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बाल संसार

अब मञ्जन नहीं करुँगी (AB MANJAN NAHI KARUNGI)

July 29, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava 1 Comment

बाल संसार एक अनोखा ही संसार है,इसमें कहीं कल्पना की उड़ान है ,कहीं मनुहार, कहीं बाल हठ दीख पड़ता है बाल लीलाएं मन मोह लेती हैं। प्रस्तुत शब्दों में ऐसी ही जिद है। हठ कर बैठी बिटिया मेरी, माता से यूँ बोली–

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वाह जिन्दगी !

मैदान से वार्ता- Communication with ground

July 26, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

काले बादल, ठण्डी हवा ,महाविद्यालय से वापसी का समय ,अनायास मेरी निगाह ऊपर उठी और लगा कि बादलों के रूप में एक समुद्र ऊपर से झाँक रहा है बादल फटने का दृश्य मेरे जेहन में कौंध उठा ,जब मैंने उन यादों को झटकना चाहा तो मेरी कड़कड़ाती ठण्ड में हुई ‘मैदान से वार्ता’ जीवन्त हो उठी। प्रस्तुत हैं स्मृति पटल से उस वार्ता के प्रमुख अंश 

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Uncategorized•शोध

शोध सार (Research Abstract )

July 22, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

शोध कार्य की परिणति जब लघुशोध (Dissertation) या शोधग्रन्थ (Thesis) के रूप में हो जाती है तो कार्य पूर्ण नहीं हो जाता तथा कम शब्दों में सम्पूर्ण शोध कार्य को “शोध सार” के रूप में बोधगम्य बनाया जाता है जिससे कम समय में तत्सम्बन्धी कार्य क्षेत्र के बुद्धिजीवी उसे समझ सकें।

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काव्य

हमारा है ये हिन्दोस्ताँ इसी से प्यार करते हैं। – We love our nation.

July 19, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

किसी भी देश का उत्थान और पतन उस देश की सोच पर निर्भर करता है लेकिन कुछ भटके और विकृत मानसिकता वाले लोग देश और देश के संसाधनों को अपूरणीय क्षति पहुँचाना चाहते हैं ऐसी स्थिति में सजग मस्तिष्क और देश से सच्चे प्रेम की नितान्त आवश्यकता है हमें राष्ट्रवाद का सच्चा प्रहरी बनाना ही होगा.

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काव्य

प्रारब्धों का खेल पुराना लगता है -Destiny game seems old

July 16, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

हिंदुस्तान परिक्षेत्र के जनमानस की अवधारणा पुनर्जन्म व प्रारब्ध से जुड़ी रही है जो विभिन्न विषादयुक्त क्षणों में मानसिक आलम्बन का कार्य करती है और उसे कुछ भी आश्चर्ययुक्त नहीं लगता बल्कि प्रारब्धवश घटित घटना लगती है व तब शब्द इस प्रकार गीत में ढलते हैं।

लेखन का परिक्षेत्र पुराना लगता है ,
लेकिन वह जाना- पहिचाना लगता है.
इतने सारे दिन गुजरे तब भान हुआ,
अब दर्शन का उनवान पुराना लगता है.

इनका, उनका ,अपना ,सबका ,
हाँ, युगों- युगों का नाता है.
यह तेरा है ,वह मेरा है ,
ओछे नारे सा लगता है।

 जब से मेरा मनवा भारत आया है,
वसुधा से नाता है पुराना लगता है।
हम तो केवल क्षेत्र बदलते रहते हैं ,
आत्मा के परिवेश बदलते रहते हैं।

हम सब जब रोने चिल्लाने लगते हैं ,
ईश्वर पर आरोप लगाने लगते हैं।
कभी कभी जो अनपेक्षित सा घटता है,
प्रारब्धों का खेल पुराना लगता है।

– डॉ0 शिव भोले नाथ श्रीवास्तव

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काव्य

मिट्टी की चेतना यात्रा – Soil’s Journey Towards Consciousness

July 13, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments
मिट्टी वक़्त के साथ हमेशा से सफर करती है।
बदलती सदियों में विविध रूप में वो ढलती है।
हम हैं वो, वो है हम, यह कयास ही लग सकता है।
अनन्त की यात्रा का सच कैसे पता लग सकता है।
—
इस वक्त के उस वक्त के नायक बदलते रहते हैं।
या यूँ कहो कि इक नए सांचे में ढलते रहते हैं।
फिर क्यूँ भला हम इस तरह, यूँ ही लड़ते रहते हैं।
मिट्टी से चेतनयुक्त हो, मिट्टी में मिलते रहते हैं।
—
– डॉ शिव भोले नाथ श्रीवास्तव
___________________________________________________________
Mitti Waqt ke saath hamesha safar karti hai
Badalti sadiyon mein vividh roop mein wo dhalti hai
ham hain wo, wo hai hai ham, yah kayaas hi lag skta hai
Anant ki yatra ka sach kaise pta lag skta hai
—
Is wakt ke us waqt ke naayak badalte rahte hain
yaa yu kaho ki ek naye saanche mein dhalte rhte hain
fir kyun bhala ham is tarah, yu hi ladte rhte hain
mitti se chetnayukt ho, mitti mein milte rhte hain
—
– Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava
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शोध

Synopsis / शोध प्रारूपिका (लघु शोध व शोध के विद्यार्थियों हेतु)

July 12, 2018 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava 1 Comment

किसी भी क्षेत्र में शोध करने से पूर्व मनोमष्तिष्क में एक तूफ़ान एक हलचल महसूस होती है, शोध परिक्षेत्र की तलाश प्रारम्भ होती है, विषय की तलाश से लेकर परिणति तक का आयाम मुखर होने लगता है और इसी मनोवेग वैचारिक तूफ़ान को शोध एक सृजनात्मक आयाम देता है एवं अस्तित्व में आता है शोध प्रोपोज़ल या शोध प्रारूपिका। हमारे शोधार्थियों में इसके लिए शब्द प्रचलन में है: —-Synopsis.

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