सामान्यतः समंक गुणों के उस संख्यात्मक मान को कहा जाता है , जिससे शुद्धता के एक उचित विधि द्वारा गिना जा सके या अनुमान लगाया जा सके। वास्तव में समंक तथ्यों, गुणों, विशेषताओं आदि को प्रदत्त संख्यात्मक मान ही है ।
समंककीअवधारणा वपरिभाषाएं / Concept and definitions of data –
समंक के बारे में कहा जाता है कि समंक झूठ नहीं बोलते हालांकि खुद झूठे हो सकते हैं। यह वर्तमान शोध व्यवस्था की रीढ़ हैं समंक को परिभाषाओं को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं –
“Data are classified facts or information relating to the condition of the people of a state. Especially those facts which can be presented systematically in numbers or in tables of those numbers or by tabulating or classifying them in any form. “
“Data are those groups of facts which are influenced to a sufficient extent by various causes and which are expressed in numerical form and which can be calculated and estimated to a reasonable level of precision.”
उक्त विवध परिभाषाओं के आलोक में समंक की अवधारणा को स्पष्टतः समझा जा सकता है कि समंक पूर्व उद्देश्य के आधार पर प्राप्त वे आंकिक मान हैं जिन्हे तुलना हेतु ,विश्लेषण हेतु या शोध के अन्य उद्देश्यों हेतु प्रयुक्त करते हैं इनके द्वारा संक्षिप्त सारिणी के माध्यम से सरलतम रूप से क्लिष्ट तथ्यों को भी प्रदर्शित किया जा सकता है।
आंकड़ों की महत्ता / Importance of Data –
वर्तमान युग विविध साधनों से युक्त है लेकिन फिर भी यहाँ अधिकाँश लोग समय की कमी का रोना रोते हैं ऐसे समय में समय बचाने वाली हर व्यवस्था को लोक प्रिय होना ही है ऐसा ही एक उपागम हैं समंक। समंकों ने सम्पूर्ण विश्व की प्रगति का विशेष आधार तैयार किया है इनकी महत्ता को इस प्रकार कर्म दिया जा सकता है –
01 – उद्देश्य के प्रति समर्पण Dedication to purpose
02 – वर्गीकरण द्वारा व्यवस्थित प्रदर्शन /Systematic Display by Classification
03 – विश्लेषण सुगम / Analysis made easy
04 – तुलनात्मक विवेचन सम्भव / Comparative analysis possible
05 – भविष्य कथन / Predictions
06 – अधिगमसरल / Easy learning
07 – नीतिनिर्माणमेंयोगदान / Contribution to policy making
08- राज्यव्यवस्थापनमेंयोग /Contribution in state administration
09 – समस्यासमाधानमेंसहायक / Helpful in problem solving
सांख्यिकी शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध दो विचार धाराएं विश्लेषण का परिणाम बंटी दिखाई पड़ती हैं इसके बारे में जानना और इतिहास जानना अत्याधिक रोचक है। ऐसा कहा जाता है कि सांख्यिकी शब्द की उत्पत्ति इटैलियन भाषा के स्टैटिस्टा (Statista) शब्द से हुई है या लैटिन के स्टेटस(Status) शब्द इसके अस्तित्व में आने का कारण है। दोनों ही शब्दों का अर्थ राजनैतिक स्टेट (Political State) है प्रत्येक स्टेट को आय, व्यय, जनसंख्या, सैनिक संख्या व जन्म मरण का लेखा जोखा रखना पड़ता है कोई भी स्टेट इन आंकड़ों का सही लेका जोखा करके ही अपनी विभिन्न नीतियों को धरातल पर उतारता रहा होगा। इसी लिए ये कहा जा सकता है कि बदलते समय के साथ यही स्टैटिस्टा (Statista) ya स्टेटस (Status) शब्द Statistics(सांख्यिकी) कहा लगा। यह विचार धारा वर्णनात्मक सांख्यिकी (Descriptive Statistics)के सम्बन्ध में ज्यादा तर्क सांगत दिखाई पड़ती है।
एक अन्य विचारधारा के अनुसार यह माना जाता है कि कि इसका जन्म वैज्ञानिकों की जगह जुआरियों की आवश्यकता के कारण हुआ। अनुमानात्मक सांख्यिकी (Inferential Statistics) की विचार धारा इस आधार पर बलवती हुई कि इटली के कुछ जुआरियों ने उस काल के प्रसिद्द वैज्ञानिक गैलीलियो की इस सम्बन्ध में राय माँगी कि किस नम्बर पर जुआ लगाएं कि जीत सुनिश्चित हो सके। गैलीलियो ने प्रसम्भाव्यता (Probability) के आधार पर जो राय दी वह उपयोगी सिद्ध हुयी।इसी समय फ़्रांस में जुआरियों ने पास्कल के प्रसम्भाव्यता सिद्धान्त (Pascal’s Theory of Probability)के निर्माण में विशेष योग दिया।इनके अलावा सांख्यिकी विकास में बरनॉली, गॉस, बैकन व पीयर्सन का नाम भी लिया जाता है।
HISTORY OF STATISTICS
सांख्यिकी का इतिहास
सांख्यिकी के सम्बन्ध में कहा जा सकता है की इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता इतिहास। इसका विधिवत उपयोग राजतन्त्र के समय हुआ जब राज्यों ने तर्कसंगत विकास हेतु जन शक्ति,धन शक्ति, सैन्य शक्ति,पशु शक्ति,कृषि व भूमि सम्बन्धी आंकड़ों का प्रयोग किया। जन्म दर, मृत्यु दर, वनीय संसाधन आदि की गणना हेतु सांख्यिकी राजतन्त्र की सहायिका सिद्ध हुई।
आधुनिक सांख्यिकी के जन्मदाता व प्रवर्तक के रूप में फ्रांसिस गॉल्टन, कार्ल पियर्सन व आर ए फिशर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सांख्यिकी का वर्तमान स्वरुप विगत चार शताब्दियों में हुए अनुसंधान का परिणाम है यद्यपि इस सम्बन्ध में 1620 में प्रसिद्द गणितज्ञ गैलीलियो ने तार्किक विचार को धरातलीय आधार दिया। ग्राण्ड ड्यूक को लिखे चार पृष्ठीय पत्र में प्रायिकता के चार सिद्धान्त – अनुपात का सिद्धान्त, औसत का सिद्धान्त, योग का सिद्धान्त व गुणन के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया।
फ्रांसिस गॉल्टन को सांख्यिकी के सह सम्बन्ध गुणांक ( Coefficient of correlation) का पता लगाने का श्रेय है . प्रसरण विश्लेषण(Analysis of Variance) हेतु आर ए फिशर का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। जेम्स बरनौली(1654 – 1705 ) ,अब्राहम डी मोइबर (1667 -1754 ) आदि गणतज्ञों ने प्रायिकता का व्यवस्थित रूपेण अध्ययन किया परिणाम स्वरुप प्रायिकता सिद्धान्त (Probability Theory) अस्तित्व में आया। सन 1733 में डी मोइबर महोदय ने सामान्य प्रायिकता वक्र (Normal Probability Curve ) का समीकरण ज्ञात किया। पीयरे साइमन लाप्लास (1749 – 1830 ) व कार्ल फ्रेड्रिच गॉस (1777 – 1827) ने 19 वीं शताब्दी के पहले दो दशकों में प्रायिकता पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया सन 1812 में लाप्लास महोदय ने प्रायिकता सिद्धान्त पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। और इसी के माध्यम से उन्होंने अल्पतम वर्ग विधि (Least Squares Method) को सत्यापित किया। गॉस महोदय ने तो सामान्य प्रायिकता वक्र हेतु इतना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया की इनके नाम पर सामान्य प्रायिकता वक्र को आज भी गॉसियन वक्र के नाम से जाना जाता है।
उन्नीसवीं शताब्दी प्रसिद्द गणितज्ञ ए क्युलेट (1796 -1874 ) ने सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में सांख्यिकी का प्रयोग कर बेल्जियम की उपस्थिति इस क्षेत्र में दर्ज की।इनके द्वारा प्रायिकता वक्र व अन्य सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग विविध व्यावहारिक विज्ञानों में किया गया। सर फ्रांसिस गाल्टन 1882 -1911 ने भी अपना अपूर्व योगदान सांख्यिकी को सामाजिक विज्ञानों में प्रयोग करके दिया। सह सम्बन्ध व शतांशीय मान के प्रत्यय को गाल्टन महोदय ने ही प्रस्तुत किया। आपके साथ गणितज्ञ कार्ल पियर्सन ने भी कार्य किया। सहसम्बन्ध व प्रतिगमन (Correlation and Regression) के अनेक सूत्रों के विकास में गाल्टन महोदय ने विशेष योगदान दिया।
बीसवीं शताब्दी सांख्यिकी के प्रयोग के हिसाब से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही। इस काल में लघु प्रतिदर्शों पर कार्य करने हेतु विविध प्रविधियों का विकास किया गया। लघु प्रतिदर्शों के विकास में अंग्रेज सांख्यिकीविद रोनाल्ड ए फिशर(1890 -1962 ) का महत्त्व पूर्ण योगदान रहा। इन्होने अपनी विविध विधियों का प्रतिपादन चिकित्सा, कृषि व जीव विज्ञानों के क्षेत्र में किया लेकिन बहुत जल्दी ही सामाजिक विज्ञानो ने इन विकसित विधियों की उपयोगिता जानकर समस्याओं के अध्ययन हेतु इनका प्रयोग प्रारम्भ कर दिया। वर्तमान समय में सामाजिक विज्ञानों के अनुसंधान कार्यों में सांख्यिकी का प्रयोग अति महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में किया जाता है।
Definition and need of Statistics
सांख्यिकी की परिभाषा एवं आवश्यकता –
सांख्यिकी को प्रारम्भिक दौर में औसत, सामान्य विज्ञान और सामान्य प्रयोग तक सीमित मान कुछ संकीर्ण परिभाषाएं दी गयीं ज्यों ज्यों इस ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया परिभाषाएं यथार्थ के अधिक निकट आईं और व्यापक दृष्टिकोण से सांख्यिकी को पारिभाषित किया गया। इसमें तत्सम्बन्धी आंकड़ा संग्रहण, वर्गीकरण, वितरण , प्रस्तुतीकरण, विश्लेषण, संश्लेषण, व्याख्या, स्पष्टीकरण सभी को समाहित किया गया। यह वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सांख्यिकी के यथार्थ से तालमेल की क्षमता रखती हैं। प्रस्तुत हैं कुछ परिभाषाएं –
“सांख्यिकी औसतों का विज्ञान है।” – ब्राउले
“Statistics is the science of averages.”
“सांख्यिकी अनुमानों तथा सम्भावनाओं का विज्ञान है।” – बोडिंगटन
“Statistics is the science of estimates and probabilities.”
“सांख्यिकी वैज्ञानिक पद्धति की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध प्राकृतिक तथ्यों व घटनाओं के उन समंकों के अध्ययन से है जिनको गणना अथवा मापन द्वारा एकत्रित किया गया है।” – एम० जी० केण्डल
” Statistics is the branch of scientific method which deals with data obtained by counting of measuring properties of population of natural phenomena.”
“सांख्यिकी किसी जाँच क्षेत्र पर प्रकाश डालने के लिए समंकों के संकलन, वर्गीकरण, प्रस्तुतीकरण, तुलना तथा व्याख्या करने विधियों से सम्बन्धित विज्ञान है।” – सेलिंग मेन
“Statistics is the science which deals with the methods of collecting, classifying, presenting, comparing and interpreting numerical data collected to through some light on any sphere of inquiry.”
“सांख्यिकी एक ऐसा विज्ञान है, जिसके अन्तर्गत सांख्यिकीय तथ्यों का सङ्कलन, वर्गीकरण तथा सारणीयन इस आधार पर किया जाता है कि उसके द्वारा घटनाओं की व्याख्या, विवरण व तुलना की जा सके।” – लोविट
“Statistics is the science which deals with the collection, classification, and tabulation of numerical facts as the basis for explanation, description, and comparison of phenomena.” – Lovitt
अभी तक दी गई परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सांख्यिकी की आवश्यकता मुख्यतः इन कारणों से है।
1 – तत्सम्बन्धी तथ्यपूर्ण आंकड़ों का संकलन / Compilation of relevant factual data
2 – प्राप्त आंकड़ों का व्यवस्थापन / Organization of received data
3 – प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण / Analysis of received data
4 – सामान्यीकरण व भविष्य कथन / Generalization and prediction
5 – गुणों को संख्यात्मक मान प्रदान करना / Assigning numerical values to properties6 – शोध हेतु परिकल्पना का निर्धारण / Determining the hypothesis for research
7 – सामान्य ज्ञान के स्तर में प्रामाणिक वृद्धि / Authentic increase in the level of general knowledge
8 – नीति निर्माण व क्रियान्वयन में योगदान / Contribution in policy formulation and implementation
सांख्यिकी के प्रकार
Types of statistics –
-सांख्यिकी को जब हम विषय सामिग्री के आधार पर विवेचित करते हैं तो सामान्यतः इसे पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है। यह पाँच प्रकार इस तरह अधिगमित किये जा सकते हैं।
05 – भविष्य कथनात्मक सांख्यिकी / Predictive Statistics
उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन में सांख्यिकी का परिचय देते हुए इतिहास, परिभाषाएं सरलतम ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है साथ ही यह भी सरलतम रूप से बताया है कि सांख्यिकी की आवश्यकता किन कारणों से है और इसके कौन कौन से प्रकार हैं।
जब माता पिता के अरमानों को पंख लगते हैं तो अपने ह्रदय के टुकड़े बेटे या बेटी को विद्यालय में प्रवेश कराया जाता है वहाँ से अक्षर बोध,शब्द बोध,और ज्ञान के उच्चीकरण की एक यात्रा का प्रारम्भ होता हैजो कि प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा व तकनीकी शिक्षा से जोड़ता है। विविध स्तरों पर प्रवेश के समय एक विशिष्ट मनोदशा होती है और विविध लक्ष्यों को मानस में सजाकर कल का बालक आज का शिक्षार्थी और देश का मुकद्दर बनता है।
समय की गति अद्भुत है और अद्भुत है यह मानव तन। बहुत कुछ याद रखता है और बहुत कुछ विस्मृत करता चलता है। विविध स्तरों पर प्रवेश और उस स्तर के अधिगम के सम्बन्ध में अलग अलग विचार करेंगे तो बोध गम्यता, सरलता और सरसता बानी रहेगी। आज की पीढ़ी में निश्चित रूप से क्षमता है, कार्य करने की हिम्मत है, लक्ष्य प्राप्ति का अहसास है लेकिन पथ बहुत सरल नहीं है फिर भी इस कण्टकाकीर्ण पथ के अनुयायी होते आये हैं और इसी जिन्दादिली से दुनियाँ का अस्तित्व है।
अधिगम की इस यात्रा में अनेकानेक पड़ाव आते हैं। जिसे इस पथ का पथिक महसूस करता है आज बहुत से मस्तिष्कों में बहुत सारी भूली बिसरी यादों का तूफ़ान हिलोरें ले रहा होगा। हमने अपने समय में जो गलतियाँ की हैं उस आधार पर नई पीढ़ी को सचेष्ट करने का प्रयास करते हैं लेकिन हम भूल जाते हैं कि समय बदलने के साथ समस्याएं बदलती हैं और उनके समाधान पाने के तरीके भी बदलते हैं इसलिए अपने विचार नई पीढ़ी पर थोपने की जगह सचेष्ट रहें। समय के साथ कदमताल करें।
आइए हम विचार करते हैं अलग अलग स्तरों पर प्रवेशऔरअधिगमकेसम्बन्धमेंसाथहीअधिगमकेबाधकतत्वोंपर भी विचार करके अधिगम पथ दुरुस्त रखने का प्रयास करेंगे।
स्तरआधारितवर्गीकरण – अध्ययन की सुविधा हेतु इसका विभाजन करके जानना उपयुक्त रहेगा क्रम इस प्रकार रखा जा सकता है।
1 – विद्यारम्भ से कक्षा 8 तक
2 – माध्यमिक शिक्षा कक्षा 9 से 12 तक
3 – उच्च शिक्षा यथा स्नातक, परास्नातक, शोध आदि
4 – तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण
1 – विद्यारम्भसेकक्षा 8 तक – इस समय प्रवेश के साथ बाल मन में विभिन्न कौतुहल, जिज्ञासा, नवबोध आशा, स्नेह आकाँक्षा, सुन्दर शब्द,भाव,ऊर्जा से जुड़ने का विशिष्ट भाव होता है और यही वह सर्वाधिक कीमती बहुमूल्य समय होता है जहाँ माता पिता अभिभावक, शिक्षक और विद्यालय को प्रतिपल सचेष्ट रहना जरूरी है।
यहाँ से बालमन, बाहर की दुनियाँ, विद्यालय, समाज और विभिन्न सम्बन्धों को समझना शुरू करता है। जहां माता-पिता के सपने परवान चढ़ते हैं। वहीं बालक की क्षमता, स्वास्थ्य ,वातावरण मिलकर हर बालक के लिए एक नई दुनियाँ का सृजन कर रहे होते हैं। इस प्रवेश से बालक को नई दिशा, प्राइवेट सैक्टर को धन,विभिन्न संस्थाओं को पहचान मिलती है। और मूल कारक बालक प्रभावित होता है।
इस स्तर के बालक को हम अपनी महत्त्वाकाँक्षा से दुष्प्रभावित न करें, बालक को बालक ही रहने दें. उसे रोबोट न बनाएं। एक स्तर पर एक तय पाठ्यक्रम का अवबोध हो, एक सरलता सहजता बनी रहनी आवश्यक है। कृत्रिमता के बोझ तले उनका बचपन छीनने का प्रयास न करें, उन्हें खेलने दें स्वाभाविक रूप से बढ़ने दें पढ़ने दें। बच्चों की किलकारी से, मुस्कान से, हास्य से आनन्दित हों, भाव प्रगटन सहज रहने दें उनका शाब्दिक परिमार्जन करें लेकिन सहजता से स्वाभाविकता से। उनका सारा समय न छीनें।
केवल उस स्तर का किताबी अधिगम काफी है व्यावहारिकता से जुड़ाव का प्रयास हो प्राकृतिक रूप से बिना किसी दवाब के। ट्यूशन कक्षा शिक्षण और घरेलू व्यवहार में आदेशात्मक वाक्यों से बचें। व्यक्तित्व में निखार स्वाभाविक रूप से आने दें। तुलना के नकारात्मक प्रभाव से दूर रहने का प्रयास करें। याद रखें प्रतिस्पर्धा और अन्धी दौड़ में फर्क है। इस स्तर की मार्कशीट (अंक तालिका) सहेज कर रखना बहुत तर्क सांगत नहीं है। आज अभिभावकों की ज्यादातर यह अंकतालिकाएं कहाँ हैं पता भी नहीं होगा।
स्वाभाविक स्तरोन्नयन के साथ बालकों की समझ को विस्तार के नए आयाम मिलने दें। कम अंक आने पर मारपीट करने की जगह स्वयं की भूमिका का विवेचन करें डिब्बा बन्द, मृत भोजन की जगह पौष्टिक व ताज़ा आहार व्यवस्था पर ध्यान अपेक्षित है। आपका सौम्य व नियन्त्रित व्यवहार इस स्तर के बच्चों की जमा पूँजी है। यह संस्कार, प्राकृतिक तालमेल सहज प्रगति जीवन का मज़बूत आधार है।
2 – माध्यमिक शिक्षा कक्षा 9 से 12 तक –
आठवीं के बाद परिवर्तन की एक नई आहट सुनाई पड़ती है, बहुत से नए साथियों, नए गुरुओं, नई पुस्तकों, बदलती दुनियाँ के बदलते परिवेश से तालमेल बैठाते हमारे नन्हें मुन्ने। हमारे बेटे,बेटियों के रूप में ये नए योद्धा नई परिस्थितियों, विषयों के विस्तार से जूझने को आतुर।
ऐसे में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है अध्यापक। स्वयं की उलझनों में उलझे अध्यापक से मुक्त शिक्षा से प्यार करने वाला अध्यापक निश्छल, सहज स्वाभाविक मुस्कान आत्म विश्वास से परिपूर्ण रहकर विद्यार्थियों को सकारात्मक दिशा दे सकता है। अभिभावकों को भी प्रशिक्षित अध्यापकों वाले विद्यालय का चयन कर प्रवेश सुनिश्चित कराना चाहिए।
आज तक की समस्त सरकारें शिक्षा से पल्ला झाड़ने पर एक मत दिखाई देती हैं इसी वजह से निजी संस्थान लगातार अस्तित्व में आ रहे हैं जिनकी अपनी समस्याएं हैं, प्रतिस्पर्धा है। उद्देश्य धनार्जन है। शानदार इमारत की जगह अच्छा व कुशल प्रबन्धन, योग्य अध्यापक, विगत परीक्षा परिणाम, विद्यालय, अनुशासन, निष्पक्षता, संस्था व्यवहार अधिक मायने रखता है।
हमारे बालक बालिकाओं में इस स्तर पर सहज शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होने लगते हैं
यहाँ कुशल अभिभावक, कुशल अध्यापक और जिम्मेदारी निर्वहन में समर्थ विद्यालय बालक का शारीरिक, चारित्रिक, मानसिक गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करते हैं। संस्कार, नीति, व्यवहार इसी स्तर पर गढ़ा जाता है बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था अपने सहज मोहपाश में जकड़ बालकों को दिग्भ्रमित कर सकती है।
3 – उच्चशिक्षायथास्नातक, परास्नातक, शोधआदि –
इस स्तर तक आते आते विद्यार्थी अपने अभिभावकों से प्रवेश, रूचि, अभिरुचि, पसन्दीदा क्षेत्र आदि के सम्बन्ध में विचार विमर्श की कुछ क्षमता हासिल कर लेता है। अच्छे विचार विमर्श के उपरान्त विद्यालय का उच्च शिक्षा हेतु चयन किया जाता है लेकिन कभी कभी नज़दीकी, सुविधा, जल्दबाजी आदि के आधार पर भी उच्च शिक्षा हेतु विद्यालय चयनित किया जाता है। यहाँ की शिक्षा व्यवस्था, पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सहभागिता ,क्रीड़ा प्रतियोगिता में भागीदारी आने वाले जीवन के लिए आधार का काम करती है। कुछ विद्यार्थी पढ़ने के साथ पढ़ाने के स्वप्न भी देखते हैं और तदनुकूल आचरण भी करते हैं अपने अधिगम स्तर में वृद्धि कर सफल भी होते हैं। प्रशासकीय कार्यों हेतु आधार यहां से मिल जाता है। पात्र और उसकी पात्रता विद्यार्थी की क्षमता वृद्धि के साथ बढ़ती है।
स्नातक और परास्नातक स्तर के कुछ विद्यार्थियों में एक महत्त्व पूर्ण नकारात्मक बिंदु के भी दर्शन मिलते हैं वह यह की प्रवेश के समय सपना उच्च शिक्षा और उच्च प्रतिमान कायम करने का होता है लेकिन कालांतर में यह परिदृश्य ओझिल हो जाता है।
कतिपय विद्यार्थी कई पी० जी० करने लगते हैं और दिशाहीन व दिग्भ्रमित हो जाते है। उचित निर्देशन व परामर्श की महाविद्यालयों में कोई व्यवस्था देखने को नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि विद्यार्थी किसी भी कार्य से जुड़ जिन्दगी बचाने का प्रयास भी करेगा और दायित्व भी निभाएगा।
मध्यम स्तर का विद्यार्थी या सुविधा हीन विद्यार्थी इस स्तर पर अपने को ठगा सा महसूस करता है और सोचता है कि कोई व्यावहारिक कार्य सीखा होता तो ठीक रहता। साधन सम्पन्न या पूर्व नियोजित दिशा वाले विद्यार्थी तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण की ओर रुख करते हैं।
4 – तक़नीकी शिक्षा व विविध प्रशिक्षण –
वर्तमान समय कठिन प्रतिस्पर्धा का है इसी लिए सदा शिक्षा की जगह प्रशिक्षण या तकनीकी शिक्षा को वरीयता दी जाती है। विद्यार्थी इस हेतु दूरस्थ स्थानों पर जाने में भी नहीं हिचकते। कई विद्यार्थी इस हेतु कोचिंग क्लास ज्वाइन करते हैं विगत समय में बहुत सी ख़बरें लक्ष्य न मिलने पर आत्म ह्त्या जैसे जघन्य अपराध की भी सुनने को मिली हैं। हमें याद रखना है कि हारा वही जो लड़ा नहीं।
किसी भी तकनीकी शिक्षा या ट्रेनिंग कोर्स में प्रवेश हेतु सम्यक रण नीति और उस पर अमल परम आवश्यक है। प्रवेश न मिलने पर जीने के रास्ते बंद नहीं होते दिशा बदल सकती है। कहा तो यह भी जाता है कि असफलता का मतलब है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं किया गया।
प्रवेश मिल जाने पर अल्पकालिक लक्ष्य मिलता है वास्तव में सफर की शुरुआत यहाँ से होती है। इस पर चलने हेतु निरन्तर प्रवेश के समय तय उद्देश्य को ध्यान में रखना है क्यों कि यहां से निकलने पर यथार्थ का कठोर धरातल हमारी परीक्षा लेने को तैयार खड़ा है।
अधिगम के बाधक तत्त्व – प्रवेश के समय जो मानसिक उड़ान होती है वह कालान्तर में मन्द पद जाती है उसके पीछे विविध कारण होते हैं। इनसे अधिगम दुष्प्रभावित होता है कुछ को यहाँ विवेचित किया जा रहा है आशा कि ये बिन्दु तत्सम्बन्धी के जागरण में सहायक होंगे।
01 – रूचि
02 – चन्द अभिभावक
03 – कतिपय विद्यालय
04 – अकुशल अध्यापक
05 – निर्देशन परामर्श अभाव
06 – पाठ्य क्रम
07 – मानक हीन शिक्षा व्यवस्था
08 – अध्यापकों की दयनीय स्थिति
09 – शासन की शिक्षा नीतियाँ
10 – इच्छा शक्ति का अभाव
उक्त विचार मन्थन ह्रदय को उद्वेलित करता है आजादी के इतने वर्ष गुजरने के बाद भी शिक्षा के साथ न्याय नहीं हुआ है प्रवेश के समय की सोच और अधिगम काल व अधिगम प्राप्ति के बाद की सोच में बहुत चौड़ी खाई है भारत में प्रति व्यक्ति सीमित आय व भ्रष्टाचार भी अधिगम प्रसार की मार्ग का रोड़ा बने हुए हैं। मर्यादा हनन सामान्य बात हो गयी है और शिक्षा स्वयम् व्यापार होती दिखती है लेकिन इन विषम परिस्थिति में भारतीय युवा सुधार की आशा में कड़ी मेहनत कर रहा है आशा है कि शिक्षा व्यवस्था स्वमूल्याङ्कन करेगी। प्रवेश के समय के सपने अधिगम के साथ पूर्णता प्राप्त करेंगे .
पर्यावरण में उन समस्त तत्वों या उस सब कुछ को सम्मिलित किया जाता है जो हमें हर और से घेरे है, केवल चारों ओर से घेरे कहना उपयुक्त नहीं लगता। यहाँ यह कहना भी समीचीन होगा कि मानव से परे सब उसका पर्यावरण है। पर्यावरण पर दीर्घकाल से चिन्तन मन्थन होता आया है और अभी बहुत कुछ अध्ययन मनन की आवश्यकता है।
पर्यावरणसेआशयवपरिभाषा
Meaning and definition of environment
पर्यावरण मानव संचेतना का वह विशिष्ट शब्द जिसके प्रति मानवीय जिज्ञासा व रूचि दीर्घकाल से रही है और रहेगी भी।यह विविध आयामी है इसी कारण बहुत सी परिभाषाएं एक या अधिक आयाम को तो अपने में समेटती हैं सबको नहीं। क्योंकि ज्ञान के प्रस्फुटन के साथ नया विषय नया क्षेत्र इसे अपने आप से सम्बद्ध कर लेता है। अब तक के ज्ञान के आधार पर कुछ परिभाषाएं द्रष्टव्य हैं। –
“It is the sum total of effective conditions in which organism live.”
विविध परिभाषाओं के विश्लेषण करने के उपरान्त कहा जा सकता है कि पर्यावरण में मानव जीवन के प्राकृतिक, सामाजिक, कृत्रिम कारकों का योग है सामाजिक घटक परिवर्तनशील हैं लेकिन आज हम सांस्कृतिक,नैतिक,सामाजिक व व्यक्तिगत मूल्यों को स्थान दे सकते हैं।
पर्यावरणकाक्षेत्र
Scope of Environment-
पर्यावरण के क्षेत्र का अध्ययन करने में दिक्कत यह है कि आखिर छोड़ा क्या जाए सभी समाहित करने योग्य है लेकिन स्पष्ट करने के लिए यहां कुछ बिन्दुओं को आधार बनाने का प्रयास है। –
01 – पर्यावरण शिक्षा (Environment Education)
02 – अनिवार्य पर्यावरणीय विद्यालय शिविर (Compulsory Environmental School Camp)
03 – तत्सम्बन्धी शिक्षण विधियाँ (Related teaching methods )
14 – विविध संसाधन (Miscellaneous resources)- जल, खनिज, वन, ऊर्जा आदि
15 – तत्सम्बन्धी क़ानून (Related Law)
16 – तत्सम्बन्धी विविध प्रयास (Various related efforts)
पर्यावरणकीप्रकृति / Nature of environment –
सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि प्रकृति होती क्या है ? प्रकृति यहाँ स्वभाव,निहित गुण, व्यावहारिक आचरण आदि विविध गुणों को समाहित करती चलती है। पर्यावरण की प्रकृति से आशय पर्यावरण के गुण धर्म, स्वभाव आदि से है और इसी प्रकृति के अनुसार पर्यावरण विविध कार्यों को अंजाम देता है। इन गुणों, संकेतों को अध्ययन का आधार बनाकर पर्यावरण की प्रकृति को बिन्दुवार इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है।
01 – बहुआयामी प्रकृति / Multidimensional nature
02 – आपसी सम्बन्ध /Mutual relations
03 – भविष्य कथन में सक्षम / Capable of predicting future
04 – प्रकृति से निकटता / Closeness to nature
05 – सजगता / Vigilance
06 – अनुभव बोध / Sense of experience
07 – चेतनता आवाहन / Call to consciousness
08 – प्रकृति मानव सम्बन्धों की प्रगाढ़ता / Intensity of nature human relations
09 – आपदा प्रबन्धन / Disaster management
10 – स्वास्थय संवाहक / Health promoter
11 – प्रदुषण सम्बन्धी जानकारी / pollution related information
12 – पारिस्थितिकीय तन्त्र संरक्षण संकेत / ecosystem protection sign
13 – दायित्व बोध / sense of responsibility
14 – वसुधैव कुटुम्बकम / Vasudhaiva Kutumbakam
उक्त सम्पूर्ण विवेचन मानव को सचेत तो करता है लेकिन पर्यावरणीय संचेतना का असली स्वरुप भविष्य के गर्भ में हैं।
जैव विविधता दो शब्दों जैव और विविधता से बना है जैव से आशय प्रत्येक चेतना युक्त प्राणी से है विविधता अपने आप में प्रत्येक चेतन के समाहित होने से है समूचे व्योम में असंख्य जीव अपनी विविधता को परिलक्षित करते हैं इस खूबी को संरक्षण प्रदान करना ही जैव विविधता को संरक्षण प्रदान करना है हर जीव की अपनी खूबी है उसका फायदा सभी को मिलता है।
Meaning and values of Biodiversity
जैव विविधता का अर्थ एवं महत्ता –
(1 ) – अर्थ
विविध विज्ञ जनों ने स्वीकार किया कि जैव विविधता शब्द पृथ्वी पर जीन से लेकर पारिस्थितिक तन्त्र तक सभी स्तरों पर जीवन की विविधता को सन्दर्भित करता है। जीवन की यह विविधता समूची पृथ्वी पर समान रूप से वितरित नहीं है कई बार कई जीव किन्ही लोगों के छुद्र स्वार्थों से विनाश के कगार तक पहुँच जाते हैं इनके निवास स्थल के तबाह होने से विविध जीवों के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है।
जैव विविधता से आशय भूमि पर जीवन की परिवर्तनशीलता और विविधता से है।विकिपीडिया के अनुसार –
” जैववैविध्य या जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन की विविधता और परिवर्तनशीलता है। जैव वैविध्य आनुवंशिक (आनुवंशिक परिवर्तनशीलता), प्रजाति ( प्रजाति विविधता ), और परितन्त्र (परितान्त्रिक वैविध्य) स्तर पर भिन्नता का एक माप है।”
“Biodiversity or biodiversity is the variety and variability of life on Earth. Biodiversity is a measure of variation at the genetic (genetic variability), species (species diversity), and ecosystem (ecological diversity) levels.”
डॉ ० राम मनोहर विरले जी के अनुसार
“जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन की समृद्धि और विविधता का प्रगटन करती है। यह भूमण्डल की सबसे विशिष्ट व जटिल विशेषता है। जैव विविधता के बिना जीवन की कल्पना करना भी एक कल्पना ही होगा।“
“Biodiversity reflects the richness and variety of life on Earth. This is the most unique and complex feature of the earth. It would be a fantasy to imagine life without biodiversity.”
जैव विविधता को एक अन्य विद्वान्न ने इस प्रकार की परिभाषित किया है –
“जैव विविधता स्थलीय, समुद्री और रेगिस्तानी पारिस्थितिक तंत्र और पारिस्थितिक परिसरों सहित विभिन्न स्रोतों से जीवित जीवों के बीच भिन्नता है, जिसका वे हिस्सा हैं।”“Biodiversity is the variation among living organisms from different sources, including terrestrial, marine and desert ecosystems and the ecological complexes of which they are part.”उक्त विचारों के आलोक में कहा जा सकता है कि समुद्र, सामान्य स्थल, जंगल, पहाड़, रेगिस्तान, नदी, कुआं, पृथ्वी तल के नीचे जहाँ भी जीवन है वहाँ का एक पारिस्थितिक तन्त्र होता है और जीवों में विविधता होती है और हमारा अस्तित्व परस्पर सह अस्तित्व पर निर्भर है।
(2 ) – महत्ता –
भारत में भी जैव विविधता के विशिष्ट दर्शन होते हैं पौधों की प्रजातियों की समृद्धि के मामले में यह नौवें स्थान पर है ।भारत अरहर, बैंगन, ककड़ी, कपास और तिल जैसी महत्वपूर्ण फसल प्रजातियों का उद्गम स्थल है। भारत विभिन्न घरेलू प्रजातियों जैसे बाजरा, अनाज, फलियां, सब्जियां, औषधीय और सुगंधित फसलों आदि का महत्त्वपूर्ण केंद्र है। विश्व के 25 जैव विविधता हॉटस्पॉट में से दो हमारे भारत में पाए जाते हैं। पशु सम्पदा का भारत महत्त्वपूर्ण केन्द्र है लगभग 91000 पशु प्रजातियां यहां पाई जाती हैं।जैव वैविध्य के अलग-अलग मुख्य तीन प्रकारों को इस प्रकार क्रम देकर इनकी महत्ता को समझने का प्रयास है
1 – आनुवंशिक जैव विविधता
2 – प्रजाति जैव विविधता
3 – पारिस्थितिक जैव विविधता
जैव विविधता सम्पूर्ण प्रगति का आधार है जैव विविधता जीवन को वह सम्बल प्रदान करता है कि उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने में भी हम बौने साबित होंगे। फिर भी इसकी मुख्य महत्ता को हम इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
01 – जीवन का आधार जैव विविधता
02 – भोजन प्रदाता
03 – उत्तम स्वास्थय
04 – रोटी कपड़ा और मकान
05 – पारिस्थितिकी तंत्र को स्थायित्व
06 – व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन
07 – आर्थिक सम्पन्नता
08 – पृथ्वी की स्वच्छता
09 – सौन्दर्य प्रसाधन
10 – कृतज्ञता का सर्वोच्च शिखर
जैव विविधता मानव प्रजाति को ईश्वर की अनुपम भेंट है इसकी महत्ता का वर्णन सूर्य को दीप दिखाने जैसा है।
प्रकृति ने जल, वायु, आकाश, ताप, प्रकाश, भूमि, वनस्पति, प्रचुर रूप से उपलब्ध कराई है जड़, जङ्गम और प्राकृतिक संसाधनों की यह नेमत निरापद रूप से यदि मानव तक नहीं पहुँचती तो संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जाती है। प्रकृति प्रदत्त इन संसाधनों का संरक्षण ही प्राकृतिक संरक्षण कहलाता है। इस प्रकृति का संरक्षण ही पर्यावरणीय संरक्षण का वाहक बनता है। पर्यावरण से आशय मानव को हर और से घेरे समस्त तत्वों से है। आज के औद्योगिक विकास ने मानव और प्रकृति के सम्बन्धों में ह्रास का भयंकर सिलसिला प्रारम्भ कर दिया व परवान चढ़ाया। समूची मानवता कराह कर कातर दृष्टि से विद्यालय से यह आशा रखती है कि पर्यावरण संरक्षण व सतत विकास हेतु विद्यालय अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करें। क्योंकि पर्यावरण प्रबन्धन हेतु विद्यालय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
Role of school in environment conservation and sustainable development.
पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास में विद्यालय की भूमिका। –
01 – पाठ्यक्रम परिवर्तन / Curriculum Change
02 – शिक्षण विधि परिवर्तन / Change in teaching method
03 – जागरूकता / Awareness
04 – समाजीकरण / socialization
05 – समायोजन शक्ति में सकारात्मक परिवर्तन / Positive change in adjustment power
06 – पुरूस्कार व दण्ड का सम्यक प्रयोग / Proper use of rewards and punishments
13 – औद्योगिक कचरा निपटान / Industrial waste disposal
14 – सामाजिक सञ्चेतना / Social awareness
पर्यावरण प्रबन्धन का महत्त्वपूर्ण कार्य उक्त बिन्दुओं के आधार पर सम्पन्न किया जा सकता है आवश्यकता है जनजागरण की और जनजागरण का यह कार्य विद्यालय क्रमिक रूप से पूर्ण कर सकते हैं। आज यहाँ वहाँ दीप प्रज्जवलन से कार्य चलने वाला नहीं है विद्यालय और समाज को मिलकर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। विद्यालय को भी लगातार योगदान कर पथ आलोकित करना होगा।
समावेशी शिक्षा से विस्तृत परिक्षेत्र सम्बद्ध है यहाँ अधोलिखित तीन बिन्दुओं पर मुख्यतः विचार करेंगे।
1 – समावेशन की अवधारणा और सिद्धान्त /Concept and principles of inclusion
2 – समावेशन के लाभ / Benefits of inclusion
3 – समावेशी शिक्षा की आवश्यकता / Need of inclusive education
समावेशनकीअवधारणाऔरसिद्धान्त /Concept and principles of inclusion –
जब हम समावेशन की बात करते हैं तो यह जानना परमावश्यक है कि यह किनका करना है। समाज में बहुत से लोग हाशिये पर हैं शिक्षण संस्थाओं में अधिगम करने वाले विविध वर्ग हैं कुछ में शारीरिक, कुछ में मानसिक क्षमताएं, अक्षमताएं विद्यमान हैं। हमारे विद्यालयों में अध्यापन करने वाला व्यक्ति समस्त अधिगमार्थियों से उनकी क्षमतानुसार अधिगम क्षेत्र उन्नयन हेतु पृथक व्यवहार कर सभी का समावेशन करना चाहता है।
समावेशन वह क्रिया है जो विविधता युक्त व्यक्तित्वों में निर्दिष्ट क्षमता समान रूप से स्थापन करने हेतु की जाती है।
गूगल द्वारा समावेशन सिद्धान्त तलाशने पर ज्ञात हुआ –
“Inclusive teaching and learning recognizes the right of all students to a learning experience that respects diversity, enables participation, removes barriers and considers a variety of learning needs and preferences.”
समावेशन का यह प्रयास विविध क्षेत्रों में विविध प्रकार से हो सकता है लेकिन यदि हम केवल शिक्षा के दृष्टिकोण से इस पर विचार करें तो प्रसिद्द शिक्षाविद श्री मदन सिंह जी(आर लाल पब्लिकेशन) का यह विचार भी तर्क सङ्गत है –
“In the field of education, inclusive education means the process of restructuring of schools aimed at providing educational and social opportunities to all children.”
समावेशी शिक्षा की प्रक्रियाओं में अधिगमार्थी की उपलब्धि, पाठ्य क्रम पर अधिकार, समूह में प्रतिक्रया, शिक्षण, तकनीक, विविध क्रियाकलाप, खेल, नेतृत्व, सृजनात्मकता आदि को शामिल किया जा सकता है।
समावेशनकेलाभ / Benefits of inclusion –
चूँकि हम शैक्षिक परिक्षेत्र में सम्पूर्ण विवेचन कर रहे हैं अतः समावेशी शिक्षा के लाभों पर मुख्यतः विचार करेंगे। इस हेतु बिन्दुओं का क्रम इस प्रकार संजोया जा सकता है।
01- स्वस्थ सामाजिक वातावरण व सम्बन्ध / Healthy social environment and relationships
02- समानता (दिव्याङ्ग व सामान्य) / Equality
03- स्तरोन्नयन / Upgradation
04 – मानसिक व सामाजिक समायोजन / Mental and social adjustment
05- व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण / Protection of individual rights
06- सामूहिक प्रयास समन्वयन / Coordination of collective efforts
07- समान दृष्टिकोण का विकास / Development of common vision
08- विज्ञजनों के प्रगति आख्यान / Progress stories of experts
09- समानता के सिद्धान्त को प्रश्रय / Support the principle of equality
10- विशिष्टीकरण को प्रश्रय / Support for specialization
11- प्रगतिशीलता से समन्वय / Progressive coordination
12- चयनित स्थानापन्न / Selective placement
समावेशी शिक्षा की आवश्यकता / Need for inclusive education –
जब समावेशी शिक्षा की आवश्यकता क्यों ? का जवाब तलाशा जाता है तो निम्न महत्त्वपूर्ण बिन्दु दृष्टिगत होते हैं –
01- सौहाद्रपूर्ण वातावरण का सृजन / Creation of harmonious environment
02- सहायता हेतु तत्परता / Readiness for help
03- परस्पर आश्रयता की समझ का विकास / Development of understanding of mutual support
04- जैण्डर सुग्राह्यता / Gender sensitivity
05- विविधता में एकता / Unity in diversity
06- सम्यक अभिवृत्ति विकास / Proper attitude development
07- अद्यतन ज्ञान से सामञ्जस्य / Alignment with updated knowledge
08- विश्व बन्धुत्व की भावना को प्रश्रय / Fostering the spirit of world brotherhood
09- हीनता से मुक्ति / Freedom from inferiority
10- मानसिक प्रगति सुनिश्चयन / Ensuring mental progress
ई – अधिगम, अधिगम का वह प्रकार है जिसमें अधिगम हेतु मुख्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या स्रोतों की मदद ली जाती है, इसमें दृश्य व दृश्य- श्रव्य साधनों के माध्यम से अधिगम को सरल बनाया जाता है इन साधनों में माइक्रो फोन, दृश्य व दृश्य श्रव्य टेप सी ० डी ०, डी ० वी ० डी ०, पेन ड्राइव, हार्ड डिस्क आदि प्रयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक अधिगम में सूचना व सम्प्रेषण तकनीकी का प्रयोग मुख्यतः होता है इसके अन्तर्गत टेली कॉन्फ्रेंसिंग, कम्प्यूटर कॉन्फ्रेंसिंग, वीडिओ कॉन्फ्रेंसिंग, ऑन लाइन लाइब्रेरी, ई मेल, चैटिंग आदि आते हैं। इन सबमें इण्टरनेट व वेव तकनीकी प्रयुक्त की जाती है। आधुनिकतम कम्प्यूटर, बहु माध्यम नेट वर्किंग, इलेक्ट्रॉनिक अधिगम के प्रमुख सहायक हैं।
रोजेन वर्ग महोदय (2001) ने बताया –
“ई – अधिगम से तात्पर्य इण्टरनेट तकनीकियों के ऐसे उपयोग से है जिनसे विविध प्रकार के ऐसे रास्ते खुलें जिनके द्वारा ज्ञान और कार्य क्षमताओं में वृद्धि की जा सके।”
“E-learning refers to the use of Internet technologies that open up a variety of avenues through which knowledge and work abilities can be enhanced.”ई–अधिगम के लाभ / Benefits of e-learning – 1- कभी भी कहीं भी अधिगम0 2- प्रभावी अधिगम सामग्री 0 3- शिक्षण विधियों का प्रभावी अधिगम 0 4- स्वगति से अधिगम 0 5- तत्सम्बन्धी गैजेट्स का सम्यक उपयोग 0 6- परम्परागत संसाधन से वंचितों को वरदान 0 7- मानसिक स्तर, कौशल व रूचि अनुसार अध्ययन 0 8- आवश्यकतानुसार अध्ययन 0 9- उपचारात्मक व निदानात्मक शिक्षण 10 – विविधता में एकता के दर्शन 11 – गुणवत्ता युक्त प्रभावी माध्यम 12 – स्व क्षमतानुसार अध्ययनई–अधिगम की सीमाएं / Limitations of e-learning –01 – शिक्षा का यांत्रिकीकरण 02 – अधिगम कर्त्ताओं की नकारात्मकता 03 – वांछित कौशलों का अभाव 04 – अन्तः क्रिया का अभाव 05 – व्यक्तिगत संसाधनों का अभाव 06 – साधनविहीन विद्यालय 07 – प्रशिक्षण रहित शिक्षक08 – ऊर्जा संसाधनों का अभाव 09 – जागरूकता अभाव 10 – परम्परागत रूढ़िवादी सोच
आकलन शिक्षार्थियों के अधिगम और विकास के बारे में पता लगाने का व्यवस्थित आधार है इससे विद्यार्थी को अधिगमित करने और विकसित होने में मदद मिलती है यह जानकारी एकत्र करने, विश्लेषण करने और उपयोग करने की प्रक्रिया है। यह प्राथमिकताओं को तय करने, सूचना प्राप्ति और आवश्यकताओं को ज्ञात करने की महत्त्व पूर्ण पद्धति है। विद्यार्थियों की उपलब्धि को ज्ञात करते समय अध्यापक द्वारा किसी मानक के आधार पर मूल्य निर्णय करना आकलन कहलाता है।
इरविन के अनुसार –
“आकलन छात्रों के व्यवस्थित विकास के आधार का अनुमान है। यह किसी भी वस्तु को पारिभाषित कर चयन, रचना,संग्रहण,विश्लेषण,व्याख्या और सूचनाओं का उपयुक्त प्रयोग कर छात्र विकास तथा अधिगम को बढ़ाने की प्रक्रिया है।”
“Assessment is an estimate of the basis of systematic development of students. It is the process of defining any object, selecting, creating, collecting, analyzing, interpreting and using information appropriately to enhance student development and learning.”
NEED OF ASSISMENT (आकलन की आवश्यकता) –
विद्यार्थियों किन अधिगम की क्षमता ही उसकी प्रगति का प्रमुख आधार बनती है अतः क्षमता का आकलन परम आवश्यक है। अधोवर्णित बिंदुओं के आधार पर इसकी आवश्यकता को समझा जा सकता है।
01 – विविध विषयात्मक परिक्षेत्र में अधिगम
02 – कौशल विकास व समन्वय
03 – स्वस्थ व उपयोगी जीवन स्तर की प्राप्ति
04 – आत्म प्रेरणा व रुचयात्मक विकास
05 – सु समायोजन हेतु
06 – समय के साथ कदमताल हेतु
07 – सम्यक प्रतिक्रिया अभिव्यंजन हेतु
08 – आत्म मूल्यांकन व आत्म विश्लेषण हेतु
09 – दीर्घकालिक अधिगम हेतु
10 – समसामयिक मुद्दों के प्रति जागरूकता
IMPORTANCE OF ASSISMENT (आकलन की महत्ता) –
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परिवेश से बेखबर रहकर नहीं रहा जा सकता इसलिए यह आवश्यक है कि निरन्तर स्वआकलन किया जाए और यथार्थ के धरातल पर रहकर प्रगति सुनिश्चित की जाए। इस आकलन की महत्ता को इन बिंदुओं के आधार पर विवेचित किया जा सकता है। –
1 – शक्ति परिक्षेत्र/ Areas of strength
2- कमजोरी के क्षेत्र / Areas of weakness
3- प्रेरणा / Motivation
4- पृष्ठपोषण / feedback
5- प्रगति सुधार / Improving progress
6 – जवाबदेही / Accountability
7- अद्यतन जानकारी Up to date information
8- क्षमता सुधार Performance Improvement
9- निर्णयन क्षमता / Decision making capacity
उक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि आकलन आज महत्त्वपूर्ण परिक्षेत्र है और समय रहते सम्यक आकलन प्रगति के नए आयाम गढ़ सकता है। आकलन की आवश्यकता व महत्त्व दूरगामी नीति में सहायक सिद्ध होते हैं। विविध राजनीतिक पार्टी स्व आकलन करती रहती हैं उसी तरह व्यक्तिगत स्तर पर भी यह परमावश्यक है।
कलाकार अपने संवेगों, भावों, अनुभूतियों, कल्पनाओं आदि के प्रदर्शन के लिए विविध प्रकार की कलाओं को माध्यम बनाता है इन विविध कलाओं में दृश्य कला, कला कृतियों का वह स्वरुप है जिसका भाव मुख्यतः दृश्य होता है वे दृश्य इन्द्रियों द्वारा पहचानी जाती हैं तथा दृश्य भाव और सौन्दर्य का प्रकाशन करती हैं।
Definition of visual arts / दृश्यकलाकीपरिभाषा –
कल्पनाशीलता व चिन्तन के घटक जब वातावरण की विविध शक्तियों से द्वन्द कर अपना प्रगटन कलाकार के माध्यम से इस प्रकार करते हैं कि अन्य चक्षुओं के आनन्द का कारण बनते हैं। तब कला का यह स्वरुप दृश्य कला के नाम से जाना जाता है। विकिपीडिआ के अनुसार –
“दृश्य कला, कला का वह रुप है जो मुख्यतः दृश्य प्रकृति की होती है जैसे -रेखा चित्र, चित्र कला, मूर्ति कला,…….. “
“Visual art is that form of art which is mainly of visual nature such as drawing, painting, sculpture,……”
स्टडी.कॉम के अनुसार –
“दृश्य कला से तात्पर्य उन कला रूपों से है जो दृश्य माध्यमों से अपना संदेश, अर्थ और भावना व्यक्त करते हैं।”
“Visual arts refers to those art forms that express their message, meaning and emotion through visual means.”
दृश्य कला की परिभाषा को शर्मा व सक्सैना (आर लाल बुक डिपो) ने इन शब्दों में बांधने का प्रयास किया है –
“Visual arts are the such arts in which the articles made by an artist create their effect visually, it means they create visual experience of beauty and express feelings visually.”
“दृश्य कलाएँ ऐसी कलाएँ हैं जिनमें किसी कलाकार द्वारा बनाई गई वस्तुएँ दृश्य रूप से अपना प्रभाव पैदा करती हैं, इसका अर्थ है कि वे सौंदर्य का दृश्य अनुभव पैदा करती हैं और भावनाओं को दृश्य रूप से व्यक्त करती हैं।”
उक्त विविध परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि दृश्य कला उस कला को कहा जाता है जिसमें कलाकार की कृतियाँ दृश्य प्रभाव का प्रादुर्भाव करती हैं यह दृश्य कलाएं वह दृश्य सामग्री प्रस्तुत करती हैं जो नेत्रों को को आनन्द प्रदान करे। इन नयनाभिराम दृश्यों के उदाहरण यत्र तत्र सर्वत्र दीख पड़ते हैं जैसे भव्य महल, आकर्षक मूर्तियां, आकर्षक आभूषण, सुन्दर वस्तुयें ,कला कृतियों, भित्ति चित्रों,किलों,परकोटों, गुम्बदों आदि के रूप में ।ये दृश्य कलाएं मुख्यतः 5 भागों में बांटी जा सकती हैं।
1 – चित्रकला
2 – मूर्तिकला
3 – वास्तुकला
4 – नृत्यकला
5 – दृश्यश्रव्यकला
Importance of visual arts in Education
शिक्षामेंदृश्यकलाकामहत्व –
शिक्षा में दृश्य कला के महत्त्व को निम्न बिन्दुओं द्वारा इंगित किया जा सकता है। –