शिक्षण प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है मौखिक परीक्षा अर्थात VIVA .यद्यपि इसके लिए अंक निर्धारित हैं लेकिन यह ही
भविष्य के साक्षात्कार [Interview]
का मुख्य आधार है जिस स्तर का VIVA होता है उस स्तर पर आपका कितना अधिकार है और आप
सर्वहित में इसका भविष्य में कैसे प्रयोग करेंगे, इसकी झलक इस मौखिक परीक्षा अर्थात VIVA से मिल जाती है। आइए B. Ed. स्तर पर अन्ततः होने वाले viva को प्रभावशाली बनाने के लिए हमारे लिए क्या
आवश्यक है इस पर विचार करते हैं।
बी० एड ० वायवा हेतु आवश्यक कारक
Factors Required for B.Ed. Viva
यद्यपि पूर्व निर्धारित प्रश्नों की कोई व्यवस्था नहीं होती है इसलिए
आपके व्यक्तित्व से लेकर अधिगम क्षमता व उनके व्यावहारिक प्रयोग की परीक्षा इसके
माध्यम से हो जाती है। इसे प्रभावशाली बनाने के लिए निम्न तथ्य महत्त्वपूर्ण
भूमिका अभिनीत करते हैं।
1- आधारभूत
ज्ञान [Basic knowledge]
2- तत्सम्बन्धी
फाइलें व आवश्यक सामग्री [Related
files and necessary material]
3- स्वनिर्मित
फाइल सम्बन्धी जानकारी [Self-contained
file information]
4- अप्राप्त
ज्ञान की स्व स्वीकारोक्ति [Self confession of unrealized knowledge]
5- झूठ
से परहेज [Abstaining
from lies]
6- बहानेबाजी
व बहस से दूरी [Distance
from excuses and arguments]
7- धारा
प्रवाहिता [Fluency]
8- आत्म
विश्वास [Self-confidence]
मौखिक परीक्षा के असंरचित (Unstructured) होने की वजह से इसका स्वरुप व्यापक हो जाता है लेकिन यह सत्य का एक
आवश्यक दर्पण भी होता है यदि गैर पक्षपात पूर्ण और योग्य व्यक्तित्व द्वारा इसका
सम्पादन होता है। यह आज की व्यवस्था का अनिवार्य अंग है इसे सहजता से लिया जाना
चाहिए यह आपकी परिपक्वता का द्योतक है।
अभिप्रेरणा
से आशय व परिभाषाएं (Meaning and definitions of motivation)-
अभिप्रेरणा जीव की वह आन्तरिक स्थिति है जो उसमें क्रियाशीलता
उत्पन्न करती है और अपनी उपस्थिति तक चलाती रहती है। यह वह जादू है जो मानव को
उसकी शक्तियों से साक्षात्कार कराता है यदि इसकी दिशा ठीक है तो यह एक ऐसा उपागम
है जो लक्ष्य की प्राप्ति सुगम कर देता है। अर्थात यह सीधे सीधे हमारे व्यवहार को
प्रभावित करता है। वुडवर्थ महोदय कहते हैं –
“A
motive is a state of the individual which disposes him for certain behaviour
and for seeking certain goals.”
“अभिप्रेरणा व्यक्तियों की दशा का वह समूह है जो
किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ती के लिए निश्चित व्यवहार को स्पष्ट करती है।”
जब
कि जॉनसन (Johnson)
महोदय का विचार
है कि –
“Motivation
is the influence of general pattern of activities indicating and directing the
behaviour of the organism.”
“अभिप्रेरण सामान्य क्रियाकलापों का प्रभाव है
जो मानव के व्यवहार को उचित मार्ग पर ले जाती है।”
गुड
महोदय का
अभिप्रेरणा के विषय में मत है –
“Motivation
is the process of arousing, sustaining and regulating an activity.” – Good
“अभिप्रेरणा किसी कार्य को प्रारम्भ करने, जारी रखने तथा सही दिशा में लगाने की प्रक्रिया
है।”
मैग्डूगल
(McDougall) महोदय का विचार है कि –
“Motives
are conditions physiological and psychological within the organism that
disposes it to act in certain ways.”
“अभिप्रेरणा वह शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक दशाएं
हैं जो किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।”
एक
अन्य महत्त्व पूर्ण विचारक पी. टी. यंग
महोदय का विचार है –
“Motivation
is the process of arousing action sustaining the activities in progress and
regulating the pattern of activity.”
“प्रेरणा व्यवहार को जागृत करके क्रिया के विकास
का पोषण करने तथा उसकी विधियों को नियमित करने की प्रक्रिया है।”
उक्त
विचारकों के विचारों के विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि अभिप्रेरणा या
प्रेरणा आवश्यकता से उत्पन्न मनोव्यावहारिक क्रिया है जो लक्ष्य प्राप्ति की दिशा
में कार्यों का सम्पादन कराती है।
अभिप्रेरणा के सिद्धान्त / Principles of motivation –
अभिप्रेरणा हेतु बहुत से सिद्धान्त व मान्यताएं विविध मनोवैज्ञानिकों
द्वारा बताये गए हैं इन सिद्धान्तों द्वारा विविध प्रकार से अभिप्रेरणा की
व्याख्या की गयी है। जिन्हें अपनी सुविधा के अनुसार इस प्रकार अनुक्रमित किया जा
सकता है –
1 – शारीरिक सिद्धान्त / Physiological Theory
–
शरीर की मनोदशा हमेशा एक जैसी नहीं होती इसमें समय समय पर विविध
परिवर्तन परिलक्षित होते हैं और इसी कारण शरीर में प्रतिक्रियाएं भी होती रहती हैं
और इस प्रतिक्रिया के मूल को यदि हम जानने का प्रयास करें तो वह अभिप्रेरणा ही है।
उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त वह सिद्धान्त है जो व्यवहारवादियों
द्वारा प्रति पादित किया गया है यह सीखने के सिद्धांत पर ही आधारित है इनके अनुसार
मनुष्य का सम्पूर्ण व्यवहार शरीर द्वारा उद्दीपन के परिणाम स्वरुप होने वाली
अनुक्रिया है ये मानते हैं की अभिप्रेरणा की इसमें भूमिका नहीं है कोई भी
प्रतिक्रिया विशुद्ध रूप से विशिष्ट अनुक्रिया ही है।
इस मान्यता में विविध तथ्यों व अनुभव की अवहेलना की गयी है यद्यपि
उद्दीपकों द्वारा विविध अनुक्रियाएं होती हैं लेकिन किसी प्रतिक्रिया के होने में
मूलतः अभिप्रेरणा का हाथ होता है।
3 – मूल प्रवृत्यात्मक सिद्धान्त / Instinct Theory –
इस सिद्धान्त के अनुसार किसी
भी मानव का व्यवहार जन्मजात मूल प्रवृत्तियों द्वारा निर्धारित व संचालित होता है
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मैक्डूगल महोदय द्वारा किया गया लेकिन यह सिद्धान्त
अभिप्रेरणा की पूर्ण व्याख्या करने में
सक्षम नहीं है ।
4 – मनो – विश्लेष्णात्मक सिद्धान्त / Psycho-analysis Theory –
यह सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक फ्रायड की देन
स्वीकारा जाता है यह सिद्धान्त बताता है कि मनुष्य का अभिप्रेरणात्मक व्यवहार दो
कारकों द्वारा संचालित होता है . जिनमें से एक तो मूल प्रवृत्तियाँ ही हैं और
दूसरा है अवचेतन मन। वह यह भी मानता है कि
दो ही मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं जीवन मूल प्रवृत्ति और दूसरी मृत्यु मूल
प्रवृत्ति जो उसे क्रमशः सृजनात्मक व
विध्वंशात्मक व्यवहार हेतु प्रेरित करते हैं। मूल प्रवृत्ति सम्बन्धी यह विचार
मनोवैज्ञानिकों को मान्य ही नहीं और दूसरे अवचेतन मन के अलावा चेतन मन और
अर्ध चेतन मन के द्वारा भी व्यवहार संचालित होता है अतः फ्रायड महोदय भी पूर्ण
स्वीकार्य नहीं।
5-
अन्तर्नोद
सिद्धान्त / Drive
Theory –
यह सिद्धान्त प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक हल महोदय
की देन है इन्होने यह बताया कि मनुष्य की आवश्यकताओं के कारण उसमें तनाव पैदा होता
हे जिसे मनोविज्ञान की भाषा में अन्तर्नोद उच्चारित करते हैं ये अन्तर्नोद ही उसके
विशिष्ट व्यवहार का कारण है कुछ समय पश्चात मनोवैज्ञानिकों ने शारीरिक आवशयकताओं
के साथ मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को भी जोड़ लिया लेकिन फिर भी यह सिद्धान्त अपूर्ण
ही रहा क्योंकि यह मानव के उच्च ज्ञानात्मक व्यवहार की व्याख्या में सक्षम नहीं बन
सका।
6
– इच्छा
आधारित सिद्धान्त / Desire based theory –
इस मत के अनुसार मानव का व्यवहार इच्छा will
द्वारा निर्धारित होता है बौद्धिक मूल्यांकन
द्वारा सृजित इच्छा द्वारा अभिप्रेरणा को दिशा मिलाती है और संकल्प को बल मिलता है
लेकिन संवेग/Emotions व प्रतिवर्त/Reflexis तो इच्छा से अभिप्रेरित नहीं होते।
7 – कुर्ट लेविन सिद्धान्त / Kurt
Levin Theory –
यह सिद्धान्त एक महत्त्वपूर्ण अधिगम सिद्धान्त है जो यह मानता है कि
सीखने में अभिप्रेरणा महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है यह सिद्धान्त संयोग,
स्मृति, गतिशील प्रक्रिया,
व्याख्या, भग्नाशा, आकांक्षा स्तर सभी को समाहित करता है जो मूलतः
साक्षी पृष्ठभूमि पर आधारित है।
उक्त
विवेचन यह स्पष्ट करता है कि अभिप्रेरणा किसी एक कारक से निर्धारित नहीं होती
इसीलिये बॉल्स / Bolles
तथा फौफ्मैन
/ Pfaffman का पर्यावरण आधारित प्रोत्साहन सिद्धान्त व मैसलो/ Maslow का मांग सिद्धान्त भी अभिप्रेरणा के अपूर्ण
सिद्धान्त की श्रेणी में ही आते हैं।
अभिप्रेरणा के प्रकार / Types of motivation –
वास्तव में अभिप्रेरणा दो प्रकार की होती है
जिन्हे हम आन्तरिक अभिप्रेरणा व वाह्य अभिप्रेरणा में वर्गीकृत कर सकते हैं।
[A] – आन्तरिक अभिप्रेरणा / Internal Motivation –
इस प्रेरणा को धनात्मक, सकारात्मक, जन्मजात
प्राकृतिक, प्राथमिक अभिप्रेरणा के नाम से भी जाना जाता
है। आन्तरिक अभिप्रेरणा उसे कहा जाता है जो आन्तरिक अभिप्रेरकों / Internal Motives अर्थात भूख, प्यास, आत्म रक्षा, काम, आदि के कारण उत्पन्न होते हैं।इसमें मानव स्वयं
प्रेरित होकर अपनी इच्छा से कार्य करता है।
[B] – वाह्य अभिप्रेरणा / External Motivation –
इसे ऋणात्मक, कृत्रिम, सामाजिक, द्वित्तीयक
अर्जित, अभिप्रेरणा के नाम से भी जाना जाता है। वाह्य
अभिप्रेरणा उसे कहा जाता है जो वाह्य अभिप्रेरकों / External Motives अर्थात बाहरी स्थितियों आत्म सम्मान, उच्च सामाजिक स्थान, डॉक्टर, नेता, न्यायाधीश आदि बनने की इच्छा के कारण उत्पन्न
होते हैं। निन्दा, प्रशंसा, आलोचना, प्रतियोगिता, पुरस्कार आदि वाह्य अभिप्रेरक हैं।
अभिप्रेरणा के प्रकारों को बताने के लिए तरह तरह के वर्गीकरण प्रस्तुत किये जाते हैं
लेकिन यदि हम उनका निष्पक्ष विश्लेषण करें तो उक्त दो ही प्रकार के तहत ही उन्हें
रखा जा सकता है। एक और तथ्य विश्लेषण
योग्य है की अभिप्रेरणा हेतु प्रेरक आंतरिक हो या वाह्य उसका वास्तविक स्वरुप तो
आन्तरिक ही होता है उसे ऊर्जा तो आन्तरिक
शक्ति से अभिप्रेरण के रूप में मिलती है जो लक्ष्य प्राप्ति तक उसको उत्साहित रखती
है।
अधिगम में प्रेरणा की भूमिका / Role
of motivation in learning –
अधिगम में अभिप्रेरणा की भूमिका निर्विवाद है
यह वह शक्ति है जो सीखने की गति को तीव्र कर देती है प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक वुड
वर्थ महोदय ने कहा –
उक्त समीकरण चीख चीख कर कह रहा है कि योग्यता
के साथ प्रेरणा होने पर ‘सोने पर सुहागा’ वाली कहावत चरितार्थ होती है।
वास्तव में प्रेरणा अध्यापक के हाथ में ऐसा
महत्त्वपूर्ण उपागम है जिससे देश का भविष्य, हमारे विद्यार्थियों का कल सँवारा जा सकता है
उनकी अन्तर्निहित क्षमता को उत्कृष्ट रूप से उभारा जा सकता है। राष्ट्र को समर्पित
सेवा भावी युवा तैयार किये जा सकते हैं। शैक्षिक उत्कृष्टता के प्रदत्त सोपान तय
किये जा सकते हैं अधिगम क्षेत्र में नए प्रतिमान गढ़े जा सकते हैं। तत्सम्बन्धी कुछ
बिन्दु इस प्रकार दिए जा सकते हैं –
01- उत्सुकता जागृति
02- ऊर्जा व्यवस्थापन
03- ध्यान संकेन्द्रण
04- अनवरतता
05- रूचि परिमार्जन
06- स्वस्थ आदतें
07- निर्णयन क्षमता
08- अधिगम इच्छा
09- आवश्यकता पूर्ति
सक्षमता
10- सम्यक मार्ग दर्शन
11 – सम्यक साधन चयन
12 – आशावादी भविष्य
विकास यात्रा में
अभिप्रेरणा ऐसा शक्तिशाली साधन है जो हमारे सपने, हमारे अभीप्सित, हमारे लक्ष्य हमें
दिला सकता है। एण्डरसन/Anderson महोदय ने उचित ही कहा है। –
“Learning
will proceed best if motivated.”
“सीखने की प्रक्रिया
सर्वोत्तम रूप से आगे बढ़ेगी यदि वह अभिप्रेरित होगी।”
अभिप्रेरणा कुशल अध्यापक के हाथ में शिक्षा
जगत का अमूल्य वरदान है स्किनर/Skinner महोदय तो अभिप्रेरणा को
सीखने का राज मार्ग बताते हैंउन्होंने कहा –
भारतीय सन्दर्भ में आधुनिकीकरण के एक उपकरण के रूप में शिक्षा
भारत में शिक्षा का प्रादुर्भाव वैदिक काल से अब तक एक बहुत बड़ा सफर तय कर चुका है। बदलते परिवेश के साथ और तत्कालीन परिस्थितियों के साथ जन सामान्य पर पड़ने वाले प्रभाव का इतिहास गवाह रहा है इसने बोलने, आचार, व्यवहार, संस्कृति,
वेश भूषा, रहन सहन में होने वाले परिवर्तनों को बहुत अच्छी तरह से निरीक्षित किया है। इन तमाम परिवर्तनों के आधार पर यह पूर्वक कहा जा सकता है कि शिक्षा ही वह महत्त्वपूर्ण साधन है जो हमारे पूरे परिवेश, सम्पूर्ण समाज को वक्त के साथ चलना सिखा सकता है।शिक्षा ही वह महत्त्वपूर्ण उपकरण है जो हमें आधुनिकता से जोड़ सकता है।
आधुनिकी
करण क्या है?
What
is modernization?
आधुनिकीकरण वह
प्रत्यय है जो हमें समय के साथ कदमताल करना सिखाता है हर काल की अपनी
परम्पराएं, मर्यादाएं, मूल्य
होते हैं जो भारत में निरन्तर परिवर्द्धित
व परिवर्तित होते रहे हैं और भारतीयों ने इन्हे आवश्यकतानुसार अङ्गीकार किया है।
डॉ ० सत्यदेव सिंह ने आधुनिकीकरण के सन्दर्भ में कहा –
“आधुनिकीकरण एक ऐसी गत्यात्मक प्रक्रिया है
जिसमें कोई समाज नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकियों का लाभ लेते हुए परम्परागत अथवा अर्ध
परम्परागत स्थिति से हटकर अपने संगठन संरचना, मूल्य,
अभिप्रेरणा, उद्देश्य तथा आकांक्षाओं में आवश्यक परिवर्तन
कर लेता है।”
“Modernization
is such a dynamic process in which a society moves from a traditional or
semi-traditional position, taking advantage of the latest scientific
techniques, to make necessary changes in its organizational structure, values,
motivation, objectives and aspirations.”
आधुनिकीकरण
की परिभाषा में व्यक्ति व उसकी ज्ञानात्मक स्थिति के अनुसार यद्यपि परिवर्तन
परिलक्षित होते हैं लेकिन कोठारी कमीशन ने भारतीय समाज के आधुनिकता से जुड़ने के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट रूप
से कहा –
“The
most distinct feature of modern society, in contrast with a traditional one, is
its adoption of a science-based technology.”
“आधुनिक समाज की सबसे विशिष्ट विशेषता, पारंपरिक समाज के विपरीत, विज्ञान आधारित प्रौद्योगिकी को अपनाना है।”
अर्थात
भारतीय परिप्रेक्ष्य में आधुनिकी करण से आशय बदलते समय के साथ बदलते प्रतिमानों, संसाधनों, वैज्ञानिक प्रगति और आवश्यक प्रगतिशील बदलाव के साथ अनुकूलन करने से
है।
Education as a tool of Modernization
आधुनिकीकरण
के एक उपकरण के रूप में शिक्षा-
वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में जब हम भारत का आकलन करते हैं तो यह प्रत्यक्षतः अनुभूति होती है
कि शिक्षा केवल समस्या समाधान का ही उपकरण नहीं है बल्कि यह वह विशिष्ट उपागम है
जो हमें समय के साथ चलना सिखाता है वास्तविक आधुनिकता का सच्चा उपकरण शिक्षा है
इसे नकारा नहीं जा सकता। निम्न आधारों पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है –
1 – सामाजिक सकारात्मक परिवर्तन/ Positive Social
Change
2 – सांस्कृतिक परिवर्तन / Cultural change
3 – आर्थिक परिवर्तन / Economic change
4 – बौद्धिक परिवर्तन / Intellectual change
5 – मूल्यों व उद्देश्यों में परिवर्तन / Change in
values and objectives
6 – विज्ञान व तकनीकी की सहज स्वीकृति / Easy
acceptance of science and technology
7 – समन्वय व सामञ्जस्य की बदलती अवधारणा /
Concept of coordination and harmony
8 – कुरीति निवारण में सञ्चारी साधनों का प्रयोग / Use
of communicative means in the prevention of evil.
उक्त
आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा वह साधन है जो हमें आधुनिकता से जोड़ता है व
अन्धानुकरण से बचाता है जो परम आवश्यक है। डॉ सत्य देव सिंह का विचार दृष्टव्य है
–
“यदि कोई समाज अन्य समाजों का अन्धानुकरण करता
है तो कालान्तर में अन्धानुकरण करने वाला समाज अपना आस्तित्व समाप्त कर सकता है।”
“If a society blindly imitates other societies,
then over a period of time the society which blindly imitates its
existence.”.
कॉमर्स वर्तमान समय का एक बहुत व्याहारिक विषय है। बहुधा इन विद्यार्थियों में अधिक व्याहारिक गुण होने की वजह से परिणाम पाने की शीघ्र इच्छा होती है।बाजार वाद व उत्तरोत्तर बढ़ती उपभोक्ता संस्कृति ने इसे आज के परिप्रेक्ष्य में गढ़ने हेतु नए आयाम उपलब्ध कराये हैं। इनमें से कुछ बच्चों के पुश्तैनी प्रतिष्ठान होते हैं तो कई विद्यार्थी अपने आप को स्थापित करना चाहते हैं। इण्टरमीडिएट परीक्षा परिणाम प्राप्त करने के बाद इनको भी यही समस्या घेरती है की अब क्या करें ?
कालान्तर
में व्यवस्थाएं परिवर्तित होती रहती हैं शीघ्र ही वह समय आएगा जब विभिन्न धाराओं
कला,
वाणिज्य, विज्ञान की जगह विद्यार्थी पसन्दीदा
विषय किसी भी ले सकेंगे। लेकिन आज के
परिप्रेक्ष्य में वाणिज्य के कुछ विद्यार्थी गणित विषय बारहवीं में रखते हैं और
कुछ नहीं। इससे भी अवसरों में कुछ अन्तर दिखाई देता है।
बारहवीं
में गणित के साथ कॉमर्स रखने वाले विद्यार्थी हेतु कोर्स–
Course for students having commerce with mathematics in class XII-
1 – C.A. (Charted Accountancy)
2 – B.C.A. (Bachelor of
Computer Applications) or IT and Software
3 – B.F.A. (Bachelor of
Finance and Accounting)
4 – B.Com. Honours
5 – B.E. (Bachelor of
Economics)
6 – B.I.B.S. (Bachelor
of International Business and Finance)
7 – B.J.M.S. (Bachelor
of Journalism and mass Communication)
8 – B.Sc. Hons
(Mathematics)
9 – B.Sc. Hons (Applied
Mathematics)
10- B.Sc. (Statistics)
बारहवीं
में गणित के बिना कॉमर्स रखने वाले विद्यार्थी हेतु कोर्स–
Course for students having
commerce without mathematics in class XII-
1 – B.Com (Bachelor of
Commerce)
2 – C.S. (Company
Secretary)
3 – B.B.A. (Bachelor of
Business Administration)
4 – Bachelors in
Hospitality
5 – Bachelors in Event
Management
6 – Bachelors of Management
Studies
7 – Bachelors in Travel
and Tourism
8 – Bachelors in Hotel
Management
9 – Bachelor of
Vocational Studies
10 – Bachelor of
Journalism
11 – Bachelor of
Foreign Trade
12 – Bachelor of Business
Studies
13 – Bachelor of Social
Work
14 – Bachelor of
Vocational Studies
15 – Bachelor of Interior
Designing
16 – BA LL.B
17 – BBA LL.B
18 – B.A
19 – B.A (Hons)
20 – B.Sc. Animation
and media
बारहवीं
कॉमर्स के पश्चात डिप्लोमा कोर्स
Diploma course after
12th commerce –
1 – Diploma in
Education
2 – Import Export
Diploma
3 – Digital Marketing Diploma
4 – Diploma in
Industrial Safety
5 – Diploma In Advance
Accounting
6 – Diploma in Computer
Application
7 – Diploma in
Financial Accounting
8 – Diploma in Business
Management
9 – Hospitality Diploma
10 – Diploma in Banking
and Finance
11 – Diploma in Retail
Management
12 – Diploma in Hotel
Management
13 – Diploma in Fashion
Designing
बारहवीं
कॉमर्स के पश्चात प्रोफेशनल कोर्स
Professional course
after 12th commerce –
यदि हम आज के
हिसाब से कुछ महत्त्वपूर्ण कोर्स देखना चाहें तो इन्हें इस प्रकार भी क्रमित किया
जा सकता है –
1 – GST Course
2 – Income Tax Course
3 – Content Marketing
4 – Digital Marketing
5 – Accounting and
Taxation
6 – Air Hostess
Training
7 – B.A., B. Com., BBA.
etc
8 – BA LL.B
9 – Bachlor of Business
Management
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि रास्ते
बहुत सारे हैं बस हमें बहुत सोच समझ कर फैसला करना है। फैसला हो जाने के बाद दृढ़ता
से अपनी मंजिल को हासिल करना है। भारत के उत्पादन क्षेत्र को बहुत विस्तृत करने की
आवश्यकता है। बाजारवाद का परिदृश्य बदलने हेतु व अपनी मौलिकता को बनाये रखने हेतु
वाणिज्य के विद्यार्थियों से देश को बहुत आशा है।
जब हम हाई स्कूल उत्तीर्ण कर इण्टरमीडिएट विज्ञान वर्ग में प्रवेश लेते हैं तो तरह तरह के सपने हमारे मनोमष्तिष्क में पल रहे होते हैं यह उम्र ही ऐसी है जो तनाव ,तूफ़ान, सांवेगिक संघर्ष और कल्पना लोकसे हमारा प्रत्यक्षीकरण कराती है लेकिन इण्टर मीडिएट करते करते जागरूक विद्यार्थी के चरण यथार्थ के धरातल को स्पर्श करने लगते हैं। यह काफी कुछ हमारे घर की आर्थिक स्थिति और हमारे मानसिक स्तर से निर्धारित होता है।विविध निरीक्षण बताते हैं कि विज्ञान वर्ग के विद्यार्थियों के साथ उनके मातापिता अन्य वर्ग के विद्यार्थियों की तुलना में अधिक चिन्तित रहते हैं कि अब क्या करें क्या न करें। बच्चे के भविष्य का सवाल है।
आप सभी की समस्या समाधान की ओर यह एक प्रयास है विश्वास है कि यह दिशा बोधक सिद्ध होगा। इण्टर मीडिएट विज्ञान अपने में जीवविज्ञान और गणित के दो दिशामूलक तत्त्व साथ लेकर चलता है। विज्ञान वर्ग से इण्टरमीडिएट करने के बाद डिप्लोमा कोर्स, कम्प्यूटर कोर्स,फार्मेसी, इन्जीनियरिंग, व चिकित्सा परिक्षेत्र के कई मार्ग खुलते हैं साथ ही मिलते हैं विविध सेवाओं में अवसर। जिन्हे इस प्रकार समझा जा सकता है। –
इण्टर मीडिएट विज्ञान के बाद डिग्री कोर्स (Degree Course after Intermediate
Science)-
विज्ञान वर्ग से इण्टर मीडिएट करने के बाद एक
वृहद पटल खुलता है जिन्हे यहाँ पर एक एक करके बताने का प्रयास करेंगे निम्नवत
डिग्री कोर्स अपनी रूचि, क्षमता, स्थिति
के अनुसार किये जा सकते हैं –
बैचलर ऑफ़ साइंस (B. Sc)
बैचलर ऑफ़ एग्रीकल्चर
बैचलर ऑफ़ फार्मेसी
बैचलर ऑफ़ टेक्नोलॉजी (B. Tech), बैचलर ऑफ़ इन्जीनियरिंग (B.E)
बैचलर ऑफ़ मेडिसिन एन्ड बैचलर ऑफ़ सर्जरी (MBBS)
बैचलर ऑफ़ डेण्टल सर्जरी (BDS)
बैचलर ऑफ़ फीज़ीओथेरेपी (BPT)
बैचलर ऑफ़ होम्योपैथिक मेडिसिन एन्ड सर्जरी (BHMS)
बैचलर ऑफ़ आयुर्वैदिक मेडिसिन एन्ड सर्जरी (BAMS)
बैचलर ऑफ़ यूनानी मेडिसिन एन्ड सर्जरी (BUMS)
माइक्रो बायोलोजी
बायो टेक्नोलॉजी
बायोइन्फॉर्मेटिक्स / Bioinformatics
जैनेटिक्स
सामान्यतः लम्बे अन्तराल तक यह माना जाता रहा
की इण्टर PCM के बाद बालक इन्जीनियरिंग के क्षेत्र में जायेगा उसे JEE Main की तैयारी करनी चाहिए और IIT की चाह रखने वालों को JEE Main के साथ JEE एडवान्स
भी निकालना का प्रयास करने का प्रयास करना होगा।
डिप्लोमा कोर्स से जुड़ने हेतु इलेक्ट्रिकल,
सिविल, मेकेनिकल, केमिकल इंजीनियरिंग आदि क्षेत्रों से जुड़ा
डिप्लोमा कोर्स किया जा सकता है।
दूसरी और चिकित्सा के क्षेत्र में स्थान बनाने
हेतु NEET परीक्षा पास करनी होगी और इसके स्कोर के आधार
पर MBBS, BDS, BHMS, या BUMS आदि
का स्थान मिलेगा।
लेकिन आज पैरा मेडिकल का एक आकाश भी शीघ्र
अर्थोपार्जन का जरिया बन सकता है।
12th PCB के बाद पैरामैडिकल कोर्स –
पैरामेडिकल
का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है जो कक्षा 12 वीं के छात्रों के लिए सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री कोर्स प्रदान करता है।
पैरामेडिकल का यह क्षेत्र पैरामेडिकल
डिग्री वालों हेतु करियर का बहुत बड़ा आयाम प्रदान करता है है। इस कोर्स के लिए न्यूनतम योग्यता 50% अंकों के साथ PCB में 12 वीं पास है। 12th PCB के बाद प्रमुख पैरामैडिकल कोर्स बताने हेतु इस प्रकार
क्रमित किये जा सकते हैं यथा –
बी एस सी
इन मेडिकल इमेजिंग टेक्नोलॉजी
बी एस सी
इन एक्स-रे टेक्नोलॉजी
बी एस सी
इनडायलिसिस टेक्नोलॉजी
बी एस सी
इन मैडिकल रिकॉर्ड
बी एस सी
इन रेडिओग्राफी
बी एस सी
इन मेडिकल लैब टेक्नोलॉजी
बी एस सी
इन एनेस्थिया टेक्नोलॉजी
बी एस सी
इन ऑप्टोमेट्री
बी एस सी
इन ऑडियोलॉजी एण्ड स्पीच
बी एस सी
इन थिएटर टेक्नोलॉजी
इसके अलावा बहुत से परिक्षेत्र अपनी जगह बनाते
जा रहे हैं।
कम्प्यूटर कोर्स की
अपनी एक बहुत बड़ी श्रृंखला है जिन्हे
इण्टर मीडिएट के बाद किया जा सकता है ।
सर्व प्रथम आपको बधाई की आपने जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव पार किया है विश्व का बहुत बड़ा पटल आपका स्वागत करने को उत्सुक है। बहुत खुशी होती है की भटकाव की उम्र को धता बता आप जब म्हणत और लगन से इस पड़ाव को पार करते हैं और ऐसे ऐसे प्रश्न पूछते हैं की तबियत खुश हो जाती है लेकिन एक प्रश्न आप सबको चिन्तन के लिए विवश करता है कि अब क्या करें ?
इस
प्रश्न का उत्तर सबके लिए अलग अलग होता है क्योंकि सबकी आर्थिक स्थिति, परिस्थितियां, अधिगम स्तर,
ऊर्जा स्तर और सपने अलग अलग होते हैं।
इस
प्रश्न को सही व सार्थक उत्तर तक ले जाने के प्रयास में ही हुआ है आज का यह सृजन।
आपके लिए बहुत से मार्ग खुलते हैं जो आपको आपकी परिस्थिति के अनुसार आगे की पढ़ाई, प्रशिक्षण पाठ्यक्रम या सेवाकार्य से जोड़ते
हैं। विविध कार्यक्रम इस प्रकार हैं –
इण्टर आर्ट्स के बाद डिप्लोमा(Diploma after Inter Arts)-
अध्यापन
में डिप्लोमा,विदेशी भाषा में डिप्लोमा,चिकित्स्कीय परिक्षेत्र में डिप्लोमा
डिज़ाइनिंग के परिक्षेत्र में डिप्लोमा जैसे फैशन, ज्वैलरी, इंटीरियर, वेब
या ग्राफिक्स इनके अलावा भी आज बहुत से नए डिप्लोमा परिक्षेत्र विकसित हो रहे हैं
जो आपको शीघ्र कमाने योग्य बना सकते हैं। यथा डिप्लोमा इन 3D एनिमेशन,डिप्लोमा इन मल्टीमीडिया, डिप्लोमा इन एडवरटाइजिंग एंड मार्केटिंग, डिप्लोमा इन ट्रैवल एंड टूरिज्म,
डिप्लोमा इन इवेंट मैनेजमेंट, डिप्लोमा इन साउंड रिकार्डिंग आदि ।
इण्टर आर्ट्स के बाद डिग्री कोर्स (Degree course after inter arts)-
1- बैचलर ऑफ आर्ट्स(बीए)
2-बैचलर ऑफ फाइन आर्ट्स (बीएफए)
3-बैचेलर इन सोशल साइंस
4-बैचेलर इन ह्यूमेनिटी
5-बैचलर इन जर्नलिज्म
6-बैचलर ऑफ साइंस (होस्पिटेलिटी एंड ट्रैवल)
7-बीए एलएलबी
8-बैचलर ऑफ एलीमेन्ट्री एजूकेशन
9-बैचलर ऑफ डिजाइन (एनीमेशन)
10- विविध कला परिक्षेत्र के ऑनर्स डिग्री कोर्स आदि ।
इण्टर आर्ट्स के बाद सेवाएं (Services after Inter Arts)
शिक्षक /Teacher
वकील /Advocate
फैशन या टेक्सटाइल डिजाइनर/Fashion या textile designer
होटल मैनेजमेंट / Hotel Management
पत्रकार / Reporter
सरकारी नौकरी /Government job यथा एसएससी मल्टी टास्किंग स्टाफ, एसएससी ग्रेड C और ग्रेड D आशुलिपिक, रेलवे ग्रुप डी (आरआरबी / आरआरसी ग्रुप डी),एसएससी जनरल ड्यूटी कांस्टेबल, आरआरबी सहायक लोको पायलट, इंडियन आर्मी एग्जाम फॉर द पोस्ट ऑफ टेक्निकल एंट्री स्कीम, महिला कांस्टेबलों, सोल्जर्स, कैटरिंग के लिए जूनियर कमीशन अधिकारी।
स्वरोजगार के विविध अवसर (Various self employment opportunities) -
यदि आप नौकर बनने की जगह मालिक बनाना चाहते हैं तो अपने घर के पुश्तैनी कार्य या आपके लिए सम्भव किसी भी स्वरोजगार से स्वयं को जोड़ सकते हैं कोइ कार्य छोटा बड़ा नहीं होता हमारी सोच उसे छोटा बड़ा बनाती है। आप शीघ्र ही कई अन्य को रोजगार देने की स्थिति में आ जाएंगे।
आज सूचनाएं बिजली की गति से उड़ रही हैं जिन्हे कोई होम सिकनेस नहीं है वे इन अवसरों का लाभ उठा सकते हैं याद रखें एक चूका हुआ अवसर खोई हुई उपलब्धि है कभी हताश निराश नहीं होना है नित्य बदलता बहुत बड़ा आकाश हमारे सामने है। परम श्रद्धेय मैथिली शरण जी की पंक्तियों में सन्देश छिपा है आपके लिए -
संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।
इससे आशय आंग्ल भाषा के Creativity से है सर्जनात्मकता शब्द कुछ ऐसे शब्दों द्वारा भी लोगों द्वारा
अभिव्यक्त किया जाता है जो अर्थ में इससे अन्तर रखते हैं जैसे विधायकता, उत्पादकता, खोज
आदि जबकि विधायकता से एकत्रीकरण का,उत्पादकता(Productivity) से उत्पादन का और खोज से Search या Discovery का बोध होता है। सृजनात्मकता को इसका पर्याय या
सबसे करीबी माना जा सकता है जब कि सृजन में शून्य का भाव निहित है और सर्जन में
वर्तमान या विद्यमान में नवीनता या मौलिकता की सृष्टि करनी पड़ती है। वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में सर्जनात्मकता के समानान्तर सृजनात्मकता, रचनात्मक, सर्जक,उत्पन्न करना, बनाना आदि को आवश्यकता नुसार लिया जा सकता है।
सर्जनात्मकता की परिभाषाएं (Definitions of creativity) :-
विविध विद्वानों द्वारा इसे विविध रूप से पारिभाषित किया गया है स्टेन
महोदय का मानना है –
“When it results in a novel work that is accept
as tenable or useful or satisfying by a group at some point in time.”
“जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो जो किसी समय
में समूह द्वारा उपयोगी मान्य हो, वह कार्य सृजनात्मकता कहलाता है। ”
एक अन्य विद्वान् मेडनिक महोदय का मानना है कि –
“Creative thinking consists of forming new
combinations of associative elements. Which combinations either meet specified
requirements or are in some way useful.The more mutually remote the elements of
new combinations. The more creative is the process of solution.”
“सर्जनात्मक चिन्तन में साहचर्य के तत्वों का
मिश्रण रहता है जो विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संयोगशील होते हैं या किसी
अन्य रूप में लाभ दायक होते हैं। नवीन संयोग के विचार जितने कम होंगे,सृजनात्मकता की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी।”
क्रो एण्ड क्रो महोदय का विचार है :-
“Creativity is a mental process to express the
original outcomes.”
“सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को व्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया
है।”
एक अन्य महत्त्वपूर्ण विचारक सी० वी ० गुड महोदय का मानना है :-
“A quality of thought to be composed of broad
continue upon which all members of the population may be placed in different
degrees, the factors of creativity are tentatively described as associate and
ideational fluency, originality adaptive and spontaneously flexibility and
ability to make logical evaluation
“सर्जनात्मकता वह विचार है जो किसी समूह में
विस्तृत सातत्य का निर्माण करता है सर्जनात्मकता के कारक हैं -साहचर्य, आदर्शात्मक मौलिकता, अनुकूलता,सातत्यता,लोच एवम तार्किक विकास की योग्यता।”
उक्त विचारों के आलोक में कहा जा सकता है कि सर्जनात्मकता में
मौलिकता, नवीनता, उपयोगिता, संयोग से सृजन, आवश्यकतानुसार सृजन के गुण विद्यमान रहते हैं। जिनका आधार चिन्तन
होता है।
विद्यार्थियों में
सृजनात्मकता की वृद्धि के उपाय (Ways to increase creativity in students) –
1- विद्यार्थियों
की प्रतिक्रियाओं को उचित सम्मान (Due respect to the responses of the students)
2 – कल्पना
आधारित प्रस्तुतीकरण (Imagination Based Presentation)
3 – पाठ्यक्रम
में क्रिया आधारित अधिगम को बढ़ावा (Promotion of action based learning in
the curriculum)
4 – सूचना
संग्रहण, आकलन
विश्लेषण का उपयोग (Information collection, use of assessment analysis)
5 – पाठ्य
सहगामी क्रियाओं से सृजनशीलता का विकास (Development of creativity through
co-curricular activities)
6 – उपयुक्त
शिक्षण विधियों का प्रयोग (Use of appropriate teaching methods)
7 – तार्किकता
का उन्नयन (Upgrading
Logic)
8 – अभिव्यक्ति
के समुचित अवसर (Reasonable opportunities for expression)
सर्व प्रथम यहाँ शब्द पाठ्यक्रम की
विवेचना कर आशय समझने का प्रयास करते हैं। शब्द पाठ्यक्रम लैटिन भाषा के
शब्द ‘Currere’ शब्द से निकला है जिसका आशय है दौड़ का मैदान (Race Course ) अर्थात पाठ्यक्रम (Curriculum) से आशय उस साधन से है जिसके द्वारा शिक्षा के मन्तव्य प्राप्त
किये जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है की यह वह साधन है जिसके माध्यम से
शिक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति एक तर्कपूर्ण क्रम का अनुसरण कर प्राप्त की जा सकती
है।
शिक्षा की तरह
पाठ्यक्रम के आशय के सम्बन्ध में भी दो धारणाएं प्रचलित हैं जिसे संकुचित अर्थ व
व्यापक अर्थ के नाम से जाना जाता है। संकुचित अर्थ में पाठ्यक्रम भी केवल विभिन्न
विषयों के पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित है लेकिन व्यापक अर्थ में वे सभी ज्ञान व अनुभव
आ जाते हैं जिसे नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से प्राप्त करती है साथ ही विद्यालय में
अध्यापकीय संरक्षण में विद्यार्थी द्वारा जो भी क्रियाएं सम्पादित होती हैं सारी
की सारी पाठ्यक्रम के तहत स्वीकार की जाती हैं इसके अतिरिक्त पाठ्य सहगामी
क्रियाएं भी पाठ्यक्रम का ही भाग होती हैं अर्थात वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाठ्यक्रम
से आशय उसके इसी व्यापक स्वरूप से ही है।
पाठ्यक्रम की
परिभाषाएं / Definition of Curriculum –
पाठ्यक्रम की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषों को इस
प्रकार क्रम दे सकते हैं। जॉनसन महोदय के अनुसार –
“A
curriculum is a structured series of intended learning outcomes.”
“पाठ्यक्रम भावी सीखने
के परिणामों की एक संरचित श्रृंखला है।”
एक अन्य विचारक मोनरो महोदय का मानना है –
“Curriculum
embodies all the experiences which are utilized by the school to atain the aims
of education.”
“पाठ्यचर्या उन सभी अनुभवों
को समाहित करती है जो स्कूल द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए
उपयोग किए जाते हैं।”
भारतीय शिक्षाविद डॉ ० एन ० एल ० शर्मा जी
कहते हैं –
“Curriculum
is the statement of cource content to be learnt and tought during the course of
a specific study within a stipulated time period.”
“पाठ्यचर्या एक निश्चित
समय अवधि के भीतर एक विशिष्ट अध्ययन के दौरान सीखी और पढ़ी जाने वाली पाठ्यक्रम
सामग्री का विवरण है।”
एक सुप्रसिद्ध चिन्तक Cunningham
ने अपने भावों को इस
प्रकार शब्दों में ढाला है –
“The curriculum
is a tool in the hands of into artist (teacher) is mauld his material (the
pupil) according to his ideals (objectives) in the studio (the school).
“पाठ्यक्रम कलाकार
(शिक्षक) के हाथों में एक उपकरण है जो स्टूडियो (स्कूल) में अपने आदर्शों
(उद्देश्यों) के अनुसार अपनी सामग्री (छात्र) को ढालता है।”
वेण्ट और क्रोनबर्ग के अनुसार
“Curriculum
is the systematic from the subject matter which is prepared to fulfil the needs
of pupils.”
“पाठ्यचर्या उस विषय
वस्तु से व्यवस्थित है जो बालकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार की जाती
है।”
इस प्रकार पाठ्यक्रम
वह साधन मात्र है जो समय की मॉंग के आधार पर कालानुरूप विविध आवश्यकताओं को ध्यान
में रखकर तैयार किया जाता है।
पाठ्यक्रम की प्रकृति
(Nature of Curriculum) –
पाठ्यक्रम की प्रकृति के सम्बन्ध में यह
नहीं कहा जा सकता कि यह स्थाई रहेगी। इसकी प्रकृति में स्थान, काल, दिशा, व्यवस्था,दर्शन आदि के अनुसार परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं।
पाठ्यक्रम हर काल की आवश्यकता के अनुसार स्वयम् को व्यवस्थित कर मानवता का कल्याण
करता है।पाठ्यक्रम की मूल प्रकृति मानव कल्याण की है डॉ० सोती शिवेन्द्र सिंह व
अन्य द्वारा इसकी विशेषता जिसमें इसकी प्रकृति के दर्शन होते हैं भली भाँति
विवेचित किया गया है। जो इसके नाम में ही छिपा है यथा –
C –
Central point of Education / शिक्षा का केन्द्रीय बिन्दु
U –
Understanding of educational demand./ शैक्षिक माँग की स्थिति की समझ
M –
Management of educational process / शैक्षिक प्रक्रिया का प्रबंधन।
पाठ्यक्रम को प्रभावित
करने वाले घटक / Curriculum
Affecting Factors –
शिक्षा व्यवस्था का गहन अध्ययन यह स्पष्ट
संकेत देता है कि शिक्षा और पाठ्यक्रम का एक दूसरे से गहन सम्बन्ध रहा है इसी आलोक
में पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाले घटकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।
सुविधा की दृष्टि से हमने शिक्षार्थी स्वायत्तता को कुछ भागों में बाँट लिया है।
शिक्षार्थी स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective
of learner autonomy
शिक्षार्थी
स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education
1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy
2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy
3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy
4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner
autonomy
5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy
निष्कर्ष
/conclusion
शिक्षार्थी
स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy
शिक्षार्थी
की स्वायत्तता को अधिगम कर्त्ता के मनन, चिन्तन, निर्णयन, कार्य
इच्छा और और स्वशक्ति पर विश्वास के रूप में परिकल्पित किया जा सकता है। इसे अधिगम
कर्त्ता की जिम्मेदारी लेने की क्षमता के रूप में देखा जा सकता है।
अधिगम करने वाले को अधिगम हेतु स्वायत्त स्थिति
प्रदान करना मानवीय दृष्टिकोण से एक वहनीय जिम्मेदारी है।
शिक्षार्थी
की स्वायत्तता के बारे में Henri Holec महोदय
का विचार है –
“Autonomy
is the ability to take charge of one’s own learning.”
“स्वायत्तता अपने स्वयं के सीखने का प्रभार लेने
की क्षमता है।”
Leslie
Dickinsion महोदय
का विचार है कि
“Autonomy
is a situation in which the learner is totally responsible for all the
decisions concerned with his learning and the implementation of those
decisions.”
“स्वायत्तता एक ऐसी स्थिति है जिसमें शिक्षार्थी
अपने सीखने और उन निर्णयों के कार्यान्वयन से संबंधित सभी निर्णयों के लिए पूरी
तरह जिम्मेदार है।”
उक्त
विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिगम कर्त्ता की स्वायत्तता से आशय अधिगम
के परिक्षेत्र में उसके
सीखने व निर्णयन हेतु स्वयं जिम्मेदारी लेने से है।
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective of learner autonomy
वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में अपनी जवाबदेही हेतु खुद जिम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति को बल मिला
है और सभी अपने अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं शिक्षार्थी को गुण सिखाना ही शिक्षार्थी स्वायत्तता का उद्देश्य
है। आज की पीढ़ी निःसन्देह पूर्व पीढ़ी से अधिक जागरूक है और विभिन्न संसाधनों का
प्रयोग कर ज्ञान परिक्षेत्र बढ़ा रही है। शिक्षार्थी स्वायत्तता उसे उसके अधिकारों
के प्रति सचेष्ट करना एक उद्देश्य मानती है। Phill Bension महोदय लिखते हैं –
“Autonomy
is a recognition of the rights of learner within educational system.”
“स्वायत्तता शैक्षिक प्रणाली के भीतर शिक्षार्थी
के अधिकारों की मान्यता है।”
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य शिक्षार्थी को प्रभावी निर्णयन क्षमता की दक्षता प्रदान कर
उसके परिणामों की जिम्मेदारी स्वीकार करने योग्य बनाती है।
संक्षेप
में उद्देश्यों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –
1 – स्वायत्त निर्णय लेने की क्षमता का विकास/Develop the ability to make autonomous decisions
2 – सहयोग
की भावना का विकास / Develop a spirit of cooperation
3 – स्वमूल्यांकन व स्वप्रबन्धन /Self-evaluation and self-management
4 – शिक्षार्थी की सम्प्रभुता को महत्त्व /Importance of learner’s sovereignty
5 – व्यक्तिगत भिन्नता की स्वीकारोक्ति /Acknowledgment of individual
difference
6 – आत्मविश्वास वृद्धि /Confidence Increase
7 – सृजनात्मकता का विकास /Development of creativity
8 – शैक्षणिक दवाब में कमी / Reduction of academic pressure
शिक्षार्थी
स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education
परिवर्तन
प्रकृति का अटल नियम है शिक्षा जगत को क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए स्वयं को
तैयार करना होगा और शिक्षा के समस्त अंगों को बदलते परिदृश्य के अनुसार शिक्षार्थी
स्वायत्तता के अनुरूप स्वयं ढालना होगा। David Little महोदय ने कहा –
“Autonomy
is essentially a matter of the learner’s psychological relation to the process
and content of learning.”
“स्वायत्तता अनिवार्य रूप से सीखने की प्रक्रिया
और सामग्री के लिए शिक्षार्थी के मनोवैज्ञानिक संबंध का मामला है।”
1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy
2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy
3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy
4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner
autonomy
5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy
निष्कर्ष
/conclusion
आज
के परिप्रेक्ष्य में जब हम शिक्षार्थी स्वायत्तता की बात करते हैं समस्त शिक्षा
जगत को शिक्षार्थी स्वायत्तता के हिसाब से स्वयं को परिवर्तित करना होगा। गुरुदेव
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा –
“The
boys were encouraged to manage their own affairs, and to elect their own judge,
if any punishment was to be given. I never punished them myself.”
“लड़कों को अपने मामलों का प्रबंधन करने के लिए
प्रोत्साहित किया गया था, और
यदि कोई सजा दी जानी थी, तो
अपने स्वयं के न्यायाधीश का चुनाव करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। मैंने
उन्हें स्वयं कभी दंडित नहीं किया।”
निष्कर्षतः कहा सकता है कि
इस अवधारणा द्वारा शिक्षार्थी सशक्तीकरण
का नया अध्याय हेतु शिक्षा जगत को
तैयार रहना होगा। शिक्षार्थी को मानसिक सशक्त बनाने में ही शिक्षक व शिक्षा जगत की
खुशी छिपी है।
योग के सम्बन्ध में महर्षि पतञ्जलि से लेकर आजतक के मनीषियों का
क्रमिक योग दान रहा है निश्चित रूप से महर्षि पतञ्जलि के व्यवस्थित क्रम देने से
पूर्व यह विद्यमान रहा होगा और बहुत से अनुभवों से व लम्बी साधना से इसका प्रागट्य सम्भव हुआ होगा। यह मानव मात्र को ऋषि
मुनि परम्परा की अद्भुत भेंट है। श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञान योग ,भक्ति योग व कर्म योग के बारे में विस्तार से
समझाया गया है योग को स्पष्ट रूप से समझने हेतु इन तीन मार्गों ज्ञान योग ,भक्ति योग व कर्म योग को समझना होगा। मानव मात्र में
विविध वृत्तियों के दर्शन होते हैं अपनी वृत्ति प्रधानता के आधार पर हमें योग
मार्ग का चयन करना चाहिए। जो लोग ज्ञान की और झुकाव रखते हों उन्हें ज्ञान मार्ग
का अनुसरण करना चाहिए।जिन मानवों का झुकाव कर्म की और हो उन्हें कर्म योग के मार्ग
का अनुसरण करना चाहिए और भावना प्रधान लोगों को भक्ति मार्ग का अनुसरण करना
चाहिए।
अष्टाँग योग –
अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
का संयोग है।
यम –
इससे आशय संयम से है हमें कायिक,वाचिक
व मानसिक संयम का परिचय देना होगा। यम को पाँच भागों में विभक्त किया गया है।
a – अहिंसा – विचार को इस कोटि का बनाना है कि हमारे चिन्तन
व व्यवहार से प्राणिमात्र के प्रति किसी प्रकार का हिंसात्मक आचरण न हो।
b – सत्य – व्यवहार व सिद्धान्त में समान होना अर्थात मन
व वचन द्वारा समान व्यवहार, अनुगमन या अनुसरण किया जाना।
c – अस्तेय – किसी दूसरे के द्रव्य के प्रति अनासक्त भाव।
d – अपरिग्रह – विषयों के विभिन्न दोषों से विमुख रहना यानी
विषयों के अर्जन, रक्षण से विमुक्त भाव रहना।
e – ब्रह्मचर्य – संयम का परिचय अर्थात गुप्तेन्द्रिय उपस्थ का
संयम में रहना।
नियम –
नियम प्रवृत्तिमूलक होते हैं
और शुभ या मंगल कार्यों केप्रति हमारी प्रवृत्ति के परिचायक होते हैं।ये ही शुभ
कार्यो हेतु हमें प्रवृत्त कराते हैं
इन्हें पाँच भागों में विभक्त किया गया है –
a – शौच –
शौच से आशय आंतरिक व वाह्य शुद्धि से है आन्तरिक से आशय मानस के मलों से निवृत्ति
व वाह्य से आशय बाहरी शुद्धि जिसके लिए पहले मिट्टी व जल का प्रयोग होता था और आज
साबुन व विविध उपादानों का प्रयोग किया जाता है।
b – सन्तोष – यह शान्ति प्राप्ति का सर्वथा सशक्त उपागम है। जो है जैसा है उसी
में सन्तुष्ट रहना। यह गुण ही सन्तोष है।
c – तप –
इससे आशय है सुख दुःख को समान समझने की शक्ति का जागरण जो शरीर को तपाने, दुःख सहने योग्य बनाने, और इस हेतु गर्मी ,सर्दी,बरसात
की त्रासदई स्थिति में रहने व कठिन व्रतों के अनुपालन के अभ्यास से है।
d – स्वाध्याय – नियम, विधि विधान को ध्यान में रखकर धर्म ग्रंथों की
स्वयम द्वारा की गई अनवरत साधना।
e – ईश्वर प्राणिधान – भक्तिपूर्वक ईष्ट के प्रति सम्पूर्ण समर्पण।
आसन –
हमें साधना हेतु शरीर को एक ऐसी स्थिति में रखना होता है जिसमें
दीर्घ अवधि तक सुख पूर्वक रहा जा सके.इसी स्थिति को आसन नाम से जाना जाता है। जगत
में विविध प्रकार की जीव जातियां हैं उतने ही प्रकार के आसन हैं सिद्धासन,गरुण आसन,भुजङ्गासन, शीर्षासन आदि विविध प्रकार के आसान हैं हाथ
प्रदीपिका में इसका सुन्दर वर्णन द्रष्टव्य है आजकल बाबा रामदेव व आचार्य बालकृष्ण
की तत्सम्बन्धी पुस्तक में इसे देखा जा सकता है।
प्राणायाम –
प्राण शक्ति अर्थात श्वांस प्रश्वांस के विविध आयामों को ही
प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम वस्तुतः श्वांस प्रश्वांस का गति विच्छेद ही है।
इसमें मुख्यतः पूरक, कुम्भक व रेचक का आधार रहता है पूरक अर्थात
श्वांस को पूरा अन्दर की ओर खींचना, कुम्भक
से आशय इसके रोके जाने से एवं रेचक से आशय इसके छोड़े जाने से है। इनसे शारीरिक,मानसिक दृढ़ता व चित्त की एकाग्रता में अद्भुत
प्रगति देखी जाती है।
प्रत्याहार –
मानव में विविध इन्द्रियों का समागम रहता है जो विविध क्रियाओं का
आधार है जब इन्द्रियाँ वाह्य प्रपंचों से मुक्त होकर अर्थात वाह्य विषयों से हटकर
चित्त के समान निरुद्ध हो जाती हैं तो यह स्थिति प्रत्याहार है। जब वाह्य जगत में
मन विचरण की यात्रा अन्तर्मुखी अन्दर की
यात्रा सुनिश्चित करती है तब प्रत्याहार निष्पन्न होता है इस स्थिति में संसार में
रहते हुए सांसारिक वस्तुएं साधक को बाँध नहीं पातीं।
धारणा –
चित्त को किसी एक स्थान पर स्थिर कर देना धारणा कहलाता है जैसे हृदय
कमल में ,नाभि चक्र में या किसी भी बाहर की वस्तु
में स्थिर कर देना धारणा कहलायेगा।
ध्यान –
ध्यान की अवस्था में ध्येय का निरन्तर मनन किया जाता है और विषय का
ज्ञान स्पष्ट रूप से प्राप्त हो जाता है एवम् इस तरह से योगी के मन में ध्येय
वस्तु का यथार्थ स्वरुप प्रगट हो जाता है। अतः जब ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप
लेनेलगता है तो उसे ध्यान कहते हैं।
समाधि –
योग का अन्तिम लक्ष्य व्यक्ति को पूरी तरह से अन्तर्मुखी बनाना है
समाधि, चित्त की वह अवस्था है जिसमें प्रतीति केवल
ध्येय की ही होती है और चित्त का अपना स्वरुप शून्य सा हो जाता है।