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बाल संसार

दादी कितनी अच्छी थीं।

August 28, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

इक छोटी सी ठठरी थीं,

यहाँ पर  बैठी रहती थीं,

लोगअभिवादन करते थे,

वो नेह संजोए रखती थीं।  

छोटा मुख भोलीभाली थीं,

मुस्कान सजाए रखतीं थीं,

लोग  सलवटें  निरखते थे,

अनुभवी पिटारी लगती थीं।

धीमे लघु पद चलती थीं,

धवल वसन में रहती थीं,

उनको दादीजी कहते थे,

बहुत ही प्यारी लगती थीं।

पोपले मुँह की हस्ती थीं,

अनुभव साझा करती थीं,

उनकी आँखें  लखते  थे,

चश्मे से झाँका करती थीं।

वो गीता पढ़ती रहती थीं,

कृष्ण,कृष्ण ही कहती थीं,

लोग पद वन्दन  करते थे,

वह  निहाल हो जाती थीं।

गुजर गईं, वो सच्ची  थीं,

चौकी पर बैठी रहती थीं,

अब तो तस्वीर देखते हैं,

दादी कितनी अच्छी थीं।     

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काव्य

मैय्या प्यारी सी लगती हो।

August 25, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

कभी सूरज सी लगती हो,

कभी चन्दा सी  लगती हो,

कभी बहती नदी सी  तुम,

अलकनन्दा सी लगती हो।

कभी तुम सौम्य लगती हो,

कभी  तुम रौद्र लगती  हो,

कभी बिन बात झगड़ों का,

पुलिन्दा वजनी  लगती हो।

कभी तुम फूल लगती हो,

कभी काँटों सी लगती हो,

कभी  हो  नेह की बरखा,

कभी  चिंगारी  लगती हो।

कभी उथली सी लगती हो,

कभी तुम  गहरी लगती हो,

कभी तुम ममतामयी मूरत,

भारतीय नारी सी लगती हो।

कभी तुम धूप  लगती हो,

कभी छाया सी लगती हो,

दोपहर की तीव्र तपन में,

अक्षय-वट सी लगती हो।

कभी शारदा सी लगती हो,

कभी लक्ष्मी  सी लगती हो,

जब  गीता सार सुनाती हो,

पावन गङ्गा सी लगती हो। 

कभी तुम दिया लगती हो,

कभी तुम बाती लगती हो,

आपके चरण जब छूता हूँ,

वतन की माटी लगती हो।

कभी तुम ये क्यों लगती हो,

कभी तुम वो क्यों लगती हो,

कभी दुर्गा और  कभी सीता,

 कभी भद्रकाली  लगती हो।

कभी तुम ऐसी लगती हो,

कभी तुम वैसी लगती हो,

सभी दृष्टि-कोण हमारे हैं,

मैय्या प्यारी सी लगती हो।

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Uncategorized•वाह जिन्दगी !

मथुरा में कृष्णमवन्देजगद्गुरु जन्म होता है।

August 24, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

सुना है सूर्य में नाभिक का विखण्डन संलयन होता है,

एवम इसी प्रक्रिया में वह असीम ऊर्जा युक्त होता है,

प्रकृति का विविध रूपों में विखण्डन संलयन होता है,

इसीलिए मथुरा में कृष्णमवन्देजगद्गुरु जन्म होता है।

सूर्य व्योम में पृथ्वी का, अद्भुत तेजोमय प्रतिनिधि है,

इसी से पृथ्वी पर गति उत्पादन मौसम व जलनिधि है,

महाभारत काल पृथ्वी पर अविस्मरणीय कालावधि है,

उस काल का प्रणेता वह है जिसे प्रिय माखन दधि है।

कृष्ण जन्माष्टमी है जगद्गुरु के वचनांश  बांच लेते हैं,

अध्ययन सुविधार्थ इसे अठारह अध्यायों में बाँटलेते हैं,

इन अध्यायों को महाभारत के मुख्य अंश रूप लेते हैं,

इतने सरल सहज हैं ये वसुधा को निरन्तर ज्ञान देते हैं।

सांख्य,कर्म,ज्ञान,आत्म संयम ज्ञानविज्ञान योग थाती है,

अक्षरब्रह्म,राज विद्या,विभूति विश्वरूप दर्शन कराती है,

भक्ति,क्षेत्र,गुणत्रय विभाग,पुरुषोत्तम योग करामाती है,

सखा विषाद,देवासुर,श्रद्धात्रय सन्यास मोक्ष दिलाती है।

इतना ही नहीं ये सभी योगों के सम्बन्धों को बताती है,

आज जो बन्धन खड़े किए हैं ये उनके भेद  मिटाती है,

जितनी समस्याएं इस युग की सबसे परिचय कराती है,

परिचय तक सीमित नहीं रहे यह समाधान करवाती है।

माखनमाटी,ग्वालागोपी,गजराधोती संज्ञान दिलाती है,

वंशी,वंशीधर,कालिया नाग,पूतना व कंस दिखाती है,

था इस युग से वह भिन्न नहीं  नव अर्थों में सिखाती है,

विकल्प वंशीका चक्रसुदर्शन है हमको ये समझाती है।

 

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वाह जिन्दगी !

ये बाप की विवशता है कि तुम उस से दूर जाती हो।

August 13, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

इतनी सी हो तुम केवल पर कितना याद आती हो।

यादों में और जेहन में, तुम दिन भर मुस्कुराती हो।

मेरी बेटी, मेरी चाहत मेरा वजूद सब तुम से ही है।

हँसाना चाहता जब मैं तुम कितना खिलखिलाती हो।

नन्हें से प्यारे  मुखड़े पर, यूँ मासूमियत सजाती हो।

नन्हीं निर्दोष आँखों से समभाव का जादू जगाती हो।

मेरी लाड़ो ,मेरी छुटकी मेरी ये  दुनियाँ तुमसे ही है।

ये बाप की विवशता है कि तुम उस से दूर जाती हो ।।  

चेन्नम्मा,हजरत महल,लक्ष्मी बाई बनकर आती हो।

भीकाजी, सरोजिनी,सुचेता सा हौसला दिखाती हो।

ये धरती तुमसे वाकिफ है ये अम्बर भी तुम्हीं से है।

तुम भावना, अवनी,मोहना लड़ाकू यान उड़ाती हो।।

कृष्णा,मन्नू,महादेवी बन कलम का जादू चलाती हो।

अरुणा,मेधा,किरण वेदी बनकर  चेतना जगाती हो।

लक्ष्मी सहगल और झलकारी ये उजाला तुम्हीं से है।

मैरीकॉम,पूनिया,ऊषा बन खेलों में नाम कमाती हो।।

अबतो गिनना मुश्किल है तुम सबकुछ करजाती हो।

लेखिका, खिलाड़ी,  सेनानी बनकर धर्म निभाती हो।

पिता की नजरों में, केवल तुम बेटी ही कहलाती हो।

समाजसेविका,नेता हो,अन्तरिक्ष में तुम छाजाती हो।। 

सादाजीवन,उच्चविचार का पर्याय जब बनजाती हो।

तब पिता की चौड़ी छाती में,सिंहों सा बल लाती हो।

क्या क्या बोलूँ बेटी मेरी संसारी मुस्कान तुम्हीं से है।

कर्म की प्रतिमूर्ति तुम,चन्द्रयान से भी जुड़ जाती हो।।

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काव्य

हम भी कश्मीर आ रहे हैं।

August 12, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

अब तो हम भी जग चुके हैं देखो वो भी उछल रहे हैं।

तीन सौ सत्तर भुला चुके हैं इमरान कैसे कुदक रहे हैं।

शाह की बातें पुरअसर हैं, कश्मीर अंगड़ाई ले रहा है।

शाम मद मस्त हो चली  है शिकारे फिर से चल रहे हैं ।।

मिलन जादुई हो चुका है, अरमाँ बरबस  मचल रहे हैं।

भाई जो अबतक जुदा थे रिश्ते उन सबसे संभल रहे हैं।

आतंकी कुचले  जा रहे हैं, जन्नत फिर से चमक रहा है।

नया उजाला हो चुका है, सब ही नजरिया बदल रहे हैं।।

स्याह इबारत मिटा चुके हैं, नयी इबारत लिख  रहे हैं।

दहशतों से जो घिर चुके थे,देखो उससे निकल रहे हैं।

तिरंगा झण्डा फहर रहा है,पाकिस्तान नंगा हो रहा है।

भाल फितरत बदल चुका है कॉलेज फिरसे खुल रहे हैं।।

धमकी ढेरसारी सुनचुके हैं नया सा किस्सा सुना रहे हैं।

वादीअँधेरों से घिरचुकी थी उजाले उनके घर जा रहे हैं।

राष्ट्रवाद पोषित हो रहा है और काश्मीर चंगा हो रहा है।

नूतन जवानी आ चुकी है युवा अब  फिर से सँवर रहे  हैं ।।

अँधेरे तो वजूद खो चुके हैं, रौशन मञ्जर निखर रहे हैं।

कुछ लोग चारा बने हुए थे, अब भाईचारे पनप रहे हैं।

जो लोग बाधा बने हुए थे बन्द उनका धन्धा हो रहा है।

मार्तण्ड ऊपर चढ़ चुका है खुशी के तराने  गा रहे हैं ।।   

वर्तमान रौशन लिख चुके हैं अँधियारी परतें हटा रहे हैं।

जलने वाले तो जल रहे हैं सब लोग उन पर हॅंस रहे हैं।

पश्मीना फिर से बनरहा है बाजार फिर से खुल रहा है।

नवसम्बन्ध तुमको बुलारहे हैं हम भी कश्मीर आ रहे हैं ।।     

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वाह जिन्दगी !

मासूम लबों पर हम थरथराते हैं।

August 3, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

प्रेम और स्नेह के प्रगटन में शब्दों की भाषा मूक हो शारीरिक भाषा में बदल जाती है शब्द लरज कर होठों में थरथराहट पैदा करते हैं उसी गात भाषा का प्रगटन हैं ये पंक्तियाँ :-

जब उनके मासूम लब सहज ही थरथराते हैं,

चमकते नयनों से दृग-बिन्दु  निकल आते हैं,

इन आँसुओं से इक दरिया का जन्म होता है,

ये सब दरिया मिलजुलकर समन्दर बनाते हैं।  

लोगबाग समन्दर की गहराई अनन्त बताते हैं,

कई लोग बस कल्पना करके  ही डर जाते हैं,

जिन लोगों को ये समन्दर खूबसूरत लगता है,

उनमें से कई तो बस तट पर ही ठहर जाते हैं।

कुछ ऐसे  भी हैं, जो समन्दर में उतर जाते हैं,

लेकिन उन्हें सीप शंख मोती ही नज़र आते हैं,

पर प्रेम पराकाष्ठा पर बरबस द्वैत खो जाता है,

धीरे-धीरे उस उच्चता में वे समन्दर हो जाते हैं।

ये समन्दर वाष्प बन आदतवश बरस जाते हैं,

और ये ही जज्बाती दिलों में प्रेम रस बनाते हैं,

जिनलोगों को प्रेम केवल बवण्डर ही लगता है,

उन्हें कहो कि मासूम लबों पर हम थरथराते हैं।

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