Macaulay is not a pioneer of education.
1813 के आज्ञापत्र और प्राच्य पाश्चात्य विवाद के समय एक नाम बहुत प्रसिद्द हुआ लेकिन मैकाले को शिक्षा का अग्रदूत कहना उचित नहीं है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हुई। प्राच्य दल के नेता लार्ड प्रिन्सेप इतिहास की काल कोठरी में गुम हो गया। जो तथ्य मैकाले महोदय को शिक्षा के अग्रदूत के रूप में मानने को तैयार नहीं उसे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं।
[01] – राजाराम मोहन राय व उनके सहयोगियों के प्रयास से भारत में अंग्रेजी शिक्षा के पहले माहौल बन चूका था। इसमें ईसाई मिशनरियों व कम्पनी के कर्मचारियों तथा प्रगतिशील भारतीयों का भी योगदान रहा। इसलिए मैकाले को आधुनिक शिक्षा का अग्रदूत मानना उचित नहीं है। [02] – वेद, पुराण, उपनिषद, अरबी, फारसी साहित्य व संस्कृत साहित्य को मैकाले महत्त्वहीन मानता था उसने बिना इनका अध्ययन किये ही इनकी कटु आलोचना की और यूरोप के अच्छे पुस्तकालय की एक आलमारी से तुलना कर अपनी अज्ञानता ही सिद्ध की। [03] – मैकाले की अज्ञानता, संकीर्णता व अशिष्टता ने उसे भारतीय दर्शन, इतिहास, ज्योतिष व चिकत्सा शास्त्र का उपहास करने को बाध्य किया लॉर्ड एक्टन ने इस सम्बन्ध में कहा –“Hi knew nothing respectable before the seventeenth century, nothing of foreign History, Religion, Philosophy, Science, and Art.
– Lord Action. Quoted by Mayhew . The Education of India.
“वह सत्रहवीं शताब्दी के पूर्व के विषय में वस्तुतः कुछ नहीं जानता था और न ही विदेशी इतिहास, धर्म, दर्शन, विज्ञान और कला के विषय में कुछ जानता था।”
[04] – वह भारत में एक ऐसे वर्ग का निर्माण करना चाहता था जो रूचि, विद्वता व विचार में अंग्रेज हो एवम् रक्त व वर्ण में भारतीय। वह पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति को हिन्दुस्तान पर लादकर यहां की सभ्यता व संस्कृति को नष्ट करना चाहता था।
[05] – ये महोदय भारत की धार्मिक एकता को विखण्डित करना चाहता था और धर्म निरपेक्षता की आड़ में ईसाई मिशनरियों को बढ़ावा देना चाहता था जैसा की 1936 में उसके द्वारा अपने पिता को लिखे पात्र की इन पँक्तियों से स्पष्ट है। –
“No Hindu who has received English education never remains attached to his religion. It is my firm belief that if our plans of education are followed up there will not be a single idolater among the respectable classes in Bengal thirty year hence.”
Quoted by C.E.Trevelyn ‘Life and letters of lord Macaulay 1. 455
हिन्दी अनुवाद
“कोई भी हिन्दू ऐसा नहीं है जो अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करके अपने धर्म के प्रति ईमानदारी से लगाव रखता हो। मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा योजना को व्यावहारिक रूप प्रदान कर दिया गया तो 30 वर्ष पश्चात बंगाल के उच्च वर्ग में कोई भी मूर्ति पूजक शेष नहीं रह जाएगा।”
[06] – भारतीय प्राच्य भाषाओँ की पूर्ण उपेक्षा कर केवल अँग्रेजी भाषा को शिक्षा माध्यम बनाना किसी दृष्टिकोण से उचित नहीं था जैसा कि एस ० एन ० मुकर्जी ने लिखा –
“His recommendation about the use of English as the only medium of instruction can not be justified.”
– S.N.Mukerji op.cit.p.81
“शिक्षा के माध्यम के रूप में केवल अँग्रेजी भाषा के उपयोग की उसकी संस्तुति औचित्यपूर्ण नहीं हो सकती है।”
[07] – पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान के प्रचार प्रसार ने भारतीय जनता को इतना प्रभावित किया कि उन्हें अपना व देश का ध्यान ही न रहा। जिससे भारत अधिक समय तक गुलाम बना रहा।
[08] – भारतीय भाषा व साहित्य की उपेक्षा कर भारतीय ज्ञान और विज्ञान पर उसने एक छद्म आवरण डाल दिया जब कि भारत के श्री मद्भागवद्गीता जैसे ग्रन्थ का बाद में विश्व की अनेक भाषाओँ में अनुवाद हुआ। 1904 में लार्ड कर्जन ने कहा। –
“Ever since the cold breath of Macaulay’s rhetoric passed over the field of Indian language and the Indian text books the elementary
education of the pupils in their own tongue shrivelled and pinned.” Lord Curzon in India.p.316
“जब मैकाले की अलंकृत भाषा (अंग्रेजी) की शीत लहर भारतीय भाषाओँ और पाठ्य पुस्तकों के क्षेत्र से होकर गुज़री, तबसे अपनी स्वयं की भाषा में छात्रों की प्रारम्भिक शिक्षा की बेलें कुम्हला गईं और कराहने लगीं।”
[09] – मैकाले, कम्पनी के शासन हेतु सुयोग्य व बफादार कर्मचारी तैयार करना चाहता था उसका उद्देश्य भारत में श्क़्श का प्रसार नहीं था उसने स्वयं लिखा –
“We must at present do our best to form a class, who may be interpreters between us and the millions whom we govern.”
-Macaulays Minute
”हमें इस समय एक ऐसे वर्ग का निर्माण करना चाहिए जो हमारे और उन लाखों व्यक्तियों के मध्य द्विभाषिया बन सकें जिन पर हम शासन करते हैं।”
वस्तुतः मैकाले भारतीय भाषाओँ, संस्कृति व जनसाधारण की शिक्षा के प्रसार में बाधक बना उसे भारत में आधुनिक शिक्षा की प्रगति का पथ प्रदर्शक अथवा पाश्चात्य शिक्षा का अग्रदूत कहना उचित नहीं। इस सम्बन्ध मेंJames महोदय ने ठीक ही कहा है –
“His pronouncements are too glib, too confident too unqualified and some times error against good taste.”
-H.R.James ; Education and Statmanship in India.
“उसकी घोषणाएं व्यर्थ बकी बकवासों अपने आप पर अपार विश्वास तथा अहम् मान्यताओं से परिपूर्ण थीं कभी कभी उनमें सुरुचि का अभाव प्रस्फुटित होता है।”