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काव्य

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा ?

April 29, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

सितम अपने अन्धड़ का अजमाइएगा,

वादा  खिलाफी  सिल-सिला  पाइएगा।

वो अरमाँ, वो वादे, रुठाए जो तुमने,

हर जगह बस वही सिसकियाँ पाइयेगा।

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।1।

अब खुशियों के वन में धुआँ पाइएगा,

निशाँ जिन्दा होने का,  ना  पाइएगा।

समय के वो हिस्से जिए थे जो हमने,

चन्द वादों में गुम हिचकियाँ पाइयेगा।

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।2।

बहारों  का जंगल न हरा पाइएगा,

वहाँ केवल बस वीरानियाँ पाइएगा।

जहाँ चन्द खुशियाँ टहलती थीं उनमें,

निशाँ अपने कदमों के देख आइएगा,

 अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।3।

इक – दूजे के दाने तो मत खाइएगा,

रौंद कर सब तमन्ना न मुस्काइएगा।

रुदन सिसकियाँ जो प्रगट की हैं तुमने,

उनमें न कभी कोई कमी पाइयेगा।

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।4।

कसम है तुम्हें न कफ़न लाइएगा,

करनी का फल बस देख आइएगा।

फसल स्वार्थ की जो उपजाई मन में,

उपजे तीक्ष्ण कण्टक सहम जाइएगा।   

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।5।

चन्द हसरत जरूरत कुचल जाइएगा,

दुआ है हमारी, बस दुआ पाइएगा।

थोड़ी श्वासें औ सपने चुराए जो तुमने,

सजा उनकी तुम न कभी पाइयेगा।    

अजी चोट देकर कहाँ जाइएगा,

जख्म जो दिए हैं हरे पाइएगा ।6।

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दर्शन

VEDANT PHILOSOPHY

April 23, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

वेदान्त दर्शन

वेदान्त दर्शन का नाम लेते ही बोध हो जाता है कि इसमें वेद का अन्तिम भाग सामाहित है वेद के दो भाग हैं जिन्हे हम ब्राह्मण और मन्त्र नाम से जानते हैं यज्ञ अनुष्ठान आदि का वर्णन करने वाला भाग ब्राह्मण नाम से जाना जाता है और देवता की स्तुति में प्रयुक्त स्मारक वाक्य मन्त्र का बोध कराता है।इन मन्त्रों के समुदाय को संहिता नाम से जाना जाता है ऋक ,यजुः ,साम व अथर्व ये संहिता हैं अर्थात सभी मन्त्र ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद,और अथर्व वेद नामक संहिताओं में संकलित हैं ब्राह्मण भाग में कर्म काण्ड की और इस भाग में ज्ञान काण्ड की प्रमुखता है वेदों का अन्तिम भाग उपनिषद कहलाता है इसे वेदान्त भी कहते हैं।

बादरायण व्यास (चतुर्थ शताब्दी) द्वारा लिखे गए ‘ब्रह्म सूत्र ‘को वेदान्त का आदि ग्रन्थ माना जाता है इसके पश्चात इसपर विविध भाष्य ग्रन्थ लिखे गए और वेदांत की विविध शाखाओं उप शाखाओं का अभ्युदय हुआ जिसमें शंकर नवीं शताब्दी का अद्वैत, रामानुजाचार्य तेरहवीं शताब्दी का विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य व निम्बार्क तेरहवीं  शताब्दी का द्वैत, श्री कण्ठ तेरहवीं शताब्दी का शैव विशिष्टाद्वैत, श्री पति चौदहवीं शताब्दी का वीर शैव विशिष्टाद्वैत और बल्लभाचार्य सोलहवीं शताब्दी का शुद्धाद्वैत प्रमुख है। इनमें शंकर और रामानुजाचार्य शिक्षा के दृष्टिकोण से प्रमुख स्वीकारे जाते हैं।

            किसी भी दार्शनिक विचारधारा को समझने के लिए उस दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics०), ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic), तथा मूल्य व आचार मीमांसा(Axiology and Ethics) को जानना आवश्यक है अतः पहले यही समझने का प्रयास करेंगे।

वेदान्त दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics of Vedant Philosophy)

शंकर के अनुसार ब्रह्म ही अन्तिम सत्य (Ultimate Reality) है जो ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण होने के साथ अनादि, अनन्त और निराकार है जगत नाशवान व असत्य है मानव ज्ञान का स्रोत व अनन्त शक्ति को धारण करने के साथ आत्मघाती है और आत्मा सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान है। शंकर के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है कि तुम (आत्मा) ब्रह्म हो। रामानुजाचार्य के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है ब्रह्म तथा ईश्वर एक है शंकर ने ब्रह्म को मूल तत्त्व व रामानुजाचार्य ने इसके तीन मूल तत्त्व स्वीकारे हैं -चित् (चेतन,आत्मा ), अचित् (अचेतन, जड़ ) और ब्रह्म (ईश्वर) । सृष्टि के विनाश होने पर चित् (चेतन,आत्मा ), अचित् (अचेतन, जड़ ) सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं और ईश्वर विशिष्ट ही शेष रह जाता है इसीलिये इसे विशिष्टाद्वैत दर्शन  कहते हैं। शंकर के दर्शन में ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण में भेद न होने के कारण इसे अद्वैत दर्शन कहते हैं।

वेदान्त दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic of Vedant Philosophy)

शंकर का दर्शन ज्ञान को दो भागों में विभाजित करता है –

1 – परा (आध्यात्मिक) – इनके अनुसार पराविद्या ही मुक्ति का साधन बन सकती है वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद, गीता आदि के ज्ञान को ये इस श्रेणी में स्थान देते हैं।

2 – अपरा (लौकिकव व्यावहारिक) – वस्तु जगत और मानव जीवन के विभिन्न पक्षों व ज्ञान को इन्होने अपरा की श्रेणी में रखा है जो मुक्ति का साधन कभी नहीं बन सकते।

रामानुजाचार्य महोदय ने भी ज्ञान को दो भागों में विभाजित किया है –

1 – धर्मी भूत ज्ञान – इनका इस ज्ञान से आशय कर्त्ता रूप ज्ञान से है।

2 – धर्म भूत ज्ञान – इस ज्ञान में ये कर्म में विद्यमान ज्ञान को समाहित करते हैं। ये आत्मोन्नति हेतु इस ज्ञान का समर्थन करते हैं।

वेदान्त दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics of Vedant Philosophy)

शंकर के अद्वैत दर्शन के अनुसार वर्णक्रम के प्रति निष्ठां से उद्देश्य प्राप्ति सुगम होती है अंतिम उद्देश्य मुक्ति को मानते हुए ये इसके दो विभाग करते हैं एक जीवन मुक्ति और दूसरे विदेह मुक्ति जीवन मुक्ति से आशय है कि जीवन जीते हुए कर्म फल से अनासक्त होना। विदेह मुक्ति से आशय आवागमन के चक्कर से मुक्ति से है अर्थात जीवन के अन्त में ब्रह्म तत्त्व की प्राप्ति।

रामानुजाचार्य महोदय भी शंकर की भाँति जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति ही मानते हैं लेकिन ये जीवन मुक्ति को मुक्ति स्वीकार नहीं करते उनकी दृष्टि में ब्रह्म (ईश्वर) की प्राप्ति ही मुक्ति है जो भक्ति से मिलती है।

वेदान्त दर्शन की परिभाषा / Definition of of Vedanta philosophy –

वेदान्त दर्शन को प्रो ० रमन बिहारी लाल ने बहुत सरल शब्दों में यूँ संजोया है –

“वेदान्त दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर (ब्रह्म) द्वारा निर्मित मानती है और उसे इस सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति तथा लय का कारण  मानती है यह आत्मा को ब्रह्म का अंश मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति है जिसे ज्ञान योग, कर्म योग, राज योग और भक्ति योग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।” 

“Vedanta philosophyis that school of Indian philosophy which considers this universe to be created by God (Brahm) and considers it to be the cause of the condition, origin, and rhythm of this universe. It considers the soul as a part of Brahma and it renders that man The ultimate aim of life is salvation which can be achieved through Jnana Yoga, Karma Yoga, Raja Yoga, and Bhakti Yoga.”

वेदान्त दर्शन के मूल सिद्धान्त / Basic principles of Vedanta philosophy –

वेदान्त दर्शन के मूल तत्वों व सिद्धान्तों को इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –

1 – ब्रह्माण्ड ब्रह्म (ईश्वर) द्वारा निर्मित /Universe created by Brahma (God)

2 – ब्रह्म और जगत में ब्रह्म विशिष्ट /Brahma special in Brahma and the world

3 – आत्मा के ब्रह्म अंश सम्बन्धी विचार /Thoughts on the Soul as the Part of Brahma

4 – मनुष्य अनन्त ज्ञान और शक्ति का स्रोत / Man is the source of eternal knowledge and power

5 – मनुष्य का विकास उसके कर्मों पर निर्भर / Development of man depends on his deeds

6 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति / Salvation is the ultimate aim of human life

7 – ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग के साथ साधन चतुष्टय आवश्यक /

      Along with Gyan Yoga, Bhakti Yoga, Karma Yoga, Sadhana Chatushtaya is essential. 

8 – ज्ञान हेतु श्रवण, मनन, निदिध्यासन आवश्यक / Listening, meditation, Nididhyasan is necessary for knowledge

9 – उत्तम श्रवण, मनन, निदिध्यासन हेतु साधन चतुष्टय आवश्यक / Sadhana Chatushtaya is necessary       for good hearing, meditation and Nididhyasan.

            i – नित्य अनित्य विवेक 

ii – भोग विरक्ति

iii – शम दम संयम

iv – मुमुक्षत्व

वेदान्त दर्शन और शिक्षा / Vedanta philosophy and Education

आज विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भारत शिक्षा पर खुल कर विचार करता है और नए नए आयामों के शिखर को छूने का प्रयास कर रहा है लेकिन हम भारतीय आज भी जड़ों से नहीं कटे हैं। और जीवन की समग्रता पर विचार करने वाले शंकराचार्यजी और रामानुज सरीखे विद्वानों के कथनों का विश्लेषणात्मक अध्ययन कर वेदान्त दर्शन के गूढ़ तत्वों का मनन करते हैं। यद्यपि इन्होने शिक्षा पर स्वतंत्र रूप से विचार से नहीं किया है लेकिन इनका मीमांसात्मक विवेचन आज के मानव को सार्थक शिक्षात्मक दिशा देने में सक्षम है।

शिक्षा का सम्प्रत्यय / Concept of Education  –

शंकर का स्पष्ट रूपेण मानना है की शिक्षा का परम उद्देश्य मुक्ति प्रदान करना है जब मानव में नित्य अनित्य विवेक जागृत हो जाता है और वह समझ जाता है कि ब्रह्म सत्य है और जगत नश्वर है वह सबमें स्वयं को और स्वयं में सबको देखने लगता है। शिक्षा अपने उद्देश्य की और अग्रसारित हो जाती है अर्थात वे  छान्दोग्य उपनिषद का सा विद्याया विमुक्तए का समर्थन करते हैं और शिक्षा को मुक्ति का साधन मानते हैं।

शिक्षा के अंगों पर प्रभाव / Impact on education
शिक्षा के उद्देश्य / Aims of Education

ये जीवन के दो पक्ष परा (आध्यात्मिक) और अपरा (व्यावहारिक) स्वीकारते हैं और जीवन के उद्देश्यों को इसी आधार पर गठित करते हैं जिसे इस प्रकार दर्शा सकते हैं –

परा (आध्यात्मिक) उद्देश्य –

1 – मुक्ति का उद्देश्य

अपरा (व्यावहारिक उद्देश्य) –

1 – शारीरिक विकास

2 – मानसिक विकास

3 – नैतिक विकास

4 – वर्ण के अनुसार शिक्षा

5 – साधन चतुष्टय प्राशिक्षण

6 – सर्वाङ्गीण व्यक्तित्व विकास

7 – ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति

पाठ्यक्रम

शंकर के अनुसार परा एवं अपरा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विविध विषयों का समर्थन करते हैं यथा आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु साहित्य, धर्म, दर्शन जैसे परमार्थिक विषयों को शामिल करना चाहते हैं और परमार्थिक क्रियाओं अर्थात अष्टांग योग का समर्थन करते हैं।

परा (व्यावहारिक) उत्थान हेतु भाषा, चिकित्सा शास्त्र, वर्ण क्रम, गणित के साथ व्यायाम, आसन, ब्रह्मचर्य को भी शामिल करना चाहते हैं।

रामानुजाचार्य के विचार आधुनिक विचार धारा का समावेशन करते प्रतीत होते हैं इनके अनुसार सभी जीव ईश्वर की अनुपम रचनाएँ हैं इनमें वर्ण के अनुसार भेद न करना चाहिए कर्म के अनुसार भेद स्वाभाविक रूप से दृष्टिगत होगा ही। अतः स्वकर्म के कुशलता पूर्वक सम्पादन हेतु कर्मानुसार समान शिक्षा का विधान होना चाहिए।

शिक्षण विधियाँ / Teaching Methods

इन्होने अपने शिक्षण उद्देश्यों के अनुरूप ही शिक्षण विधियों का चयन किया जिन्हे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –

i – प्रश्नोत्तर विधि

ii – प्रवचन विधि

iii – व्याख्या विधि

iv – स्वाध्ययन विधि

v – प्रत्यक्ष विधि

vi – श्रवण, मनन,निदिध्यासन विधि 

vii – अध्यारोप – अपवाद विधि

viii – विश्लेषण विधि

अनुशासन / Discipline –

ये आत्म अनुशासन को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार एकाग्रता ही सच्चा अनुशासन लाती है। जब मन, बुद्धि,अहंकार, पर आत्म नियन्त्रण स्थापित हो तो अनुशासन होगा। जब बिना किसी बाहरी दवाब के अपने आत्म तत्त्व से प्रेरित होकर सदमार्ग का अनुसरण किया जाए तब सच्चा अनुशासन स्थापित होगा। शंकर की दृष्टि से सच्चा अनुशासन तभी स्थापित होगा जब अष्टांग के योग  मार्ग का अनुसरण होगा।

शिक्षक और शिक्षार्थी / Teacher and Learner

वेदान्त दर्शन की उपादेयता इस सम्बन्ध में विशिष्ट है शङ्कर का स्पष्ट मानना है की गुरु अपने विद्यार्थी को व्यावहारिक जीवन की शिक्षा दे और साथ ही यह बोध कराये कि वह ब्रह्म है। ‘तत्त्व मसि’ अर्थात तू ही ब्रह्म है अन्ततः शिक्षार्थी यह महसूस करेगा कि ‘अहम् ब्रहास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ।

रामानुजाचार्य के विचार इस सम्बन्ध में पृथक हैं ये मानते हैं की कोइ पूर्ण नहीं हो सकता ,शिक्षक भी। शिक्षक को फिर भी ज्ञान व आचरण हेतु उत्कृष्ट प्रयास निरन्तर करते रहने चाहिए।

वेदान्त के अनुसार प्रत्येक शिक्षार्थी अनन्त ज्ञान और ऊर्जा का स्रोत है और उनमें भिन्नता कर्म की भिन्नता के कारण ही दृष्टिगत होती है।शंकर के अनुसार ब्रह्म की प्राप्ति हेतु इच्छुक छात्रों को साधन चतुष्टय का अनुपालन करने के साथ गुरु में श्रद्धा, भोग से विरक्ति, इन्द्रिय निग्रह, मन की एकाग्रता के गुणों में उत्तरोत्तर प्रगति के प्रयास अवश्य करने चाहिए।

शिक्षालय / School

नगर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक सुरम्य वातावरण से युक्त गुरु गृह ही उस काल के विद्यालय थे। व्यावहारिक व आध्यात्मिक शिक्षा समुदायों और गुरुकुलों में दी जाती थी। यहाँ जीवन मुक्ति और साधन चतुष्टय पुष्पित पल्लवित करने के सार्थक प्रयास होते थे।

वेदान्त दर्शन का मूल्याङ्कन / Evaluation of Vedanta Philosophy

किसी भी दर्शन का मूल्याङ्कन उसके गुण दोषों के आधार पर किया जाता है और सामान्यतः उस काल विशेष के विशिष्ट कालखण्ड की जगह आज के अनुसार समीक्षा की जाती है आइए इस दर्शन के गन दोषों पर विचार करते हैं।

A – वेदान्त दर्शन के गुण

1 – व्यावहारिकता

2 – इहलोक और अध्यात्म का समन्वय

3 – गुरु शिष्य आदर्श सम्बन्ध

4 – उच्च आदर्श अनुपालन

5 – शिक्षण विधियां

6 – मूल्य बोध 

B – वेदान्त दर्शन की सीमायें

1 – जन शिक्षा का अभाव                                2 – अध्यात्म पर अधिक बल

उपसंहार / Epilogue

भारत में शङ्कर के बाद जो भी दार्शनिक विचार धारा फलीफूली उस पर वेदान्त का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है अद्यतन काल तक की विकास यात्रा के प्रमुख चिन्तक दयानन्द सरस्वती, मोहन दास करम चन्द्र गाँधी, विवेकानन्द, रबीन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द घोष सभी कहीं न कहीं वेदान्त से प्रभावित रहे हैं।  किसी को योग क्रिया अच्छी लगती है ,कोई  व्यावहारिकता तो कोई इसके मूल्यों पर नत मस्तक है।

वास्तव में वेदान्त समग्र दृष्टिकोण है समस्त धर्म व दर्शन इसकी प्रस्फुटित शाखाएं हैं  इसे सार्वभौम व सार्वकालिक दर्शन कहना न्याय सांगत होगा। आज हम जिस धर्म निरपेक्ष, समाजवादी और वर्गहीन व्यवस्था की बात करते हैं उसके बीज इसमें संरक्षित हैं। आज की शिक्षा यदि वेदान्त पर आधारित हो तो मन्तव्य प्राप्ति अपेक्षाकृत सुगम हो जाएगी।

  
 
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दर्शन

YOGA AND EDUCATION

April 10, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


योग और शिक्षा

योग एक भारतीय दर्शन है यह प्रतिनिधि दर्शन की श्रेणी में आता है योग दर्शन तीन मार्गों का प्रमुखतः निर्देशन प्रदान करता है ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। व्यक्ति को अपनी क्षमता, अभिरुचि, योग्यता के आधार पर स्व हेतु मार्ग का चयन करना चाहिए। इसके अष्टांग मार्ग का विवेचन पहले ही educationaacharya.com  किया जा चुका है।

योग दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पतञ्जलि के नाम पर इसे पातञ्जल दर्शन भी कहा जाता है। भारत में योग दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ  पातञ्जलयोग सूत्र(महर्षि पतञ्जलि),

तत्व वैशारदी (वाचस्पति मिस्र), व्यास भाष्य (महर्षि व्यास), भोज वृत्ति( महाराजा भोज -धारा नरेश), योग वार्तिक (विज्ञान भिक्षु ), छाया (नागेश भट्ट ), योग सार संग्रह (विज्ञान भिक्षु )हैं।

योग दर्शन से आशय (Meaning of yoga philosophy) –

भारतीय आस्तिक षडदर्शनों में से एक है योग दर्शन,महर्षि पातञ्जलि इसके प्रमुख प्रणेता हैं यह दर्शन सांख्य दर्शन के पूरक के रूप में भी जाना जाता है। इस दर्शन का मुख्य लख्य मानव को मोक्ष या परमआनन्द से जोड़ना है। प्रो।  रमन बिहारी लाल जी ने योग दर्शन को पारिभाषित करते हुए बताया –

“योग दर्शन भारतीय दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर द्वारा प्रकृति एवं पुरुष के योग से निर्मित मानती है और यह मानती है कि  प्रकृति, पुरुष व ईश्वर तीनों अनादि और अनन्त हैं। यह  ईश्वर को कर्मफल के भोग से मुक्त और आत्मा को कर्म फल का भोक्ता मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन काअन्तिम उद्देश्य परमानन्द अनुभूति है जिसे अष्टांग योग साधन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”

आँग्ल भाषा में इसे इस प्रकार अनुवादित कर सकते हैं –

“Yoga Darshan is that ideology of Indian philosophy which believes that this universe is created by God from the combination of Prakriti and Purusha and believes that Prakriti, Purush and God all three are eternal and infinite. It regards God as free from the enjoyment of the fruits of action and the soul as the enjoyer of the fruits of action and renders that the ultimate aim of human life is the feeling of ecstasy which can be achieved by means of Ashtanga Yoga.”

 योग दर्शन को अधिगमित करने हेतु यह परमावश्यक होगा की इसकी विविध मीमांसाओं को जान लिया जाए यहां क्रमशः समझने का प्रयास है –

(A)-योग दर्शन की तत्व मीमांसा (Metaphysics of yoga philosophy) –

सांख्य दर्शन की भाँति ही योग दर्शन प्रकृति और पुरुष की सत्ता को स्वीकार करता है अर्थात इस दर्शन ने सांख्य की तत्व मीमांसा को स्वीकार कर लिया है। योग दर्शन सृष्टि का निमित्त कारण (कर्त्ता) ईश्वर को मानता है तथा उसके उपादान कारण (आधारभूत साधन) प्रकृति व पुरुष को स्वीकार करता है, पुरुष चेतनतत्व अर्थात जीवात्मा है ईश्वर अनादि है अनन्त है और भोग से रहित है आत्मा भोक्ता है।

(B) – योग दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic of yoga philosophy)

योग दर्शन चित्त की अवधारणा का प्रयोग करता है जिसमें मन, बुद्धि,अहंकार शामिल हैं जैसा कि सांख्यदर्शन में भी देखने को मिलता है योग दर्शनयह मानता है  कि मानव को पदार्थ का ज्ञान इन्द्रियों व चित्त के माध्यम से प्राप्त होता है और आत्मा को इसका साक्षात्कार होता है। वस्तुतः शरीर ,चित्त,और पुरुष भिन्न भिन्न होते हुए भी इस प्रकार समेकित रहते हैं कि पृथक्करण सम्भव नहीं लगता।योग दर्शन के अनुसार योगी अंततः समाधि को प्राप्त कर लेता है इस स्थिति में उसका यानि आत्मा का परमात्मा से योग हो जाता है और वह सर्वज्ञ हो जाता है।

  (C) – योग दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Values ​​and Ethics of yoga philosophy) –

           योग दर्शन में योग हेति चित्तवृत्तियों के निषेध हेतु अष्टांग मार्ग बताया है इसमें यम, नियम, आसन.              प्राणायाम मुख्य रूप से शरीर से सम्बंधित हैं और इसीलिये इन्हें अन्तरङ्ग साधन कहते है जबकि प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, व समाधि आध्यात्मिक विकास से सम्बन्धित हैं व इन्हें बहिरंग साधन कहा जाता है। अन्तिम मूल्य की प्राप्ति अष्टांग मार्ग के आचरण से सम्भव है।

योग दर्शन के मूल सिद्धान्त

Basic principles of yoga philosophy

01 – प्रकृति, पुरुष के योग से ईश्वर द्वारा सृष्टि प्रक्रिया (Creation process by God with the combination of Prakriti, Purusha)

02 – मूल तत्व – प्रकृति, पुरुष, ईश्वर (Basic elements – Prakriti, Purusha, God) 

03 – आत्मा कर्मफल भोक्ता ईश्वर नहीं (The soul is the enjoyer of the fruits of action, not God.)

04 – प्रकृति, पुरुष, ईश्वर का मेल मानव (Prakriti, Purusha, God’s Combination – Human)

05 – प्रकृति, पुरुष व ईश्वर द्वारा मानव विकास सम्भव (Human development possible by nature, man and God)

06 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष (Salvation is the ultimate goal of human life)

07 – चित्तवृत्ति निरोध मोक्ष हेतु आवश्यक (Control of mind is essential for salvation)

08 – चित्तवृत्ति निरोध हेतु आवश्यक अष्टांग मार्ग(Eightfold path necessary for control of mind)

योग दर्शन व  शिक्षा

Yoga philosophy and education

योग एक मानस शास्त्र है जिसमें मानव मात्र को मन संयत करना और पाशविक वृत्तियों से बचाव हेतु दिशा प्राप्त होती है। इस छोटे से जीवन में सफलता किसी भी क्षेत्र में संयत मन पर निर्भर करती है संयत मन से आशय एक कालखण्ड में एक ही वास्तु पर चित्त की एकाग्रता। वैसे योग दर्शन ने शिक्षा को कोई निश्चित विचार पृथकतः नहीं दिया लेकिन इसकी विभिन्न मीमांसाओं का विश्लेषण कर सार ग्रहण किया जा सकता है यहाँ मुख्यतः यही प्राप्त करने का प्रयास रहेगा।

शिक्षा के उद्देश्य/Aims of education

योग शिक्षा अपने उद्देश्य कालानुरूप तय करती है। श्रीमद्भगवद्गीता में सोलह कला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण ने 18 योग के माध्यम से अर्जुन को शिक्षा प्रदान की यद्यपि इनमें से कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग पर अधिक चर्चा की जाती है और इस में से ही  प्राप्त ज्ञान के आधार पर आज की योग गठित करती है शिक्षा अपने मुख्य उद्देश्य गठित करती है जिन्हे अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं –

A – साध्य उद्देश्य (Achievable objective)

1 – मुक्ति का उद्देश्य /The purpose of salvation

B – साधन उद्देश्य (Instrument purpose)

1 – शारीरिक विकास / Physical development

2 – मानसिक विकास / Mental development

3 – बौद्धिक विकास / Intellectual development

4 – भावात्मक विकास / Emotional development

5 – आध्यात्मिक विकास / Spiritual development

 6 – नैतिक विकास /Moral development

पाठ्यक्रम / Syllabus

योग दर्शन का सम्यक विश्लेषण यह इंगित  करता कि आत्म ज्ञान के विषयों को अधिक और पदार्थगत विषयों की और अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है योग दर्शन की पाठ्य चर्या में मनोविज्ञान, नीति शास्त्र, धर्म शास्त्र, दर्शन, योगाभ्यास,  वेद,  पुराण,  भाषा,  तर्क शास्त्र,  आयुर्विज्ञान,  शरीर विज्ञान आदि को स्थान दिया जा सकता है।

शिक्षण विधियाँ।/ Teaching methods

योग दर्शन चूंकि साँख्य दर्शन की ज्ञान मीमांसा का अनुमोदन करता है इस लिए ज्ञान का विकास अन्तः कारन की बुनियाद पर होने का इसे सहज समर्थन प्राप्त हो जाता है। जिसे योग दर्शन चित्त स्वीकार करता है वही सांख्य दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार के रूप में वर्णित है। दोनों की एकरूपता के कारण जो साधन ज्ञान प्राप्ति के सांख्य दर्शन द्वारा सुझाये गए वही योग हेतु स्वीकार किये जा सकते हैं जिन्हे इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है

प्रत्यक्ष विधि – भ्रमण विधि, इन्द्रिय प्रत्यक्षीकरण।

अनुमान विधि – शोध विधि, परिकल्पना, आगमन -निगमन, विश्लेषण -संश्लेषण , खोज विधि आदि।    

शब्द विधि -प्रश्नोत्तर, व्याख्या, प्रवचन, तर्क विधि, स्वाध्याय आदि।

योग विधि – ज्ञाता और ज्ञेय का भेद ख़तम लम्बी योगिक साधना द्वारा ,योगी द्वारा ही सम्भव सामान्य शिक्षार्थी द्वारा नहीं।

अनुशासन / Discipline

अनुशासन के सम्बन्ध में इस दर्शन को विशिष्ट स्थान प्राप्त है चित्त वृत्तियों के निरोध को अनुशासन की परिणति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और स हेतु अष्टाङ्ग मार्ग भी सुझाया गया है इसके विविध अंग गहन उपादेयता रखते हैं यदि सचमुच अनुकरण का प्रयास  उच्च कोटि का अनुशासन स्वतः स्थापित हो जाएगा। इस दर्शन ने चित्त की स्थितियाँ और उनके आरोहण की स्थिति द्वारा भी क्रमशः उच्च अनुशासन स्थापन की स्थिति को बताया है जिसे समझने हेतु इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं –

चित्त की स्थितियाँ —– प्रधान गुण ———————–     प्रवृत्ति

मूढ़                                  तमोगुण                                              अकरणीय कार्यों की ओर

                                                                                    विवेक शून्य

क्षिप्त                              रजोगुण                                     अति चञ्चल

विक्षिप्त                          सतोगुण                                     सुख के साधनों की ओर

एकाग्र                           अधिक सतोगुण                           एक विषय पर केन्द्रित

निरुद्ध                           अपेक्षाकृत अधिक सतोगुण                        स्थिर

योग दर्शन के अनुसार मनुष्य इनमें से जितनी अधिक स्थितियां पार कर लेता है वह उतना ही अधिक अनुशासित हो जाता है।

शिक्षक व शिक्षार्थी / Teacher and student

योग दर्शन क्रिया आधारित दर्शन है यह गुरु से अष्टांग योग में महारत की आशा करता है और विद्यार्थी द्वारा उसके सम्यक अनुकरण की। चित्त को साध अंतिम लक्ष्य की ओर निरन्तर प्रगति की अन्तः प्रेरणा जगाने वाला शिक्षक ही उत्तम शिक्षक है तथा अष्टांग योग से समाधि की और तीव्र प्रवृत्त विद्यार्थी उत्तम विद्यार्थी है।

विद्यालय / School

यह सुरम्य वातावरण में योग के अष्टांग मार्ग के अनुसरण हेतु अध्ययन स्थली को प्रशिक्षण स्थली के रूप में विकसित करने पर बल देते हैं। विद्यालय ऐसे हों जो अन्तिम उद्देश्य  की प्राप्ति के साधन के रूप में कार्य कर सकें।

शिक्षा के अन्य पक्ष –

  1. जन स्वास्थय

      2 – आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

मूल्याँकन / Evaluation

भारतीय पुरातन गौरवशाली इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्तम्भों में से एक है योग दर्शन। इस दर्शन के सम्यक आकलन में, संरक्षण व विकास में लम्बे समय तक तत्सम्बन्धी शोध का अभाव रहा है। लेकिन यह दर्शन मानसिक और शारीरिक विकास में अद्भुत योग प्रदान करता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी महत्ता को सम्पूर्ण विश्व स्वीकार कर रहा है इसके शिक्षा के अंगों पर प्रभाव गहन गरिमा से युक्त हैं जो मानवता का पोषण करने में समर्थ है। शोध के अभाव में इसके विविध आयाम आज भी अछूते हैं। सम्यक विश्लेषण व सार संकलन से इससे सम्पूर्ण मानवता को शिक्षा परिक्षेत्र में विकास हेतु शारीरिक क्षमताओं की वृद्धि का वरदान प्राप्त हो सकता है। 

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काव्य

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ?

April 4, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ?

निरन्तर उम्र बढ़ते जाना

नवअनुभव से मिलवाता है।

और नए क्रन्दन का आना

शिशु जन्म बोध कराता है।

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 1

मदमस्त हो खेलते जाना

जीवन आनन्द दिलाता है।

समस्या का ना पता ठिकाना

नव रस सा बढ़ता जाता है

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 2 

पूर्व बाल्यावस्था का आना

नवसंस्था से जुड़वाता है।

नए परिवेश से यूँ जुड़जाना

सखाओं संग मिलवाता है।

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 3 

हर वस्तु खिलौना बन जाना

इस उम्र का दौर सिखाता है।

इस वय में सम्बन्ध बनजाना

कोई जीवन भर निभाता है।  

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 4

उत्तर बाल्यावस्था का आना

नव ऊर्जा का बोध कराता है।

सम्बन्धों का यह तानाबाना

संसार में उलझा जाता है। 

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 5 

नाना विधि ज्ञान  जुड़ जाना

नव चमत्कार दिखलाता है।

प्रश्नों का उत्तर बन जाना

फिर से नव प्रश्न जगाता है।  

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 6

कैशौर्य में मस्ती का आना

पुर जोश से होश हटाता है।

जोश में होश का यूँ खो जाना

किशोरवय का बोध करता है  

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 7  

संघर्ष सहित तूफ़ान का आना

इस जटिल उम्र में भाता है।                    

 गिरते पड़ते रस्ते कटजाना

नवपथ का दर्श कराता है। 

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 8

प्रौढ़ा वस्था की वय पाना

समस्या का बोध कराता है।

जीवन यथार्थ से जुड़जाना

कण्टक पथ मर्म सिखाता है।

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 9   

जीवन में भूल भुलैया आना

इस उम्र से जुड़ता जाता है।

बचपन का वह बोध भुलाना

मजबूरी सा बनता जाता है।   

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 10

धीरे से जीवन सन्ध्या आना

वृद्धा वस्था ही कहलाता है।

ऊर्जा ह्रास का हो जाना

मानव तन को नहीं भाता है। 

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 11    

सर्वाधिक यादों का आना

इस उम्र को ख़ास बनाता है

बचपन के साथी याद आना

जड़ से जुड़ जाना कहता है।    

जन्म स्थली वाला ठिकाना

अक्सर क्यों हमें बुलाता है ? 12

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