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काव्य

बस यह हमको गम है।

September 27, 2020 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

आह,पानी बरस रहा है

आँखें भी आज नम हैं

हमने है, तुम्हें पुकारा ,

बोलो, ये कैसा गम है ।

हवाएं भी पुरसर्द सी हैं,

यादों में भी खूब दम है,

क्यों कर लिया किनारा,

दुःख मेरा तुमसे कम है।

यादों का है बवण्डर

हर सिम्त तम ही तम है,

टूटा है तारा सुन्दर

हम पर तो बस सितम है।

वो चेहरा घूमता है

यादें हुई न कम है

कैसे करूँ किनारा

इतनी न मुझमें दम है।

सोने की कोशिशें हैं 

आँखों से नींद गुम है

तुमने नहीं पुकारा

खाता हमें ये गम है।

दुनियाँ बदल रहा है

या सिर्फ मेरा भ्रम है

ना मिल सका किनारा

बस यह हमको गम है ।

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काव्य

पितृ पक्ष (Pitra Paksha)

September 15, 2020 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

पितृ पक्ष, सद्भाव ठहरे हैं,

स्मृति मनस भाव गहरे हैं।

श्रद्धा के  कितने चेहरे हैं,

उनमें से कुछ हमें घेरे हैं,

पितृ पक्ष श्रद्धा का घर है,

बाकी सब इनके फेरे हैं।

पितृ पक्ष, सद्भाव ठहरे हैं,

स्मृति मनस भाव गहरे हैं।।  

लोक में पहरे पर पहरे हैं,

श्रद्धा भाव शान्त ठहरे हैं,

भारत को श्रद्धा का वर है,

दिव्य पुरुष हमको घेरे हैं।

पितृ पक्ष, सद्भाव ठहरे हैं,

स्मृति मनस भाव गहरे हैं।।  

 तर्पित जल, पितृ ठहरे हैं,

आस्था के मनस पहरे हैं,

श्रद्धा से मानस पूर्णतर है,

संरक्षाहित प्रबुध्द ठहरे हैं।

पितृ पक्ष, सद्भाव ठहरे हैं,

स्मृति मनस भाव गहरे हैं।।  

आनन्द मय मन लहरें हैं,

कर्म काण्डों हेतु पहरे हैं,

मानसपूजा सर्व श्रेष्टतर है,

सामाजिक संघात गहरे हैं।

पितृ पक्ष, सद्भाव ठहरे हैं,

स्मृति मनस भाव गहरे हैं ।।  

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वाह जिन्दगी !

नव उन्नति पथ गढ़ने दो।

September 13, 2020 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जीवन की संध्या बेला में,

प्रीती का झरना बहने दो,

मन के ये सूने आँगन में,

उत्साह पूर्णतः खिलने दो।

जीवन की आपा धापी में,

जो कार्य रहे हैं करने दो

आभासी सत्य थे जीवन में

यथार्थ रंग अब भरने दो ।

जो रूढ़ियाँ ढोईं जीवन में,

मुक्त बयार अब चलने दो,

जो झूठ बसे घर आँगन में

उन्हें दहन अब करने दो।

जो गीत लिखे थे मधुवन में

उन्मुक्त भाव से पढ़ने दो।

व्यापक मन्तव्य स्थापन में

जीवन का सत जुड़ने दो।    

जो गुजरा है इतिहासों में

वर्तमान में साखें गढ़ने दो,

जञ्जीर न हो कोई पैरों में,

उन्मुक्त भाव से चलने दो।

परम्परा के ताने बाने में

नवसूर्य आज चमकने दो

भारत के कोने – कोने में

नव उन्नति पथ गढ़ने दो ।

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वाह जिन्दगी !

समय के चाक पर नित नया आकार गढ़ता हूँ।

September 8, 2020 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

समय के चाक पर नित नया आकार गढ़ता हूँ,

दुनियाँ सो रही होती है, मैं दिन रात पढ़ता हूँ,

समय, समाज, जीवन के संत्रासों से लड़ता हूँ,

अध्यापक  हूँ, क्या  करूँ ?  बस आगे बढ़ता हूँ।

विषमता में  प्रेरणा तलाश, स्वयं को गढ़ता हूँ,

विधार्थियों हित, जीवन्त स्वप्न जगा, अड़ता हूँ,

पँक्तियों बीच छिपा क्या है? तलाश करता हूँ,

विषम हालात में व्यक्तित्व  में लाता दृढ़ता हूँ।

तूफ़ान, झंझा,कालिमा में नव स्वरुप धरता हूँ,

जब समस्त आशादीप बुझ जाएँ  मैं जलता हूँ,

जमाने की नितनई चाललख बारबार मरता हूँ,

नव चेतना के नवस्थापन हेतु प्रयास करता हूँ।

दुर्दशा,  क्रूरता और  आक्रोश, सहन करता हूँ,

शिक्षा राष्ट्रहित शिक्षक शिक्षा हित में गढ़ता हूँ,

समाज, शिक्षक हित में रहने की आशा करता हूँ,

अजब नादान हूँ इस दुनियाँ से प्यार करता हूँ।

प्यार पर गुस्सा नहीं, गुस्से को लाड़ करता हूँ,

गलत तथ्यों के क्षमता भर खिलाफ अड़ता हूँ,

जल सर ऊपर चढ़ता है तो रौद्र रूप धरता हूँ,

दायित्व से भागता नहीं जीवट से पूर्ण करता हूँ। 

आत्म निर्भर बने कल, अतः आह्वान करता हूँ,

स्वयं के पूर्णतः  होम का पूर्ण प्रयास करता हूँ,

जीवन – पर्यन्त चेतना उन्नति आयाम गढ़ता हूँ,

मृत्यु है स्वाभाविक सत्य नाथ स्वागत करता हूँ।

समय के चाक पर नित नया आकार गढ़ता हूँ,

समय के चाक पर नित नया……………………. ।

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काव्य

अब यमराज विविध रूप में आते हैं।

by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

अब यमराज विविध रूप में आते हैं,

नएनए रूप रंग महफ़िल में भाते हैं,

वैधानिक चेतावनी हँसी में उड़ाते हैं,

सामान वे मौत का किश्तों में लाते हैं।1

कभी जड़ कभी चेतन रूप में आते हैं,

ये दोनों ही, सक्रिय भूमिका निभाते हैं,

इन्हें लेने में प्रबुद्धजन भी न लजाते हैं,

गलत के समर्थन में नए बहाने लाते हैं।2

खाद्य व अखाद्य के, भ्रमजाल में आते हैं,

घातक खा अन्ततः अस्पताल में जाते हैं,

ये विविध – रोग नई पीढ़ी में लगाते हैं,

ये समस्त अन्ततः रागिनी रोग गाते हैं ।3

विरुद आहार भी ना समझ में आते हैं,

बिना सोचे समझे ये सब पेट में जाते हैं,

अतिथि को भी यही भोग हम लगाते हैं,

साथ साथ अतिथि देवो भव भी गाते हैं ।4

कथनी – करनी अन्तर नजर में आते हैं,

फलतः नज़रें अपनी रसातल में पाते हैं,

एवम भारतीय मूल्यों को हम गिराते हैं,

धूम्रपान जनहित में हम समझ न पाते हैं।5

सुरा को निगल हम मति भ्रम में आते हैं,

मति भ्रम से विविध पाप कर्म में जाते हैं,

विविध त्रास ,रोगों को हम गले लगाते हैं,

कौन, किसको पी गया समझ न पाते हैं ।6

अब यमराज विविध रूपों में आते हैं

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