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शिक्षा

बौद्ध शिक्षा / BUDDHIST EDUCATION

November 30, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

वैदिक शिक्षा के उत्तरकाल के उपरान्त उसमें आई कतिपय कमियों के निवारणार्थ कतिपय परिवर्तनों की आहट महसूस होने लगी बलि प्रथा समापन , सर्व जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा आदि की आवश्यकता महसूस होने लगी ऐसे काल में महान शिक्षक व धर्म पथ निर्देशक महात्मा बुद्ध ने कुछ वैदिक और कुछ आवश्यक नवीन तथ्यों का समावेशन कर एक विशिष्ट शिक्षा पद्धति का विकास किया जिसे बौद्ध शिक्षा के नाम से जाना जाता है यद्यपि इसे धरातल वैदिक शिक्षा से मिला था इसीलिये आर ० के ० मुकर्जी ने अपनी पुस्तक एन्सिएंट इण्डियन एजुकेशन के पृष्ठ 374 पर लिखा –

” उचित रूप से विचार किये जाने पर बौद्ध शिक्षा प्राचीन हिन्दू या ब्राह्मणीय शिक्षा प्रणाली का एक रूप है।“

“Buddhist education rightly regarded is but a phase of the ancient Hindu or Brahmanical system of education.” R.K.Mookerji : Ancient Indian Education, p.374

बौद्ध शिक्षा व्यवस्था / Buddhist Education System –

बौद्ध शिक्षा व्यवस्था के अध्ययन हेतु सुविधा की दृष्टि से दो भागों प्राथमिक और उच्च शिक्षा में बाँट कर अध्ययन करेंगे। पहले प्राथमिक शिक्षा पर विचार करते हैं

प्राथमिक शिक्षा –

बौद्ध शिक्षा व्यवस्था में प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र मठ थे पहले यहाँ केवल धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था थी लेकिन ब्राह्मणीय शिक्षा से प्रतिस्पर्धा के कारण सांसारिक शिक्षा भी दी जानी लगी। 7 वीं शताब्दी में आए चीनी यात्री व्हेनसाँग के लेखों में उल्लिखित है कि प्राथमिक शिक्षा 6 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती थी और 6 माह तक पढ़ाई जाने वाली पुस्तक सिद्धिरस्तु में 49 अक्षर थे। इसके बाद शब्द विद्या, शिल्पस्थान विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या, अध्यात्म विद्या आदि पांच विद्याओं के अध्ययन का विधान था। अध्ययन का माध्यम पाली भाषा थी।

उच्च शिक्षा / Higher Education –  उक्त पाँच विद्याओं का अध्ययन करने के उपरान्त प्राथमिक शिक्षा पूर्ण होती थी तथा उच्च शिक्षा का श्री गणेश होता था। यह शिक्षा बौद्ध मठों में दी जाती थी इसकी प्राप्ति उपरान्त विशेषज्ञता हासिल होती थी। धर्म, व्याकरण, दर्शन, औषधि विज्ञान, ज्योतिष आदि का अधिगम कर विशेष योग्यता की लब्धि होती थी। ए ० एस ० अल्तेकर महोदय ने लिखा –

“मठों ने अपनी उच्च शिक्षा की योग्यता से, जहाँ अध्ययन करने के लिए कोरिया, चीन, तिब्बत,और जावा ऐसे सुदूर देशों के छात्र आकर्षित होते थे, भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को ऊँचा उठा दिया। ” 

“The monasteries raised the international status of India by the efficiency of their higher education, which attracted students from distant countries like Korea, China, Tibet and Jawa.” –  A.S.Altekar, Education in Ancient India, p.234

वास्तव में उस काल में शिक्षा का उत्थान हुआ। नालन्दा, विक्रम शिला, ओदन्तपुरी, जगद्दला, नदिया  आदि उच्च शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। नालन्दा विश्वविद्यालय को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था यहाँ लगभग 20,000 विद्यार्थियों को 4000 भिक्षुओं द्वारा शैक्षिक कार्य सम्पन्न कराया जाता था . लगभग 800 वर्षों तक भारतीय दर्शन,कला और ज्ञान का प्रसार करने वाला यह अद्भुत केन्द्र बख्तियार खिलजी द्वारा धूल धूसरित कर दिया गया। बी ० पी ० जौहरी, कुलपति, आगरा विश्व विद्यालय, आगरा ने तत्कालीन शिक्षा के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक ‘भारतीय शिक्षा का इतिहास’ में पृष्ठ 22 पर लिखा –

“विश्व विद्यालय में बौद्ध धर्म, जैन धर्म, वैदिक धर्म, वेदों, व्याकरण,ज्योतिष,पुराणों दर्शन शास्त्र और ओषधि विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी।‘’ 

“Buddhism, Jainism, Vedic religion, Vedas, grammar, astrology, Puranas, philosophy and pharmaceutical science were taught in the university.”

बौद्ध शिक्षा की विशेषताएं / Features of Buddhist education –

बौद्ध शिक्षा व्यवस्था में यज्ञ का स्थान संघ को स्थानान्तरित हो गया बौद्ध संघ की शिक्षा पद्धति इन्हीं संघों पर आधारित थी प्रसिद्द शिक्षाविद आर ० के ० मुकर्जी ने बताया –

 “बौद्ध शिक्षा पद्धति प्रायः बौद्ध संघ की पद्धति है। जिस प्रकार वैदिक युग में यज्ञ संस्कृति के केंद्र थे उसी प्रकार बौद्ध युग में संघ शिक्षा और विद्या के केन्द्र थे। बौद्ध संसार में अपने संघों से पृथक या स्वतंत्र रूप में शिक्षा प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं था।”

“The Buddhist system is practically that of the Buddhist order or Sangha. Buddhist education and learning centred round monasteries as Vedic culture centred round the sacrifice. The Buddhist world did not offer any educational opportunities apart from or independently of its monasteries. All education sacred as well as secular, was in the hands of monks,”

बौद्ध संघों ने ज्ञान का जो पथ आलोकित किया उस शिक्षा व्यवस्था की विशेषताओं को बिन्दुवार देने का प्रयास परिलक्षित है –

01 – ज्ञान प्राप्ति वर्ग

02 – विद्यार्थी चयन

03 – विद्यारम्भ आयु – 8(श्रमण) +12(अध्ययन) = 20 भिक्षु (संघ सदस्य )

एफ ० ई ० केई  के अनुसार -” विद्याध्ययन आरम्भ करने की आयु  8 वर्ष थी। प्रवेश के बाद छात्र ‘श्रमण’ ‘सामनेर’ या नवशिष्य कहलाता था।”

According to F.E.K.E. – “The age for starting studies was 8 years. After admission, the student was called ‘Shraman’, ‘Samner’ or Navashishya.”

04 – प्रब्रज्या संस्कार –प्रवेश के समय पबज्जा नामक संस्कार होता था। जिसे प्रव्रज्या संस्कार भी कहा जाता था पबज्जा का अर्थ होता है बाहर जाना। विनय पिटक के अनुसार पबज्जा संस्कार के समय होने वाली क्रिया इस प्रकार थी -श्रमण सर के बाल मुण्डवा कर पीत वस्त्र धारण करता था मठ के भिक्षुओं के चरणों में श्रद्धावनत होने के उपरान्त पालथी मारकर बैठ जाता था और मठ का वरिष्ठ भिक्षु उससे तीन बार कहलवाता था –

बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं  शरणं गच्छामि।

05 – उप सम्पदा संस्कार –  8(श्रमण) +12(अध्ययन) = 20 भिक्षु (संघ सदस्य ) → तत्पश्चात ‘उपसम्पदा संस्कार’

आगरा विश्वविद्यालय के तत्कालीनकुलपति बी ० पी ० जौहरी महोदय ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय शिक्षा का इतिहास’ में बताया –

” ‘उपसम्पदा संस्कार’ संघ के कम से कम 10 योग्य भिक्षुओं की उपस्थिति में होता था। उनमें से एक श्रमण का परिचय कराता था। उसके बाद अन्य भिक्षु उनसे अनेक प्रश्न पूछते थे। उनके उत्तर सुननने के बाद उपस्थित भिक्षु यह निर्णय करते थे कि नवशिष्य ‘उपसम्पदा’ ग्रहण करने का अधिकारी है या नहीं। “

“The ‘Upasampada Sanskar’ took place in the presence of at least 10 qualified monks of the Sangha. One of them would introduce the Shramana. After that the other monks would ask him a number of questions. After hearing his answers, the monks present would decide whether Is the new disciple entitled to receive ‘Upasampada’ or not?

06 – अध्ययन अवधि – 

8 वर्ष पर श्रमण के रूप में प्रवेश  →12वर्ष   (पबज्जा उपरान्त अध्ययन)  + ‘उपसम्पदा संस्कार'(10 वर्ष ) → कुल अध्ययन अवधि  22 वर्ष

07 – विद्यार्थी नियम – बौद्ध शिक्षा प्रणाली में श्रमणों हेतु भिक्षाटन, भोजन, वस्त्र – तिसिवरा, स्नान ,अनुशासन  आदि के सम्बन्ध में पूर्व निर्धारित कठोर नियम थे।  

08 – शिक्षण विधि – श्रवण. मनन. आवृत्ति,वाद विवाद,तर्क, व्याख्या, विश्लेषण आदि विधियों का प्रयोग होता था। आर ० के ० मुकर्जी ने अपनी पुस्तक में ह्वेन सांग के इन विचारों को शिक्षण विधि के सम्बन्ध में उद्धृत किया –

” शिक्षक पाठ्य वास्तु का सामान्य अर्थ बताते हैं और छात्रों को सविस्तार पढ़ाते हैं। वे उन्हें परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करते हैं और कुशलता से उन्नति के पथ पर अग्रसर करते हैं। वे क्रियाशून्य छात्रों को निर्देशित करते हैं और मन्द बुद्धि विद्यार्थियों को ज्ञान के अर्जन के लिए उत्सुक करते हैं।”

“The teachers explain the general meaning and teach them the minutiae; they rouse them to activity and skillfully win them to progress; they instruct the inert and sharpen the dull.”

09 – पाठ्यक्रम –

सिद्धिरस्तु नामक बालपोथी का आधार लेकर चलने वाली बौद्ध उच्च शिक्षा विविध ज्ञान विमाओं को अपने आप में समाहित करती थी यथा -बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म, जैन धर्म, राज्य व्यवस्था, प्रशासन, दर्शन शास्त्र, तर्क शास्त्र, औषधि विज्ञान, खगोल विज्ञान,नक्षत्र विद्या, गणन विद्या, पाली, संस्कृत, न्याय शास्त्र आदि।पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में प्रसिद्द शिक्षाविद डॉ राम शकल पाण्डेय के विचार जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘भारत में शिक्षा व्यवस्था का विकास’ के पृष्ठ 38 पर दिए का उल्लेख समीचीन होगा –

“अध्यापन विधियों के अन्तर्गत वेद त्रयी एवम् अठारह शिल्पों का उल्लेख मिलता है। अठारह शिल्पों में धनुर्वेद प्रमुख था। बौद्ध ग्रंथों से ज्ञात होता है कि यहाँ धार्मिक अनुष्ठान अतीन्द्रिय विज्ञान,विधि शिक्षण एवम् आयुर्वेद की शिक्षा प्रदान की जाती थी।”    

10 – गुरु शिष्य सम्बन्ध –

ए ० एस ० अल्तेकर महोदय के अनुसार –

“अपने गुरु के साथ नवशिष्य के सम्बन्धों का स्वरुप पुत्रानुरूप था। वे पारस्परिक सम्मान विश्वास और प्रेम से आबद्ध थे। “

“The relations between the novice and his teacher were final in character; they were united together by mutual reverence, confidence and affection.” – A.S.Altekar : Education in Ancient India, pp 61-62

11 – सामाजिक शिक्षा पद्धति

12 – विज्ञ मण्डलियाँ

मिरडेल महोदय के अनुसार –

“शास्त्रीय विवादों को प्रोत्साहन दिया जाता था। इस प्रकार की विज्ञ मंडलियाँ बौद्ध उच्च  शिक्षा की एक अनोखी विशेषता थी।”

“Scholastic debates were encouraged. Such learned assemblies were a novel feature of Buddhist higher education.”

13 –  सामान्य विद्यालयीकरण –

मिरडेल महोदय के अनुसार –

“मठ विद्यालय बहुत कुछ सामान्य विद्यालयों के समान कार्य करने लगे ,जिनमें बालक अपने परिवारों में रहकर शिक्षा प्राप्त कर सकते थे।”

आंग्ल अनुवाद

“Monastic schools began to function much like normal schools, in which children could receive education while living in their families.”

14 – स्त्री शिक्षा

ए ० एस ० अल्तेकर महोदय के अनुसार –

“स्त्रियों के संघ में प्रवेश की आज्ञा ने स्त्री शिक्षा को ,विशेष रूप से समाज के कुलीन और व्यावसायिक वर्गों की स्त्रियों की शिक्षा को बहुत अधिक प्रोत्साहन दिया। “

“The permission given to women to enter the order gave a fairly good impetus to the cause of female education, especially in aristrocratic and commercial sections of society.”

15 – शिल्प शिक्षा  –

डॉ ० आर ० के ० मुकर्जी के अनुसार

” सिप्पाओं या प्राविधिक तथा वैज्ञानिक शिक्षा के ज्ञान की माँग सामान्य शिक्षा या धार्मिक अध्ययन की माँग से किसी प्रकार कम नहीं थी। “

“The demand for knowledge of the Sippas or for techinical and scientific education was not less keen than that for general education or religious studies.”

            बौद्ध शिक्षा अनूठी विशेषताओं से युक्त थी बौद्ध शिक्षा को नालन्दा, तक्षशिला,विक्रमशिला,बल्लभी,ओदन्त पुरी,नदिया,मिथिला,जगद्दला आदि शिक्षा के उच्च केन्द्रों ने अन्तर्राष्ट्रीय गरिमा प्रदान की।  बौद्धकालीन विश्व-विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करने वाले शिक्षार्थियों ने चीन, श्री लंका, जापान, सुमात्रा आदि देशों में भी बौद्ध शिक्षाओं का प्रसार किया।

 

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शिक्षा

JOHN DEWEY / जॉनडीवी (1859-1952)

September 29, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

शिक्षावादियों की बेहतरीन कण्ठ माला का अद्भुत मोती है जॉन डीवी। विलिम जेम्स से विचारों का जो प्लावन हुआ उससे प्रेरणा पाकर डीवी को जो दिशा मिली उससे जॉन डीवी ने संसार को दिग्दर्शित किया। एक सामान्य से दुकानदार का यह बेटा कालान्तर में सुप्रसिद्ध दार्शनिक के रूप में स्थापित हुआ।

डीवी की रचनाएं / DEWEY’s creations – डीवी महोदय ने अपनी 92 साल की उम्र में लगभग 50 ग्रन्थों की रचना की। इनमें से जो ज्ञात हो पाए उन्हें यहाँ देने का प्रयास किया है –

1 – Interest and Effort as Related to Will – 1896

2 – My Pedagogic Creed – 1897

3 – The School and Society – 1899

4 – The Child and the Curriculum – 1902

5 – Relation of Theory and Practice in the Education of Teachers – 1907

6 – The School and the Child -1907

7 – Moral Principle in Education – 1907

8 – How We Think – 1910

9 – Interest and Effort in Education – 1918

10 – School of Tomorrow – 1915

11 – Democracy and Education – 1916

12 – Reconstruction and Nature in Philosophy – 1920

13 – Human Nature in Conduct -1921

14 – Experience and Nature – 1925

15 – Quest for Certainity – 1929

16 – Sources of a Science Education – 1929

17 – Philosophy and Civilization -1931

18 – Experience and Education – 1938

19 – Education of Today – 1940

20 – Problems of Man –

21 – Knowing and Known –

डीवी दर्शन की मीमांसा / Meemansa’s of Philosophy – 

इस दर्शन की मीमांसाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाएगा कि इसके मूल में क्या है किस आधार पर यह विस्तारित हुआ, इस चिन्तन का दिशा निर्धारण कैसे हुआ इसे खाद पानी कहाँ से मिला। सबसे पहले विचार करते हैं इसकी  तत्त्व मीमांसा (Metaphysics)पर –

तत्त्व मीमांसा / Metaphysics –

विलियम जेम्स की वैचारिक पृष्ठ भूमि को पुष्ट करने वाला यह खुले दिमाग वाला व्यक्तित्व आत्मा परमात्मा की व्याख्या से दूर रहकर भौतिकता पर अवलम्बित रहा। इनका मानना था की संसार अनवरत निर्माण की अवस्था में रहता है यह लगातार परिवर्तनशील है इसमें कोई सर्वकालिक सत्य या  मूल्य हो ही नहीं सकता। निरन्तर बदल रहे सत्य व मूल्यों हेतु प्रयोग किये जाते रहने चाहिए इसी लिए डीवी की विचार धारा प्रयोगवाद (Experimentalism) के नाम से भी जानी जाती है।

ये मानव को सामाजिक प्राणी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि वही तथ्य सही है जो मानव मात्र हेतु उपयोगी हो। मानव को पूर्ण समर्थ मानते हुए ये कहते हैं कि अपनी समस्त समस्याओं को हल करने में वह समर्थ है अपनी प्रगति का निमित्त वह स्वयम् है विविध विषम परिस्थितियों, झंझावातों से टकराने में जो मानव समर्थ वह स्वयम् अपनी उन्नति का निमित्त कारण है इस उन्नति की कोई निर्धारित सीमा नहीं है इस तरह के विचारों का सम्पोषण करने के कारण ही इनकी विचारधारा नैमेत्तिक वाद (Instrumentalism) के नाम से भी जानी गयी।

ज्ञान और तर्क मीमांसा(Epistemology and logic) – डीवी  का स्पष्ट मत है कि ज्ञान क्रिया अवलम्बित होता है पहले समस्या आती है उसके समाधान हेतु मानव सक्रिय हो जाता है और विविध समाधानों की परिकल्पना बनाता है। इन्हें प्रयोग की कसौटी पर कसता है इस प्रकार प्राप्त सत्य को वह अंगीकृत करता है। इस प्रकार स्वहित और समाजहित हेतु सत्य स्थापन की तात्कालिक व्यवस्था के सोपान हुए –

1 – समस्या

2 – तत्सम्बन्धी विवेचना

 3 – परिकल्पना

4 – प्रायोगिक  कसौटी

 5 – सत्य स्थापन

आचार व मूल्य मीमाँसा (Ethics and Axiology) –  ये अध्यात्म या आध्यात्मिक मूल्यों पर तो विश्वास नहीं करते थे लेकिन मानव और मानव में कोइ भेद नहीं मानते थी इनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव को उसकी रूचि, क्षमता व योग्यतानुसार स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए इनका मानना था कि पूर्व निर्धारित आदर्श न लादकर प्रत्येक को अपने लिए खुद आदर्श व सत्य निर्धारण करना चाहिए। जिस आचरण व मूल्य से स्वविकास हो और समाज के विकास में बढ़ा न पहुँचे वह उचित है।

डीवी का शिक्षा दर्शन / Dewey’s philosophy of education –

आजाद भारत के जितने भी प्रधानमन्त्री हुए वे विकास के क्रम में आध्यात्मिक विकास को भी शामिल करते हैं और मनुष्य के समग्र विकास हेतु आवश्यक समझते हैं। डीवी भी मानव जीवन की विशेषता विकास को स्वीकार करता है लेकिन मानव के सामाजिक,शारीरिक व मानसिक विकास की बात प्रमुखतः करता है। वह यह भी स्वीकार करता है कि विकास हेतु अनुकूलन की स्थिति प्राप्ति हेतु वह पर्यावरण को नियन्त्रित करने का भी प्रयास करता है। इसी आधार पर वह शिक्षा के सम्बन्ध में कहता है –

“शिक्षा व्यक्ति में उन सब क्षमताओं का विकास है, जो उसको अपने पर्यावरण पर नियन्त्रण रखने और अपनी सम्भावनाओं की पूर्ति के योग्य बनाए।“

“Education is the development of all those capacities in the individual which will enable him to control his environment and fulfill his possibilities.”

शिक्षा के उद्देश्य / Aims of education –

1 – परिवर्तनशील उद्देश्य

डीवी के अनुसार –

“शिक्षा का सदैव तात्कालिक उद्देश्य होता है और जहाँ तक क्रिया शिक्षा प्रद होगी, उसी साम्य को प्राप्त होगी। “

“Education has all the time an immediate end, so for as activity is educative it reaches that end.”

2 – अनुभव सतत विकास प्रक्रिया

3 – समायोजन क्षमता विकास

 डीवी के अनुसार –

“शिक्षा की प्रक्रिया समायोजन की एक निरन्तर प्रक्रिया है जिसका प्रत्येक अवस्था में उद्देश्य होता है विकास की बढ़ती हुई क्षमता को प्रदान करना।“

अंग्रेजी अनुवाद

“The process of education is a continuous process of adjustment whose aim at each stage is to provide increasing capacity for development.”

4 – लचीले मष्तिष्क का निर्माण

5 – सामाजिक समायोजन में निपुणता

डीवी के अनुसार –

“शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी को सुखी नैतिक एवम् कार्य कुशल बनाना है। “

“The function of education is to help growing of helpness young animal in to a happy moral and efficient human being.” -Dewey

6 – लोकतन्त्रीय व्यवस्था विकास

डीवी का शिक्षा के अंगों पर प्रभाव /Impact of Dewey on educational institutions – डीवी वह व्यक्तित्त्व था जो तत्कालीन व्यवस्था में यथार्थ के सन्निकट खड़ा दीख पड़ता था उसकी वाणी ऐसा ही उद्घोष करती थी लोग उससे प्रभावित हो रहे थे उसका जो दृष्टिकोण शिक्षा के विविध अंगों के प्रति था यहाँ संक्षेप में द्रष्टव्य है।–

पाठ्यक्रम / Syllabus – तत्कालीन पाठ्यक्रम सम्बन्धी विचारों से ये असंतुष्ट थे इनका साफ़ मानना था कि मानव कल्याण हेतु पाठ्यक्रम निर्माण अधोलिखित सिद्धान्तों पर अवलम्बित होने चाहिए –

01 – रूचि का सिद्धान्त / Principle of interest

02 – बालकेन्द्रित शिक्षा का सिद्धान्त /Principle of child centered education

03 – लोच का सिद्धान्त / Principle of elasticity

04 – सक्रियता का सिद्धान्त / Principle of activation

05 – सामाजिक व्यावहारिक अनुभवों का सिद्धान्त /Principle of social practical experiences

06 – उपयोगिता का सिद्धान्त / Principle of utility

07 – सानुबन्धिता का सिद्धान्त / Principle of co-relation

शिक्षण विधि / Teaching method – शिक्षण विधि के क्रियान्वयन के सम्बन्ध में इनका मानना है कि उचित सामाजिक वातावरण परमावश्यक है बिना सामाजिक चेतना की जाग्रति और सक्रिय क्रियाशीलता के विधि सम्यक आयाम ले ही नहीं पाएगी इन्होने कहा –“समस्त शिक्षा व्यक्ति द्वारा जाति की सामाजिक चेतना में भाग लेने से आगे बढ़ती है।””All education proceeds by the participation of the individual in the social consciousness of the race.”

ये किसी भी पूर्व प्रतिपादित सिद्धान्त अथवा ज्ञान को तब तक स्वीकार नहीं करते जब तक वह प्रयोग की कसौटी पर खरा न उतर जाए। ये प्रयोग को अच्छी शिक्षण विधि स्वीकार करते हैं क्योंकि इसमें अवलोकन / observation, क्रिया / action, स्वानुभव / Self experience, तर्क /Reasoning, निर्णयन / Decision making और परीक्षण सभी शामिल होता है।इसी वजह से ये करके सीखना और स्वानुभव द्वारा सीखने पर सर्वाधिक बल देते हैं। इससे प्रभावित होकर ही इनके शिष्य किल पैट्रिक ने प्रोजेक्ट मेथड (Project method) का सृजन किया। शिक्षण विधि के सम्बन्ध में डीवी के ये शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं  –     “विधि का तात्पर्य पाठ्यक्रम की उस अवस्था से है जो उसको सर्वाधिक उपयोग के लिए व्यवस्थित करती है। ……… विधि पाठ्य वस्तु के विरुद्ध नहीं होती बल्कि वह तो वांछित परिणामों की ओर पाठ्यवस्तु निर्देशन है।”

“Method means that arrangement of subject matter which makes it most effective in use …… Method is not antithetical to subject matter, it is the effective direction of subject matter to desired results.”-Dewey

शिक्षक / Teacher –  यद्यपि ये भौतिकता से ओतप्रोत थे लेकिन गुरु के सम्मान को अपना पूर्ण समर्थन देते हैं और स्वीकार करते हैं कि वह समाज सुधारक, समाज सेवक, सम्यक सामाजिक वातावरण का निर्माता है और ईश्वर का सच्चा प्रतिनिधि है। डीवी महोदय के अनुसार –

“शिक्षक सदैव परमात्मा का सच्चा पैगम्बर होता है। वह परमात्मा के राज्य में प्रवेश कराने वाला होता है। “

“The teacher is always a prophet of true God. He leads  to the kingdom of God.” 

ये स्वीकार करते हैं कि अध्यापक अपने विद्यार्थी का पथ प्रदर्शक और मित्र होता है इसी भावना के आधार पर जी० एस० पुरी लिखते हैं –

“शिक्षक बालक का मित्र तथा पथ प्रदर्शक है। वह अपने छात्रों को सूचनाएं या ज्ञान प्रदान नहीं करता बल्कि वह उनके लिए ऐसी स्थिति या अवसरों को प्रदान करता है जो इन्हें सीखने में सहायता देती है। “

“The teacher is to be friend and a guide to the child .He is not transmit any information or knowledge to his pupils but he has only arrange the situation and opportunities which may enable them to learn.”

विद्यार्थी / Student – वे विद्यार्थी केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे इन्होने अपनी शिक्षा योजना में सब कुछ बाल केन्द्रित रखा है बच्चों की पूर्ण स्वतन्त्रता व चयन की पूरी छूट देते हुए ही अपना आदर्श व मूल्य निर्धारण की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। बाल केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था व बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम इसी के उदाहरण हैं।

अनुशासन / Discipline – ये शिक्षा को समाजोन्मुखी बनाकर चारित्रिक दृढ़ नागरिक का निर्माण करना चाहते हैं। ये बालक के सहयोग द्वारा उसमे आज्ञा पालन, अनुशासन, विनम्रता आदि गुणों का विकास करना चाहते हैं सहयोग व रूचि के आधार पर अनुशासन स्थापन चाहते हैं प्रजातन्त्र की सुदृढ़ता हेतु सहयोग, आत्म निर्भरता के पद चिन्ह बनाकर अनुशासन  स्थापन का कार्य होना चाहिए।

डीवी के शिक्षा दर्शन की विशेषताएं /Features of Dewey’s educational philosophy –

01 – ;साध्य के ऊपर साधन की महत्ता                                                                   

02 – सत्य परिवर्तनशील

03 – कर्म प्रधान चिन्तन द्वित्तीयक

04 – समस्या (parikalpanaa,kriya nirdhaaran)

05 – योजना पद्धति 

06 – प्रजातन्त्र सर्वश्रेष्ठ

07 – नैमेत्तिक वाद

08 – प्रयोग पर बल

09 – आगमन प्रमुख ,निगमन द्वित्तीयक

10 – प्रयोजनहीन कला व्यर्थ

11 – धर्म सम्बन्धी धारणा

डीवी के शिक्षा दर्शन की सीमाएं  /Limitations of Dewey’s educational philosophy –

01 – साधनको प्रमुख मानना उचित नहीं

02 – विचार द्वित्तीयक कैसे सम्भव

03 – समस्त सत्य स्थापन की प्रायोगिक जाँच सम्भव नहीं

04 – कला सम्बन्धी विचार अव्यावहारिक

05 -धर्म के प्रति संकुचित दृष्टिकोण

06 -आगमन व निगमन दोनों से सत्य स्थापन

07 -सत्य परिवर्तनशील

08 -परिवर्तन को सत्य मानाने पर लक्ष्य निर्धारण सम्भव नहीं

09 – योजना पद्धति अधिक खर्चीली

            उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन यह स्पष्ट करता है कि तत्कालीन रूढ़िवादी समाज को प्रगतिशील बनाने में उसका अपूर्व योगदान है उसने भौतिकता की लब्धि को ध्यान में रखकर शिक्षा को नया आयाम प्रदान करने की कोशिश की लेकिन धर्म के प्रति उसका दृष्टिकोण उचित नहीं कहा जा सकता। सत्य के निर्धारण में उसकी सोच पर आज के परिप्रेक्ष्य में पुनः विचार मन्थन इतना आवश्यक है कि इसके बिना भटकाव की स्थिति आ जायेगी। सत्य निरंतर परिवर्तनशील मानने के कारण इन सिद्धांतों में परिवर्तन आना ही है।

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शिक्षा

VARIABILITY / विचलनशीलता

September 21, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

विचलन शीलता

जब केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप का अध्ययन किया जाता है तो अंक वितरण के मध्यमान के बारे में अधिगमित होता है परिणामों में विचलन भी देखने को मिलता है कुछ वितरणों में अंक मध्यमान के निकट और कुछ में दूर तक फैले दीख पड़ते हैं। जब किसी अंक वितरण के विविध अंक अपेक्षाकृत अपने मध्यमान के निकट रहते हैं तो विचलन शीलता (Variability) कम होती है लेकिन जब अंकों का विस्तार मध्यमान से अपेक्षाकृत दूर-दूर तक फैला होता है अर्थात विचलित रहता है तब  अंक वितरण की विचलन शीलता (Variability) अधिक होती है।

lindiquist लिन्डक्यूस्टि महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध कहते हैं –

“Variability is the extent to which the scores tend to scatter or spread above and below the average.”

“विचलनशीलता वह अभिसीमा है, जिसके अन्तर्गत अंक अपने मध्यमान से नीचे व ऊपर की ओर वितरित या विचलित रहते हैं।” 

स्पीगेल महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध में कहते हैं। –

“वह सीमा जहां तक आंकड़े अपने मध्यमान मूल्य के दोनों ओर प्रसार की प्रवृत्ति रखते हैं, आंकड़ों का विचलन कहलाती है।”

अनुवाद “The extent to which data tend to spread on either side of its mean value is called variability of data.”

गैरट  महोदय विचलनशीलता के सम्बन्ध में कहते हैं। –

“विचलनशीलता से तात्पर्य आँकड़ों के वितरण या प्रसार से है यह वितरण आंकड़ों की केन्द्रीय प्रवृत्ति के चारों ओर होता है।”

अनुवाद ” Variability refers to the distribution or spread of data. This distribution is around the central tendency of the data.”

Methods Of Measuring Variability

विचलनशीलता को मापने की विधियाँ –

विचलनशीलता को मापने की विधियों को दो प्रमुख भागों में विभक्त कर सकते हैं।

[A] – निरपेक्ष माप /  Absolute Measures of Dispersion

i  – प्रसार / Range

ii – चतुर्थाङ्क विचलन/ Quartile Deviation

iii – माध्य विचलन/ Mean Deviation

iv – मानक विचलन/ Standard Deviation

[B] – सापेक्ष माप / Relative Measures of Dispersion

i  – प्रसार गुणाँक / Coefficient of Range

ii – चतुर्थक विचलन गुणाँक / Coefficient of Quartile Deviation

iii – माध्य विचलन गुणाँक / Coefficient of Mean Deviation

iv – विचलन गुणाँक / Coefficient of Variance

विचलनशीलता ज्ञात करने के उद्देश्य / Objectives of determining deviation – विचलनशीलता सांख्यिकीय परिक्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है इससे हम परिणामों की सटीक स्थिति समझने में सक्षम हुए हैं, सुविधाजनक अध्ययन हेतु विचलनशीलता के अधोलिखित उद्देश्य कहे जा सकते हैं –

1 – मध्यमान की विश्वसनीयता हेतु / For reliability of mean – सांख्यिकीय विश्लेषण में विश्वसनीयता एक महत्त्वपूर्ण कारक है यही समूची गणना का दिशा निर्धारक है  अगर किसी श्रंखला में विचलन कम है तो कहा जाता है कि यह मध्यमान अंक वितरण का सही प्रतिनिधित्व करता है इसके विपरीत यदि श्रंखला में अधिक विचलन दृष्टिगत होता है तो इससे आशय है कि यह मध्यमान अंक वितरण का सही  प्रतिनिधित्व करने में अक्षम है। इस प्रकार मध्यमान की विश्वसनीयता पुष्ट होती है।

2 – यथार्थ से निकटता हेतु / To be closer to reality – मध्यमान एक प्रतिनिधिकारी शक्ति है और इसका यथार्थ बोध सत्य के निकट लाता है इसके मापन द्वारा ही यह जाना जाता है कि कौन सा परिणाम सत्य के अधिक निकट है, विचलनशीलता का यह मापन अन्य विविध गणितीय विश्लेषण का आधार बनता है और उन्हें ज्ञात करना सरल,सुबोध व लाभकारी हो जाता है ।

3 – विविध श्रृंखलाओं के तुलनात्मक अध्ययन हेतु / For comparative study of various series –   विचलनशीलता का अध्ययन ही दो या अधिक श्रंखलाओं के तुलनात्मक अध्ययन में सक्षम बनाता है यदि विचलनशीलता उच्च कोटि की है तो यह स्वीकार किया जाता है कि यहां आँकड़ों  का सामंजस्य उच्च नहीं है जबकि विचलनशीलता के निम्न कोटि के होने से आशय है कि श्रृंखला में आँकड़े सही समायोजित हैं।

            कुल मिलकर यह कहा जा सकता है विचलन शीलता के अध्ययन ने सांख्यिकीय विश्लेषण के क्षेत्र में हमें अधिक विश्वसनीय और पुष्ट बनाया है इससे परिणाम यथार्थ के अधिक निकट पहुँचे हैं।

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शिक्षा

PRESENTATION AND ORGANIZATION OF DATA

July 21, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

समंकों की प्रस्तुति और व्यवस्थापन

आशय /Meaning

सामान्यतः समंक  गुणों के उस संख्यात्मक मान को कहा जाता है , जिससे शुद्धता के एक उचित विधि द्वारा गिना जा सके या अनुमान लगाया जा सके। वास्तव में समंक तथ्यों, गुणों, विशेषताओं आदि को प्रदत्त संख्यात्मक मान ही है ।

समंक की अवधारणा व परिभाषाएं / Concept and definitions of data –

समंक के बारे में कहा जाता है कि समंक झूठ नहीं बोलते हालांकि खुद झूठे हो सकते हैं। यह वर्तमान शोध व्यवस्था की रीढ़ हैं समंक को  परिभाषाओं को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं –

बाउले महोदय के अनुसार –

“समंक अनुसन्धान के किसी विभाग से सम्बंधित तथ्यों के संख्यात्मक विवरण हैं जिन्हे एक दूसरे के सम्बन्ध में रखा जा सके। “

“Data are numerical descriptions of facts related to any department of research which can be kept in relation to each other.”

वेबस्टर महोदय के अनुसार

“एक राज्य के लोगों की स्थिति से सम्बन्धित वर्गीकृत तथ्य या सूचनाएं समंक होते हैं विशेषकर वे तथ्य जिन्हें संख्याओं में या उन संख्याओं की  सारिणियों  में या किसी भी रूप में सारिणीकृत या वर्गीकृत कर व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किये जा सकते हैं। “

“Data are classified facts or information relating to the condition of the people of a state. Especially those facts which can be presented systematically in numbers or in tables of those numbers or by tabulating or classifying them in any form. “

होरेस सेक्रिस्ट महोदय के अनुसार

“समंक तथ्यों के उन समूहों को कहा जाता है जो विविध कारणों से पर्याप्त सीमा तक प्रभावित होते हैं जिन्हें संख्यात्मक रूप में व्यक्त किया जाता है जिनकी गणना और अनुमान यथोचित परिशुद्धता के स्तर तक की जाती है। “

“Data are those groups of facts which are influenced to a sufficient extent by various causes and which are expressed in numerical form and which can be calculated and estimated to a reasonable level of precision.”

उक्त विवध परिभाषाओं के आलोक में समंक की अवधारणा को स्पष्टतः समझा जा सकता है कि समंक पूर्व उद्देश्य के आधार पर प्राप्त वे आंकिक मान हैं जिन्हे तुलना हेतु ,विश्लेषण हेतु या शोध के अन्य उद्देश्यों हेतु प्रयुक्त करते हैं इनके द्वारा संक्षिप्त सारिणी के माध्यम से सरलतम रूप से क्लिष्ट तथ्यों को भी प्रदर्शित किया जा सकता है।

आंकड़ों की महत्ता / Importance of Data –

वर्तमान युग विविध साधनों से युक्त है लेकिन फिर भी यहाँ अधिकाँश लोग समय की कमी का रोना रोते हैं ऐसे समय में समय बचाने वाली हर व्यवस्था को लोक प्रिय होना ही है ऐसा ही एक उपागम हैं समंक। समंकों ने सम्पूर्ण विश्व की प्रगति का विशेष आधार तैयार किया है इनकी महत्ता को इस प्रकार कर्म दिया जा सकता है –

01 – उद्देश्य के प्रति समर्पण Dedication to purpose

 02 – वर्गीकरण द्वारा व्यवस्थित प्रदर्शन /Systematic Display by Classification 

03 – विश्लेषण सुगम / Analysis made easy

04 – तुलनात्मक विवेचन सम्भव / Comparative analysis possible

05 – भविष्य कथन / Predictions

06 – अधिगम सरल / Easy learning

07 – नीति निर्माण में योगदान / Contribution to policy making

08- राज्य व्यवस्थापन में योग /Contribution in state administration

09 – समस्या समाधान में सहायक / Helpful in problem solving

10 –सामान्य ज्ञान में वृद्धि /General knowledge upgrade

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शिक्षा

Admission and learning

July 2, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

प्रवेश और अधिगम

जब माता पिता के अरमानों को पंख लगते हैं तो अपने ह्रदय के टुकड़े बेटे या बेटी को विद्यालय में प्रवेश कराया जाता है वहाँ से अक्षर बोध,शब्द बोध,और ज्ञान के उच्चीकरण की एक यात्रा का प्रारम्भ होता हैजो कि प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा व तकनीकी शिक्षा से जोड़ता है। विविध स्तरों पर प्रवेश के समय एक विशिष्ट मनोदशा होती है और विविध लक्ष्यों को मानस में सजाकर कल का बालक आज का शिक्षार्थी और देश का मुकद्दर बनता है।

समय की गति अद्भुत है और अद्भुत है यह मानव तन। बहुत कुछ याद रखता है और बहुत कुछ विस्मृत करता चलता है। विविध स्तरों पर प्रवेश और उस स्तर के अधिगम के सम्बन्ध में अलग अलग विचार करेंगे तो बोध गम्यता, सरलता और सरसता बानी रहेगी। आज की पीढ़ी में निश्चित रूप से क्षमता है, कार्य करने की हिम्मत है, लक्ष्य प्राप्ति का अहसास है लेकिन पथ बहुत सरल नहीं है फिर भी इस कण्टकाकीर्ण पथ के अनुयायी होते आये हैं और इसी जिन्दादिली से दुनियाँ का अस्तित्व है।

 अधिगम की इस यात्रा में अनेकानेक पड़ाव आते हैं। जिसे इस पथ का पथिक महसूस करता है आज बहुत से मस्तिष्कों में बहुत सारी भूली बिसरी यादों का तूफ़ान हिलोरें ले रहा होगा। हमने अपने समय में जो गलतियाँ की हैं उस आधार पर नई पीढ़ी को सचेष्ट करने का प्रयास करते हैं लेकिन हम भूल जाते हैं कि समय बदलने के साथ समस्याएं बदलती हैं और उनके समाधान पाने के तरीके भी बदलते हैं इसलिए अपने विचार नई पीढ़ी पर थोपने की जगह सचेष्ट रहें। समय के साथ कदमताल करें।

आइए हम विचार करते हैं अलग अलग स्तरों पर प्रवेश और अधिगम के सम्बन्ध में साथ ही अधिगम के बाधक तत्वों पर भी विचार करके अधिगम पथ दुरुस्त रखने का प्रयास करेंगे।

स्तर आधारित वर्गीकरण –  अध्ययन की सुविधा हेतु इसका विभाजन करके जानना उपयुक्त रहेगा क्रम इस प्रकार रखा जा सकता है।

1 – विद्यारम्भ से कक्षा 8 तक

2 – माध्यमिक शिक्षा कक्षा 9 से 12 तक

3 – उच्च शिक्षा यथा स्नातक, परास्नातक, शोध आदि  

4 – तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण   

1 – विद्यारम्भ से कक्षा 8 तक – इस समय प्रवेश के साथ बाल मन में विभिन्न कौतुहल, जिज्ञासा, नवबोध आशा, स्नेह आकाँक्षा, सुन्दर शब्द,भाव,ऊर्जा से जुड़ने का विशिष्ट भाव होता है और यही वह सर्वाधिक कीमती बहुमूल्य समय होता है जहाँ माता पिता अभिभावक, शिक्षक और विद्यालय को प्रतिपल सचेष्ट रहना जरूरी है।

 यहाँ से बालमन, बाहर की दुनियाँ, विद्यालय, समाज और विभिन्न सम्बन्धों को समझना शुरू करता है। जहां माता-पिता के सपने परवान चढ़ते हैं। वहीं बालक की क्षमता, स्वास्थ्य ,वातावरण मिलकर हर बालक के लिए एक नई दुनियाँ का सृजन कर रहे होते हैं। इस प्रवेश से बालक को नई दिशा, प्राइवेट सैक्टर को धन,विभिन्न संस्थाओं को पहचान मिलती है। और मूल कारक बालक प्रभावित होता है।

इस स्तर के बालक को हम अपनी महत्त्वाकाँक्षा से दुष्प्रभावित न करें, बालक को बालक ही रहने दें. उसे रोबोट न बनाएं। एक स्तर पर एक तय पाठ्यक्रम का अवबोध हो, एक सरलता सहजता बनी रहनी आवश्यक है। कृत्रिमता के बोझ तले उनका बचपन छीनने का प्रयास न करें, उन्हें खेलने दें स्वाभाविक रूप से बढ़ने दें पढ़ने दें। बच्चों की किलकारी से, मुस्कान से, हास्य से आनन्दित हों, भाव प्रगटन सहज रहने दें उनका शाब्दिक परिमार्जन करें लेकिन सहजता से स्वाभाविकता से। उनका सारा समय न छीनें।

 केवल उस स्तर का किताबी अधिगम काफी है व्यावहारिकता से जुड़ाव का प्रयास हो प्राकृतिक रूप से बिना किसी दवाब के। ट्यूशन कक्षा शिक्षण और घरेलू व्यवहार में आदेशात्मक वाक्यों से बचें। व्यक्तित्व में निखार स्वाभाविक रूप से आने दें। तुलना के नकारात्मक प्रभाव से दूर रहने का प्रयास करें। याद रखें प्रतिस्पर्धा और अन्धी दौड़ में फर्क है। इस स्तर की मार्कशीट (अंक तालिका) सहेज कर रखना बहुत तर्क सांगत नहीं है। आज अभिभावकों की ज्यादातर यह अंकतालिकाएं कहाँ हैं पता भी नहीं होगा।

स्वाभाविक स्तरोन्नयन के साथ बालकों की समझ को विस्तार के नए आयाम मिलने दें। कम अंक आने पर मारपीट करने की जगह स्वयं की भूमिका का विवेचन करें डिब्बा बन्द, मृत भोजन की जगह पौष्टिक व ताज़ा आहार व्यवस्था पर ध्यान अपेक्षित है। आपका सौम्य व नियन्त्रित व्यवहार इस स्तर के बच्चों की जमा पूँजी है। यह संस्कार, प्राकृतिक तालमेल सहज प्रगति जीवन का मज़बूत आधार है।

2 – माध्यमिक शिक्षा कक्षा 9 से 12 तक –

आठवीं के बाद परिवर्तन की एक नई आहट सुनाई पड़ती है, बहुत से नए साथियों, नए गुरुओं, नई पुस्तकों, बदलती दुनियाँ के बदलते परिवेश से तालमेल बैठाते हमारे नन्हें मुन्ने। हमारे बेटे,बेटियों के रूप में ये नए योद्धा नई परिस्थितियों, विषयों के विस्तार से जूझने को आतुर।

 ऐसे में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है अध्यापक। स्वयं की उलझनों में उलझे अध्यापक से मुक्त शिक्षा से प्यार करने वाला अध्यापक निश्छल, सहज स्वाभाविक मुस्कान आत्म विश्वास से परिपूर्ण रहकर विद्यार्थियों को सकारात्मक दिशा दे सकता है। अभिभावकों को भी प्रशिक्षित अध्यापकों वाले विद्यालय का चयन  कर प्रवेश सुनिश्चित कराना चाहिए।

आज तक की समस्त सरकारें शिक्षा से पल्ला झाड़ने पर एक मत दिखाई देती हैं इसी वजह से निजी संस्थान लगातार अस्तित्व में आ रहे हैं जिनकी अपनी समस्याएं हैं, प्रतिस्पर्धा है। उद्देश्य धनार्जन है। शानदार इमारत की जगह अच्छा व कुशल प्रबन्धन, योग्य अध्यापक, विगत परीक्षा परिणाम, विद्यालय, अनुशासन, निष्पक्षता, संस्था व्यवहार अधिक मायने रखता है।

हमारे बालक बालिकाओं में इस स्तर पर सहज शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होने लगते हैं

यहाँ कुशल अभिभावक, कुशल अध्यापक और जिम्मेदारी निर्वहन में समर्थ विद्यालय बालक का शारीरिक, चारित्रिक, मानसिक गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करते हैं। संस्कार, नीति, व्यवहार इसी स्तर पर गढ़ा जाता है  बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था अपने सहज मोहपाश में जकड़ बालकों को दिग्भ्रमित कर सकती है।

3 – उच्च शिक्षा यथा स्नातक, परास्नातक, शोध आदि  –

            इस स्तर तक आते आते विद्यार्थी अपने अभिभावकों से प्रवेश, रूचि, अभिरुचि, पसन्दीदा क्षेत्र आदि के सम्बन्ध में विचार विमर्श की कुछ क्षमता हासिल कर लेता है। अच्छे विचार विमर्श के उपरान्त विद्यालय का उच्च शिक्षा हेतु चयन किया जाता है लेकिन कभी कभी नज़दीकी, सुविधा, जल्दबाजी आदि के आधार पर भी उच्च शिक्षा हेतु विद्यालय चयनित किया जाता है। यहाँ की शिक्षा व्यवस्था, पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सहभागिता ,क्रीड़ा प्रतियोगिता में भागीदारी आने वाले जीवन के लिए आधार का काम करती है। कुछ विद्यार्थी पढ़ने के साथ पढ़ाने के स्वप्न भी देखते हैं और तदनुकूल आचरण भी करते हैं अपने अधिगम स्तर में वृद्धि कर सफल भी होते हैं। प्रशासकीय कार्यों हेतु आधार यहां से मिल जाता है। पात्र और उसकी पात्रता विद्यार्थी की क्षमता वृद्धि के साथ बढ़ती है।

स्नातक और परास्नातक स्तर के कुछ विद्यार्थियों में एक महत्त्व पूर्ण नकारात्मक बिंदु के भी दर्शन मिलते हैं वह यह की प्रवेश के समय सपना उच्च शिक्षा और उच्च प्रतिमान कायम करने का होता है लेकिन कालांतर में यह परिदृश्य ओझिल हो जाता है।

कतिपय विद्यार्थी कई पी० जी० करने लगते हैं और दिशाहीन व दिग्भ्रमित हो जाते है। उचित निर्देशन  व परामर्श की महाविद्यालयों में कोई व्यवस्था देखने को नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि विद्यार्थी किसी भी कार्य से जुड़ जिन्दगी बचाने का प्रयास भी करेगा और दायित्व भी निभाएगा।

मध्यम स्तर का विद्यार्थी या सुविधा हीन विद्यार्थी इस स्तर पर अपने को ठगा सा महसूस करता है और सोचता है कि कोई व्यावहारिक कार्य सीखा होता तो ठीक रहता। साधन सम्पन्न या पूर्व नियोजित दिशा वाले विद्यार्थी  तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण की ओर रुख करते हैं।

4 – तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण  –

वर्तमान समय कठिन प्रतिस्पर्धा का है इसी लिए सदा शिक्षा की जगह प्रशिक्षण या तकनीकी शिक्षा को वरीयता दी जाती है। विद्यार्थी इस हेतु दूरस्थ स्थानों पर जाने में भी नहीं हिचकते। कई विद्यार्थी इस हेतु कोचिंग क्लास ज्वाइन करते हैं विगत समय में बहुत सी ख़बरें लक्ष्य न मिलने पर आत्म ह्त्या जैसे जघन्य अपराध की भी सुनने को मिली हैं। हमें याद रखना है कि हारा वही जो लड़ा नहीं।

किसी भी तकनीकी शिक्षा या ट्रेनिंग कोर्स में प्रवेश हेतु सम्यक रण नीति और उस पर अमल परम आवश्यक है। प्रवेश न मिलने पर जीने के रास्ते बंद नहीं होते दिशा बदल सकती है। कहा तो यह भी जाता है कि असफलता का मतलब है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं किया गया।

प्रवेश मिल जाने पर अल्पकालिक लक्ष्य मिलता है वास्तव में सफर की शुरुआत यहाँ से होती है। इस पर चलने हेतु निरन्तर प्रवेश के समय तय उद्देश्य को ध्यान में रखना है क्यों कि यहां से निकलने पर यथार्थ का कठोर धरातल हमारी परीक्षा लेने को तैयार खड़ा है।

अधिगम के बाधक तत्त्व – प्रवेश के समय जो मानसिक उड़ान होती है वह कालान्तर में मन्द पद जाती है उसके पीछे विविध कारण होते हैं। इनसे अधिगम दुष्प्रभावित होता है कुछ को यहाँ विवेचित किया जा रहा है आशा कि ये बिन्दु तत्सम्बन्धी के जागरण में सहायक होंगे।

01 – रूचि

02 – चन्द अभिभावक

03 – कतिपय विद्यालय

04 – अकुशल अध्यापक

05 – निर्देशन परामर्श अभाव

06 – पाठ्य क्रम

07 – मानक हीन शिक्षा व्यवस्था

08 – अध्यापकों की दयनीय स्थिति

09 – शासन की शिक्षा नीतियाँ

10 – इच्छा शक्ति का अभाव

            उक्त विचार मन्थन ह्रदय को उद्वेलित करता है आजादी के इतने वर्ष गुजरने के बाद भी शिक्षा के साथ न्याय नहीं हुआ है प्रवेश के समय की सोच और अधिगम काल व अधिगम प्राप्ति के बाद की सोच में बहुत चौड़ी खाई है भारत में प्रति व्यक्ति सीमित आय व भ्रष्टाचार भी अधिगम प्रसार की मार्ग का रोड़ा बने हुए हैं। मर्यादा हनन सामान्य बात हो गयी है और शिक्षा स्वयम् व्यापार होती दिखती है लेकिन इन विषम परिस्थिति में भारतीय युवा सुधार की आशा में कड़ी मेहनत कर रहा है आशा है कि शिक्षा व्यवस्था स्वमूल्याङ्कन करेगी। प्रवेश के समय के सपने अधिगम के साथ पूर्णता प्राप्त करेंगे . 

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शिक्षा

ENVIRONMENT

May 8, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पर्यावरण

पर्यावरण में उन समस्त तत्वों या उस सब कुछ को सम्मिलित किया जाता है जो हमें हर और से घेरे है, केवल चारों ओर से घेरे कहना उपयुक्त नहीं लगता। यहाँ यह कहना भी समीचीन होगा कि मानव से परे सब उसका पर्यावरण है। पर्यावरण पर दीर्घकाल से चिन्तन मन्थन होता आया है और अभी बहुत कुछ अध्ययन मनन की आवश्यकता है।

पर्यावरण से आशय व परिभाषा

Meaning and definition of environment

पर्यावरण मानव संचेतना का वह विशिष्ट शब्द जिसके प्रति मानवीय जिज्ञासा व रूचि दीर्घकाल से रही है और रहेगी भी।यह विविध आयामी है  इसी कारण बहुत सी परिभाषाएं एक या अधिक आयाम को तो अपने में समेटती हैं सबको नहीं। क्योंकि ज्ञान के प्रस्फुटन के साथ नया विषय नया क्षेत्र इसे अपने आप से सम्बद्ध कर लेता है। अब तक के ज्ञान के आधार पर कुछ परिभाषाएं द्रष्टव्य हैं। –

बोरिंग महोदय के अनुसार –

“एक व्यक्ति के पर्यावरण में वह सब कुछ सम्मिलित किया जाता है जो उसके जन्म से मृत्यु पर्यन्त तक प्रभावित करता है।” 

“A person’s environment consists of the sum total of the stimulation which he receives from  his conception until his death.”

सी ० सी ० पार्क (1980) के अनुसार

“मनुष्य एक विशेष स्थान पर विशेष समय पर जिन सम्पूर्ण परिस्थितियों से घिरा हुआ है उसे पर्यावरण कहा जाता है।“

“Environment refers of the sum total of conditions which surround man at a given point is space and time.”

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अनुसार –

“पर्यावरण में वायु,जल, भूमि, मानवीय प्राणी, अन्य जीव–जन्तु, पौधे, सूक्ष्म जीवाणु और उनके मध्य विद्यमान अन्तर्सम्बन्ध सम्मिलित हैं।“

“Environment includes air, water, land, human beings, other living beings, plants, micro-organisms and the interrelationships existing between them.”

पर्यावरण को पारिभाषित करते हुए ए ० जी ० टेन्सले (A.G.Tansley) महोदय ने बताया –

“प्रभावकारी दशाओं का वह सम्पूर्ण योग जिसमें जीवधारी निवास करते हैं, पर्यावरण कहलाता है।“

“It is the sum total of effective conditions in which organism live.”

विविध परिभाषाओं के विश्लेषण करने के उपरान्त कहा जा सकता है कि पर्यावरण में मानव जीवन के प्राकृतिक, सामाजिक, कृत्रिम कारकों का योग है सामाजिक घटक परिवर्तनशील हैं लेकिन आज हम सांस्कृतिक,नैतिक,सामाजिक व व्यक्तिगत मूल्यों को स्थान दे सकते हैं।   

पर्यावरण का क्षेत्र

Scope of Environment-

पर्यावरण के क्षेत्र का अध्ययन करने में दिक्कत यह है कि आखिर छोड़ा क्या जाए सभी समाहित करने योग्य है लेकिन स्पष्ट करने के लिए यहां कुछ बिन्दुओं को आधार बनाने का प्रयास है। –

01 – पर्यावरण शिक्षा (Environment Education)

02 – अनिवार्य पर्यावरणीय विद्यालय शिविर (Compulsory Environmental School Camp)

03 – तत्सम्बन्धी शिक्षण विधियाँ (Related teaching methods )

04 – स्थाई विकास (Sustainable development)

05 – प्रदूषण (Pollution)

0 6 – जैव विविधता (Biodiversity)

07 – वैश्विक ताप वृद्धि (Global warming)

08 – पर्यावरणीय जागरूकता (Environmental Awareness)

09 – जलवायु परिवर्तन (Climate change)

10 – पारिस्थितिकी तन्त्र (Ecosystem)

11 – जनसंख्या वृद्धि (Population growth)

12 – आपदाएं (Disaster)

13 – मूल्यांकन (Evaluation)

14 – विविध संसाधन (Miscellaneous resources)- जल, खनिज, वन, ऊर्जा आदि  

15 – तत्सम्बन्धी क़ानून (Related Law)

16 – तत्सम्बन्धी विविध प्रयास (Various related efforts)

पर्यावरण की प्रकृति / Nature of environment –

सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि प्रकृति होती क्या है ? प्रकृति यहाँ स्वभाव,निहित गुण, व्यावहारिक आचरण आदि विविध गुणों को समाहित करती चलती है।  पर्यावरण की प्रकृति से आशय पर्यावरण के गुण धर्म, स्वभाव आदि से है और इसी प्रकृति के अनुसार पर्यावरण विविध कार्यों को अंजाम देता है। इन गुणों, संकेतों को अध्ययन का आधार बनाकर पर्यावरण की प्रकृति को बिन्दुवार इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है।

01 – बहुआयामी प्रकृति / Multidimensional nature

02 – आपसी सम्बन्ध /Mutual relations

03 – भविष्य कथन में सक्षम / Capable of predicting future

04 – प्रकृति से निकटता / Closeness to nature

05 – सजगता / Vigilance

06 – अनुभव बोध / Sense of experience

07 – चेतनता आवाहन / Call to consciousness

08 – प्रकृति मानव सम्बन्धों की प्रगाढ़ता / Intensity of nature human relations

09 – आपदा प्रबन्धन / Disaster management

10 – स्वास्थय संवाहक / Health promoter

11 – प्रदुषण सम्बन्धी जानकारी / pollution related information

12 – पारिस्थितिकीय तन्त्र संरक्षण संकेत / ecosystem protection sign

13 – दायित्व बोध / sense of responsibility

14 – वसुधैव कुटुम्बकम  / Vasudhaiva Kutumbakam

उक्त सम्पूर्ण विवेचन मानव को सचेत तो करता है लेकिन पर्यावरणीय संचेतना का असली स्वरुप भविष्य के गर्भ में हैं।

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शिक्षा

BIODIVERSITY

May 7, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जैव विविधता

जैव विविधता दो शब्दों जैव और विविधता से बना है जैव से आशय प्रत्येक चेतना युक्त प्राणी से है विविधता अपने आप में प्रत्येक चेतन के समाहित होने से है समूचे व्योम में असंख्य जीव अपनी विविधता को परिलक्षित करते हैं इस खूबी को संरक्षण प्रदान करना ही जैव विविधता को संरक्षण प्रदान करना है हर जीव की अपनी खूबी है उसका फायदा सभी को मिलता है।

Meaning and values of Biodiversity

जैव विविधता का अर्थ एवं महत्ता –

(1 ) – अर्थ

विविध विज्ञ जनों ने स्वीकार किया कि जैव विविधता शब्द पृथ्वी पर जीन से लेकर पारिस्थितिक तन्त्र तक सभी स्तरों पर जीवन की विविधता को सन्दर्भित करता है। जीवन की यह विविधता समूची पृथ्वी पर समान रूप से वितरित नहीं है कई बार कई जीव किन्ही लोगों के छुद्र स्वार्थों से विनाश के कगार तक पहुँच जाते हैं इनके निवास स्थल के तबाह होने से विविध जीवों के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है।

जैव विविधता से आशय भूमि पर जीवन की परिवर्तनशीलता और विविधता से है।विकिपीडिया के अनुसार –

” जैववैविध्य या जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन की विविधता और परिवर्तनशीलता है। जैव वैविध्य आनुवंशिक (आनुवंशिक परिवर्तनशीलता), प्रजाति ( प्रजाति विविधता ), और परितन्त्र (परितान्त्रिक वैविध्य) स्तर पर भिन्नता का एक माप है।” 

“Biodiversity or biodiversity is the variety and variability of life on Earth. Biodiversity is a measure of variation at the genetic (genetic variability), species (species diversity), and ecosystem (ecological diversity) levels.”

डॉ ० राम मनोहर विरले जी के अनुसार

“जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन की समृद्धि और विविधता का प्रगटन करती है। यह भूमण्डल की सबसे विशिष्ट व  जटिल  विशेषता है। जैव विविधता के बिना जीवन की कल्पना करना भी एक कल्पना ही होगा।“

“Biodiversity reflects the richness and variety of life on Earth. This is the most unique and complex feature of the earth. It would be a fantasy to imagine life without biodiversity.”

जैव विविधता को  एक अन्य विद्वान्न ने  इस प्रकार की परिभाषित किया है –

“जैव विविधता स्थलीय, समुद्री और रेगिस्तानी पारिस्थितिक तंत्र और पारिस्थितिक परिसरों सहित विभिन्न स्रोतों से जीवित जीवों के बीच भिन्नता है, जिसका वे हिस्सा हैं।”“Biodiversity is the variation among living organisms from different sources, including terrestrial, marine and desert ecosystems and the ecological complexes of which they are part.”उक्त विचारों के आलोक में कहा जा सकता है कि समुद्र, सामान्य स्थल, जंगल, पहाड़, रेगिस्तान, नदी, कुआं, पृथ्वी तल के नीचे  जहाँ भी जीवन है वहाँ का एक पारिस्थितिक तन्त्र होता है और जीवों में विविधता होती है और हमारा अस्तित्व परस्पर सह अस्तित्व पर निर्भर है।

(2 ) – महत्ता –

भारत में भी जैव विविधता के विशिष्ट दर्शन होते हैं पौधों की प्रजातियों की समृद्धि के मामले में यह नौवें स्थान पर है ।भारत अरहर, बैंगन, ककड़ी, कपास और तिल जैसी महत्वपूर्ण फसल प्रजातियों का उद्गम स्थल है। भारत विभिन्न घरेलू प्रजातियों जैसे बाजरा, अनाज, फलियां, सब्जियां, औषधीय और सुगंधित फसलों आदि का महत्त्वपूर्ण केंद्र है। विश्व के 25 जैव विविधता हॉटस्पॉट में से दो हमारे भारत में पाए जाते हैं। पशु सम्पदा का भारत महत्त्वपूर्ण केन्द्र है लगभग 91000 पशु प्रजातियां यहां पाई जाती हैं।जैव वैविध्य के अलग-अलग मुख्य तीन प्रकारों को इस प्रकार क्रम देकर इनकी महत्ता को समझने का प्रयास है

1 – आनुवंशिक जैव विविधता

2  – प्रजाति जैव विविधता

3  – पारिस्थितिक जैव विविधता

जैव विविधता सम्पूर्ण प्रगति का आधार है जैव विविधता जीवन को वह सम्बल प्रदान करता है कि उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने में भी हम बौने साबित होंगे। फिर भी इसकी मुख्य महत्ता को हम इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –

01 – जीवन का आधार जैव विविधता

02 – भोजन प्रदाता

03 – उत्तम स्वास्थय

04 – रोटी कपड़ा और मकान

05 – पारिस्थितिकी तंत्र को स्थायित्व

06 – व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन

07 – आर्थिक सम्पन्नता

08 – पृथ्वी की स्वच्छता

09 – सौन्दर्य प्रसाधन

10 – कृतज्ञता का सर्वोच्च शिखर

            जैव विविधता मानव प्रजाति को ईश्वर की अनुपम भेंट है इसकी महत्ता का वर्णन सूर्य को दीप  दिखाने जैसा है।

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शिक्षा

ENVIRONMENT MANAGEMENT

May 6, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पर्यावरण प्रबन्धन

प्रकृति ने जल, वायु, आकाश, ताप, प्रकाश, भूमि, वनस्पति, प्रचुर रूप से उपलब्ध कराई है जड़, जङ्गम और प्राकृतिक संसाधनों की यह नेमत निरापद रूप से यदि मानव तक नहीं पहुँचती तो  संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जाती है। प्रकृति प्रदत्त इन संसाधनों का संरक्षण ही प्राकृतिक संरक्षण कहलाता है। इस प्रकृति का संरक्षण ही पर्यावरणीय संरक्षण का वाहक बनता है। पर्यावरण से आशय मानव को हर और से घेरे समस्त तत्वों से है। आज के औद्योगिक विकास ने मानव और प्रकृति के सम्बन्धों में ह्रास का भयंकर सिलसिला प्रारम्भ कर दिया व परवान चढ़ाया।  समूची मानवता कराह कर कातर दृष्टि से विद्यालय से यह आशा रखती है कि पर्यावरण संरक्षण व सतत विकास हेतु विद्यालय अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करें। क्योंकि पर्यावरण प्रबन्धन हेतु विद्यालय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन हैं।

Role of school in environment conservation and sustainable development.

पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास में विद्यालय की भूमिका। –

01 – पाठ्यक्रम परिवर्तन / Curriculum Change

02 – शिक्षण विधि परिवर्तन / Change in teaching method

03 – जागरूकता / Awareness

04 – समाजीकरण / socialization

05 – समायोजन शक्ति में सकारात्मक परिवर्तन /  Positive change in adjustment power

06 – पुरूस्कार व दण्ड का सम्यक प्रयोग / Proper use of rewards and punishments

07 – पाठ्यसहगामी क्रियाएँ / co-curricular activities

08 – मनुष्य व प्राकृतिक सम्बन्धों की प्रगाढ़ता / Intensity of human-nature relationship

09 – सौर ऊर्जा का उपयोग / Use of solar energy

10 – प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा / Promotion of natural tourism

11 – सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास / Development of positive attitude

12 – पर्यावरण अनुकूल वस्तुओं को बढ़ावा / Promote eco-friendly products

13 – औद्योगिक कचरा निपटान / Industrial waste disposal

14 – सामाजिक सञ्चेतना / Social awareness

पर्यावरण प्रबन्धन का महत्त्वपूर्ण कार्य उक्त बिन्दुओं के आधार पर सम्पन्न किया जा सकता है आवश्यकता है जनजागरण की और जनजागरण का यह कार्य विद्यालय क्रमिक रूप से पूर्ण कर सकते हैं। आज यहाँ वहाँ दीप प्रज्जवलन से कार्य चलने वाला  नहीं है विद्यालय और समाज को मिलकर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। विद्यालय को भी लगातार योगदान कर पथ आलोकित करना होगा।

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शिक्षा

INCLUSIVE EDUCATION

May 3, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

समावेशी शिक्षा

समावेशी शिक्षा से विस्तृत परिक्षेत्र सम्बद्ध है यहाँ अधोलिखित तीन बिन्दुओं पर मुख्यतः विचार करेंगे।

1 – समावेशन की अवधारणा और सिद्धान्त /Concept and principles of inclusion

2 – समावेशन के लाभ / Benefits of inclusion

3 – समावेशी शिक्षा की आवश्यकता / Need of inclusive education

समावेशन की अवधारणा और सिद्धान्त /Concept and principles of inclusion –

जब हम समावेशन की बात करते हैं तो यह जानना परमावश्यक है कि यह किनका करना है। समाज में बहुत से लोग हाशिये पर हैं शिक्षण संस्थाओं में अधिगम करने वाले विविध वर्ग हैं कुछ में शारीरिक, कुछ में मानसिक क्षमताएं, अक्षमताएं  विद्यमान हैं। हमारे विद्यालयों में अध्यापन करने वाला व्यक्ति समस्त अधिगमार्थियों से उनकी क्षमतानुसार अधिगम क्षेत्र उन्नयन हेतु पृथक व्यवहार कर सभी का समावेशन करना चाहता है।

समावेशन वह क्रिया है जो विविधता युक्त व्यक्तित्वों में निर्दिष्ट क्षमता समान रूप से स्थापन करने हेतु की जाती है।

गूगल द्वारा समावेशन सिद्धान्त तलाशने पर ज्ञात हुआ –       

“समावेशी शिक्षण और शिक्षण सभी छात्रों के सीखने के अनुभव के अधिकार को पहचानता है, जो विविधता का सम्मान करता है, भागीदारी को सक्षम बनाता है, बाधाओं को दूर करता है और विभिन्न प्रकार की सीखने की आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं पर विचार करता है।“

“Inclusive teaching and learning recognizes the right of all students to a learning experience that respects diversity, enables participation, removes barriers and considers a variety of learning needs and preferences.”

समावेशन का यह प्रयास विविध क्षेत्रों में विविध प्रकार से हो सकता है लेकिन यदि हम केवल शिक्षा के दृष्टिकोण से इस पर विचार करें तो प्रसिद्द शिक्षाविद श्री मदन सिंह जी(आर लाल पब्लिकेशन) का यह विचार भी तर्क सङ्गत है –

“शिक्षा के क्षेत्र में समावेशी शिक्षा का अर्थ है – विद्यालय के पुनर्निर्माण की वह प्रक्रिया जिसका लक्ष्य सभी बच्चों को शैक्षणिक और सामाजिक अवसरों की उपलब्धता से है। ” 

“In the field of education, inclusive education means the process of restructuring of schools aimed at providing educational and social opportunities to all children.”

समावेशी शिक्षा की प्रक्रियाओं  में अधिगमार्थी की उपलब्धि, पाठ्य क्रम पर अधिकार, समूह में प्रतिक्रया, शिक्षण, तकनीक, विविध क्रियाकलाप, खेल, नेतृत्व, सृजनात्मकता आदि को शामिल किया जा सकता है।

समावेशन के लाभ / Benefits of inclusion –

चूँकि हम शैक्षिक परिक्षेत्र में सम्पूर्ण विवेचन कर रहे हैं अतः समावेशी शिक्षा के लाभों पर मुख्यतः विचार करेंगे। इस हेतु बिन्दुओं का क्रम इस प्रकार संजोया जा सकता है।

01- स्वस्थ सामाजिक वातावरण व सम्बन्ध / Healthy social environment and relationships

02- समानता (दिव्याङ्ग व सामान्य) / Equality

03- स्तरोन्नयन / Upgradation

04 – मानसिक व सामाजिक समायोजन / Mental and social adjustment

05- व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण / Protection of individual rights

06- सामूहिक प्रयास समन्वयन / Coordination of collective efforts

07- समान दृष्टिकोण का विकास / Development of common vision

08- विज्ञजनों के प्रगति आख्यान / Progress stories of experts

09- समानता के सिद्धान्त को प्रश्रय / Support the principle of equality

10- विशिष्टीकरण को प्रश्रय / Support for specialization

11- प्रगतिशीलता से समन्वय / Progressive coordination 

12- चयनित स्थानापन्न / Selective  placement

समावेशी शिक्षा की आवश्यकता / Need for inclusive education –

जब समावेशी शिक्षा की आवश्यकता क्यों ? का जवाब तलाशा जाता है तो निम्न महत्त्वपूर्ण बिन्दु दृष्टिगत होते हैं –

01- सौहाद्रपूर्ण वातावरण का सृजन /  Creation of harmonious environment

02- सहायता हेतु तत्परता / Readiness for help

03- परस्पर आश्रयता की समझ का विकास / Development of understanding of mutual support

04- जैण्डर सुग्राह्यता / Gender sensitivity

05- विविधता में एकता / Unity in diversity

06- सम्यक अभिवृत्ति विकास / Proper attitude development

07- अद्यतन ज्ञान से सामञ्जस्य / Alignment with updated knowledge

08- विश्व बन्धुत्व की भावना को प्रश्रय / Fostering the spirit of world brotherhood

09- हीनता से मुक्ति / Freedom from inferiority

10- मानसिक प्रगति सुनिश्चयन  / Ensuring mental progress

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मनोविज्ञान

E – Learning

May 2, 2024 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

ई  – अधिगम

ई – अधिगम, अधिगम का वह प्रकार है जिसमें अधिगम हेतु मुख्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या स्रोतों की मदद ली जाती है, इसमें दृश्य व  दृश्य- श्रव्य साधनों के माध्यम से अधिगम को सरल बनाया जाता है इन साधनों में माइक्रो फोन, दृश्य व दृश्य श्रव्य टेप सी ० डी ०, डी ० वी ० डी ०,  पेन ड्राइव, हार्ड डिस्क आदि  प्रयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक अधिगम में सूचना व सम्प्रेषण तकनीकी का प्रयोग मुख्यतः होता है इसके अन्तर्गत टेली कॉन्फ्रेंसिंग, कम्प्यूटर कॉन्फ्रेंसिंग, वीडिओ कॉन्फ्रेंसिंग, ऑन लाइन लाइब्रेरी, ई मेल, चैटिंग आदि आते हैं। इन सबमें इण्टरनेट व वेव तकनीकी प्रयुक्त की जाती है। आधुनिकतम कम्प्यूटर, बहु माध्यम नेट वर्किंग, इलेक्ट्रॉनिक अधिगम के प्रमुख सहायक हैं।

रोजेन वर्ग महोदय (2001)  ने बताया –

“ई – अधिगम से तात्पर्य इण्टरनेट तकनीकियों के ऐसे उपयोग से है जिनसे विविध प्रकार के ऐसे रास्ते खुलें जिनके द्वारा ज्ञान और कार्य क्षमताओं में वृद्धि की जा सके।”  

“E-learning refers to the use of Internet technologies that open up a variety of avenues through which knowledge and work abilities can be enhanced.”ई–अधिगम के लाभ / Benefits of e-learning – 1- कभी भी कहीं भी अधिगम0 2- प्रभावी अधिगम सामग्री 0 3- शिक्षण विधियों का प्रभावी अधिगम 0 4- स्वगति से अधिगम 0 5- तत्सम्बन्धी गैजेट्स का सम्यक उपयोग 0 6- परम्परागत संसाधन से वंचितों को वरदान 0 7- मानसिक स्तर, कौशल व रूचि अनुसार अध्ययन  0 8- आवश्यकतानुसार अध्ययन 0 9- उपचारात्मक व निदानात्मक शिक्षण 10 – विविधता में एकता के दर्शन 11 – गुणवत्ता युक्त प्रभावी माध्यम 12 – स्व क्षमतानुसार अध्ययनई–अधिगम की सीमाएं / Limitations of e-learning –01 – शिक्षा का यांत्रिकीकरण 02 – अधिगम कर्त्ताओं की नकारात्मकता 03 – वांछित कौशलों का अभाव 04 – अन्तः क्रिया का अभाव 05 – व्यक्तिगत संसाधनों का अभाव 06 – साधनविहीन विद्यालय 07 – प्रशिक्षण रहित शिक्षक08 – ऊर्जा संसाधनों का अभाव 09 – जागरूकता अभाव 10 – परम्परागत रूढ़िवादी सोच

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