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Uncategorized•वाह जिन्दगी !

बिन समझे बूझे विश्वास बनाना ना चाहिए।

April 28, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

बैठे ठाले खाली गाल बजाना नहीं चाहिए,

बात बात पर हमें खिसियाना नहीं चाहिए,

वाणी शुचिता हो, ये बहुतेरे नेता भूल गए,

ओछे वचनों को हरगिज लाना ना चाहिए।   


कथनी करनी में अन्तर लाना नहीं चाहिए,

केवल झूठी बातों को फैलाना नहीं चाहिए,

झूठ बोल कर कुछ देश को ही गटक गए,

झूठों के चक्कर में हमको आना न चाहिए।


धूम्र-पान करना और कराना नहीं  चाहिए,

मद्यपान नशे की लत, लगाना नहीं चाहिए,

बोतल के सोम रस में लाखों जन डूब गए,

स्वयं पी, पिला कर, गिर जाना ना चाहिए।  


जाति के चक्कर में, टकराना नहीं चाहिए,

भड़काऊ भाषा में फँस जाना नहीं चाहिए,

हमको लड़वा लड़वाकर बहुतेरे संवर गए,

इस चक्कर में सच्चा प्रेम गँवाना ना चाहिए।


रूढ़िवादी विचार आड़े आना नहीं चाहिए,

बेटी बेटे में भेद- भाव बनाना नहीं चाहिए,

इसी वजह से भारत में अँधियारे पसर गए,

निजघर में अन्धविश्वास फैलाना ना चाहिए।


धर्म व राजनीति पर टकराना नहीं चाहिए,

जज़्बाती बातों से राय बनाना नहीं चाहिए,

पढ़ लिख कर ग्रन्थ, ज्ञानी-जन समझ गए,

बिन समझे बूझे विश्वास बनाना ना चाहिए।

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Uncategorized•काव्य

सच्चाई बताते रह गए।

April 21, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

नक्कार खाने में वो, तूती बजाते रह गए,

झूठ इतना बोले थे सोच के बेसुध हो गए,

मौसमी साथी  खा पी कर, ऐेसे चल दिए,

मानो अन्तिम ठौर  के वो अकेले रह गए।


वो कसैले स्वाद का गस्सा चबाते रह गए,

नादाँ थे अनजान थे बस ये बताते रह गए,

मज़हबी रस्सी ने बाँधा था कुछ इस तरह,

ज्ञानियों के सामने, कसमसा कर रह गए।


हम इनको हरा,उनको जिताते रह गए,

कुछ लोग तो बस,पढ़ते-पढ़ाते रह गए,

वोट की खातिर जो गुजरे, वो  इधर  से,

हम तो केवल खिल-खिला कर रह गए।


असत्य गरजा लहककर, कुछ इस तरह,

कि बामुश्किल चन्द सच्चे रहबर रह गए,

लोग झूठ का अम्बार, रख कर चल दिए,

‘नाथ’  सब  को सच्चाई   बताते  रह गए।

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काव्य•वाह जिन्दगी !

भूख[BHOOKH]

April 13, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पीड़ा जिसकी थाती है वो भूख के गीत सुनाते हैं,

अहसास उन्हें ये होता है, भूखे कैसे सो पाते हैं।

भूख कहीं दयनीयदृष्टि तो कहीं क्रूर बन जाती है,

भरे पेट जो हो न सका, भूख यूँ ही कर जाती है।

क्षुधापूर्ति हित भूखे भू से झूठे टुकड़े खा जाते हैं,

दुष्ट इसे हथियार बना, भूखों को नाच नचाते हैं।

वो  जो ना करना चाहें हाँ वो ही सब करवाते हैं,

उनकी लाचारी को वे आजीवन विवश बनाते हैं।

क्षुधा ज्ञान जो पा न सके वो भी विद्वान कहाते हैं,

नेता राज नीति समझें पर भूख समझ ना पाते हैं।

अच्छे-बुरे का भान नहीं सब कुछ ही खा जाते हैं,

भूख के कारण ही सुन लो रोगों को गले लगाते हैं।

लानत है शासन पर गर, भूख से लोग मर जाते हैं,

क्या रीतिनीति मर्यादा है जो मृत्युभोज करवाते हैं।

भरेहुए कुछ पेटों को क्यों हम फिर से जिमवाते हैं,

यह सब कुछ करके क्यों हम भूखों को तरसाते हैं।

भूख के कारण सबला से, वो अबला हो जाते हैं,

क्षुधा के कारण ही सुन लो भाव गन्दे हो जाते हैं।

इसी विवशता को दुर्जन फिर खूब भुनाने आते हैं,

जीवन संकट में  जिनका उनके तन लूटे  जाते हैं।

आखिर कैसे इस धरती पर, वो खुशहाली आएगी,

रत्न प्रसविनी ये वसुधा फिर ऐसा कब कर पाएगी।

वसुन्धरा तो सुनलो अब भी प्रचुर अन्न उपजाती है,

वर्तमान व्यवस्था ऐसी है, जो सही बाँट ना पाती है।

सोच समझ कर कहो कि सद ज्ञानों से क्या होगा,

दानी संस्थाएं दानवीर और धनवानों से क्या होगा।

यदि भूख के कारण मित्रो ये, तरुणाई मर जाएगी,

तब नीतिनियन्ता शक्तिमान सिद्धान्तों से क्या होगा।

जी हाँ सारी धरा जगे औ इसी लक्ष्य पर काम करे,

जो भी भू पर जीवन धारे क्षुधा से बिल्कुल नहीं मरे।

सारी मानवता मिलकर इस ओर अगर बढ़ पाएगी

सचमानो इस बाधा से हमको निज़ात मिल जाएगी।

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वाह जिन्दगी !

काँटों से वन्दनवार बनाता चला गया।[Kaanto Se Vandanwar Banata Chala Gaya.]

April 5, 2019 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

घनी आफतों में  मैं, मुस्काता चला गया,

ख़ास दुश्मन और पास आता चला गया,

किसी समय तो वो लगता था इक बेगाना,

बेगाना  दिल में जगह बनाता चला गया।

अकेला हूँ रौनकेबज़्म का नज़ारा चला गया,

लोग कहते हैं कि आपका सहारा चला गया,

किससे कहूँ कि मेरा तो सहारा है, महाकाल,

जी हाँ मैं  ही महाकाल में, समाता चला गया।

मोक्ष का भाव भूलकर चलता चला गया,

इक अनजाने द्वन्द में फँसता चला गया,

परेशां मुझे करने को, चिन्ताएं बहुत थीं,

मैं चिन्ताओं की चिता, बनाता चला गया। 

अवसाद  घनीभूत मुझे चिढ़ाता चला गया,

मेरे सपनों को सैलाब में बहाता चला गया,

राहों में मेरी जानिब गर्द ए ग़ुबार बहुत था,

फ़ितरतन यूँ ही मैं खिलखिलाता चला गया।

मैं मस्त था वह मय को पिलाता चला गया,

झंझाओं में ज़िन्दगी की, डुबाता चला गया,

अधिकार जो जाना था,भ्रमजाल था केवल,

भ्रम,जाल में,हाँ मुझको फँसाता चला गया।

तम नर्क ज़िन्दगी को, बनाता चला गया,

मैं जिन्दादिली के गीत गवाता चला गया,

जब अस्तित्व डूब रहा गहन अन्धकार में,

आत्मविश्वासी रौशनी में नहाता चला गया।

जीवन की शाम में भी, उजाला पसर गया,

जीवन की समस्याओं से जब मैं भिड़ गया,

मुझको परास्त करने को काँटे तो बहुत थे,

‘नाथ’ काँटों से वन्दनवार बनाता चला गया।

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