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काव्य

बिलकुल मतलब नही होता है।

May 4, 2025 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जब मन, मन से मिल जाता है,

और धन आगम बन जाता है।

तब इस जाति उस जाति का,

बिलकुल मतलब नही होता है।1।

जब घायल होकर कोई तन

लहू के लिए तड़पता है

वह शोणित है किस जाति का

बिलकुल मतलब नही होता है।2।

जब वृद्ध मरे कोई फाके से, 

फिर कोई तेरहवीं करता है। 

तब होने वाली उस दावत का 

बिलकुल मतलब नही होता है।3।

जब घर पर तेरी माता भूखी है,

और तू भण्डारा करता है।

तब जय माता दी कहने का

बिलकुल मतलब नही होता है ।4।

जब घर पर मातम होता है,

घर का बालक नहीं पढ़ता है।  

तब फिर इस तीर्थ यात्रा का, 

बिलकुल मतलब नही होता है ।5।

इस जीवन के संघर्षों से ,

बच कर जब कोई निकलता है।  

तब केवल कर्मकाण्डों का, 

बिलकुल मतलब नही होता है ।6।

घर घोर अभाव में चलता है,

तू दान पूण्य सब करता है।

तब फिर इस आयोजन का

बिलकुल मतलब नही होता है ।7।

तूने खूब कमाया खाया है,

बच्चों को शिक्षा दी ही नहीं ।  

तब फिर बन्धु इस जीवन का, 

बिलकुल मतलब नही होता है ।8।

जब ट्रेन गई स्टेशन से ,

और बाद में वहाँ पहुँचते हो।  

तब क्षमा याचना करने का, 

बिलकुल मतलब नही होता है ।9।

फसल सूख गई बिन जल के, 

तिनका तिनका बन बिखर गई।

तब फिर घनघोर से वर्षण का

बिलकुल मतलब नही होता है ।10।

क्षुधा- पूर्ति करने को यदि ,

सब डिब्बा बन्द ही खाते हो ।  

मानस पर घोर नियन्त्रण का, 

बिलकुल मतलब नही होता है ।11।

व्यायाम कभी गर किया नहीं,

रोगों का घर तन बना लिया।  

तब बाद के प्राणायामों का, 

बिलकुल मतलब नही होता है ।12।

गर जीवन में कुछ करना है,

और काम समय पर किया नहीं।  

तब फिर यूँ किए परिश्रम का, 

बिलकुल मतलब नही होता है ।13।

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काव्य

सूझ पर क्या समझती है।

April 12, 2020 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


पिया के दर्द की शिद्दत

बस दीवानी समझती है।

जल बिन जी नहीं सकते

तड़प मछली समझती है ।1।

नयन की भीगती भाषा

अश्रु पीड़ा समझती है।

स्वरों में दर्द है कितना 

ये वीणा भी समझती है ।2।

न तो मीरा  समझती है

न राधा ही, समझती है।

हृदय की वेदनाओं को

कृष्ण लीला समझती है।3।

कोई सजना सँवरता है

कोई सजनी सँवरती है।

मिटाकर है बनाया फिर

समझती एक हस्ती है ।4।

कोई  दुर्गा  समझती है

कोई काली समझती है।

मनः  सम्वेदनाओं  को

बस  माँ  ही समझती है।5।

ये तुम, क्या समझते हो

ये वह, क्या समझती है।

एक ईश्वर के, बन्दे सब

सूझ पर क्या समझती है।6।

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काव्य

आत्मबोध भर देती है।[AATM BODH BHAR DETI H]

November 24, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

माँ बच्चे को हाथ का साथ देती है।

प्रथम गुरु रूप में योगदान देती है।

निज चेहरे पर शिकन ओढ़ लेती है

शिशु मुस्तकबिल को दिशा देती है । । 

अद्भुत पीड़ा है, जो सुकून देती है,

सब दर्दोगम सह, ओठ सी लेती  है,

शिशुमुख देख खुशी से जी लेती है,

माँ तो माँ है रो लेती है,हंस लेती है ।।

धैर्य से सारा परिवार, संजो लेती है,

अपमान के अश्रुघूँट भी पी लेती है,

अपने सपनों में नवरंग नहीं लेती है

शिशु प्रगति अरमान ले जी लेती है ।।

वह स्वयम के लिए कुछ नहीं लेती,

परिवार की झोली, भर ही देती है।

सर्व न्यौछावर कर परिवार खेती है,

तिलतिल जल घर द्वारसजा देती है।

माँ कर्जे में डूब बलैयाँ ले लेती है

वो  ममता हमें ऋणी कर देती है

तपस्वी तप को वही दिशा देती है,

जीवन मन्थन हलाहल पी लेती है ।।

भूख,चोट,पीड़ा सभी सह लेती है,

फूँक से भी अनन्त प्यार दे देती है,

जादुई फूँक में प्यार उड़ेल देती है,

हर लाल को कर्जदार कर देती है।।

समय का हर निशाँ चहरे पे लेती है

जो चीख कर हम सबसे कह देती है,

हर सलवट में वो दर्द  छिपा लेती है

खास आसविश्वास से माँ जी लेती है ।।

आँसू पी पीकर निज ग़म खा लेती है,

पावन सद आशीष हमें वो दे देती है,

यथा शक्ति सारे अवगुण हर लेती है,

नवजीवन हेतु आत्मबोध भर देती है ।।

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वाह जिन्दगी !

अन्दर तार तार हुआ जाता हूँ।[ANDAR TAR TAR HUA JATA HUN.]

November 15, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava 1 Comment

माँ,कैसे समझाऊँ,आजभी तुझे बहुत प्यार करता हूँ,

दूर रह कर भी दिल से,हमेशा तेरे ही पास रहता हूँ,

मन में उठी गहरी हूक को आँसू नहीं बनने देता हूँ,

मैं, जिम्मेदारी और वक्त की पाटी में बुरादा होता हूँ,

जिन्दगी मुझे हरपल झकझोरती है ,हाँ नहीं रोता हूँ,

घर,बाहर,दुनियाँ के शब्द, मुझे छलनी कर देते हैं,

न जाने क्यों मैं मज़बूत दिखने का प्रयास करता हूँ ,

अस्तित्व बचाने की खातिर, रोज ही कुर्बान होता हूँ,

माँ, अन्दर ही अन्दर, मैं बहुत लहू-लुहान होता हूँ,

दुनियाँ  के रन्जो ग़म सुन, उन्हें  ढाँढस बंधाता  हूँ,

पर अपना दर्द जमाने के लोगों से बाँट नहीं पाता हूँ,

कैसे कहूँ, कि पैसा इस दौर में, लोकाचार गढ़ता है,

मैं समाज को नहीं बाजार मुझे वस्तु समझ पढ़ता है,

वह मेरी आवाज़ काम कुर्बानी की कीमत लगाता है,

तेरा ये बेटा, कई अनगढ़ टुकड़ों में, बँटता  जाता है,

माँ,कई दिनों से कोई रात मुझे सुलाने नहीं आती  है,

कई रातें दायित्व निर्वाह को इधर से उधर भगाती हैं,

यादें घेर लेती हैं माँ, पर जाने क्यों नींद नहीं आती है,

ऐसा लगता है इन टुकड़ों में, जिन्दगी छिनी जाती है,

अब भी कोई भौतिक सुविधा,मुझे बाँध नहीं पाती है,

बचपन से जुड़ी  हर  बात,हर कहानी  याद आती है,

हर मौसम की वो गुजरी बिसरी रवानी जाग जाती है,

मेरी खुशी हित आप दोनों की, कुर्बानी याद आती है,

माँ- बाप द्वारा पसीने से लिखी,कहानी याद आती है,

इन स्मृतियों  में सुबह हो जाती है, नींद नहीं आती है,

अगले दिन जूझने वास्ते, मैं  खुद को तैयार करता हूँ,

ऊपर से मजबूत, अन्दर खुद को जार जार करता हूँ,

मुझे याद है माँ स्कूल से आ, हर बात तुझे बताता था,

आज बहुत कुछ सबसे से नहीं खुद से भी छिपाता हूँ,

और इसी कशमकश में, मैं खुद  ही बिखर  जाता हूँ,

लेकिन चेहरे पर शिकन,आँखों में पानी नहीं लाता हूँ,

जमाने का कुछ हिस्सा मुझे भी पैसे वाला समझता है,

उन्हें नहीं पता कि मैं स्वयम को किस तरह छलता हूँ,

यहाँ वक़्त के साथ जमाना बहुत कुछ रंग बदलता है,

प्राइवेट नौकरियों में बहुत कुछ उलटपुलट चलता है,

कभी वेतन बढ़ता,तो कभी आधे से कम रह जाता है,

और ऐेसे थपेड़े खाने में अब, अजब आनन्द आता है,

कभी बच्चों की फीस का खर्चा वेतन से बढ़ जाता है,

गतबचत का इस चक्कर में दिवाला निकल जाता है,

प्रारब्धवश हुआ मन ये बताता है गुस्सा नहीं आता है,

जमाने के गणित से रिश्तों का गणित बिगड़ जाता है,

माँ, जिन्दगी में ईमानदार रहना कठिन हुआ जाता है,

कितना भी प्रारब्ध मानूँ मष्तिस्क समझ नहीं पाता है,

कभी लगता है कि अब  मैं भी  मशीन हुआ जाता हूँ,

माँ, आज भी तेरी पूरी शिद्दत से बहुत  याद आती है,

आँख डबडबाने की इस कशमकश में छटपटाती है,

शरीर यहाँ रहता है ऑ,आत्मा तेरेपास चली जाती है,

जिन्दगी मुझे पुनः, यथार्थ धरातल  पर खींच लाती है,

कभी भावनाओं के गुबार में चकनाचूर हुआ जाता हूँ,

सुबह,शाम केआवर्तन में ख़ुदको समझ नहीं पाता हूँ,

सर्वोत्थान के चाह में अनसुलझा रहस्य हुआ जाता हूँ,

ऊपर से सशक्त और अन्दर तार तार हुआ जाता हूँ।

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