मानव है सामाजिक प्राणी,

बोध तिरोहित हो जाता है।

बुद्धि ही काम नहीं करती,

सौन्दर्यबोध भी खो जाता है।

हमें क्रोध क्यों आ जाता है।।

दुर्गुणता प्रश्रय को पाती,

सौम्यव्यवहार न रहपाता है।

सद्भाव भावना भी न रहती,

प्रेम भाव सब खो जाता है।

हमें क्रोध क्यों आ जाता है।

उच्च रक्त चाप की प्राप्ती,

नेत्र  लाल  भी हो जाता है।

संयम की क्षमता नहीं रहती,

दिशा बोध भी खो जाता है।

हमें क्रोध क्यों आ जाता है। 

दुर्भावना स्वर ऊँचा करती,

स्नेह पगा स्वर खो जाता है,

बुद्धि हरण सीमा न रहती,

और विवेक मारा जाता है।

 हमें क्रोध क्यों आ जाता है।।

सुरसा फिर शालीनता खाती,

क्या से क्या होता जाता है,

मर्यादा अतिक्रमणता बसती,

आत्म नियन्त्रण खो जाता है।     

हमें क्रोध क्यों आ जाता है।।

ज्वाला तेज धधकती जाती,

कालिमा भाव बस छाजाता है।

उद्वेगों की सरिता बहती,

रक्त अकारण बह जाता है।

हमें क्रोध क्यों आ जाता है।।  

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