पर्यावरण में वायु,जल, भूमि, मानवीय प्राणी, अन्य जीव–जन्तु, पौधे, सूक्ष्म जीवाणु और उनके मध्य विद्यमान अन्तर्सम्बन्ध सम्मिलित हैं।“

“Environment includes air, water, land, human beings, other living beings, plants, micro-organisms and the interrelationships existing between them.”

पर्यावरण को पारिभाषित करते हुए ए ० जी ० टेन्सले (A.G.Tansley) महोदय ने बताया –

“प्रभावकारी दशाओं का वह सम्पूर्ण योग जिसमें जीवधारी निवास करते हैं, पर्यावरण कहलाता है।“

“It is the sum total of effective conditions in which organism live.”

विविध परिभाषाओं के विश्लेषण करने के उपरान्त कहा जा सकता है कि पर्यावरण में मानव जीवन के प्राकृतिक, सामाजिक, कृत्रिम कारकों का योग है सामाजिक घटक परिवर्तनशील हैं लेकिन आज हम सांस्कृतिक,नैतिक,सामाजिक व व्यक्तिगत मूल्यों को स्थान दे सकते हैं।   

पर्यावरण का क्षेत्र

Scope of Environment-

पर्यावरण के क्षेत्र का अध्ययन करने में दिक्कत यह है कि आखिर छोड़ा क्या जाए सभी समाहित करने योग्य है लेकिन स्पष्ट करने के लिए यहां कुछ बिन्दुओं को आधार बनाने का प्रयास है। –

01 – पर्यावरण शिक्षा (Environment Education)

02 – अनिवार्य पर्यावरणीय विद्यालय शिविर (Compulsory Environmental School Camp)

03 – तत्सम्बन्धी शिक्षण विधियाँ (Related teaching methods )

04 – स्थाई विकास (Sustainable development)

05 – प्रदूषण (Pollution)

0 6 – जैव विविधता (Biodiversity)

07 – वैश्विक ताप वृद्धि (Global warming)

08 – पर्यावरणीय जागरूकता (Environmental Awareness)

09 – जलवायु परिवर्तन (Climate change)

10 – पारिस्थितिकी तन्त्र (Ecosystem)

11 – जनसंख्या वृद्धि (Population growth)

12 – आपदाएं (Disaster)

13 – मूल्यांकन (Evaluation)

14 – विविध संसाधन (Miscellaneous resources)- जल, खनिज, वन, ऊर्जा आदि  

15 – तत्सम्बन्धी क़ानून (Related Law)

16 – तत्सम्बन्धी विविध प्रयास (Various related efforts)

पर्यावरण की प्रकृति / Nature of environment –

सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि प्रकृति होती क्या है ? प्रकृति यहाँ स्वभाव,निहित गुण, व्यावहारिक आचरण आदि विविध गुणों को समाहित करती चलती है।  पर्यावरण की प्रकृति से आशय पर्यावरण के गुण धर्म, स्वभाव आदि से है और इसी प्रकृति के अनुसार पर्यावरण विविध कार्यों को अंजाम देता है। इन गुणों, संकेतों को अध्ययन का आधार बनाकर पर्यावरण की प्रकृति को बिन्दुवार इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है।

01 – बहुआयामी प्रकृति / Multidimensional nature

02 – आपसी सम्बन्ध /Mutual relations

03 – भविष्य कथन में सक्षम / Capable of predicting future

04 – प्रकृति से निकटता / Closeness to nature

05 – सजगता / Vigilance

06 – अनुभव बोध / Sense of experience

07 – चेतनता आवाहन / Call to consciousness

08 – प्रकृति मानव सम्बन्धों की प्रगाढ़ता / Intensity of nature human relations

09 – आपदा प्रबन्धन / Disaster management

10 – स्वास्थय संवाहक / Health promoter

11 – प्रदुषण सम्बन्धी जानकारी / pollution related information

12 – पारिस्थितिकीय तन्त्र संरक्षण संकेत / ecosystem protection sign

13 – दायित्व बोध / sense of responsibility

14 – वसुधैव कुटुम्बकम  / Vasudhaiva Kutumbakam

उक्त सम्पूर्ण विवेचन मानव को सचेत तो करता है लेकिन पर्यावरणीय संचेतना का असली स्वरुप भविष्य के गर्भ में हैं।

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शिक्षा

BIODIVERSITY

May 7, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जैव विविधता

जैव विविधता दो शब्दों जैव और विविधता से बना है जैव से आशय प्रत्येक चेतना युक्त प्राणी से है विविधता अपने आप में प्रत्येक चेतन के समाहित होने से है समूचे व्योम में असंख्य जीव अपनी विविधता को परिलक्षित करते हैं इस खूबी को संरक्षण प्रदान करना ही जैव विविधता को संरक्षण प्रदान करना है हर जीव की अपनी खूबी है उसका फायदा सभी को मिलता है।

Meaning and values of Biodiversity

जैव विविधता का अर्थ एवं महत्ता –

(1 ) – अर्थ

विविध विज्ञ जनों ने स्वीकार किया कि जैव विविधता शब्द पृथ्वी पर जीन से लेकर पारिस्थितिक तन्त्र तक सभी स्तरों पर जीवन की विविधता को सन्दर्भित करता है। जीवन की यह विविधता समूची पृथ्वी पर समान रूप से वितरित नहीं है कई बार कई जीव किन्ही लोगों के छुद्र स्वार्थों से विनाश के कगार तक पहुँच जाते हैं इनके निवास स्थल के तबाह होने से विविध जीवों के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है।

जैव विविधता से आशय भूमि पर जीवन की परिवर्तनशीलता और विविधता से है।विकिपीडिया के अनुसार –

” जैववैविध्य या जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन की विविधता और परिवर्तनशीलता है। जैव वैविध्य आनुवंशिक (आनुवंशिक परिवर्तनशीलता), प्रजाति ( प्रजाति विविधता ), और परितन्त्र (परितान्त्रिक वैविध्य) स्तर पर भिन्नता का एक माप है।” 

“Biodiversity or biodiversity is the variety and variability of life on Earth. Biodiversity is a measure of variation at the genetic (genetic variability), species (species diversity), and ecosystem (ecological diversity) levels.”

डॉ ० राम मनोहर विरले जी के अनुसार

“जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन की समृद्धि और विविधता का प्रगटन करती है। यह भूमण्डल की सबसे विशिष्ट व  जटिल  विशेषता है। जैव विविधता के बिना जीवन की कल्पना करना भी एक कल्पना ही होगा।“

“Biodiversity reflects the richness and variety of life on Earth. This is the most unique and complex feature of the earth. It would be a fantasy to imagine life without biodiversity.”

जैव विविधता को  एक अन्य विद्वान्न ने  इस प्रकार की परिभाषित किया है –

“जैव विविधता स्थलीय, समुद्री और रेगिस्तानी पारिस्थितिक तंत्र और पारिस्थितिक परिसरों सहित विभिन्न स्रोतों से जीवित जीवों के बीच भिन्नता है, जिसका वे हिस्सा हैं।”“Biodiversity is the variation among living organisms from different sources, including terrestrial, marine and desert ecosystems and the ecological complexes of which they are part.”उक्त विचारों के आलोक में कहा जा सकता है कि समुद्र, सामान्य स्थल, जंगल, पहाड़, रेगिस्तान, नदी, कुआं, पृथ्वी तल के नीचे  जहाँ भी जीवन है वहाँ का एक पारिस्थितिक तन्त्र होता है और जीवों में विविधता होती है और हमारा अस्तित्व परस्पर सह अस्तित्व पर निर्भर है।

(2 ) – महत्ता –

भारत में भी जैव विविधता के विशिष्ट दर्शन होते हैं पौधों की प्रजातियों की समृद्धि के मामले में यह नौवें स्थान पर है ।भारत अरहर, बैंगन, ककड़ी, कपास और तिल जैसी महत्वपूर्ण फसल प्रजातियों का उद्गम स्थल है। भारत विभिन्न घरेलू प्रजातियों जैसे बाजरा, अनाज, फलियां, सब्जियां, औषधीय और सुगंधित फसलों आदि का महत्त्वपूर्ण केंद्र है। विश्व के 25 जैव विविधता हॉटस्पॉट में से दो हमारे भारत में पाए जाते हैं। पशु सम्पदा का भारत महत्त्वपूर्ण केन्द्र है लगभग 91000 पशु प्रजातियां यहां पाई जाती हैं।जैव वैविध्य के अलग-अलग मुख्य तीन प्रकारों को इस प्रकार क्रम देकर इनकी महत्ता को समझने का प्रयास है

1 – आनुवंशिक जैव विविधता

2  – प्रजाति जैव विविधता

3  – पारिस्थितिक जैव विविधता

जैव विविधता सम्पूर्ण प्रगति का आधार है जैव विविधता जीवन को वह सम्बल प्रदान करता है कि उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने में भी हम बौने साबित होंगे। फिर भी इसकी मुख्य महत्ता को हम इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –

01 – जीवन का आधार जैव विविधता

02 – भोजन प्रदाता

03 – उत्तम स्वास्थय

04 – रोटी कपड़ा और मकान

05 – पारिस्थितिकी तंत्र को स्थायित्व

06 – व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन

07 – आर्थिक सम्पन्नता

08 – पृथ्वी की स्वच्छता

09 – सौन्दर्य प्रसाधन

10 – कृतज्ञता का सर्वोच्च शिखर

            जैव विविधता मानव प्रजाति को ईश्वर की अनुपम भेंट है इसकी महत्ता का वर्णन सूर्य को दीप  दिखाने जैसा है।

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शिक्षा

ENVIRONMENT MANAGEMENT

May 6, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पर्यावरण प्रबन्धन

प्रकृति ने जल, वायु, आकाश, ताप, प्रकाश, भूमि, वनस्पति, प्रचुर रूप से उपलब्ध कराई है जड़, जङ्गम और प्राकृतिक संसाधनों की यह नेमत निरापद रूप से यदि मानव तक नहीं पहुँचती तो  संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जाती है। प्रकृति प्रदत्त इन संसाधनों का संरक्षण ही प्राकृतिक संरक्षण कहलाता है। इस प्रकृति का संरक्षण ही पर्यावरणीय संरक्षण का वाहक बनता है। पर्यावरण से आशय मानव को हर और से घेरे समस्त तत्वों से है। आज के औद्योगिक विकास ने मानव और प्रकृति के सम्बन्धों में ह्रास का भयंकर सिलसिला प्रारम्भ कर दिया व परवान चढ़ाया।  समूची मानवता कराह कर कातर दृष्टि से विद्यालय से यह आशा रखती है कि पर्यावरण संरक्षण व सतत विकास हेतु विद्यालय अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करें। क्योंकि पर्यावरण प्रबन्धन हेतु विद्यालय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन हैं।

Role of school in environment conservation and sustainable development.

पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास में विद्यालय की भूमिका। –

01 – पाठ्यक्रम परिवर्तन / Curriculum Change

02 – शिक्षण विधि परिवर्तन / Change in teaching method

03 – जागरूकता / Awareness

04 – समाजीकरण / socialization

05 – समायोजन शक्ति में सकारात्मक परिवर्तन /  Positive change in adjustment power

06 – पुरूस्कार व दण्ड का सम्यक प्रयोग / Proper use of rewards and punishments

07 – पाठ्यसहगामी क्रियाएँ / co-curricular activities

08 – मनुष्य व प्राकृतिक सम्बन्धों की प्रगाढ़ता / Intensity of human-nature relationship

09 – सौर ऊर्जा का उपयोग / Use of solar energy

10 – प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा / Promotion of natural tourism

11 – सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास / Development of positive attitude

12 – पर्यावरण अनुकूल वस्तुओं को बढ़ावा / Promote eco-friendly products

13 – औद्योगिक कचरा निपटान / Industrial waste disposal

14 – सामाजिक सञ्चेतना / Social awareness

पर्यावरण प्रबन्धन का महत्त्वपूर्ण कार्य उक्त बिन्दुओं के आधार पर सम्पन्न किया जा सकता है आवश्यकता है जनजागरण की और जनजागरण का यह कार्य विद्यालय क्रमिक रूप से पूर्ण कर सकते हैं। आज यहाँ वहाँ दीप प्रज्जवलन से कार्य चलने वाला  नहीं है विद्यालय और समाज को मिलकर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। विद्यालय को भी लगातार योगदान कर पथ आलोकित करना होगा।

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शिक्षा

INCLUSIVE EDUCATION

May 3, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

समावेशी शिक्षा

समावेशी शिक्षा से विस्तृत परिक्षेत्र सम्बद्ध है यहाँ अधोलिखित तीन बिन्दुओं पर मुख्यतः विचार करेंगे।

1 – समावेशन की अवधारणा और सिद्धान्त /Concept and principles of inclusion

2 – समावेशन के लाभ / Benefits of inclusion

3 – समावेशी शिक्षा की आवश्यकता / Need of inclusive education

समावेशन की अवधारणा और सिद्धान्त /Concept and principles of inclusion –

जब हम समावेशन की बात करते हैं तो यह जानना परमावश्यक है कि यह किनका करना है। समाज में बहुत से लोग हाशिये पर हैं शिक्षण संस्थाओं में अधिगम करने वाले विविध वर्ग हैं कुछ में शारीरिक, कुछ में मानसिक क्षमताएं, अक्षमताएं  विद्यमान हैं। हमारे विद्यालयों में अध्यापन करने वाला व्यक्ति समस्त अधिगमार्थियों से उनकी क्षमतानुसार अधिगम क्षेत्र उन्नयन हेतु पृथक व्यवहार कर सभी का समावेशन करना चाहता है।

समावेशन वह क्रिया है जो विविधता युक्त व्यक्तित्वों में निर्दिष्ट क्षमता समान रूप से स्थापन करने हेतु की जाती है।

गूगल द्वारा समावेशन सिद्धान्त तलाशने पर ज्ञात हुआ –       

“समावेशी शिक्षण और शिक्षण सभी छात्रों के सीखने के अनुभव के अधिकार को पहचानता है, जो विविधता का सम्मान करता है, भागीदारी को सक्षम बनाता है, बाधाओं को दूर करता है और विभिन्न प्रकार की सीखने की आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं पर विचार करता है।“

“Inclusive teaching and learning recognizes the right of all students to a learning experience that respects diversity, enables participation, removes barriers and considers a variety of learning needs and preferences.”

समावेशन का यह प्रयास विविध क्षेत्रों में विविध प्रकार से हो सकता है लेकिन यदि हम केवल शिक्षा के दृष्टिकोण से इस पर विचार करें तो प्रसिद्द शिक्षाविद श्री मदन सिंह जी(आर लाल पब्लिकेशन) का यह विचार भी तर्क सङ्गत है –

“शिक्षा के क्षेत्र में समावेशी शिक्षा का अर्थ है – विद्यालय के पुनर्निर्माण की वह प्रक्रिया जिसका लक्ष्य सभी बच्चों को शैक्षणिक और सामाजिक अवसरों की उपलब्धता से है। ” 

“In the field of education, inclusive education means the process of restructuring of schools aimed at providing educational and social opportunities to all children.”

समावेशी शिक्षा की प्रक्रियाओं  में अधिगमार्थी की उपलब्धि, पाठ्य क्रम पर अधिकार, समूह में प्रतिक्रया, शिक्षण, तकनीक, विविध क्रियाकलाप, खेल, नेतृत्व, सृजनात्मकता आदि को शामिल किया जा सकता है।

समावेशन के लाभ / Benefits of inclusion –

चूँकि हम शैक्षिक परिक्षेत्र में सम्पूर्ण विवेचन कर रहे हैं अतः समावेशी शिक्षा के लाभों पर मुख्यतः विचार करेंगे। इस हेतु बिन्दुओं का क्रम इस प्रकार संजोया जा सकता है।

01- स्वस्थ सामाजिक वातावरण व सम्बन्ध / Healthy social environment and relationships

02- समानता (दिव्याङ्ग व सामान्य) / Equality

03- स्तरोन्नयन / Upgradation

04 – मानसिक व सामाजिक समायोजन / Mental and social adjustment

05- व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण / Protection of individual rights

06- सामूहिक प्रयास समन्वयन / Coordination of collective efforts

07- समान दृष्टिकोण का विकास / Development of common vision

08- विज्ञजनों के प्रगति आख्यान / Progress stories of experts

09- समानता के सिद्धान्त को प्रश्रय / Support the principle of equality

10- विशिष्टीकरण को प्रश्रय / Support for specialization

11- प्रगतिशीलता से समन्वय / Progressive coordination 

12- चयनित स्थानापन्न / Selective  placement

समावेशी शिक्षा की आवश्यकता / Need for inclusive education –

जब समावेशी शिक्षा की आवश्यकता क्यों ? का जवाब तलाशा जाता है तो निम्न महत्त्वपूर्ण बिन्दु दृष्टिगत होते हैं –

01- सौहाद्रपूर्ण वातावरण का सृजन /  Creation of harmonious environment

02- सहायता हेतु तत्परता / Readiness for help

03- परस्पर आश्रयता की समझ का विकास / Development of understanding of mutual support

04- जैण्डर सुग्राह्यता / Gender sensitivity

05- विविधता में एकता / Unity in diversity

06- सम्यक अभिवृत्ति विकास / Proper attitude development

07- अद्यतन ज्ञान से सामञ्जस्य / Alignment with updated knowledge

08- विश्व बन्धुत्व की भावना को प्रश्रय / Fostering the spirit of world brotherhood

09- हीनता से मुक्ति / Freedom from inferiority

10- मानसिक प्रगति सुनिश्चयन  / Ensuring mental progress

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