मानव स्वयम को जगत का सर्वोत्कृष्ट प्राणी मानता है। विभिन्न सन्त,महन्त,धर्म गुरु इस खिताब को मानव के पक्ष में रख कर श्रेष्ठ तन के रूप में व्याख्यायित करते हैं लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य के जघन्यतम अपराध यही मानव तो कर रहा है ऐसी स्थिति में कुछ महत्वपूर्ण सवाल चिन्तन को झकझोरते हैं प्रस्तुत प्रारम्भिक चार पंक्तियों में जो सवाल मानसिक द्वन्द ने खड़े किये शेष पंक्तियों में भारतीय परिवेश में समाधान देने का प्रयास है,रखता हूँ आपके पावसआँगन में:-

क्या जीवन त्रासदी का दूसरा नाम है ?

क्यों  न हो सकता मानव निष्काम है ?

सर्वोत्कृष्टता का ख़िताबअपने नाम है ?

लोभ,मोह,माया,दम्भ का क्या कामहै ?

 

प्रकृति संयोग पर हम पुरुषत्व भूल जाते हैं,

तत्पश्चात राग,द्वेष,कलह हमें खूब सताते हैं,

सम्बन्ध भ्रामकता में निरन्तर फँसते जाते हैं,

जाना कहाँ, आये कहाँ से, सब भूल जाते हैं

 

इन्द्रिय भोग,द्रव्य योग,बाजार बहुत भाता है,

आत्मज्ञान,आत्मोत्थान से नाता छूट जाता है,

मिथ्याआनन्द,स्वप्न उन्माद से संयोग होता है,.

सत्-चित्त-आनन्द  से फिर  वियोग होता है .

 

ये वियोग फिर आवागमन चक्र में फंसाता है,

तब जीव दैहिक,दैविक,भौतिक ताप पाता है,

लेकिन जब जीव आरोहण मार्ग अपनाता  है,

आत्मबोध युक्त हो झंझट से निकल जाता है .

 

ये आरोहण ऋषि वाणी में मोक्ष कहा जाता है,

आत्मज्ञान और अध्यात्म हमें वहाँ पहुँचाता है,

आत्म व परमात्म का जब  द्वैत मिट जाता है,

भव बन्धन मुक्ति का तब मार्ग मिल जाता है.

–डॉ0 शिव भोले नाथ श्रीवास्तव

 

 

 

 

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