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शिक्षा

इण्टर पास करने के बाद क्या करें कला वर्ग के विद्यार्थी ?(What should the students of Arts do after passing Inter?)

June 26, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

सर्व प्रथम आपको बधाई की आपने जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव पार किया है विश्व का बहुत बड़ा पटल आपका स्वागत करने को उत्सुक है। बहुत खुशी होती है की भटकाव की उम्र को धता बता आप जब म्हणत और लगन से इस पड़ाव को पार करते हैं और ऐसे ऐसे प्रश्न पूछते हैं की तबियत खुश हो जाती है लेकिन एक प्रश्न आप सबको चिन्तन के लिए विवश करता है कि अब क्या करें ?

इस प्रश्न का उत्तर सबके लिए अलग अलग होता है क्योंकि सबकी आर्थिक स्थिति, परिस्थितियां, अधिगम स्तर, ऊर्जा स्तर और सपने अलग अलग होते हैं।

इस प्रश्न को सही व सार्थक उत्तर तक ले जाने के प्रयास में ही हुआ है आज का यह सृजन। आपके लिए बहुत से मार्ग खुलते हैं जो आपको आपकी परिस्थिति के अनुसार आगे की पढ़ाई, प्रशिक्षण पाठ्यक्रम या सेवाकार्य से जोड़ते हैं। विविध कार्यक्रम इस प्रकार हैं –

इण्टर आर्ट्स के बाद डिप्लोमा(Diploma after Inter Arts)-

अध्यापन में डिप्लोमा,विदेशी भाषा में डिप्लोमा,चिकित्स्कीय परिक्षेत्र में डिप्लोमा डिज़ाइनिंग के परिक्षेत्र में डिप्लोमा जैसे फैशन, ज्वैलरी, इंटीरियर, वेब या ग्राफिक्स इनके अलावा भी आज बहुत से नए डिप्लोमा परिक्षेत्र विकसित हो रहे हैं जो आपको शीघ्र कमाने योग्य बना सकते हैं। यथा डिप्लोमा इन 3D एनिमेशन,डिप्लोमा इन मल्टीमीडिया, डिप्लोमा इन एडवरटाइजिंग एंड मार्केटिंग, डिप्लोमा इन ट्रैवल एंड टूरिज्म, डिप्लोमा इन इवेंट मैनेजमेंट, डिप्लोमा इन साउंड रिकार्डिंग आदि ।

इण्टर आर्ट्स के बाद डिग्री कोर्स (Degree course after inter arts)-
1- बैचलर ऑफ आर्ट्स(बीए)
2-बैचलर ऑफ फाइन आर्ट्स (बीएफए)
3-बैचेलर इन सोशल साइंस
4-बैचेलर इन ह्यूमेनिटी 
5-बैचलर इन जर्नलिज्म 
6-बैचलर ऑफ साइंस (होस्पिटेलिटी एंड ट्रैवल)
7-बीए एलएलबी 
8-बैचलर ऑफ एलीमेन्ट्री एजूकेशन
9-बैचलर ऑफ डिजाइन (एनीमेशन) 
10- विविध कला परिक्षेत्र के ऑनर्स डिग्री कोर्स आदि ।
इण्टर आर्ट्स के बाद सेवाएं (Services after Inter Arts)
शिक्षक /Teacher
वकील /Advocate
फैशन या टेक्सटाइल डिजाइनर/Fashion या textile designer 
होटल मैनेजमेंट / Hotel Management
पत्रकार / Reporter
सरकारी नौकरी /Government job यथा एसएससी मल्टी टास्किंग स्टाफ, एसएससी ग्रेड C और ग्रेड D आशुलिपिक, रेलवे ग्रुप डी (आरआरबी / आरआरसी ग्रुप डी),एसएससी जनरल ड्यूटी कांस्टेबल, आरआरबी सहायक लोको पायलट, इंडियन आर्मी एग्जाम फॉर द पोस्ट ऑफ टेक्निकल एंट्री स्कीम, महिला कांस्टेबलों, सोल्जर्स, कैटरिंग के लिए जूनियर कमीशन अधिकारी।
स्वरोजगार के विविध अवसर (Various self employment opportunities) -
यदि आप नौकर बनने की जगह मालिक बनाना चाहते हैं तो अपने घर के पुश्तैनी कार्य या आपके लिए सम्भव किसी भी स्वरोजगार से स्वयं को जोड़ सकते हैं कोइ कार्य छोटा बड़ा नहीं होता हमारी सोच उसे छोटा बड़ा बनाती है। आप शीघ्र ही कई अन्य को रोजगार देने की स्थिति में आ जाएंगे।
        आज सूचनाएं बिजली की गति से उड़ रही हैं जिन्हे कोई होम सिकनेस नहीं है वे इन अवसरों का लाभ उठा सकते हैं याद रखें एक चूका हुआ अवसर खोई हुई उपलब्धि है कभी हताश निराश  नहीं होना है नित्य बदलता बहुत बड़ा आकाश हमारे सामने है।  परम श्रद्धेय मैथिली शरण जी की पंक्तियों में सन्देश छिपा है आपके लिए -
संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।
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शिक्षा

पढ़ाई में मन कैसे लगाएं? How to focus on studies ?

June 22, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

बहुधा यह दृष्टिगत होता है कि किन्हीं दिनों अधिक समय तक पढ़ने,कार्य करने वाले लोग भी यह शिकायत करते हैं कि अब उतना कार्य या उतनी पढ़ाई नहीं हो पा रही है ऐसी स्थिति में क्या करें। पढ़ाई में मन कैसे लगाएं।

अक्सर यह देखने को मिलता है की अधिकाँश लोग इस स्थिति से गुजरते हैं लेकिन इस स्थिति से बचाव किया जा सकता है आवश्यकता है निर्विकल्प होकर दिए गए बिन्दुओं पर विचार कर अमल में लाने की।

पढ़ाई में मन लगाने के उपाय (Ways to focus on studies) :-

पढ़ाई या निर्धारित कार्य में मन लगाने हेतु आवश्यक तत्व इस पकार क्रमित किये जा सकते हैं –

1- मानसिक साम्य (Mental equilibrium)

2 – लक्ष्य निर्धारण (Goal setting)

3 – अधिगम स्थल चयन (Learning site selection)

4 – डर हटाएँ आत्मविश्वास बढ़ाएं (Eliminate Fear Increase Confidence)

5 – दृढ़ निश्चय (Firm determination)

6 – बाधा निवारण (Obstacle avoidance)

7 – विषयवस्तु आधारित समय सारिणी (Theme Based Time Table)

8 – आरम्भ व निरन्तरता (Beginning and continuation)

आशा ही नहीं विश्वास है कि उक्त आधार पर आपके सपने अपने हो जाएंगे और आप तन्मयता से अध्ययन या स्वकार्य कर पाएंगे।

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काव्य

कृष्णा तेरी गीता लानी पड़ेगी ।

June 21, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जन जन की वाणी बनानी पड़ेगी

उपद्रवियों कीमत चुकानी पड़ेगी

योगधर्म बताने से कुछ भी न होगा

लौ योग की फिर जलानी पड़ेगी।

कृष्णा  तेरी गीता  लानी पड़ेगी

घर घर तक जाकर सुनानी पड़ेगी ।1।

उन्हें उनकी क्षमता बतानी पड़ेगी

स्वयं, शौर्य  क्षमता बढ़ानी पड़ेगी

मात्र सिद्धान्तों से कुछ भी न होगा

असल क्षमता अपनी दिखानी पड़ेगी।

कृष्णा  तेरी गीता  लानी पड़ेगी

घर घर तक जाकर सुनानी पड़ेगी ।2।

राष्ट्रद्रोही को गलती बतानी पड़ेगी

कीमत संसाधनों की चुकानी पड़ेगी,

प्रेमसद्भाव मार्ग से कुछ भी न होगा

माँ भवानी, बलि अब चढ़ानी पड़ेगी

कृष्णा  तेरी गीता  लानी पड़ेगी

घर घर तक जाकर सुनानी पड़ेगी ।3।

प्रेममुरली कलयुग में छिपानी पड़ेगी

शास्त्र संग शस्त्रभाषा सिखानी पड़ेगी,

प्रेम – पेंगें बढ़ाने से कुछ भी न होगा

निज क्षमता सुदर्शन बढ़ानी पड़ेगी

कृष्णा  तेरी गीता  लानी पड़ेगी

घर घर तक जाकर सुनानी पड़ेगी ।4।

जो बोलें कृष्ण गीता जलानी पड़ेगी

निश्चित उन्हें, मुँह की खानी पड़ेगी,

चेहरे बदलने  से कुछ भी न होगा

धुल भारत भूमि की चटानी पड़ेगी।

कृष्णा  तेरी गीता  लानी पड़ेगी

घर घर तक जाकर सुनानी पड़ेगी ।5।

सच सच है, सच्चाई बतानी  पड़ेगी

सूरत इतिहास की धीरे धीरे दिखेगी,

गलती, छिपाने से कुछ भी न होगा

राष्ट्रवादी भूमिका निभानी पड़ेगी।

कृष्णा  तेरी गीता  लानी पड़ेगी

घर घर तक जाकर सुनानी पड़ेगी ।6।

भारत को गरिमा वह पानी पड़ेगी

अमृत है पयनिधि, पिलानी पड़ेगी

बचने छिपने से अब कुछ न होगा

सार्थकता ‘नाथ’ गीता बतानी पड़ेगी। 

कृष्णा  तेरी गीता  लानी पड़ेगी

घर घर तक जाकर सुनानी पड़ेगी ।7।

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दर्शन

ROUSSEAU[Jenewa1712-1778 France] रूसो

June 19, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जीवन परिचय (Life introduction) –

रूसो का जीवन बहुत से विरोधाभासों का एक समुच्चय है,वह जेनेवा के एक साधारण कसवे में पैदा हुआ जिसकी माँ बाल्यावस्था में चल बसी और पिता ने उपन्यासों, कल्पना, संवेदना द्वारा उसे अकाल प्रौढ़ता प्रदान कर दी, वह दो वर्ष जेनेवा से बाहर रहा जिसमें उसे प्रकृति के प्रति अनुराग जाग्रत हुआ। उसका निजी जीवन निम्न कोटि का रहा काहिली और बुरी सङ्गति में उसने कई वर्ष व्यतीत किये बाद में जीवन की कृत्रिमताओं ने उसे व्यथित कर दिया लेकिन इन सारी स्थितियों में वह अध्ययन करता रहा वह उसकी निम्न कोटि की नौकरी के कारण जैसा भी रहा। कृत्रिमता के प्रति घृणा का स्तर बढ़ा और प्रतिक्रिया स्वरुप व्यर्थ सामाजिक आदर्श, कृत्रिमता के आवरण में लिपटी चरित्र हीनता को जब उसने जनमानस के समक्ष रखा तो सुषुप्त जनमानस में क्रांतिकारी ज्वार आ गया और वह अकस्मात् प्रसिद्द हो गया। अन्ततः वह एक अच्छे अध्यापक, नाटककार, संगीतज्ञ व लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उसने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सृजित किये।

1 – प्रोजेक्शन फॉर द एजुकेशन ऑफ़ एम० डीसेंट मैरी

2 – डिस्कोर्स  ऑन द साइंसेज एन्ड आर्ट्स (1750)

3 – ओरिजिन ऑफ़ इनइक्विलिटी एमंग मैन (1755)

4 – डिस्कोर्सऑन पोलिटिकल इकोनॉमी (1755)

5 – द न्यू हेलाइस (1761)

6 – द सोशल कॉन्ट्रेक्ट (1762)

7 – एमील (1762)

8 –  सोशल इनइक्विलिटी(1754)

9 –  कॉनफैशन ऑफ़ द विकार ऑफ़ सेवाय  

रूसो के अनुसार शिक्षा (Education according to Rousseau)-

1 – शिक्षा एक स्वाभाविक प्रक्रिया

2 – शिक्षा के दो रूप

      (a) – सार्वभौमिक शिक्षा -राज्य द्वारा जैसा कि प्लैटो की रिपब्लिक में

      (b) – घरेलू शिक्षा – घर द्वारा जैसा कि एमील में वर्णित 

3 – आन्तरिक शक्ति का विकास सच्ची शिक्षा

Rousseau –

“True education is something that happens from within the individual. It is an unfolding of his own latent powers.”

 “सच्ची शिक्षा वह है जो व्यक्ति के भीतर से होती है। यह उसकी अपनी गुप्त शक्तियों का प्रकटीकरण है।”

4 – शिक्षा सभी के लिए आवश्यक

5 – शिक्षा का परम लक्ष्य – सुव्यवस्थित स्वतन्त्रता

रूसो महोदय के अनुसार –

“वही व्यक्ति स्वतन्त्र है जो उसी बात की कामना करता है जो करना चाहता है और वही करता है जो चाहता है।” 

6 – शिक्षा आयु के अनुसार →शैशवावस्था →बाल्यावस्था →किशोरावस्था →युवावस्था

7 – शिक्षा का उद्देश्य मानव को मानव बनाना →रूसो स्वयं कहते हैं कि →

“मैं यह बात स्वीकार करता हूँ कि मेरे पढ़ाने के बाद वह सबसे पहले मनुष्य बनेगा,न्यायाधीश,सैनिक,पादरी बाद में। ”

8 – शिक्षा प्राकृतिक शक्तियों का विस्तार → उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा –

“यह प्राकृतिक शक्तियों का एक विस्तार है न कि सूचनाओं का एक संग्रह। यह स्वयं जीवन है न कि    बाल्यजीवन की रुचियों एवं विषमताओं से दूर भावी जीवन की एक तैयारी। ” ((भाषा और भूगोल थोपना गलत)

शिक्षा के उद्देश्य (Aims of education) –

1 – इन्द्रिय प्रशिक्षण (Sense training)

2 – शारीरिक विकास (Physical development)

3 – बुध्दि का विकास (Development of intelligence)

4 – भावात्मक विकास Emotional development)

5 – जीवन कला (Life art)

6 – अधिकार रक्षा (Protection of rights)

7 -व्यक्तित्व विकास (Personality development)

पाठ्यक्रम (Syllabus) →

रूसो महोदय ने पाठ्यक्रम को तीन भागों में बाँटा –

A – प्रकृति सम्बन्धी विषय – प्राकृतिक विज्ञान,भूगोल आदि 

B – मनुष्य सम्बन्धी विषय – भाषा,मनोविज्ञान,समाजिकशास्त्र, राजनीति शास्त्र,अर्थशास्त्र,आदि।

C – वस्तु सम्बन्धी विषय – भौतिक शास्त्र और पदार्थ विज्ञान।

जीवन की अवस्थाओं के आधार पर पाठ्यक्रम वितरण →

1 – शैशवावस्था → खेलना, घूमना, ऋतुओं को सहन करना,शारीरिक विकास।  

2 – बाल्यावस्था → खेलकूद, नापना, गिनना, तौलना, संगीत, नृत्य, गणित, रेखागणित, भूगोल, प्रकृति अध्ययन,

                        (पुस्तकीय ज्ञान का अभाव, *निषेधात्मक शिक्षा का प्रतिपादन)

3 – किशोरावस्था → इतिहास,भूगोल,कला,संगीत,दस्तकारी,प्राकृतिक विज्ञान,निश्चयात्मक शिक्षा, सदाचार. 

4 – युवावस्था → धर्म, नीति, इतिहास, कला, संगीत, यौन शिक्षा, प्राकृतिक विज्ञान, अर्थ शास्त्र, राजनीति शास्त्र,सामाजिक शास्त्र आदि 

       नारी शिक्षा हेतु गृह विज्ञान,संगीत,नृत्य,सिलाई,बुनाई,धर्म,नीति आदि ।

 *निषेधात्मक शिक्षा – रूसो महोदय के अनुसार -→

“शिक्षा निषेधात्मक होनी चाहिए। निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ आलस्य में समय बिताना नहीं है बल्कि जो ज्ञान देने के पूर्व बालक के शारीरिक व मानसिक विकास के द्वारा उसे विचारशील बनाती है वही निषेधात्मक शिक्षा है। इस शिक्षा के द्वारा बालक अपना अच्छा बुरा पहचानने में समर्थ हो जाता है।”

रूसो तत्कालीन व्यवस्था से इतना दुःखी था कि उसे कहना पड़ा  -→

“Take the reverse of the accepted practice and you will almost always do right.”

“शिक्षा के जितने प्रचलित सिद्धान्त हैं उसके विपरीत कार्य करो तभी तुम सही काम कर सकोगे।”

शिक्षण विधियाँ (Teaching methods) –

व्यवसाय की शिक्षा तथा हाथों का प्रयोग उसे प्रिय है पुस्तकों में संलग्नता की जगह हाथों का काम उचित है इस हेतु ‘योजना पद्यति’ का एक रूप उसने दिया।  करके सीखना, योजना पद्यति का वर्णन उसने व्यवहार वाद से पहले ही कर दिया। केवल भाषण व आदेशात्मक शिक्षा का वह विरोधी था। भ्रमण द्वारा शिक्षा, प्रकृति निरीक्षण व स्व अनुभव द्वारा शिक्षण पर वह बल देता था। उसने स्वयं शोध व उपदेशात्मक शिक्षण विधि को स्वीकार किया।  

गुरु शिष्य सम्बन्ध (Teacher-disciple relationship) –

वह बालकेन्द्रित शिक्षा पर अधिक बल देता है, अध्यापक शिक्षा हेतु वातावरण सृजित करे उसकी महती भूमिका परदे के पीछे है। कृत्रिमता से हटाकर प्रकृति सानिध्य में लाने का कार्य अध्यापक का है उसने ऐन्द्रिक विकास हेतु शिक्षक का आवाहन किया और कहा –

“All wickedness comes from weakness, a child is bad because hi is weak, make him strong and hi will be good.”

“सारे दोष कमजोरी से आते हैं बालक कमजोर है इसलिए बुरा है उसे बलिष्ठ बनाओ और वह अच्छा हो जाएगा।”

अनुशासन (Discipline) –

ये बच्चे को समाज से दूर प्राकृतिक वातावरण में रखना चाहते थे इनका मानना था –

“Everything is good as it comes from the hands of the author of nature, men maddle with it and it degenerates.” 

“सब कुछ अच्छा है क्योंकि यह प्रकृति के लेखक के हाथों से आता है, पुरुष इसके साथ खिलवाड़ करते हैं और यह पतित हो जाता है।”

इसीलिये इन्होने स्वतन्त्रता का सिद्धान्त व प्राकृतिक परिणामों को स्वीकारने की बात कही।

विद्यालय (School)-

ये चाहते थे की प्राकृतिक वातावरण में विद्यार्थी स्वतन्त्रता पूर्वक अध्ययन करें और अध्यापक उनके सहयोगी के रूप में कार्य करें न कि अनुदेशक के रूप में। बच्चे को प्रेम पूर्वक सिखाएं व अधिकतम स्वतन्त्रता प्रदान करें।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनके कई विचार अर्थहीन हो चुके हैं लेकिन उनका ‘प्रकृति की ओर लौटो‘ का नारा आज भी प्रासंगिक है और बाल केन्द्रित शैक्षिक अवधारणाएं आज भी रूसो के विचारों की प्रदक्षिणा करती दीखती हैं। उन्हें लोकतन्त्र के प्रणेता के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

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शिक्षा

Creativity / सर्जनात्मकता 

June 16, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


सर्जनात्मकता से आशय (Meaning of creativity) :-

इससे आशय आंग्ल भाषा के Creativity से है सर्जनात्मकता शब्द कुछ ऐसे शब्दों द्वारा भी लोगों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है जो अर्थ में इससे अन्तर रखते हैं जैसे विधायकता, उत्पादकता, खोज आदि जबकि विधायकता से एकत्रीकरण का,उत्पादकता(Productivity) से उत्पादन का और खोज से Search या  Discovery का बोध होता है। सृजनात्मकता को इसका पर्याय या सबसे करीबी माना जा सकता है जब कि सृजन में शून्य का भाव निहित है और सर्जन में वर्तमान या विद्यमान में नवीनता या मौलिकता की सृष्टि करनी पड़ती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सर्जनात्मकता के समानान्तर सृजनात्मकता, रचनात्मक, सर्जक,उत्पन्न करना, बनाना आदि को आवश्यकता नुसार लिया जा सकता है।

सर्जनात्मकता की परिभाषाएं  (Definitions of creativity) :- 

विविध विद्वानों द्वारा इसे विविध रूप से पारिभाषित किया गया है स्टेन महोदय का मानना है –

“When it results in a novel work that is accept as tenable or useful or satisfying by a group at some point in time.” 

“जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो जो किसी समय में समूह द्वारा उपयोगी मान्य हो, वह कार्य सृजनात्मकता कहलाता है। ”

एक अन्य विद्वान् मेडनिक महोदय का मानना है कि –

“Creative thinking consists of forming new combinations of associative elements. Which combinations either meet specified requirements or are in some way useful.The more mutually remote the elements of new combinations. The more creative is the process of solution.”

“सर्जनात्मक चिन्तन में साहचर्य के तत्वों का मिश्रण रहता है जो विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संयोगशील होते हैं या किसी अन्य रूप में लाभ दायक होते हैं। नवीन संयोग के विचार जितने कम होंगे,सृजनात्मकता की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी।”

क्रो एण्ड क्रो महोदय का विचार है :-

“Creativity is a mental process to express the original outcomes.”

“सृजनात्मकता मौलिक  परिणामों को व्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है।”

एक अन्य महत्त्वपूर्ण विचारक सी० वी ० गुड  महोदय का मानना है :-

“A quality of thought to be composed of broad continue upon which all members of the population may be placed in different degrees, the factors of creativity are tentatively described as associate and ideational fluency, originality adaptive and spontaneously flexibility and ability to make logical evaluation 

“सर्जनात्मकता वह विचार है जो किसी समूह में विस्तृत सातत्य का निर्माण करता है सर्जनात्मकता के कारक हैं -साहचर्य, आदर्शात्मक मौलिकता, अनुकूलता,सातत्यता,लोच एवम तार्किक विकास की योग्यता।”

उक्त विचारों के आलोक में कहा जा सकता है कि सर्जनात्मकता में मौलिकता, नवीनता, उपयोगिता, संयोग से सृजन, आवश्यकतानुसार सृजन के गुण विद्यमान रहते हैं। जिनका आधार चिन्तन होता है।

  विद्यार्थियों में सृजनात्मकता की वृद्धि के उपाय (Ways to increase creativity in students) –

1- विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाओं को उचित सम्मान (Due respect to the responses of the students)

2 – कल्पना आधारित प्रस्तुतीकरण (Imagination Based Presentation)

3 – पाठ्यक्रम में क्रिया आधारित अधिगम को बढ़ावा (Promotion of action based learning in the curriculum)

4 – सूचना संग्रहण, आकलन विश्लेषण का उपयोग (Information collection, use of assessment analysis)

5 – पाठ्य सहगामी क्रियाओं से सृजनशीलता का विकास (Development of creativity through co-curricular activities)

6 – उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग (Use of appropriate teaching methods)

7 – तार्किकता का उन्नयन (Upgrading Logic)

8 – अभिव्यक्ति के समुचित अवसर (Reasonable opportunities for expression)

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शिक्षा

Social Control in reference to educational development

June 12, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


शैक्षिक विकास के सन्दर्भ में सामाजिक नियंत्रण

विषय वस्तु को अध्ययन व अधिगम के दृष्टिकोण से निम्न भागों में बाँट कर अध्ययन करेंगे :-

1 – सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा (concept of social control)

2 – सामाजिक नियन्त्रण से आशय व विविध परिभाषाएं

    (Meaning and definitions of social control)

3 – शैक्षिक विकास में सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका

    (Role of social control in educational development)

4 – निष्कर्ष (Conclusion)

1 – सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा (concept of social control): –

भारत में सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा सर्वाधिक पुरातन व सनातन है सर्व प्रथम ऋषि परम्पराओं व उनके निर्देशों में इनके दर्शन होते हैं और इनका सर्वाधिक व्यवस्थित रूप कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था में द्रष्टव्य होता है विविध राजाओं, कबीलों व समुदायों की व्यवस्था में भी इसके अंश दिखाई देते हैं। कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था पर विविध विद्वत जनों ने कार्य किया है।

            हम स्वभावतः या उदार या गुलाम मानसिकता के चलते हर विचार की जड़ हिन्दुस्तान से बाहर देखना चाहते हैं इस क्रम में अमेरिका के प्रसिद्द समाज शास्त्री E.A.Ross की 1901 में लिखी गई पुस्तक सोशल कन्ट्रोल (SOCIAL CONTROL) का आधार लिया जाता है इन्होने अपनी पुस्तक में व्यवस्थित रूप से समाज के नियन्त्रण कार्य, संस्थाओं में धर्म, विश्वास कानून नैतिकता लोकमत रीति रिवाज व शिक्षा की भूमिकाओं का वर्णन किया है।

2 – सामाजिक नियन्त्रण से आशय व विविध परिभाषाएं

    (Meaning and definitions of social control)

सामाजिक नियंत्रण से आशय उस नियंत्रण से है जिसमें समाज की उन्नति के बीज छिपे होते हैं इस हेतु जिन मर्यादाओं परम्पराओं व नियमों का अनुपालन आवश्यक होता है  उसके सुनिश्चितीकरण का प्रयास किया जाता है। इसके माध्यम से समूह द्वारा निर्धारित नियमों का अनुपालन कराने हेतु बाध्यकारी शक्तियों को भी प्रयोग में लाया जाता है। वस्तुतः सामाजिक उद्देश्यों व सामाजिक आदर्शों के स्थापन हेतु इनका प्रयोग किया जाता है।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री रॉस महोदय कहते हैं –

“सामाजिक नियन्त्रण का तात्पर्य उन तमाम व्यक्तियों से है, जिसके द्वारा समुदाय व्यक्तियों को अपने अनुसार ढालता है। ”

“Social control refers to all those individuals by which the community molds individuals according to itself.”

मैकाइवर व पेज के अनुसार –

“सामाजिक नियन्त्रण से आशय उस तरीके से है जिससे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था अपने को संगठित बनाये रखती है।”

“Social control refers to the manner in which the whole social system keeps itself organized.”

बोगार्ड के अनुसार –

“सामाजिक नियन्त्रण वह पद्यति है,जिसमें एक समूह अपने सदस्य के व्यवहारों को नियन्त्रित करता है। ”

“Social control is the method in which a group controls the behavior of its members.”

लेण्डिस महोदय के अनुसार –

“सामाजिक नियन्त्रण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामाजिक व्यवस्था स्थापित तथा बनाये राखी जाती है।”

“Social control is the process by which social order is established and maintained.”  

आर. जी. स्मिथ महोदय के अनुसार –

“सामाजिक नियन्त्रण उन उद्देश्यों की प्राप्ति है जो उन उद्देश्यों के साधनों के प्रति चेतन सामूहिक अनुकूलन द्वारा होती है।”

“Social control is the attainment of those objectives by conscious collective adaptation to the means of those objectives.”

3 – शैक्षिक विकास में सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका

    (Role of social control in educational development)

01- व्यवहार नियन्त्रण द्वारा शैक्षिक विकास (Educational Development by Behavioral Control) 

02- सामाजिक समानता को प्रश्रय (Supporting social equality)

03- स्वीकृत मूल्यों का स्थापन (Establishment of Accepted Values)

04- एकता स्थापन हेतु (To establish unity)

05- व्यावहारिक प्रतिमानों व सामाजिक बुराइयों के प्रति सजगता (Awareness of practical norms and social evils)

06- शैक्षिक सामाजिक उद्देश्यों का गठन (Formation of Educational Social Objectives)

07- विविध निष्पादित कार्यों में सन्तुलन (Balance in various tasks)

08- सुख, शान्ति स्थापन (Happiness, Peace Establishment)

09- समरसता को बढ़ावा (Promote harmony)

10 – रूढ़िवाद से मुक्ति (Freedom from conservatism)

4 – निष्कर्ष (Conclusion):

      सारतः कहा जा सकता है कि निष्पक्ष सामाजिक नियन्त्रण मानव मात्र की प्रगति का एक सुखद उपागम है इससे अन्ततः मानवीय मूल्यों का संरक्षण होगा और मानव की क्रमिक प्रगति को बढ़ावा मिलेगा। शिक्षा को नई व्यावहारिक दिशा मिलेगी और यहां की स्थितियों के आधार पर कार्य संपन्न हो सकेंगे।

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दर्शन

सांख्य दर्शन/SANKHY DARSHAN

June 10, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

भारतीय षड दर्शन में सांख्य सर्वाधिक प्राचीन है सांख्य सिद्धान्त के संकेत छान्दोग्य, प्रश्न, कठ और विशेषतया श्वेताश्वर उपनिषद से प्राप्त होते हैं याकोबी के अनुसार इसका प्रगटन उपनिषदों के रचनाकाल के बीच हुआ। प्राचीन काल से ‘नहि  सांख्य सम ज्ञानम्’ कहकर इसकी प्रशंसा की जाती रही है इसी आधार पर मैक्समूलर जैसे पाश्चात्य विद्वान ने  इसे अद्वैत वेदान्त के बाद हिन्दुओं का प्रिय और प्रमुख दर्शन कहा है। आचार्य शंकर ने इसे वेदान्त का प्रमुख मल्ल कहा है। सांख्य दर्शन को ‘षष्टि तन्त्र ‘ के नाम से भी जाना जाता है आचार्य कपिल सांख्य के प्रतिस्थापक आचार्य माने जाते हैं।

इस दर्शन ने सर्वप्रथम तत्वों की गिनती की जिसका ज्ञान हमें मोक्ष की ओर ले जाता है गिनती को संख्या कहते हैं संख्या की प्रधानता के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।

दूसरी व्याख्या के अनुसार सांख्य का अर्थ विवेक ज्ञान है प्रकृति तथा पुरुष के विषय में अज्ञान होने से यह संसार है और जब हम इन दोनों के ‘विवेक’ को जान लेते हैं कि पुरुष प्रकृति से भिन्न तथा स्वतन्त्र है तब हमें मोक्ष की प्राप्ति होती है।  इसी विवेक ज्ञान की प्रधानता होने के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।

आचार्य कपिल की दो रचनाएँ उपलब्ध हैं एक तत्व समास और दूसरी सांख्य सूत्र। तत्व समास सांख्य दर्शन की प्राचीनतम रचना है इसमें केवल 22 सूत्र हैं सांख्य सूत्र में केवल 537 सूत्र हैं इसकी व्याख्या में निम्न सांख्य ग्रन्थ उपलब्ध हैं।

1 – सांख्य कारिका (ईश्वर कृष्ण)

2 – जय मङ्गला

3 – युक्ति दीपिका

4 – हिरण्य सप्तति (परमार्थ भिक्षु)

5 – सांख्य तत्व कौमुदी (वाचस्पति मिश्र)

6 – चन्द्रिका (नारायण तीर्थ)

7 – सरल सांख्य योग (हरि हराण्यक 

8 – सांख्य प्रवचन (विज्ञान भिक्षु)

9 – सांख्य तत्व विवेचन (सोमा नन्द)

10 – सांख्य तत्व यथार्थ दीपन (भाव गणेश)

सांख्य दर्शन के अनुसार शिक्षा :-

सांख्य दर्शन में प्रकृति तथा पुरुष दोनों को मूल तत्व माना गया है और इन दोनों में मूल भूत अन्तर किया गया है इस प्रकार शिक्षा की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जो प्रकृति और पुरुष  भेद का ज्ञान प्रदान कर सके। यह शिक्षा प्रक्रिया को बालकेन्द्रित बताते हुए प्रतिपादित करती है कि मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है। जो विवेक ज्ञान एवम् योग साधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। हम सृष्टि प्रक्रिया को इस प्रकार समझ सकते हैं –

                                     त्रिगुणात्मक 

पुरुष —-प्रकाश ———          ↓

                                      महत (बुद्धि)

                                                ↓

                                      अहंकार

                                                  ↓

पञ्च महाभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी

सांख्य दर्शन के मूल सिद्धान्त :-

1 – प्रकृति व पुरुष के योग से सृष्टि निर्मित

2 – प्रकृति व पुरुष दोनों मूल तत्व – पूरक

3 – पुरुष की स्वतन्त्र सत्ता – वह अनेक – अनेकात्मवादी दर्शन

4 – मनुष्य (प्रकृति व पुरुष का योग) – सप्रयोजन

5 – मनुष्य का विकास उसके जड़ व चेतन तत्वों पर निर्भर -तीन दशाएं -1 -शारीरिक, 2 – मानसिक, 3 – आध्यात्मिक  

6 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति (दुःख त्रय से मुक्ति) – शरीर का नाश 

7 – मुक्ति के लिए विवेक ज्ञान आवश्यक

8 – विवेक ज्ञान के लिए अष्टांग मार्ग (योग साधन आवश्यक)

9 – योग मार्ग की प्रमाणिकता हेतु नैतिक आचरण आवश्यक (यम, नियम अनुपालन)

सांख्य दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य :-

1 – शारीरिक विकास

2 – मानसिक विकास

3 – भावनात्मक विकास

4 – बौद्धिक विकास

5 – नैतिक विकास

6 – मोक्ष प्राप्ति

7 – सद् तथा असद् को समझना (उचित आचरण विकास)

8 – सर्वाङ्गीण विकास

शिक्षा का पाठ्यक्रम :-

इन्होने अपने पाठ्यक्रम को भौतिक व आध्यात्मिक आधार प्रदान किया।

भौतिक विकास के अन्तर्गत ये कर्मेन्द्रिय का विकास लक्ष्य मानते हैं और इसके लिए विविध पाठ्य सहगामी क्रियाओं व खेल कूद को प्रश्रय देना चाहते हैं।

आध्यात्मिक विकास हेतु ये ज्ञानेन्द्रियों का विकास करना चाहते हैं और इस हेतु योग,दर्शन,मनोविज्ञान को प्रश्रय देना चाहते हैं।

शिक्षण विधि :-

सांख्य दर्शन मुख्यतः तीन विधियों प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द को प्रयोग करने पर जोर देता है।

प्रत्यक्ष विधि – इसमें ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को क्रिया शील बनाया जाता है जिससे अनुभव व प्रत्यक्षीकरण का अवसर मिलता है।

अनुमान विधि – इसमें इन्द्रियों से परे चेतना को जिसमें अनुभूति हेतु अवसर प्रदान किया जाता है इसमें भाव पक्ष प्रधान होता है।

शब्द विधि – इसके अन्तर्गत  दृष्टान्तों,उदाहरणों का उपयोग किया जाता है जिसमें ज्ञान की प्रमाणिकता सिद्ध होती है।

इनके अतिरिक्त यह कुछ अन्य विधियों के प्रयोग को भी उचित समझते हैं यथा – सूत्र विधि, कहानी विधि, व्याख्यान विधि,तर्क विधि, क्रिया एवम् अभ्यास विधि।  

शिक्षक शिष्य सम्बन्ध –

सांख्य गहन मीमाँसा का दर्शन है अतः शिक्षक का विषय पर स्वामित्व परमावश्यक है। अध्यापक में यह योग्यता होनी चाहिए कि वह प्रकृति, पुरुष, जगत सम्बन्धी ज्ञान रखने के साथ विविध सूक्ष्म अन्तरों को व्यवस्थित तरीके से अधिगम कराने में समर्थ हो।

शिष्य –

इस दर्शन के अनुसार विद्यार्थी का व्यवहार नैतिकता पर अवलम्बित हो वह ज्ञान लब्धि हेतु जिज्ञासु हो व अपने गुरुओं के प्रति आदरभाव रखने वाला हो।  सांख्य दर्शन अनुशासन को सर्व प्रथम वरीयता देता हैं वस्तुतः सांख्य और योग दर्शन एक दूसरे के पूरक हैं और इसीलिये ये यम (अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य) व नियम (शौच, सन्तोष, तप,स्वाध्याय,ईश्वर प्राणिधान) का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहते हैं।

विद्यालय –

योग और सांख्य समकालीन दर्शन हैंइस समय गुरुकुल प्रणाली प्रचलित थी तथा शिक्षा गुरु आश्रम में प्रदान की जाती थी।  

सांख्य दर्शन का प्रभाव शिक्षा के विभिन्न अंगों पर आज भी परिलक्षित होता है और इसे किसी प्रकार कमतर नहीं आँका जा सकता।

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शिक्षा

पाठ्यक्रम – आशय, परिभाषा, इसकी प्रकृति व घटक

June 4, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पाठ्य क्रम से आशय /Meaning of Curriculum

सर्व प्रथम यहाँ शब्द पाठ्यक्रम की  विवेचना कर आशय समझने का प्रयास करते हैं। शब्द पाठ्यक्रम लैटिन भाषा के शब्द  ‘Currere’  शब्द से निकला है जिसका आशय है दौड़ का मैदान (Race Course ) अर्थात पाठ्यक्रम (Curriculum) से आशय उस साधन से  है जिसके द्वारा शिक्षा के मन्तव्य प्राप्त किये जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है की यह वह साधन है जिसके माध्यम से शिक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति एक तर्कपूर्ण क्रम का अनुसरण कर प्राप्त की जा सकती है।

शिक्षा की तरह पाठ्यक्रम के आशय के सम्बन्ध में भी दो धारणाएं प्रचलित हैं जिसे संकुचित अर्थ व व्यापक अर्थ के नाम से जाना जाता है। संकुचित अर्थ में पाठ्यक्रम भी केवल विभिन्न विषयों के पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित है लेकिन व्यापक अर्थ में वे सभी ज्ञान व अनुभव आ जाते हैं जिसे नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से प्राप्त करती है साथ ही विद्यालय में अध्यापकीय संरक्षण में विद्यार्थी द्वारा जो भी क्रियाएं सम्पादित होती हैं सारी की सारी पाठ्यक्रम के तहत स्वीकार की जाती हैं इसके अतिरिक्त पाठ्य सहगामी क्रियाएं भी पाठ्यक्रम का ही भाग होती हैं अर्थात वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाठ्यक्रम से आशय उसके इसी व्यापक स्वरूप से ही है। 

पाठ्यक्रम की परिभाषाएं / Definition of Curriculum  –

 पाठ्यक्रम की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषों को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं। जॉनसन महोदय के अनुसार –

“A curriculum is a structured series of intended learning outcomes.” 

“पाठ्यक्रम भावी सीखने के परिणामों की एक संरचित श्रृंखला है।”

एक अन्य विचारक मोनरो महोदय का मानना है –

“Curriculum embodies all the experiences which are utilized by the school to atain the aims of education.”

“पाठ्यचर्या उन सभी अनुभवों को समाहित करती है जो स्कूल द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उपयोग किए जाते हैं।”

भारतीय शिक्षाविद डॉ ० एन ० एल ० शर्मा जी कहते हैं –

“Curriculum is the statement of cource content to be learnt and tought during the course of a specific study within a stipulated time period.”

“पाठ्यचर्या एक निश्चित समय अवधि के भीतर एक विशिष्ट अध्ययन के दौरान सीखी और पढ़ी जाने वाली पाठ्यक्रम सामग्री का विवरण है।”

एक सुप्रसिद्ध चिन्तक Cunningham ने अपने भावों को इस प्रकार शब्दों में ढाला है –

“The curriculum is a tool in the hands of into artist (teacher) is mauld his material (the pupil) according to his ideals (objectives) in the studio (the school).

“पाठ्यक्रम कलाकार (शिक्षक) के हाथों में एक उपकरण है जो स्टूडियो (स्कूल) में अपने आदर्शों (उद्देश्यों) के अनुसार अपनी सामग्री (छात्र) को ढालता है।”

वेण्ट और क्रोनबर्ग के अनुसार

“Curriculum is the systematic from the subject matter which is prepared to fulfil the needs of pupils.”

“पाठ्यचर्या उस विषय वस्तु से व्यवस्थित है जो बालकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार की जाती है।”

इस प्रकार पाठ्यक्रम वह साधन मात्र है जो समय की मॉंग के आधार पर कालानुरूप विविध आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है।

पाठ्यक्रम की प्रकृति (Nature of Curriculum)  –

पाठ्यक्रम की प्रकृति के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि यह स्थाई रहेगी। इसकी प्रकृति में स्थान, काल, दिशा, व्यवस्था,दर्शन  आदि के अनुसार परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। पाठ्यक्रम हर काल की आवश्यकता के अनुसार स्वयम् को व्यवस्थित कर मानवता का कल्याण करता है।पाठ्यक्रम की मूल प्रकृति मानव कल्याण की है डॉ० सोती शिवेन्द्र सिंह व अन्य द्वारा इसकी विशेषता जिसमें इसकी प्रकृति के दर्शन होते हैं भली भाँति विवेचित किया गया है। जो इसके नाम में ही छिपा है यथा –

C – Central point of Education / शिक्षा का केन्द्रीय बिन्दु

U – Utilization of resources / संसाधनों का उपयोग

R – Reform in Education / शिक्षा में सुधार

R – Remedial actions / उपचारात्मक क्रियाऐं

I – Innovation / Infrastructure management. / नवाचार / बुनियादी ढांचा प्रबन्धन

C – Co-curricular and curricular activities / सह-पाठयक्रम और पाठ्यचर्या संबंधी गतिविधियाँ

U – Understanding of Educational objectives /शैक्षिक उद्देश्यों की समझ

L – List of subjects and activities / विषयों और गतिविधियों की सूची

    (Lectures, Laboratory, Library, Learning Material)

U – Understanding of educational demand./ शैक्षिक माँग की स्थिति की समझ

M – Management of educational process / शैक्षिक प्रक्रिया का प्रबंधन।

पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाले घटक  /  Curriculum Affecting Factors –

शिक्षा व्यवस्था का गहन अध्ययन यह स्पष्ट संकेत देता है कि शिक्षा और पाठ्यक्रम का एक दूसरे से गहन सम्बन्ध रहा है इसी आलोक में पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाले घटकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।

1 – सामाजिक परिवर्तन

2 – शासन व्यवस्था

3 – अध्ययन समितियाँ 

4 – राष्ट्रीय आयोग व विविध समितियाँ

5 – परीक्षा प्रणाली

6 – उद्देश्यों का प्रभाव 

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