कभी कभी हम किसी को देखकर अनायास ही कह उठते आज आप बहुत तरोताज़ा दिख रहे हैं जवाब मिलता है आज वास्तव में पूरी गहरी नींद लेने को मिली है। सचमुच नींद किसी वरदान से कम नहीं कही जा सकती। एक अच्छी नींद शरीर के सभी अंगों हेतु टॉनिक का काम करती है जब हम सोते हैं तो हमारे शरीर के कई अंग विषाक्त पदार्थों को साफ़ करते हैं नींद शरीर के अन्दर के भागों के साथ त्वचा हेतु भी बहुत आवश्यक है। हमारे आँख बन्द करने से शरीर के दूसरे अंग आम करना बन्द नहीं करते। नाइट शिफ्ट में काम करने वाले मेहनतकश विविध स्वास्थ्य समस्याओं से जूझते रहते हैं।
नींदसेआशय / Meaning of sleep –
विकिपीडियाकेअनुसार –
“निद्राएक उन्नत निर्माण क्रिया विषयक (एनाबोलिक) स्थिति है, जो विकास पर जोर देती है और रोगक्षम तन्त्र (इम्यून), तंत्रिका तंत्र, कंकालीय और मांसपेशी प्रणाली में नई जान दाल देती है सभी स्तनपायियों में, सभी पक्षियों और अनेक सरीसृपों, उभयचरों और मछलियों में इसका अनुपालन होता है।”
एक अन्य परिभाषा के अनुसार –
“निद्राअपेक्षाकृत निलंबित संवेदी और संचालक गतिविधि की चेतना की एक प्राकृतिक बार बार आने वाली रूपांतरित स्थिति है जो लगभग सभी स्वैछिक मांसपेशियों की निष्क्रियता की विशेषता लिए होता है।“
इतिहास वेत्ता डॉ ० निर्मल कुमार के अनुसार –
“निद्रा प्राकृतिक रूप से शरीर को तरोताज़ा रखने का उपाय है।”
जबकि डॉ ० कविता का मानना है -“निद्रा एक ऊर्जावान शक्ति के रूप में नई सुबह का आभास कराती है व अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु दृढ़ बनाती है।”
इसी क्रम में डॉ० शालिनी ने बताया -“शारीरिक व मानसिक टूटफूट को व्यवस्थित कर निद्राअग्रिम कार्यों हेतु स्वस्थ उपादान है।”
उक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से यह तो स्पष्ट है कि पूरी नींद शरीर हेतु आवश्यक है।
अनिद्राकेकारण –
अनिद्रा के बहुत से कारण हैं उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं –
01 – भूख से अधिक भोजन
02 – मानसिक तनाव
03 – परिश्रम की कमी
04 – प्रमाद
05 – गृह क्लेश
06 – अनियमित श्रम
07 – अंग्रेजी औषधि व कैफीन युक्त पदार्थों का अधिक सेवन
08 – चिन्ता
09 – उच्च आकांक्षा स्तर
10 – डर
11 – सन्तोष का अभाव
इस सम्बन्ध में एक कवि ने तो यहां तक कहा कि –
सरस्वती भूखी कविता है, लक्ष्मी को सन्तोष नहीं है।
और और की चाह और है मरघट आया होश नहीं है।
नींदपूरीनहोनेकेनुकसान –
01 – व्यवहार दुष्प्रभावित
02 – शारीरिक स्वास्थ्य ह्रास
03 – मानसिक स्वास्थय दुष्प्रभावित
गम्भीर चिन्तक डॉ ० जे ० पी ० गौतम का विचार है –
निद्रा वह दशा है जो व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक थकान को दूर कर नवऊर्जा के संचरण का कारण बनती है। “
04 – कार्य क्षमता ह्रास
05 – क्रोध वृद्धि
06 – अवसाद
07 – मानसिक तनाव
08 – निर्णयन दुष्प्रभावित
09 – स्मृति ह्रास
10 – दुर्घटना वृद्धि
11 – मोटापा
12 – व्याधि निमन्त्रण
13 – रोग प्रतिरोधी क्षमता में ह्रास
14 – सृजनात्मक चिन्तन ह्रास
भूगोल वेत्ता डॉ ० टी ० पी ० सिंह का विचार है –
“निद्रा मानव जीवन हेतु ऊर्जा का वह प्राकृतिक स्रोत है जो किसी भी जीव या मानव में पुनः ऊर्जा व्यवस्थापन करता है। “
15 – जैविक घड़ी दुष्प्रभावित
16 – थकान व निराशा
अच्छी नींद हेतु उपाय –
01 – शारीरिक श्रम
एक प्रमुख शिक्षाविद डॉ ० राज कुमार गोयल ने कहा –
“चेतन मन की क्रियाओं को निरन्तर सुव्यवस्थित रूप से करने हेतु महत्त्वपूर्ण साधन है निद्रा।”
02 – नियमित व्यायाम व भ्रमण
आँग्ल भाषा के विद्वान् डॉ ० एस ० डी ० शर्मा का विचार है –
“नींद शरीर की ऊर्जा को पुनर्जीवित करने का प्रमुख नैसर्गिक साधन है।”
03 – प्राणायाम व ध्यान
04 – तेल मालिश
05 – अँगुलियों के अग्र भाग पर दवाब
06 – गर्दन के पीछे अँगूठे से दबाना
07 – आराम दायक बिस्तर
08 – सोने जागने का समय निर्धारण
मेरे अनुसार –
जल्दी सोऊँगा जल्दी उठ जाऊँगा,
तेल मालिश करूँ, जोर अजमाऊँगा
है अखाड़े की मिट्टी बुलाती मुझे,
मैं वहाँ जाऊँगा हाँ वहाँ जाऊँगा।
09 – नशे से परहेज
10 – अंग्रेजी दवा व कैफीन का न्यूनतम प्रयोग
बचपन की याद मेरे शब्दों में –
बिन कहानी के दादी सुलाती न थीं
बिना पौ फटे वो जगाती न थीं
रात भर नींद तुमको क्यों आती नहीं
नींद की गोलियाँ तो जरूरी न थीं।
11 – स्वस्थ व सकारात्मक चिन्तन
12 – गरिष्ठ भोजन से बचाव
13 – सन्तुलित आहार
14 – स्वस्थ आदत निर्माण
मेरे विचार में –
रात भर जागने से क्या फ़ायदा, भोर का वक़्त निद्रा में खो जाएगा,
रात में नींद लेने का है क़ायदा, गर भूलोगे इसे भाग्य सो जाएगा।
15 – स्वास्थ्य मूल्य निर्धारण
कुछ आदतें ऐसी होती हैं जो जीवन बदलने की क्षमता रखती हैं और यदि आप इसे सम्पूर्ण देखते व पढ़ते हैं तो निश्चित रूप से आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन होगा। पूर्ण नींद न लेने के क्या नुकसान हैं। नींद न आने के क्या कारण हैं ?अच्छी नींद लाने के क्या उपाय हैं यह सब जानकर अपने जीवन में सार्थक परिवर्तन किया जा सकता है।
याद रहे यहाँ उदारवाद (Liberalism) और उपयोगितावाद(Utilitarianism) की बात करने नहीं जा रहे हैं उदारवाद व उपयोगितावाद आपके शिक्षा शास्त्र के इस पाठ्यक्रम का हिस्सा न होकर यहाँ केवल उदार प्रवृत्तियों की बात है।
शिक्षा में उदार प्रवृत्तियों से आशय (Meaning of liberal tendencies in education) –
प्रवृति का अर्थ आदत और स्वभाव होता है। शिक्षा के परिक्षेत्र में क्या उदार दृष्टिकोण उद्भवित हुआ है ? इसी का अध्ययन यहाँ किया जाना है। ज्ञान की विकास यात्रा में शिक्षा विविध काल में विविध विचारों से प्रभावित होती रही है यदि हम यूरोप के प्राचीन काल वर्णन करें तो हमें देखने को मिलता है कि उस समय स्वामी और सेवक की शिक्षा में अन्तर दृष्टिगत होता है। राजा, स्वामी, जमींदार आदि को उदार शिक्षा प्रदान की जाती थी जबकि जनसाधारण को शिल्प या व्यवसाय सिखाया जाता था। उदार शिक्षा में धर्म शास्त्र, नीति शास्त्र, राजनीति, साहित्य, कला, इतिहास, संगीत आदि प्रधान रूप से सिखाया जाता था। शिक्षा में उदार दृष्टिकोण का सम्यक विकास हेतु हर सम्भव प्रयास होते थे। जो शिक्षा स्वभाव और आदतों में उदार भाव को प्रश्रय प्रदान करे वही उदार शिक्षा की श्रेणी में आती थी।
उदार प्रवृत्ति की शिक्षा सामान्य शिक्षा है जिसमें साहित्य, कला, संगीत, इतिहास, नीति शास्त्र, राजनीति शास्त्र आदि की शिक्षा की प्रधानता होती है। जिनका सम्बन्ध उदार मन, विशाल मनस से होता है। उपयोगिता वादी शिक्षा में आर्थिक प्रश्न जुड़े रहते हैं यह व्यावहारिक, व्यावसायिक, कार्योन्मुख, क्रिया केन्द्रित, अर्थोपार्जन व जीविकोपार्जन मात्र के उद्देश्यों को लेकर चलती है।
उदार प्रवृत्ति शिक्षा के उद्देश्य / Objectives of Liberal Education –
उदार प्रवृत्ति शिक्षा सम्पूर्ण व्योम के उत्थान जैसे महती उद्देश्य को लेकर चलती है और भारत के इस उद्देश्य का ही उद्घोष करती है –
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
उदार प्रवृत्ति के आलोक में शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार निर्धारित किये जा सकते हैं।
1 – उदार मूल्य स्थापन
2 – चारित्रिक विकास
3 – उत्तम स्वास्थय
4 – शिवम् प्रवृत्ति
5 – सत्य आलम्बन
6 – सुन्दरम् स्थापन
7 – आध्यात्मिक उत्थान
8 – आत्मोत्सर्ग की भावना
शिक्षा के विविध अंगों पर उदार प्रवृत्तियों का प्रभाव / Impact of liberal tendencies on various parts of education –
समस्त ज्ञानालोक ही उदार प्रवृत्ति शिक्षा के परिक्षेत्र में आता है लेकिन यहॉं हम प्रमुख अंगों पर उदार प्रवृत्ति शिक्षा के प्रभावों का अध्ययन करेंगे।
1 – शिक्षक (Teacher) –
शिक्षा में उदार प्रवृत्ति के अवतरण का प्रभाव आचार्य पर साफ़ परिलक्षित हो रहा है वह वर्तमान की शिक्षण सहायक सामग्री को अधिगम प्रभावी बनाने हेतु सम्यक प्रयोग कर रहा है। आज के अध्यापक ने विविध पुरानी सड़ी गली मान्यताओं का परित्याग कर उदारता को स्वयं में प्रश्रय दिया है और समस्त विद्यार्थियों के उत्थान हेतु यथा सम्भव प्रयासरत है यद्यपि शासन अध्यापकों के साथ न्याय में असफल रहा है लेकिन अध्यापक ने कर्त्तव्य की बलिवेदी पर यथा सम्भव स्वयं की आहुति दी है घर और समाज का कलुषित वातावरण, प्रतिकूल वातावरण उदात्त भावना का बाधक नहीं बन सका है। बालक का उदार दृष्टिकोण युक्त सर्वाङ्गीण विकास विद्यालय और सच्चे अध्यापक का ध्येय है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री डॉ राम शकल पाण्डेय ने लिखा। –
“आओ हम अपने समस्त विवादों एवं आपसी कलह को समाप्त कर स्नेह की इस भव्य धारा को सर्वत्र प्रवाहित कर दें।”
“Let us end all our disputes and mutual discord and let this grand stream of love flow everywhere.”
2 – विद्यार्थी (Student) –
शिक्षा के उदार दृष्टिकोण से प्रभावित शिक्षा में विद्यार्थी मानवीय उदार दृष्टिकोण से युक्त होना चाहिए। हर तरह के कट्टर दृष्टिकोण से विरत होकर मानवता का उत्थान और सम्यक दृष्टिकोण का विकास उदार शिक्षा का ध्येय है। शिक्षा की उदार प्रवृत्ति विद्यार्थी में विश्वबन्धुत्व और आवश्यक गुण ग्राह्यता पर जोर देती है इसी लिए कहा गया कि –
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्!!
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् !!
3 – पाठ्यक्रम (Syllabus) –
समय के साथ कदमताल करते हुए शिक्षा ने अपने स्वरुप में विविध परिवर्तन किये हैं पहले इसमें साहित्य, कला, सङ्गीत, इतिहास, नीति शास्त्र, राजनीति विज्ञान आदि को ही प्रश्रय मिला था लेकिन आज की आवश्यकता के अनुरूप विविध विज्ञानों व व्यावहारिक तकनीकी ज्ञान को भी अब इसमें समाहित किया गया है।
विकिपीडिया का दृष्टिकोण है –
उदार शिक्षा (Liberal education) मध्ययुग के ‘उदार कलाओं’ की संकल्पना (कांसेप्ट) पर आधारित शिक्षा को कहते है। वर्तमान समय में ‘ज्ञान युग’ (Age of Enlightenment) के उदारतावाद पर आधारित शिक्षा को उदार शिक्षा कहते हैं। वस्तुतः उदार शिक्षा’ शिक्षा का दर्शन है जो व्यक्ति को विस्तृत ज्ञान, प्रदान करती है तथा इसके साथ मूल्य, आचरण, नागरिक दायित्वों का निर्वहन आदि सिखाती है। उदार शिक्षा प्रायः वैश्विक एवं बहुलतावादी दृष्टिकोण देती है।
अतः उक्त से सम्बन्धित सभी विषय पाठ्यक्रम में समाहित होंगे।
4 – शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –
अधिगम को प्रभावी बनाने हेतु पारम्परिक शिक्षण विधियों के साथ नवाचार से जन्मी शिक्षण विधियों का इस परिक्षेत्र में स्वागत है सामान्यतः प्रवचन विधि, व्याख्या विधि, प्रदर्शन विधि, तार्किक विधि, उदाहरण विधि, व्याख्यान विधि, शास्त्रार्थ, सेमीनार और विविध नव सञ्चार विधियों को इसमें सम्यक स्थान प्राप्त है। मनोवैज्ञानिक विधियों के साथ जो भी नवीन शिक्षण विधियाँ उदार शैक्षिक दृष्टिकोण विकास में सहयोग प्रदान कर सकती हैं उपयोग में लाई जा सकती हैं।
5 – अनुशासन (Discipline) –
उदार दृष्टि कोण ध्येय समर्पित है अतः इसमें ऐसी उच्छृंखलता को कोई स्थान नहीं है जो ध्येय प्राप्ति में बाधा बने। स्वतः अनुशासन ही इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। विविध स्वतन्त्रता यथा समय, स्थान, दृष्टिकोण, विषय चयन के साथ यह अनुशासन दिखावा नहीं चाहता। बिना स्वयं को अनुशासित किये और बिना गम्भीर प्रयासों के उदात्त दृष्टिकोण के विकास की सोच भी भ्रामक रहेगी। इसीलिये पूर्ण मनोयोग से स्वानुशासन पर विवेक सम्मत जोर देना होगा।
नईशिक्षानीति 2020 औरउदारशिक्षाप्रवृत्ति (New education policy 2020 and liberal education trend) –
NEP 2020 ने भी प्रत्येक शैक्षिक स्तर पर उदार शिक्षा प्रवृत्ति को पारिलक्षित किया है। स्नातक स्तर पर एक वर्ष पढ़ने पर सर्टिफिकेट ,दो वर्ष अध्ययन पर डिप्लोमा, तीन वर्ष अध्ययन पर डिग्री प्राप्त होना उदार शिक्षा का ही लक्षण है इसके अलावा विविध विषयों के चयन की स्वतन्त्रता, व्यावहारिक विषय से जुड़ने के अवसर प्रदान कर नई शिक्षा नीति 2020 ने उदार शिक्षा प्रवृत्ति का ही परिचय दिया है।
साथियों जीवन में उतार – चढ़ाव, ऊँच – नीच, उठना – गिरना, खुशी – ग़म, विश्वास – धोखा, दिन -रात, उजाला – अँधेरा आता ही रहता है इन समस्त सामयिक प्रक्रियाओं में परेशानियाँ, बाधाएँ हमें विचलित कर सकती हैं हमारा जीवट, हमारा आत्म बल ही हमें निजात दिला सकता है। हमें समय रहते बाधा निवारण के उपाय करने होते हैं अन्यथा हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं बचता।
यहाँ बाधा से मेरा अभिप्राय किसी भूत बाधा, प्रेत बाधा,तन्त्र बाधा आदि से नहीं है। मेरा बाधा से आशय कार्य की सफलता में बाधक व्यावहारिक तत्वों और मनोभावों से है।
हमें अपने आप में जूझने का माद्दा पैदा करना है किसी विद्वान् ने बहुत सही कहा कि –
हारावहीजोलड़ानहीं।
ये परेशानियाँ, ये बाधाएं हमें सशक्त बनाती हैं जीवन के कैनवास में रंग भरती हैं रास भरती हैं श्री राम नरेश त्रिपाठी जी ने तो मृत्यु का भी स्वागत करने की प्रेरणा दी है उन्होंने कहा –
निर्भयस्वागतकरोमृत्युका
मृत्युएकहै, विश्रामस्थल।
जीवजहाँसेफिरचलताहै
धारणकरनवजीवनसम्बल।
हमारी परम्पराएँ, हमारी मान्यताएं, हमारे सशक्त पूर्वज सभी हमें बाधाओं से टकराने का निर्देश देते हैं। किसी से धोखा मिलने पर, किसी के छल से, कोई आपत्ति आने पर, अचानक विषम स्थिति पैदा होने पर, हमें अपना मानसिक संतुलन नहीं खोना चाहिए बल्कि और दृढ़ता युक्त होकर अन्य के लिए भी प्रेरणावाहक की भूमिका का निर्वहन करना चाहिए। याद रखें पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की उन पंक्तियों को जिसमें उन्होंने हुंकार भरी –
बाधाएंआतीहैंआएं,
घिरेंप्रलयकीघोरघटाएं,
पावोंकेनीचेअँगारे,
सिरपरबरसेंयदिज्वालायें,
निजहाथोंसेहँसतेहँसते,
आगलगाकरजलनाहोगा।
कदममिलाकरचलनाहोगा।
वक्त साथ कदमताल करते हुए आइए चलते हैं उस पक्ष की ओर जहाँ लोग आपके हतोत्साह का कारण बनेंगे। वे आपको डराते हुए कहेंगे – कहना सरल है करना कठिन। वास्तव में ये वही लोग हैं जो न कुछ खुद कुछ कर सकते हैं और न ही किसी की प्रगति में मील का पत्थर बन सकते हैं इन गति अवरोधकों से बहुत सचेत रहने की जरूरत है। ये किसी भी कार्य के प्रति आपके मन में भय जगा सकते हैं और किसी भी रूप में आ सकते हैं यथा साथी, रिश्तेदार, सम्बन्धी, चिकित्सक, माता, पिता, गुरु या तथाकथित शुभ चिन्तक। कोई भी इस भूमिका को निर्वाहित कर सकता है। आपको अपने आपको आत्मविश्वास से युक्त कर यथार्थ के धरातल पर खड़ा करना है और व्यावहारिक विश्लेषण, संश्लेषण के आधार पर यथोचित निर्णय लेना है याद रखें –
रास्ताकिसजगहनहींहोता
सिर्फहमकोपतानहींहोता
छोड़देंडरकररास्ताहीहम
येकोईरास्तानहींहोता।
इसीलिये शान्त चित्त रहकर हमें स्वयम मार्ग तलाश करना चाहिए। लोग क्या कहेंगे इसकी कत्तई चिन्ता नहीं करनी चाहिए और उन लोगों की बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए कोरे भाग्यवादी होते हैं और कहते फिरते हैं जो भाग्य में लिखा है वही होगा। हमें अपना भाग्य खुद ही गढ़ना है। हम आज जो हैं अपने पूर्व विचार और कर्मों की वजह से हैं। भाग्य पर भरोसे की जगह सम्यक रणनीति बनाकर क्रियान्वयन करें।अयोध्यासिंहउपाध्याय ‘हरिऔध‘ जीने कितना सुन्दर भाव अभिव्यक्त किये हैं –
देखकरबाधाविविध, बहुविघ्नघबरातेनहीं।
रहभरोसेभाग्यके, दुःखभोगपछतातेनहीं।
कामकितनाभीकठिनहोकिन्तुउकतातेनहीं।
भीड़मेंचञ्चलबने, जोवीरदिखलातेनहीं।
होगएएकआनमें, उनकेबुरेदिनभीभले।
सबजगहसबकालमें, वेहीमिलेफूलेफले।
एक बार हाँ सिर्फ एक बार दृढ़ सङ्कल्प लें, निर्विकल्प होकर सङ्कल्प लें। दृढ़ होकर अपने सपने पूरे करने के लिए चलें। सफलता आपके कदम चूमेगी। अरे हमारा सौभाग्य है हम उस देश में जन्मे हैं जिसमें शरीर के मरने की बात होती है आत्मा की नहीं। भगवान् कृष्ण ने स्वयम् अपने मुख़ार बिन्दु से कहा।
नैनंछिन्दन्तिशस्त्राणिनैनंदहतिपावकः
नचैनंक्लेदयन्त्यपोनशोषयतिमारुतः॥ 2.23॥
आइए अब आपको उस ओर ले चलता हूँ जहाँ आपके बहुत सारे प्रश्न, उत्तर पा सकते हैं समाधान प्राप्त कर सकते हैं। आखिर आज का सामान्य मानव चाहता क्या है ? धन, पद, प्रतिष्ठा, भौतिक उन्नति, अच्छे पैसे वाली नौकरी, आजीवन आर्थिक सुरक्षा। कुछ मानव आध्यात्मिक प्रगति, शोध, अच्छा स्वास्थ्य आदि की भी कामना करते होंगे।
उक्त की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा क्या है ? अगर हम आत्म मंथन करेंगे तो पाएंगे कि सबसे बड़ी बाधा हम स्वयं हैं हम आलस्य, प्रमाद से युक्त हैं हमारे कार्यों में निरन्तरता नहीं है अपने उद्देश्य की प्राप्ति का जुनून हम अपने आप में जगा नहीं पाए हैं। आधे अधूरे मन से किये गए प्रयास मंजिल तक नहीं पहुँचते यह हम सब जानते हैं फिर भी अपनी असफलता का ठीकरा दूसरे के पर फोड़ने की आदत बन गयी है। कभी कभी अपनी मेहनत के फल की सहज चोरी देखते हुए भी हम जाग्रत नहीं होते। जिस दिन इन विकारों को हम अपने से दूर कर पाएंगे इस दुनियाँ के विविध आकांक्षित फल हमारे पहलू में होंगे। सफलता, अच्छा स्वास्थ्य, ऊँची प्रतिष्ठा, अच्छा पद, मान सम्मान इन सबके पीछे कड़ी मेहनत छिपी है याद रखें सफलता का कोई शॉर्ट कट नहीं होता।
यदि आप सचमुच सफल होना चाहते हैं तो अपने आप से उक्त प्रश्न करें, समाधान आपके संयत मन में छिपा है। सही दिशा में अनवरत प्रयास सफलता की कुञ्जी है। बाधा निवारण का उपाय है।
न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाणों की दुनियाँ में एक महत्त्वपूर्ण
प्रमाण है ‘अनुमान’ . यह शब्द दो शब्दों का योग है अनु +मान =अनुमान ।
अनु शब्द से आशय पश्चात से है मान का अर्थ होता है ज्ञान। अर्थात अनुमान
का तात्पर्य पूर्व ज्ञान के पश्चात होने वाले ज्ञान से है।
उदाहरण के लिए यदि हम कहते हैं कि पर्वत पर धुआँ है इसलिए वहाँ आग है
क्योंकि हमें यह पहले से ही पता है कि धुएं और आग में व्याप्ति सम्बन्ध है। अर्थात
जहाँ पर धुआँ होता है उस जगह पर आग अवश्य होती है।
अतः अनुमान को सरलतम रूप में इस तरह पारिभाषित किया जा सकता है जब दो
वस्तुओं की व्याप्ति के पूर्व ज्ञान के आधार पर उनमें से किसी एक को देखकर दूसरी
का ज्ञान प्राप्त करते हैं। अनुमान प्रमाण कहलाता है।
अनुमान
के भेद (Types of
inference ) –
चूँकि अनुमान एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है अर्थात विविध आधारों पर इसके
भेदों का अधिगमन आवश्यक है यहाँ प्रयोजन, व्याप्ति, और व्याप्ति स्थापना के आधार पर विविध भेदों को
सरलतम रूप में देने का प्रयास है।
प्रयोजन
भेद के आधार पर –
1
– स्वार्थानुमान
2 –
परार्थानुमान
1
– स्वार्थानुमान – जिस अनुमान को अपने लिए किया जाता है उसे
स्वार्थानुमान कहते हैं जैसे कोई व्यक्ति पर्वत पर धुआँ देखता है और व्याप्ति
सम्बन्ध के आधार पर यह निष्कर्ष निकालता है कि उक्त नियमानुसार पर्वत पर अग्नि है
और यह वह खुद के लिए निकालता है तो इसे स्वार्थानुमान कहेंगे।
2 –
परार्थानुमान – जो
अनुमान अन्य लोगों ज्ञान कराने हेतु पंचावयवों का प्रयोग कराते हुए किया जाता है
उसे परार्थानुमान कहते हैं। ये पॉंच अवयव इस प्रकार हैं –
i – प्रतिज्ञा
ii – हेतु
iii – दृष्टान्त
iv – उपनय
v – निगमन
i – प्रतिज्ञा – साध्य के पक्ष में होने का ज्ञान प्रतिज्ञा द्वारा कराया जाता है।
जैसे -पर्वत पर अग्नि है।
ii – हेतु – जिस साधन के द्वारा साध्य का अनुमान होता है
उसे हेतु कहते हैं। जैसे – क्यों कि पर्वत पर धुआँ है।
iii – दृष्टान्त – व्याप्ति की व्याख्या और प्रमाणिकता हेतु दिए
गए दृष्टान्त का वर्णन किया जाता है। यथा जहाँ -जहाँ धुआँ होता है वहाँ वहाँ अग्नि
होती है जैसे रसोई घर में।
iv – उपनय – जिस व्याप्ति का होना तृतीय अवयव के रूप में
दिया जाता है और उसे विशिष्ट हेतु का पक्ष होना दिखाया जाता है उपनय कहलाता है।
जैसे – अमुक पर्वत पर धुआँ है।
v – निगमन – जिससे साध्य के सिद्ध होने का प्रतिपादन करते
हैं निगमन कहलाता है। जैसे -अतः पर्वत पर अग्नि है ।
व्याप्ति
के भेद –
अनुमान के अनुसार व्याप्ति के तीन भेद इस प्रकार हैं –
पूर्ववत
– जब भविष्य के
कार्य का अनुमान वर्तमान के कारण से होता है अर्थात किसी कारण से कार्य के अनुमान
को पूर्ववत कहते हैं। जैसे बादलोँ की उमड़ घुमड़ को देखकर यह अनुमान लगाना कि आज
बारिश होगी।
शेषवत
– शेषवत कार्य से
कारण के अनुमान को कहते हैं व्याप्ति में साधन व साध्य के बीच कार्य कारण सम्बन्ध
होता है। इसमें इस समय यानी कि वर्तमान काल में जो कार्य सम्पन्न हो रहा होता है
उसके पिछले कार्य का अनुमान लगाया जाता है। जैसे अचानक नदी में पानी के बढ़ने और
उसके तीव्र वेग से यह अनुमान लगाना कि कहीं बारिश हुई होगी।
सामान्यतोदृष्ट
–
सामान्यतोदृष्टउस प्रमाण का नाम है जिसमें अप्रत्यक्ष के आधार पर भी सम्बन्ध का
अनुमान लगाया जाता है जैसे दो अलग अलग दूरस्थ स्थानों से चन्द्रमा को देखकर उसकी
गतिशीलता का अनुमान लगाना। यह अनुमान
कार्य कारण सम्बन्ध पर नहीं बल्कि इस आधार पर होता है साधन और साध्य एक दूसरे के
बराबर निकट पाए जाते हैं।
व्याप्ति
स्थापना प्रणाली –
अनुमान
के तीन भेद व्याप्ति स्थापना प्रणाली के आधार पर किये जाते हैं
केवलान्वयी
–
जब
साधन और साध्य में नियत साहचर्य पाया जाता है तो यह केवल अन्वयी कहलाता है। इस प्रकार की व्याप्ति केवल अन्वय द्वारा
स्थापित होती है इसमें व्यतिरेक का एकदम अभाव रहता है उदाहरणार्थ सभी ज्ञेय, अभिज्ञेय हैं।
केवल
अन्वय व्याप्ति के बल पर खड़ा किया हुआ हेतु केवलान्वयी कहलाता है। इसमें उपस्थित
शब्द ‘केवल’ उसकी
व्यतिरेक व्याप्ति की सम्भावना को दूर कर देता है।
केवल
व्यतिरेकी –
जब
हम जीवित शरीर को सिद्ध करने हेतु यह कहते हैं उसमें आत्मा है क्योंकि उसमें
प्राणदिमत्त्व (प्राण,इन्द्रियाँ,ह्रदय
आदि )हेतु उपस्थित है अर्थात जब साधन तथा साध्य की अन्वयमूलक व्याप्ति से नहीं
बल्कि साध्य के अभाव के साथ साधन के प्रभाव की व्याप्ति के ज्ञान से अनुमान होता
है तो इसे केवल व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं।
अन्वय
व्यतिरेकी –
जब
साधन के उपस्थित रहने पर साध्य भी उपस्थित रहता है एवम् साध्य के अनुपस्थित होने
पर साधन भी अनुपस्थित हो जाता है अर्थात व्याप्ति का ज्ञान अन्वय एवम् व्यतिरेक की सम्मलित उपस्थिति पर ही
निर्भर करता है। अतः अन्वय व्यतिरेकी अनुमान उसको कहा जा सकता है जिसमें साधन और
साध्य का सम्बन्ध अन्वय और व्यतिरेक दोनों के साथ स्थापित होता है।उदाहरण के लिए
जहाँ आग नहीं वहाँ धुआँ नहीं।
उक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि अनुमान प्रमाण एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है जिसे इससे
सम्बद्ध कुछ शब्दों को जानकर आसानी से समझा जा सकता है।
न्याय दर्शन को एक ऐसी शाखा के रूप में स्वीकारा जाता है जो भारतीय तर्कशास्त्र की रीढ़ कही जाती है। वर्तमान समय में इसे प्रमाण शास्त्र के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है इसके अनुसार मुख्यतः प्रमाणों की संख्या चार मानी जाती है – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। नवन्याय में इसकी विशद व्याख्याएं देखने को मिलती हैं। इसमें कालान्तर में परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन भी देखने को मिले। आपके NET के पाठ्यक्रम में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को भी प्रमाण में शामिल किया गया है। इसका विस्तृत आकाश है और उसमें से केवल प्रत्यक्ष के बारे में उसके प्रकारों के बारे में यहाँ अध्ययन करेंगे।
Pratyaksh Praman / प्रत्यक्ष प्रमाण / Perception –
प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण को उपस्थित करते हुए न्याय दर्शन में
उल्लेख है –
इससे आशय है इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग से जो
अव्यपदेश्य अर्थात अकथनीय,
अव्यभिचारि अर्थात संशय विपर्यादि दोषों से
रहित, व्यवसयात्मक अर्थात निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न
होता है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है।
वस्तु के साथ इन्द्रिय का संयोग होने से जो
ज्ञान प्राप्त होता है ये मानते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान ही प्रत्यक्ष है।
प्रत्यक्ष को छोड़कर सभी प्रमाण पूर्व-ज्ञान पर आश्रित रहते हैं।
प्रत्यक्ष के भेद / Types
of Perception – प्रत्यक्ष का वर्गीकरण विविध प्रकार से किया सकता है। प्रथम दृष्टिकोण से दो भागों में
प्रत्यक्ष को विभाजित किया जा सकता है।
1 – लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary Perception)
2 – अलौकिक
प्रत्यक्ष (Extra
Ordinary Perception)
1 – लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary Perception) –
जब सामान्य रूप से इन्द्रिय और उसके विषय का सन्निकर्ष (संयोग ) होता
है और इस प्रकार जो अनुभव प्राप्त होता है
उसे लौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। लौकिक प्रत्यक्ष को भी दो भागों में विभक्त किया
जा सकता है
i – वाह्य
(External)
ii – आन्तर
(Internal)
i – वाह्य (External) –
वाह्य इन्द्रियों द्वारा यह साध्य है
ii – आन्तर (Internal) –
इसे आन्तरिक अर्थात मन द्वारा साध्य माना गया
है
लौकिक प्रत्यक्ष को नव्य
न्याय में जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है उस आधार पर तीन भागों में विभक्त कर
समझ सकते हैं।
(A ) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष (Indeterminate
Perception)
(B) – सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate
Perception)
(C) – प्रत्यभिज्ञा ( Credentials)
(A ) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष (Indeterminate
Perception) – पदार्थ और इन्द्रिय के संयोग के तुरन्त बाद
वस्तु का जो यत्किञ्चित ज्ञान हमें प्राप्त होता है इसमें नामजात्यादि नहीं आता।
यह केवल वास्तु मात्र का ज्ञान है। यथा अन्धकारयुक्त कक्ष में एक मेज पर कोई गोल
सी वस्तु रखी है हमें उसकी सत्ता का बोध हो और यह पता न चले कि वह सन्तरा है या
अमरुद अथवा सेब है तो इसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाएगा।
(B) – सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate
Perception) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष में नामजात्यादि की योजना
कर लेने पर वह सविकल्प प्रत्यक्ष हो जाएगा। जैसे अन्धकारयुक्त कक्ष में एक मेज पर
कोई गोल सी वस्तु रखी है हमें उसकी सत्ता का बोध हो और यह पता न चले कि वह सन्तरा
है या अमरुद अथवा सेब है तो इसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाएगा। अगले ही क्षण यदि
हमें यह पता चले की वह सन्तरा है तो यह सविकल्प प्रत्यक्ष कहलायेगा। नाम ,जाति, गुणों का आभास निर्विकल्प प्रत्यक्ष को सविकल्प बना देता है।
(C) – प्रत्यभिज्ञा ( Credentials)
– प्रत्यभिज्ञा
से आशय है पहले से देखे हुए को पहचानना। इस प्रत्यक्ष में किसी वस्तु,
चेहरे आदि को देखने पर हमें यह लगता है कि इसे
पहले भी कहीं देखा है और जब हम उस आभास के आधार पर कहते हैं इसे मैंने अमुक शहर
में उस स्थान पर देखा था तो इस गुण धर्म को प्रत्यभिज्ञा प्रमाण कहा जाएगा।
2 – अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra
Ordinary
Perception) –
जिस
प्रकार लौकिक प्रत्यक्ष का अध्ययन दो वर्गों में विभाजित करके किया गया उसी तरह
अलौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं –
i – सामान्य लक्षण
ii – ज्ञान लक्षण
iii – योगज
i – सामान्य लक्षण –
अनुमान साहचर्य या व्याप्ति के सम्बन्ध पर खड़ा
होता है और इस साहचर्य ज्ञान हमें प्रत्यक्ष के आधार पर होता है यही प्रत्यक्ष
ज्ञान सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष है। यथा मनुष्य मरण शील है लेकिन मनुष्य की मरण के
साथ व्याप्ति अपने अस्तित्व के लिए उसके प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधरित रहेगी। इसे ही
सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष कहेंगे।
ii – ज्ञान लक्षण –
यह ज्ञान पूर्वाभास के कारण होता है एक के ज्ञान
के साथ ही जब दूसरा भी अनायास उठ खड़ा हो तो यह ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष कहलाता है
जैसे चन्दन देखने के साथ उसकी खुशबू का आभास। वास्तव में बार बार विविध अनुभव का
अभ्यास से हमारी इन्द्रियाँ पृथक पृथक प्राप्त ज्ञानों का युगपत ही प्रकट करने
लगती हैं। जैसे। पानी -तरल , बर्फ -ठण्डा, अग्नि -गरम, पत्थर -ठोस आदि
iii – योगज –
इस
प्रकार का ज्ञान योगियों को प्रत्यक्ष योग शक्ति के द्वारा होता है। योगियों को
भूत ,भविष्य
व विविध पदार्थों का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हो जाता है जो ज्ञान बिना इन्द्रिय और
अर्थ के सन्निकर्ष से प्राप्त हो वह अलौकिक ज्ञान ही है इस लिए इसे अलौकिक की
श्रेणी में रखा गया है।
योगियों को दो प्रकार का कह सकते हैं। 1 -युक्त
योगी , 2 –
युञ्जान
उक्त
योगियों को अपने योगाभयास के बल से देश व काल से व्यवहित पदार्थों के ज्ञानार्जन
की सामर्थ्य होती है जिन्हे सर्वदा सर्व प्रकारक ज्ञान उपलब्ध रहता है युक्त योगी
कहलाते हैं और जो चिन्तन द्वारा ज्ञान उपलब्ध करते हैं युञ्जान योगी कहलाते हैं।
उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्रमाणों की
दुनियाँ में प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है इसे वर्गीकृत करके
इसके प्रकारों को किस प्रकार सरलता से समझा जा सकता है। मुझे लगता है बोर्ड पर
किया वर्गीकरण इसका समुचित प्रतिनिधित्व कर रहा है।