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काव्य

आधुनिकता की कमाई है ।

March 22, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

अरे ये क्या है ?

ये कैसी रुलाई है।

ये कैसी है मार

पकी फसलों ने खाई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।1।

प्रकृति की सहज तन्द्रा

मानव ने भगाई है।

छीना है जो प्रकृति का

विपदा उससे ही आई है। 

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।2।

जब भी चाहा विस्फोट किया

जब चाहा खाई बनाई है।

पृथ्वी के अन्तस्तल में

खलबली सी मचाई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।3।

बेहिसाब जल स्रोतों का

दोहन कर करी कमाई है।

असंख्य घाव करे छाती पर

पर दी न कोई दवाई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।4।

लगता है प्रकृति निधि पर

विपदा ये नई सी आई है।

बरसात से प्राप्त जलनिधि भी

ना वापस लौटाई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।5।

जल निधि में जहर की

अजब मात्रा बढ़ाई है।

कहते हो अम्लीय वर्षा

ये हमने ही कराई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।6।

मौसम में परिवर्तन की

भारी कीमत चुकाई है।

लगता है इन्ही वजहों से

बे मौसम बारिश आई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है।7।

ग्लोबल वार्मिंग ने

दी हमको यही दुहाई है।

जो बोओगे सो काटोगे

यह नीति सदा चल आई है।  

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।8।

पूर्व योजना की शक्ति

क्यूँ कर हमने गँवाई है।

जड़ प्राकृतिक विपदा की

क्यूँ समझ हमें न आई है।

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है ।9।

आवश्यक है आधुनिकता भी

पर लगाम क्यों गँवाई है।

कहीं कौमा, कहीं अल्प विराम

की रीति क्यों भुलाई है। 

लगता है यही सच है।

आधुनिकता की कमाई है।10।

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शिक्षा

CONCEPT AND CHARACTERISTICS OF CULTURE

March 18, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

संस्कृति की अवधारणा व विशेषताएं

संस्कृति शब्द का उच्चारण होते ही हमारा अन्तर्मन मर्यादा का बोध करने लगता है साधारणतः संस्कृति में वह सब कुछ संयुक्त होता है जो मानव द्वारा समाज में रहकर जाना जाता है कलाएं, कानून, नैतिकता, धार्मिक परम्पराएँ, शिष्टाचार मर्यादाएं, रीति रिवाज, व्यवहार, सङ्गीत, भाषा, साहित्य आदि सभी कुछ इसमें शामिल है।

CONCEPT OF CULTURE (संस्कृति की अवधारणा)

संस्कृति की अवधारणा को समझने हेतु कुछ विज्ञजनों की संस्कृति के आशय को इंगित करने वाली परिभाषाओं के आलोक में समझने का प्रयास करते हैं। प्रसिद्द समाजशास्त्री मैकाइवर एण्ड पेज के शब्दों में –

“Culture is the expression of our nature in our modes of living and of thinking, in our everyday intercourse in art, in literature, in religion, in recreation and in enjoyment.”- Meciver and page

“हमारे रहने, विचार करने प्रतिदिन के कार्यों, कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द में संस्कृति हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”

लुण्डवर्ग महोदय संस्कृति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं –

“Culture may be defined as a system of socially acquired and transferred standard to judgement, belief and conduct, as well as the symbolic and material products of the resulting conventional patterns of behavior.” –Lundberg

“संस्कृति को उस व्यवस्था के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है जिसमें हम सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को सञ्चरित कर दिए जाने वाले निर्णयों,विश्वासों, आचरणों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक और और भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते हैं।”

टायलर महोदय ने संस्कृति की अवधारणा को सुन्दर शब्दों में यूँ संजोया है –

“Culture is that complex whole which includes knowledge, beliefs, art, morals, law, customs and any other capabilities and habits acquired by man as a member of society.” – Tylor

“संस्कृति वह जटिल सम्पूर्णता है जिसमें ज्ञान,विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा इसी प्रकार की ऐसी सभी क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है जिन्हे मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। ”

यदि हम उक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करें तो एम०  एल० मित्तल के तत्सम्बन्धी ये विचार सत्य प्रतीत होते हैं। –

“किसी समुदाय या समाज के रहने सहने के समग्र तरीकों या जीवन विधि को संस्कृति कहते हैं। इसमें धर्म, कला, दर्शन, विज्ञान, आचार विचार, रीति रिवाज, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा, खानपान, मशीनें, उपकरण, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था आदि सभी तत्व सम्मिलित होते हैं। ”

“The overall way of life or way of life of a community or society is called culture. It includes religion, art, philosophy, science, ethics, customs, living, language, costumes, food, machines, equipment, political and economic All the elements of system etc. are included.’’

CHARACTERISTICS OF CULTURE

संस्कृति की विशेषताएं

1 – संस्कृति अनुभव आधारित (Culture based on experience)

लुण्डवर्ग महोदय के अनुसार

“Culture is not related to a person’s innate tendencies or biological heritage, but it is based on social learning and experiences.”

 -Lundberg

“संस्कृति व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियों अथवा जैवकीय विरासत से सम्बन्धित नहीं होती, बल्कि यह सामाजिक सीख व अनुभवों पर आधारित होती है।”

2 – संस्कृति में स्थानान्तरण की शक्ति (The power of transference in culture)

3 – हर समाज में सांस्कृतिक विविधता (Cultural diversity in every society)

4 – संस्कृति में सामाजिकता का गुण (Sociability in culture)

ए ० डब्ल्यू० ग्रीन महोदय के अनुसार –

“Culture is the socially transmitted system of idealized ways in knowledge, practice and belief along with the artifacts that knowledge and practice maintain as they change in type.” – Green A.W.

“संस्कृति ज्ञान, व्यवहार, विकास की उन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान और व्यवहार से उत्पन्न हुए साधनों की व्यवस्था को कहते हैं, जो सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती हैं।”

5 – संस्कृति में अनुकूलन निहित (Adaptation inherent in culture)

6 – समाज का आदर्श संस्कृति है (Culture is the ideal of society)

इसीलिये व्हाइट महोदय को कहना पड़ा –

“Culture is a symbolic, continuous, cumulative and progressive process.”

“संस्कृति एक प्रतीकात्मक, निरन्तर, संचई और प्रगतिशील प्रक्रिया है।”

7 – संस्कृति, आवश्यकता पूर्ति में सक्षम (Culture, capable of meeting the need)

8 – मानवीय समाज की धरोहर (Heritage of human society)

रेडफील्ड महोदय के अनुसार –

“संस्कृति कला और उपकरणों से अभिव्यक्त परम्परागत ज्ञान का वह संगठित रूप है, जो परम्परा द्वारा संगठित होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है। ”

“Culture is the organised body of conventional understanding, manifest in art and artifact, which persisting through traditions, characterizes human group. – Redfield

उक्त अवधारणाओं व विशेषताओं के अध्ययन से यह पूर्णतः स्पष्ट भान होता है कि संस्कृति जन्मजात न होकर स्वीकार्य गुणों,  विचारों व व्यवहारों का समूह है जैसा वेरको व अन्य के इन विचारों से भी स्पष्ट  होता है – 

“Although the investigations of Social Scientists have shown that culture is not innate but learned, nevertheless the pressure to acquire this learning is so strong that is inescapable.” –Verco and others

“यद्यपि समाज शास्त्रियों की खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि संस्कृति जन्मजात न होकर सीखी जाती है, फिर भी इनके सीखने को इतना अधिक महत्त्व दिया जाता है कि इनकी अवहेलना नहीं की जा सकती।”

                                                        

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यह सब रस्ते के पत्थर हैं.

January 29, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

यह सब रस्ते के पत्थर हैं,

अक्सर हट जाया करते हैं। 

ये दिल पर रखा बोझ नहीं,

जिससे मर जाया करते हैं।

जीवन के रास्ते दूभर हैं

समतल हो जाया करते हैं।

चलने की हिम्मत की ही नहीं

यूँ, क्यूँ डर जाया करते हैं।

दिखने को काले बादल हैं,

ये भ्रम फैलाया करते हैं।

गर्जन तर्जन सब किया यहीं

फिर, ये उड़ जाया करते हैं।

इस जग के किस्से नश्वर हैं

किसी समय डराया करते हैं।

मन की हलचल बोझ नहीं

प्रश्न हल हो जाया करते हैं।

जो मार्ग के काँकड़ पाथर हैं,

सब राज बताया करते हैं।

जिनकी किस्मत में गति नहीं,

वो ‘नाथ’ दब जाया करते हैं।

यह सब रस्ते के पत्थर हैं,

अक्सर हट जाया करते हैं ।।


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शिक्षा

FUNCTIONS OF EDUCATION शिक्षा के कार्य

January 8, 2023 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


शिक्षा वह उपागम है जो इसे धारण करने वाले व्यक्तित्व हेतु प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है। इसके माध्यम से हमें वह दिशा मिलती है जो हमारे जीवन के उद्देश्य तय करने और उन्हें प्राप्त करने में हमारा सहयोग प्रदान करती है। विविध विद्वानों ने शिक्षा के कार्य सम्बन्धी अपने विचारों की शब्द माला का गुम्फन इस प्रकार किया है।

जॉन ड्यूवी महोदय कहते हैं –

“शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी के विकास में सहायता पहुँचाना है, जिससे वह सुखी, नैतिक व कुशल मानव बन सके।”

“The work of education is to help in the development of a helpless creature so that it can become a happy, moral and efficient human being.”

डॉ जाकिर हुसैन महोदय का कहना है –

“शिक्षा का कार्य बालक के  मस्तिष्क को शुद्ध, नैतिक और बौद्धिक मूल्यों का अनुभव करने में इस प्रकार सहायता प्रदान करना है कि वह मूल्यों से प्रेरित होकर उनको सर्वोत्तम प्रकार से अपने कार्य और अपने जीवन में प्राप्त करें।”

“The function of education is to help the child to perceive pure, moral and intellectual values ​​in his mind in such a way that he is inspired by these values ​​to achieve them in the best possible way in his work and his life.”

रमन बिहारी लाल महोदय कहते हैं –

“सच बात तो यह है कि शिक्षा के अपने में कोई कार्य नहीं होते। कोई व्यक्ति, समाज अथवा राज्य शिक्षा के द्वारा जो प्राप्त करना चाहता है वे ही शिक्षा के उद्देश्य होते हैं और इन उद्देश्यों की पूर्ति करना ही शिक्षा के कार्य होते हैं।”

“The truth is that education does not have any functions in itself. What a person, society, or state wants to achieve through education are the objectives of education, and fulfilling these objectives is the function of education.”

शिक्षा के प्रमुख कार्यों का वर्गीकरण / Classification of major functions of education –

विविध परिभाषाओं का अध्ययन और विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा को तत्कालीन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु कुछ कार्य करने ही होते हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –

A – व्यक्तिगत तथा सामाजिक विकास / Individual and Social Development

       (a) व्यक्तिगत विकास

(1) -उत्तम चरित्र की प्राप्ति

जर्मन विचारक हर्बर्ट महोदय कहते हैं –

“शिक्षा अच्छे नैतिक चरित्र का विकास है।”

“Education is the development of good moral character.”

(2) – व्यावसायिक कुशलता

स्पेन्सर महोदय कहते हैं कि –

“किसी भी व्यवसाय के लिए तैयार करना हमारी शिक्षा का मुख्य अंग है। ”

“Preparation for any vocation is a core part of our education.”

 (3) – व्यक्तित्व विकास

फ्रेडरिक ट्रेसी के अनुसार –

“सम्पूर्ण शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है।  यह आदर्श संतुलित एवम समग्र व्यक्तित्व है। ”

“The real aim of all education is the complete attainment of the ideal of personality. This ideal is a balanced and holistic personality.”

 (4) – वातावरण से समायोजन

टॉमसन महोदय के अनुसार –

“वातावरण शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना जिससे कि वह जीवित रह सके और अपनी मूल प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए अधिक से अधिक संभव अवसर प्राप्त कर सके।”

“Environment is the teacher and the function of education is to adapt the student to that environment so he may live and get the maximum possible opportunities to satisfy his basic instincts.”

 (5) – आत्म निर्भरता

डॉ ० राधा कृष्णन महोदय कहते हैं –

“छात्रों को जीविका उपार्जन करने में सहायता देना शिक्षा का एक कार्य है।”

“To help the students to earn a living is one of the functions of Education.”

 (6) – मानसिक विकास

रमन बिहारी लाल महोदय के अनुसार  –

“मनुष्य एक मनोशारीरिक प्राणी है। शिक्षा के द्वारा उसका शारीरिक और मानसिक विकास होना ही चाहिए। ”

“Man is a psycho-physical being. He must have physical and mental development through education.”

 (7) – आध्यात्मिक चेतना का विकास

डॉ ० राधा कृष्णन महोदय के अनुसार –

“शिक्षा का उद्देश्य न तो राष्ट्रीय कुशलता है, न सांसारिक एकता अपितु व्यक्ति को यह अनुभूति कराना है कि उसके पास बुद्धि से भी परे एक तत्त्व है जिसे तुम चाहो तो आत्मा कह सकते हो।”

“The aim of Education is neither national efficiency nor world solidarity, but making the individual feel that he has something deeper than intellect, call it spirit if you like.’’

 (8) – जन्मजात शक्तियों का विकास

जर्मन शिक्षाशास्त्री पेस्टालोजी के अनुसार –

“शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील विकास है।”

“Education is a natural, harmonious, and progressive development of man’s innate powers.”

 (9) – समृद्धता –

ड्यूबी महोदय का विचार है –

“जीवन का मुख्य कार्य है प्रत्येक पग पर अपने अनुभवों द्वारा जीवन को समृद्ध करना।”

   “The main task of life is to enrich life with your experiences at every step.”

(b) सामाजिक विकास

1 – सामाजिक नियन्त्रण

2 – सामाजिक परिवर्तन–

रमन बिहारी लाल महोदय के अनुसार –

“शिक्षा मनुष्यों में अपनी भाषा, रहन सहन, खानपान एवं व्यवहार की विधियों और रीतिरिवाजों में अपने अनुभवों के आधार पर आवश्यक परिवर्तन एवं विकास की क्षमता पैदा करती हैं और वे इन सबमें निरन्तर परिवर्तन एवं विकास करते हैं। इसे समाजशास्त्रीय भाषा में सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।”

“Education inculcates in human beings the capacity for necessary change and development in their language, living conditions, food and behavior methods, and customs on the basis of their experiences, and they continuously change and develop in all these. This is called the social change in sociological language.”

3 – सामाजिक सुधार

4 – संस्कृति का संरक्षण, हस्तान्तरण व विकास 

5 – राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्ति

6 – सामाजिक सकारात्मक भावना

एच ० गार्डन महोदय के अनुसार –

“शिक्षक को यह जानना आवश्यक है की उसे सामाजिक प्रक्रिया को उन व्यक्तियों को समझाना चाहिए, जो इसे समझने में असमर्थ हैं।”

“It is necessary for the teacher to know that he should explain the social process to those persons who are unable to understand it.”

B – सांस्कृतिक विरासत का सम्प्रेषण / Transmission of cultural heritage

शिक्षा वह साधन है जिसके माध्यम से यह महत्त्व पूर्ण कार्य सम्पादित होता है इस हेतु वह इन कार्यों को करती है –

1 – संरक्षण / Protection

2 – विकास / Development

3 – हस्तान्तरण /Transfer

4 – सांस्कृतिक विलम्बन में कमी /Reduction of cultural lag

5 – गतिशीलता / Mobility

6 – विविध संस्कृतियों से समायोजन / Adjusting to Diverse Cultures

C – कौशलों का अर्जन / Acquisition of skills – आज प्रतिस्पर्धा का युग है और इसमें ठीके रहने के लिए यह परम आवश्यक है कि स्वप्रगति के सुनिश्चयीकरण हेतु कौशलों का निरंतर अर्जन किया जाए। शिक्षा इन कौशलों का सुदृढ़ीकरण हेतु इन कौशलों को अर्जित कराने का कार्य करती है –

1 – भाषाई कुशलता / Linguistic Proficiency

2 – सृजनात्मक कुशलता / Creative skills

3 – व्यावसायिक कुशलता / Professional skills

स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार –

“केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे कोई व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके।”

“Mere bookish knowledge will not do. We need that education by which a person can stand on his own feet.”

4 – सामाजिक कुशलता / Social skills

5 – प्रतिस्पर्धात्मक कुशलता / Competitive Proficiency

D – मानव मूल्यों का अर्जन व उत्पादन / Acquisition and generation of human values

आज विविध परिक्षेत्र में मानवीय मूल्यों का अवनमन दीख पड़ता है अतः शिक्षा को निम्न कार्य अवश्यमेव सम्पादित करने होंगे। –

→ सामाजिक मूल्य / Social values

→ आर्थिक मूल्य / Economic values

→ राजनैतिक मूल्य / Political values

→ सांस्कृतिक मूल्य / Cultural values

E – अवकाश हेतु शिक्षा /Education for leisure

→ स्वास्थ्य व्यवस्थापन / Health Management

→ भविष्य व्यवस्थापन / Future Management

→ सशक्त सम्बन्ध स्थापन / Strong Relationship Establishment

→ मनः रञ्जन / Entertainment

→ आत्मनिरीक्षण / Introspection

F – सामाजिक एकजुटता / Social Cohesion

→ सहिष्णुता विकास / Tolerance development

→ सह अस्तित्व बोध / Coexistence sense

→ प्रगति उन्मुखता / Progress orientation

→ सामाजिक निष्ठा बोध / Social loyalty

→ लोचशीलता / Flexibility

G – राष्ट्रीय एकता हेतु शिक्षा / Education for National Integration

1 – पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा / Through co-curricular activities

2 – आध्यात्मिक चेतना विकास / Spiritual consciousness development

3 – अधिकार व कर्त्तव्य ज्ञान / Rights and  duty knowledge

4 – राष्ट्रीय लक्ष्य बोध / National vision

5 -सामाजिक कर्त्तव्य बोध / Sense of social duty

6 – परिवर्तन ग्राह्यता / Change susceptibility

7 – धार्मिक सहिष्णुता / Religious tolerance

8 – भावात्मक एकता विकास / Emotional integration development

       जवाहर लाल नेहरू ने कहा –

 ” भावात्मक एकता से अभिप्राय, अलगाव की भावना का दमन तथा मस्तिष्क एवं ह्रदय की एकता से है।”

“By Emotional integration, I mean the integration of our minds and hearts, the suppression of the feelings of separation.”

H – अन्तर्राष्ट्रीय समझ हेतु शिक्षा / Education for Inter-National understanding

अन्तर्राष्ट्रीय परिक्षेत्र में शिक्षार्थियों की समझ में अभिवृद्धि हेतु शिक्षा को निम्न कार्यों को यथायोग्य गुणवत्ता पूर्ण ढंग से करना होगा जिसके प्रभावी परिणाम देखने को मिलेंगे।

1 – अन्तर्राष्ट्रीय पहचान रखने वाले व्यक्तित्वों से परिचयी करण / Introduction to personalities having international identity – जन्मदिन, निर्वाण दिवस, विशिष्ट कार्य सम्पादन दिवस मनाकर / By celebrating Birthday, Nirvana Day, Special Work Achievement Day

2 – विशिष्ट अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्वों के ऑडियो वीडिओ क्लिप द्वारा / By Audio video clips of eminent international personalities.

3 – अन्तर्राष्ट्रीय क्रीड़ा प्रतिस्पर्धा का आयोजन / Organization of international sports competition

4 – अन्तर्राष्ट्रीय साझा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजन / Organizing International Shared Cultural Program

5 – भ्रमण द्वारा / by excursion

6 – शैक्षिक आदान प्रदान / – Academic Exchange

7 – शिक्षण विधि में सम्यक परिवर्तन / Due change in teaching method

8 – विविध भाषा में शोध परिणाम अनुवाद / Translation of research results in various languages

I – मानव संसाधन हेतु शिक्षा / Education for Human Resource Development –

आज भारत व चीन अधिक जनसँख्या वाले देशों की श्रेणी में आते हैं लेकिन जब अधिसंख्य जनसँख्या उत्पादक कार्यो से जुड़ जाती है तो यही जनसंख्या मानव संसाधन के रूप में देश को विकसित करने में योग देती है और शिक्षा मानव संसाधन के विकास में योग की दर को बढ़ाने का श्रेष्ठतम साधन है इसके द्वारा ही विविध कार्यों हेतु कौशल सिखाए जाते हैं। आज के तमाम प्रशिक्षण कॉलेज इस पावन कर्म में लगे हैं। मानव संसाधन का जितना अच्छा प्रयोग जो देश करेगा वह उतनी तीव्रता से प्रगति करेगा। प्राइवेट और सरकारी दोनों परिक्षेत्रों को इस दिशा में तीव्र प्रयास करने होंगे।

उक्त परिक्षेत्रों के अतिरिक्त आज और बहुत से कार्य शिक्षा के गिनाये जा सकते हैं और इनमे बदलते सामाजिक उद्देश्यों के साथ परिवर्तन होता रहेगा।

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शिक्षा

Globalization / वैश्वीकरण)

December 29, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


वैश्वीकरण का अर्थ (Meaning of Globalization) –

वैश्वीकरण विचारों का वह प्रवाह है जिससे सम्पूर्ण विश्व लाभान्वित होता है, वैश्वीकरण आंग्ल भाषा के शब्द Globalization का हिन्दी रूपान्तरण है विकिपीडिया के अनुसार – वैश्वीकरण का शाब्दिक अर्थ स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं या घटनाओं के विश्व स्तर पर रूपान्तरण की प्रक्रिया है इसे एक ऐसी प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है जिसके द्वारा पूरे विश्व के लोग मिलकर एक समाज बनाते हैं तथा एक साथ कार्य करते हैं। यह प्रक्रिया आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक और राजनीतिक ताक़तों का एक संयोजन है।

यद्यपि इसकी परिभाषा को लेकर विविध मत दिखाई पड़ते हैं ऐसा लगता है की वैश्वीकरण का चोला ओढ़कर भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा ही अपना प्रभाव दिखा रही है।

विकिपीडिया की इस परिभाषा को विविध विद्वानों द्वारा विशेष महत्त्व प्रदान किया गया –

“Globalization, or globalisation, is the process of interaction and integration among people, companies, and governments worldwide.” 

 “वैश्वीकरण, या वैश्वीकरण, दुनिया भर में लोगों, कंपनियों और सरकारों के बीच बातचीत और एकीकरण की प्रक्रिया है।”

टर्बर्टसन के अनुसार –

“Globalization is a concept that is related to the shrinking of the world and the consciousness and closeness of the whole world.”

“वैश्वीकरण एक ऐसी अवधारणा है जिसका सम्बन्ध विश्व के सिकुड़ने तथा पूरे विश्व की चेतना और घनिष्ठता से है।”

वैश्वीकरण को अधिगमित करने हेतु कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में सम्पूर्ण जगत का एकीकरण एक परिवार के रूप में होता है और लोग अपनी आर्थिक, भौगोलिक, राजनीतिक, और सामाजिक दूरियों को मिटाकर एकीकृत होते हैं। इससे भौगोलिक दूरियाँ सिमट जाती हैं।

वैश्वीकरण और शिक्षा (Globalization and Education)  –

वैश्वीकरण और शिक्षा आज एक दूसरे की आवश्यकता बन गए हैं जहाँ वैश्वीकरण हेतु शिक्षा की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता वहीं यह कहने में भी कोइ अतिशयोक्ति नहीं कि शिक्षा पर वैश्वीकरण का प्रभाव स्पष्ट पारिलक्षित होता है। ये दोनों आपस में एक दूसरे से इतने गुत्थमगुत्था हैं कि दोनों की एक दूसरे पर अन्योन्याश्रिता स्पष्ट महसूस की जा सकती है। इन सम्बन्धों को इन बिंदुओं द्वारा और स्पष्ट किया जा सकता है –

01 – उद्देश्य निर्धारण/Objective setting

02 – विविधता / Diversity

03 – व्यक्तिगत और सामाजिक विकास / Personal and Social Development

04 – श्रेष्ठ नागरिक निर्माण/ best citizen building

05 – संचार माध्यम का कुशल प्रयोग/Efficient use of media

06 – सांस्कृतिक उन्नयन/ Cultural upgrade

07 – जनतन्त्र अभ्युत्थान/ Democracy Resurgence

08 – स्वस्थ प्रतिस्पर्धा/ Healthy Competition

09 – समरसता वृद्धि/ Harmony Growth 

वैश्वीकरण का शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रभाव (Impact of Globalization on the Objectives of Education) –

 वर्तमान समय यह माँग कर रहा है कि वैश्वीकरण की जरूरतों को समझा जाए और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन आज की आवश्यकता है .बदलते वैश्विक परिदृश्य में जहाँ स्व के मूल्यों, मौलिकताओं, संस्कृति व रीति रिवाजों का संरक्षण आवश्यक है वहीं वक़्त के साथ कदमताल भी आवश्यक है अतः वैश्वीकरण का शिक्षा के उद्देश्यों पर पड़ने वाले प्रभावों को सतर्कता के साथ अंगीकार करना होगा या नियन्त्रित रखना होगा . वर्तमान हेतु आवश्यक उद्देश्यों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –

1 – सहअस्तित्व की स्वीकार्यता / Acceptance of coexistence

2 – वैश्विक एकता को बढ़ावा / Promoting global unity

3 – व्यापक दृष्टिकोण का विकास / Development of Broad Perspective

4 – स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक भावना का विकास / Development of healthy competitive spirit

5 – आधुनिकता का समावेशन / Absorption of modernity

6 – व्यावसायिक कुशलता को महत्त्व / Importance of professional skills

उक्त उद्देश्य आज के वैश्वीकरण की आवश्यकता भी हैं और मानव के संरक्षण हेतु आवश्यक भी अतः इन्हें शिक्षा को अंगीकार करना ही होगा .

वैश्वीकरण का मूल्याँकन / Evaluation of globalization –

 वर्तमान ने मानव को उस स्थल पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ प्राचीन भारतीय सह अस्तित्व व सह विकास के भाव का पोषण वैश्वीकरण के रूप में पारिलक्षित हुआ है .वैश्वीकरण के मूल्यांकन हेतु उसके लाभ व सीमांकन का विश्लेषण करना समीचीन होगा .जिसे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं .

वैश्वीकरण से लाभ / Benefits from globalization –

1 – विश्व व्यापार को बढ़ावा / boost world trade

2 – वैश्विक समस्या का समाधान / global problem solving

3 – विश्व बन्धुत्व को बढ़ावा / promotion of universal brotherhood

4 – तकनीकी सुविधाओं का विकास / development of technical facilities

5 – वैश्विक ज्ञान प्राप्ति / global knowledge acquisition

6 – राष्ट्रीय सशक्तीकरण / national empowerment

वैश्वीकरण की सीमाएं / Limitations of Globalization –

1 – अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा / unhealthy competition

2 – नैतिक मूल्य अवनमन / moral degradation

3 – राष्ट्रीय आय दुष्प्रभावित / national income affected

4 – प्रतिभा पलायन / brain drain

5 – नव शिक्षण प्रतिभा विकास में बाधक / Barriers to new teaching talent development

6 – विकासशील राष्ट्रों को क्षति / damage to developing nations

उक्त लाभों व सीमाओं को दृष्टिगत रखते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि वैश्वीकरण आज की आवश्यकता है लेकिन प्रत्येक राष्ट्र को इसे राष्ट्रोन्नयन के आलोक में देखना होगा. बिना सहअस्तित्व व परस्पर सहयोग की भावना विकसित हुए वैश्वीकरण के सात्विक लक्ष्यों की प्राप्ति दूर की कौड़ी ही सिद्ध होगी. यद्यपि इसके सकारात्मक प्रभाव अधिक पारिलक्षित होते हैं और यह उचित ही होगा कि समस्त राष्ट्र सकारात्मकता के आलोक में सामान आचार संहिता बना तत्सम्बन्धी नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करें .

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शिक्षा

प्रत्यक्षीकरण / PERCEPTION

November 2, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

प्रत्यक्षीकरण से आशय / Meaning of perception-

ज्ञानात्मक मानसिक क्रिया को प्रत्यक्षीकरण कहा जाता है इसके द्वारा ज्ञान चक्षुओं द्वारा किसी की भी उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है कुछ विचारक संवेदी उत्तेजना व परिणामी संवेदना के बीच प्रयुक्त चर को प्रत्यक्षीकरण स्वीकार करते हैं।

चैपलिन (19750) महोदय कहते हैं –

“Perception is an interviewing variable inferred from the organism’s ability to discriminate among stimuli.”  

“प्रत्यक्षीकरण एक मध्यवर्ती चर है जिसका अनुमान उत्तेजनाओं के बीच प्राणी द्वारा भेदीकरण की योग्यता से होता है।”

वास्तव में प्रत्यक्षीकरण वह है जिसका इन्द्रियों द्वारा बोध होता है इसी से एक विशेष दृष्टिकोण का निर्माण या विकास होता है और हम कोई राय को बनाते हैं।

यह स्वीकार करना भी तर्क संगत होगा कि –

प्रत्यक्षीकरण =  संवेदना + अर्थ + सोच + स्मृति 

यह परिस्तिथि का अपरोक्ष बोध कराने वाली मानसिक प्रक्रिया है इसक अर्थ संवेदनाओं के व्याख्या करने से भी लिया जा सकता है।

सामाजिक प्रत्यक्षीकरण / SOCIAL PERCEPTION –

सामाजिक प्रत्यक्षीकरण के प्रत्यय का विकास समय 1940 स्वीकारा जाता है कुछ मनोवैज्ञानिक ऐसे भी हुए जिन्होंने व्यक्ति प्रत्यक्षीकरण को ही सामाजिक प्रत्यक्षीकरण स्वीकार किया। हीडर (1958) महोदय ने कहा कि –

“We shall speak of thing perception as non social perception when we mean the perception of inanimate objects,  and of person perception when we mean the perception of another person.” 

“निर्जीव वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण को गैर सामाजिक प्रत्यक्षीकरण व व्यक्तियों के प्रत्यक्षीकरण को सामाजिक प्रत्यक्षीकरण कहते हैं।”

बैरोन व बिर्ने (1969) महोदय के अनुसार –

“Social perception is the process through which we seek to know and under land other persons.”

“सामाजिक प्रत्यक्षीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम दूसरे व्यक्ति को जानने समझने का प्रयास करते हैं।” 

 उक्त परिभाषाएं यह कहने में सक्षम हैं कि

 (A) – सामाजिक प्रत्यक्षीकरण से समाज व व्यक्ति दूसरे समाज व व्यक्ति को समझने का प्रयास करता है।

 (B) – इससे एक दूसरे के प्रति धारणा बनाने में मदद मिलती है।

 (C) – व्यक्ति स्वयं को भी उस सामाजिक परिवेश में समझने का प्रयास करता है।

प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक / Determinants of perception –

प्रत्यक्षीकरण के अन्तर्गत व्यक्ति  प्रत्यक्षीकरण, स्व प्रत्यक्षीकरण, सामाजिक प्रत्यक्षीकरण की विवेचना की जाती है। वर्तमान के विविध विद्वानों के विचार विश्लेषण के आधार पर प्रत्यक्षीकरण निर्धारकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है :-

1 – उत्तेजना कारक (Stimulus Factors) – उत्तेजना कारक से आशय उन व्यक्ति सम्बन्धी कारकों से है जिनके आधार पर एक दूसरे का विश्लेषण कर राय का निर्धारण किया जाता है। उदाहरणार्थ – एक दूसरे से होने वाला प्यार बहुत कुछ उत्तेजना कारकों पर निर्भर करता है। यह विविध निर्णयों का आधार बनाता है। उत्तेजना कारकों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है –

अशाब्दिक संकेत / Nonverbal cues – जब हम किसी को प्रत्यक्षतः देखते हैं तो इस प्रत्यक्षीकरण में सामने वाले की शरीर रचना व शील गुणों का प्रभाव प्रथम दृष्टिवा पड़ता है इसीलिये विभिन्न विद्वतजन शरीर रचना व व्यक्तित्व संगठन के बीच गहन सम्बन्धों की स्वीकारोक्ति देते हैं। देखने को मिलता है कि इस आधार पर लोग राय बना लेते हैं और निर्णय तक पहुंचते हैं लेकिन इस धारणा निर्माण की प्रक्रिया में बहुत से मध्यवर्ती चर भी सक्रिय  हो जाते हैं। क्रेशमर (Kretchmer,1925) कहते हैं –

“मोटे तथा नाटे शरीर वाले लोग सुस्त,खुशमिजाज,मिलनसार,तथा आरामतलब होते हैं। दुबले, पतले तथा  लम्बे शरीर वाले लोग सक्रिय, चिड़चिड़े, तथा क्रोधी होते हैं। सुगठित शरीर वाले लोग सामाजिक, सन्तुलित तथा फुर्तीले होते हैं।”

a – शारीरिक हावभाव व मुद्रा (Body gesture and posture) – अलग अलग संस्कृतियों के लोगों के शरीर विविध हाव भाव व मुद्रा प्रदर्शित करते हैं। जिनमें अन्तर दीख पड़ता है। यथा चुम्बन लेना, आलिङ्गन करना, हाथ मिलाना, स्पर्श करना आदि।

शरीर मुद्रा से वैर भाव, तनाव, व विभिन्न संवेगों का परिचय मिलता है विविध अध्ययनों ने भी शारीरिक मुद्राओं और उसके विभिन्न शील गुणों के बीच सम्बन्धों के प्रमाण दिए हैं।

b – मुखाकृति / Facial Expressions –

यह भी एक अशाब्दिक संकेत स्वीकार किया जाता है तथा विभिन्न विद्वानों ने इसके आधार पर भी अपना विवेचन प्रस्तुत किया है। सेकर्ड 1945 के अनुसार – काले मोटे चमड़े वाले लोगों को वैरपूर्ण, घमण्डी, बेईमान,आदि समझा जाता है।

एक अन्य अध्ययन में सेकर्ड तथा मुथार्ड 1955 के अनुसार –

मोटी त्वचा वाले व्यक्तियों को प्रायः घटिया, गँवार व असंवेदनशील समझा जाता है। ऊँची पेशानी को तीव्र बुद्धि का संकेत माना जाता है।

उक्त अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है की मुखाकृति प्रत्यक्षीकरण का एक प्रमुख कारक है।    

 c – आवाज – इसे उत्तेजना कारकों में गिना जाता है। व्यक्ति की बोल चाल व प्रभावशीलता के आधार पर बहुत से निर्णय लिए जाते हैं। बोलने की गति, लहजा, उच्चारण, तथ्य प्रस्तुतीकरण से विविध तथ्यों यथा उसका समुदाय, परिवार, संस्कार आदि का पता चलता है।

d – पहनावा व रहन सहन – अशाब्दिक प्रत्यक्षीकरण का महत्त्वपूर्ण उपागम पहनावा व रहन सहन है इसके आधार पर महिला, पुरुष, हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि को पहचाना जा सकता है। वर्दी देखकर अलग अलग सुरक्षा संवर्ग के लोगों को पहचाना जा सकता है। रहन सहन के अंदाज भी प्रत्यक्षीकरण में सहयोग करते हैं।

2 – प्रत्यक्षीकरणकर्त्ता निर्धारक / Perceiver Determinants –

यह अक्षरशः सत्य है कि प्रत्यक्षीकरण करने वाले का दृष्टिकोण तत्सम्बन्धी धारणा के गठन में महत्त्वपूर्ण है एक ही व्यक्ति किसी का भाई, किसी का पिता, किसी का बेटा, किसी का प्रेमी और किसी का पति, रूप में देखा जाता है। प्रत्यक्षीकरण की इस विभिन्नता का कारण वह व्यक्ति नहीं बल्कि प्रत्यक्षीकरण करने वाले लोग हैं। प्रत्यक्षीकरणकर्त्ता निर्धारकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।

a - संज्ञानात्मक योग्यता /Cognitive ability – 

प्रत्यक्षीकरण करने वाले की संज्ञानात्मक योग्यता का सीधा असर प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है यह सर्व विदित है की अधिक बुद्धिमान व्यक्ति का प्रत्यक्षीकरण स्तर कम बुद्धिमान व्यक्ति से अच्छा व सटीक होगा। अपनी योग्यता के कारण वह तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ धारणा निर्माण में सक्षम होगा।

b - संज्ञानात्मक प्रणाली/Cognitive system - 

व्यक्ति के व्यवहार में सैद्धान्तिक व व्यावहारिक आधार पर अंतर देखने को मिलता है एक व्यावहारिक परिक्षेत्र में रहने वाला सैद्धांतिक की तुलना में अच्छा प्रत्यक्षीकरण कर सकेगा। ऐसा बहुधा देखने को  मिलता है। व्यावहारिक क्षमता वाले व्यक्ति की संज्ञानात्मक क्षमता बढ़ जाती है इस लिए वह प्रत्यक्षीकरण व निर्णयन में अधिक सक्षम हो जाता है।

C-संज्ञानात्मक जटिलता/cognitive complexity - संज्ञानात्मक जटिलता अधिक होने पर बारीकी से और विशेष ध्यान पूर्वक प्रत्यक्षीकरण की क्रिया को अंजाम दिया जाता है। बीरी (1955) के अनुसार - 

निरीक्षक की संज्ञानात्मकता जटिलता का निश्चित प्रभाव व्यक्ति के प्रति उसके प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है।

d - उदारवाद व रूढ़िवाद/Liberalism and conservatism- 
यह दोनों ही प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करते हैं। ये दोनों ही हठधर्मिता को प्रश्रय देते हैं इससे सही प्रत्यक्षीकरण मुश्किल हो जाता है,
चैपलिन (1975) के अनुसार -

उदारवादी व्यक्ति की अपेक्षा रूढ़िवादी व्यक्ति के निर्णय पर पुराने मूल्यों तथा परम्परावादी उन्मुखता का प्रभाव अधिक देखा जाता है।

मैक क्लोस्की(1958)  ने अपने अध्ययन के परिणाम स्वरुप पाया कि –

रूढ़िवादी लोग अपने प्रत्यक्षीकरण व निर्णय में दृढ़, असहनशील, अटल, तथा जिद्दी होते हैं।

e – पूर्व धारणा / Prejudice–

कोई भी पूर्व धारणा प्रत्यक्षीकरण पर अनुकूल प्रभाव नहीं डालती। प्रजातीय, धार्मिक, जातिगत, यौन, सम्प्रदायगत पूर्व धारणाएं निष्पक्ष प्रत्यक्षीकरण की बाधा बनती हैं। यह  बाधा प्रत्यक्ष भी हो सकती है और अपत्यक्ष भी। हम अपने समुदाय, वर्ग, धर्म, जाति का जो प्रत्यक्षीकरण करते हैं वैसा दूसरे समुदाय,वर्ग, धर्म, जाति  का नहीं अर्थात पूर्व धारणा का प्रभाव प्रत्यक्षीकरण पर स्पष्ट रूप से पड़ता है।

f – यौन भिन्नता / Sex difference –

दैनिक जीवन के विविध अनुभवों व विविध अध्ययन ये स्पष्ट करते हैं कि प्रत्यक्षीकरण पर यौन भिन्नता का प्रभाव दृष्टिगत होता है। कभी इस आधार पर निर्णय में देरी होती है मैं 28 अक्टूबर 2022 को दैनिक जागरण, मुरादाबाद  की एक खबर की और आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा जिसमें कहा गया कि –

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने एक ऐतिहासिक कदम  उठाते हुए महिला और पुरुष क्रिकेटरों को सामान मैच फीस देने का फैसला किया है। बीसीसीआइ सचिव जय शाह ने यह घोषणा की।

g – आयु /Age – विविध अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि आयु का प्रभाव प्रत्यक्षीकरण पर पड़ता है अधिक आयु के व्यक्ति की मनोवृत्ति, आवश्यकता, आकांक्षा, सपने और युवा आयु की सोच और प्रत्यक्षीकरण में अंतर स्वाभाविक है। परिपक्वता, बुद्धिमत्ता, अनुभव जो आयु बढ़ने के साथ मिलते हैं प्रत्यक्षीकरण पर प्रभाव डालते हैं। कई अध्ययन इस बात को प्रमाणित करते हैं कि कम उम्र की अपेक्षा अधिक उम्र के लोग मानवजातीय पूर्वधारणाओं पक्षपातों से अधिक पीड़ित होते हैं।

इसके अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे कारक हैं जो प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करते हैं इस पर स्थान, समय, सत्ता सभी का प्रभाव पारिलक्षित होता है। यह संस्कृति, संस्कार, परिवेश, चिन्तन आदि कारकों से भी प्रभावित होता है। यह व्यक्ति व्यक्ति व सामाजिक भिन्नताओं में भी अलग अलग होता है।

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शिक्षा

EDUCATION IN VEDIC PERIOD

October 28, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


वैदिक काल में शिक्षा

वैदिक शिक्षा से आशय / Meaning of Vedic education

वैदिक शिक्षा से आशय उस शिक्षा से है जो मानव का सर्वाङ्गीण विकास कर सके और वह जीवन का परम लक्ष्य धर्म के मार्ग पर चलकर प्राप्त कर सके। इन अर्थों को समाहित करते हुए अल्तेकर महोदय कहते हैं –

“Education was regarded as a source of illumination and power which transforms and ennobles our nature by the progressive and harmonious development of our physical mental, intellectual and spiritual powers and faculties.”

A.S.Altekar : Education in Ancient India, 1973.p.8

“शिक्षा को ज्ञान प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता था जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का उत्तरोत्तर और सामंजस्य्पूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित और उत्कृष्ट बनाती है।”

यह शिक्षा मूलतः वेदों पर आधारित थी और आध्यात्मिक अलख जगाने वाली अर्थात अन्तर्ज्योति के जागरण व आध्यात्मिक पथ को आलोकित  वाली थी। वेद में शिक्षा का प्रयोग विद्या, बोध, ज्ञान, विनय आदि के लिए किया गया है। इसी लिए कहा था कि

  -“ज्ञानं मनुजस्य तृतीय नेत्रं ”

लेकिन सायण महोदय ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में पृष्ठ 49 पर लिखा है –

“जो स्वर, वर्ण, मात्रा, आदि के उच्चारण  – प्रकार का उपदेश दे, शिक्षा दे वही शिक्षा है।”

वैदिक कालीन शिक्षा के उद्देश्य / Objectives of Vedic period education

वैदिक कालीन शिक्षा में मानव मूल्य उसे इह लौकिक और पार लौकिक ज्ञान प्राप्ति का निर्देश देते थे पर पारलौकिक अर्थात परा विद्या को अधिक महत्तव प्रदान किया जाता था।

1 – नैतिक उन्नयन / moral elevation

2 – चारित्रिक विकास / Character development

3 – आध्यात्मिक मानसिक उत्थान / Spiritual upliftment

4 – व्यक्तित्व का विकास / Personality development

5 – राष्ट्रीय संस्कृति संरक्षण व प्रसार / National Culture Preservation and Dissemination

6 – मोक्ष की प्राप्ति / Attainment of salvation

उक्त विविध तथ्यों को ध्यान में रखते हुए अल्तेकर महोदय कहते हैं –

“Infusion of a spirit of pity and religiousness, formation of character, development of personality, inculcation of civic and social duties promotion of social efficiency and preservation and spread of national culture may be described as the chief aims and ideals of ancient Indian Education.”

“प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों व आदर्शों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है -ईश्वर भक्ति की भावना का एवम धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण, व्यक्तित्व का विकास,सामाजिक कर्त्तव्यों को समझाना, सामाजिक कुशलता की उन्नति व संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार ।”

शिक्षा व्यवस्था /  Organization of education –

वैदिक कालीन शिक्षा व्यवस्था को समझने हेतु इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –

1 – विद्यारम्भ संस्कार / Vidyarambha Sanskar

2 – उपनयन संस्कार / Upanayana ceremony

3 – पाठ्यक्रम / Syllabus

4 – शिक्षण विधि / Teaching Method

5 – शिक्षण अवधि / Teaching period

6 – संस्थान का अध्ययन समय / Institute study time

7 – अवकाश व शिक्षणसत्र / Vacation and academic session

8 – शिक्षण शुल्क व आर्थिक व्यवस्था / Tuition fee and financial system

9 – परीक्षा तथा उपाधियाँ / Exams and degrees

10 – समावर्तन संस्कार / Samavartan Sanskaar

विविध शिक्षाएं / Miscellaneous teachings –

सैन्य शिक्षा

व्यावसायिक शिक्षा

पुरोहितीय शिक्षा

महिला शिक्षा

कला कौशल की शिक्षा

आयुर्वेद की शिक्षा

पशु चिकित्सा

शिक्षण संस्थाओं के विविध रूप / Various forms of educational institutions –

1 – गुरुकुल

2 – ऋषि आश्रम

3 – चरण

4 – परिषद्

5 – सम्मेलन

6 – परिब्राजक उपदेश

प्रमुख शिक्षा केन्द्र /  Major Educational Center –

वैदिक कालीन शिक्षा के केन्द्र सम्पूर्ण भारत में फैले थे दक्षिण भारत में माल खण्ड, तन्जौर, कल्याणी, उत्तर भारत में मिथिला, कन्नौज, धार, तक्षशिला प्रमुख शिक्षा केंद्र थे। कर्नाटक, काञ्ची, काशी, और नासिक में भी शिक्षण कार्य होता था।

वैदिक कालीन शिक्षा का मूल्याङ्कन / Evaluation of Vedic period education –

वैदिक कालीन शिक्षा के मूल्याङ्कन हेतु इसके गुण दोषों पर दृष्टिपात करना आवश्यक होगा इसलिए पहले जानते हैं इसके गुण

वैदिक कालीन शिक्षा के गुण / Virtues of Vedic Period Education –

1 – नागरिकता के उच्च गुणों का समावेशन। Inclusion of high qualities of citizenship

इस सम्बन्ध में अल्तेकर महोदय कहते हैं –

“The success of educational system in infusing a sense of civic responsibility was also remarkable.”

“नागरिक उत्तरदायित्व की भावना अनुप्राणित करने में शिक्षा प्रणाली की सफलता भी अनूठी थी।”

2 – आध्यात्मिकता को प्रश्रय / support spirituality

3 – चारित्रिक सुगठन / Character formation

इस सम्बन्ध में अल्तेकर महोदय कहते हैं –

“There is no exaggeration and that the educational system of the country had succeeded remarkably in its ideas of raising the national character to a high level.”

“इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि देश की शिक्षा प्रणाली उच्च स्तर के राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान के अपने आदर्श में सफल रही थी।”

4 – व्यक्तित्व का विकास / Personality development

5 – गुरु शिष्य सम्बन्ध / Teacher-disciple relationship

6 – विशेषज्ञ तैयार करने में सफल / Successful in producing experts

अल्तेकर महोदय कहते हैं –

“The educational system did not aim to act imparting a general knowledge of a number of subjects; its ideal was to train experts in different branches.”

“अनेक विषयों का सामान्य ज्ञान देने के कार्य का लक्ष्य इस शिक्षा प्रणाली का नहीं था। इसका आदर्श विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञ तैयार करना था।”

7 – साहित्य व संस्कृति के संरक्षण व प्रसार में सफल / Successful in the preservation and dissemination of literature and culture –

अल्तेकर महोदय का कहना है –

“The ancient Indian system of education has been eminently successful in its aim of the preservation of ancient literary and cultural heritage.”

“प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली प्राचीन साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के अपने उद्देश्य में विशेष सफल रही।”

वैदिक कालीन शिक्षा की सीमाएं / Limitations of Vedic Period Education –

निम्न सीमाएं वैदिक कालीन शिक्षा में दृष्टिगत होती हैं –

1 – धर्म पर अधिक बल / More emphasis on religion

2 – लौकिक विज्ञानों की उपेक्षा। Neglect of cosmic sciences

अल्तेकर महोदय ने कहा –

“Secular sciences like history, economics, politics, mathematics, and astronomy did not receive as much attention as theology, philosophy, ritualism, and sacred law.”

“लौकिक विज्ञानों जैसे इतिहास, अर्थ शास्त्र,राजनीति, गणित और ज्योतिष इतना ध्यान नहीं पा सके थे जितना धर्म शास्त्र, दर्शन, कर्मकाण्ड वाद, और पवित्र कानून। ”

3 – साधारण जनता की प्रगति में असमर्थ / Incapable of progress of the general public

4 – लोक भाषाओँ के प्रति उदासीन / Indifferent to folk languages

अल्तेकर महोदय ने कहा –

“Hindu educational system was unable to promote the education of the masses, probably because of its concentration on sanskrit and the neglect of vernaculars.”

“सम्भवतः हिन्दू शिक्षा प्रणाली जनसाधारण की शिक्षा की उन्नति करने में असमर्थ रही क्योंकि इसका लोक भाषाओँ की उपेक्षा और संस्कृत भाषा पर ध्यान केन्द्रित था।”

5 – नारी शिक्षा की अवहेलना / Disregard for women’s education 

6 – शूद्र शिक्षा की उपेक्षा / neglect of shudra education

एफ ई केई महोदय कहते हैं –

“The Brahmnik educational system become stereotyped and formal and unable to the needs of a progressive civilization.”

“ब्राह्मणीय शिक्षा प्रणाली रूढ़िगत एवं औपचारिक हो गई थी और प्रगतिशील सभ्यता की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असमर्थ थी।”

उक्त विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि तत्कालीन परिस्थितियों के दृष्टिकोण से वैदिक कालीन शिक्षा सर्वोत्तम शिक्षा व्यवस्था थी इसने शिक्षा के क्षेत्र में महान विदुषी महिलाओं व महान विचारकों व शोध पिपासुओं को जन्म दिया तथा उस ज्ञान ज्योति को और अधिक जाज्वल्यमान करने में योगदान दिया इसीलिये एफ ई केई महोदय को लिखना पड़ा कि –

“Not only did the brahman educators develop a system of education which survived the crumbling of empires and changes of society but they also, through all those thousands years, kept aglow the torch of higher learning.” 

“ब्राह्मण शिक्षकों ने एक शिक्षा प्रणाली को केवल विकसित ही नहीं किया जो साम्राज्यों के पतन समाज के परिवर्तनों में जीवित रही वरन उन्होंने हजारों वर्षों तक उच्च शिक्षा की ज्योति को प्रज्ज्वलित रखा।”

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शिक्षा

गम्भीरता (Seriousness)

October 16, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जब गम्भीरता पर विचार करते हैं तब कई शब्द मानस से टकराते हैं जिन्हे इसके आशय के आसपास स्वीकारा जाता है। जैसे अचञ्चलता, गम्भीर होने का भाव, गहनता, गाम्भीर्य, उदात्तता, गहराई, चिन्तनशीलता, सोच विचार का भाव, सन्जीदगी, स्थिरचित्त, स्थिर मनस्कता, उद्वेगहीनता, शान्त चित्तता, अचपलता आदि आंग्ल भाषा के भी कुछ शब्द जेहन में आते हैं जैसे Grimness, Sobriety, Solemnity, Seriousness आदि।

लेकिन सारे शब्दों पर उदारता पूर्ण विचार करने और वाक्यों में प्रयोग करने पर यह स्पष्ट भान होता है कि कोई शब्द दूसरे का वास्तविक पर्याय नहीं हो सकता।

गम्भीरता से आशय (Seriously intended)

      आज गम्भीरता  स्वविवेक बुद्धि  के अनुसार विविध तरीके से व्याख्यायित किया जाता है एक व्यक्ति अपने जीवन काल के अलग अलग खण्डों में इसका अलग अलग अर्थ व्याख्यायित करता है।

    यहां मेरे द्वारा भी अपने बुद्धि विवेक द्वारा इसे जैसा समझा है देने का प्रयास है आपका मत भिन्न हो सकता है उसे आप कमेण्ट में देकर दिशाबोध करा सकते हैं। हम मानते हैं कि ज्ञान अनन्तिम होता है।

साधारणतः कम बोलने वाला, शान्त चित्त, उच्च विवेक स्थिति के कारण सुख दुःख में समभाव रखने वाला अन्तर्मुखी व्यक्ति गम्भीर की श्रेणी में आता है और यही गुण गम्भीरता कहलाता है।

यह स्थिर प्रज्ञता के अधिक निकट है गम्भीरता में हमारा समर्पण श्रेष्ठ ज्ञान के प्रति है श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 54 वें  श्लोक में अर्जुन का प्रश्न और  55  वें में केशव के समाधान से हम अर्थ के नज़दीक पहुँचते हैं। अर्जुन कहते हैं –

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव |

स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥54॥

हे  केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?

भगवन कहते हैं –

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |

आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते || 55||

हे अर्जुन, जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है उस काल में वह स्थिरप्रज्ञ कहा जाता है।

व्यक्ति स्व स्वरुप में स्थिर रहकर स्वाभाविक गाम्भीर्य प्राप्त करता है। अष्टावक्र गीता के ग्यारहवें प्रकरण में अष्टावक्र जी कहते हैं –

यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा।

मत्वेति हेलया किञ्चित् मा गृहाण विमु़ञ्च मा ।।8.4।

जब तुच्छ पदार्थों से संयुक्त अहंकार नहीं रहता, तभी मुक्ति होती है और बन्धन तब होता है जब तुच्छ अहंकार मन में विकास करे ऐसा मानकर अपनी इच्छा से न कुछ ग्रहण करो और न ही कुछ छोड़ो।

अतः यह स्पष्ट भान होता है कि गम्भीरता श्रेष्ठ ज्ञान लब्धि के बाद का स्वाभाविक स्वभाव है यह कहाँ, कब, किससे कितना विनिमय व क्या यथोचित  करना है का संज्ञान कराता है। चिन्तनशीलता को समाधान तक पहुँचाता है।

गम्भीरता क्या नहीं है ? (What is not seriousness?)

वर्तमान में कठिन प्रतिस्पर्धा व अस्तित्व रक्षा प्रबल आवश्यक कर्मक्षेत्र बनकर उभरे हैं और इस क्रम में मूल्य ह्रास के भी नए प्रतिमान गढ़े गए हैं और गम्भीरता के सम्बन्ध में कुछ मिथ्या धारणाएं बनी हैं। असल में निम्न परिक्षेत्र गम्भीरता नहीं स्वीकारे जाएंगे।

1 – अज्ञान के कारण शान्त स्थिति गम्भीरता नहीं है।

2 – समस्या से भागकर निष्क्रिय होना गम्भीरता नहीं है।

3 – रूढ़ता गम्भीरता नहीं है।

4 – मौन को प्रत्येक प्रश्न का समाधान मानना गम्भीरता नहीं है।

5 – प्रभावी क्रोध व दुराग्रह गम्भीरता नहीं है।

6 – समभाव से विरक्ति गम्भीरता नहीं है।

7 – स्वाभाविक उथलापन गम्भीरता नहीं है।

8 – प्रदर्शनकारी चिन्तनशीलता गम्भीरता नहीं है।

वस्तुतः बहुत सी भ्रान्तियाँ दिग्भ्रमित कर हमें गम्भीरता का वाह्य मुखौटा दिखाती हैं। हमें सजगता से सार्थक गाम्भीर्य का अवलोकन करना होगा।

 गम्भीरता के आधारभूत तत्व (fundamentals of seriousness) –

स्वभाव में गम्भीरता स्वतः आ जाती है किसी के कहने से नहीं स्व में डूबने से, मैं केवल शरीर नहीं के भाव से और हमारे चिन्तन की तीव्रता हमें कब गम्भीर कर देती है पता भी नहीं चलता। हमसे पहले अन्य को इसका अहसास पहले होता है। कुछ कारक भी इसके लिए उत्तरदाई हैं यथा –

1 – यथार्थ स्थिति परिस्थिति

2 – क्षमता आधारित

3 – अद्यतन अर्जित ज्ञान से प्रभावित

4 – विवेक व विश्लेषण शक्ति आधारित

5 – अनुभव आश्रित

गम्भीरता के लाभ (Benefits of seriousness) –

व्यवहार के गम्भीर होने पर स्वतः कुछ लाभ होने लगते हैं यथा

1 – ऊर्जा का समुचित प्रयोग

2 – भटकाव पर नियन्त्रण

3 – दिशाबोध जागृति में अहम्

4 – अनुभूति जागरण

5 – सम्यक ज्ञान प्राप्ति में सहयोगी

यहाँ यह कहना सामयिक होगा की हमारे पास गाम्म्भीर्य युक्त पूर्वजों की एक लम्बी श्रृंखला है विदेह जनक, याज्ञवल्क्य, प्रसिद्द विद्वान् की विदुषी धर्मपत्नी भारती, विद्योत्तमा, प्रभु श्री राम, युधिष्ठर, केशव, कर्ण, महर्षि पाणिनि और वर्तमान उद्यमी,वैज्ञानिक, चिन्तक आदि।

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शिक्षा

Personality Development

October 11, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

व्यक्तित्व विकास 

व्यक्तित्व विकास में मानव का सम्पूर्ण परिकलन छिपा है यह एक दिन में नहीं गढ़ा जा सकता। मानव व्यक्तित्व परिमार्जन उसकी निरन्तर विकास यात्रा का परिणाम है। स्वभाव की चन्द विमाएँ न तो इसका प्रतिनिधित्व कर सकती हैं न स्वयं का आकलन सर्वश्रेष्ठ निर्णय हो सकता है । दुनिया दीर्घकाल में आपको बार बार परख कर आपके व्यक्तित्व पर दृढ विश्वास जमाती है। व्यक्तित्व को दिशा देने वाली पिताश्री के मुख से सुनीं चन्द पंक्तियाँ जेहन में आ रही हैं, जो याद आता है आपकी झोली में रखता हूँ –

 आदमी वह है जो मुसीबत में परेशान न हो

कोई मुश्किल नहीं ऐसी है जो आसान न हो

यह है दुनियाँ यहाँ दिन ढलते ही शाम आती है

सुबह हर रोज लेकर नया पैगाम आती है

यह हमेशा से है इस दौर औ दुनियाँ का चलन

चाँद सूरज को भी लग जाता है इक रोज ग्रहण

जानी बूझी हुई बातों से अनजान न हो

आदमी वह है जो मुसीबत में परेशान न हो .

आज जो कहने जा रहा हूँ, वह बहुत सामान्य है और आपको लगेगा कि आपको पता था यह थोड़ा सा परिवर्तन जीवन का परिवर्तक बिन्दु भी हो सकता है हम सँवर सकते हैं बात किताबी नहीं है बल्कि अनुभव के खजाने के कुछ विचार हैं मुझे लगता है ये व्यक्तित्व को सही आयाम देने में अवश्य सक्षम होंगे .

व्यक्तित्व विकास के आठ उपाय  / Eight tips of personality development –

1 – स्वयम् से प्यार / Love yourself

2 – परिधान /Apparel

3 – सद् सङ्गति / Good fellowship

4 – धैर्य व जोश का समागम / Patience and passion

5 – अद्यतन जानकारी / updated information

6 – सम्प्रेषण कौशल / communication skills

7 – मुस्कराहट का सम्यक प्रयोग / use of smile

8 – व्यापक दृष्टिकोण अभ्युदय / Comprehensive outlook

1 – स्वयम् से प्यार / Love yourself –

सृष्टि ने मानव शरीर के रूप में अद्भुत देन हमें दी है साथ दिया है विचार विश्लेषण में सक्षम मानस। हम विचार सकते हैं कि यह शरीर वह आलम्ब है जो जीवन पर्यन्त कर्म करेगा। अतः इसको व्यवस्थित रखना हमारा परम दायित्व है प्राणायाम, व्यायाम, योगासन, मालिश आदि के द्वारा इसे दीर्घ काल तक सक्षम, सुडौल, सुन्दर, आकर्षक रखा जा सकता है तो फिर क्यों न हम इश्वर प्रदत्त का सर्वोत्तम उपयोग उक्त रूप में करें। स्वयम् से प्यार के प्रतिफल में  चुस्ती, फुर्ती, सक्षमता, के रूप में आकर्षक व्यक्तित्व आपको प्राप्त होगा।

2 – परिधान /Apparel –

अपनी विकास यात्रा के प्रारम्भिक काल में परिधान की आवश्यकता व शक्ति को हमने पहचान लिया था इसीलिये पेड़ की पत्तियाँ, छालें, विभिन्न पशु चर्म के उपयोग से आगे बढ़कर आज के आकर्षक परिधानों तक की यात्रा हमने पूर्ण की है। आज विभिन्न आकार, प्रकार, का आकर्षक रंगों में परिधान उपलब्ध हैं। हमें अपनी कद, काठी, मर्यादा, क्षमता, समय  ध्यान में रखकर अपने अनुरूप चरण से शीर्ष तक परिधान चयनित करने चाहिए। सही चयन आपके व्यक्तित्व को और आकर्षक बना देगा।

3 – सद् सङ्गति / Good fellowship –

यह बहुत बड़े आयाम को अपने अन्दर समेटे है और इसीलिये यह हमें अंदर  बाहर दोनों परिक्षेत्रों में सुदर्शनीय स्थिति में लाती है यह सङ्गति अच्छे आवश्यक साहित्य, अच्छे विचार, सार्थक व्यक्तित्वों, दिशा बोधक वर्तमान व पुरातन प्रेरक प्रसंगों की भी हो सकती है। हमारे यहां के चित्र उपस्थिति सामग्री सभी हमारे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालते हैं इसलिए बहुत सावधानी पूर्वक जिन्दगी बितानी चाहिए। याद रखें सद् सङ्गति प्रवृत्तियों को संयमित रखती है और हमारे आचरण व चरित्र का उच्चीकरण करती है और इसी पुनीत भाव से जुडी कुछ पंक्तियाँ आभार सहित प्रस्तुत करता हूँ किसी विशिष्ट व्यक्तित्व की –

श्वाँस खींचने से पूर्व ठीक से विचार लो, कि;

श्वाँस धारने की कौन नीति होनी चाहिए,

मान या गुमान, अभिमान का विधान हो या;

कर्म में मनुष्यता प्रतीत होनी चाहिए,

काँच के खिलौने  सी छुई मुई जिन्दगानी,

बड़ी सावधानी से व्यतीत होनी चाहिए,

और;भूल करना तो स्वभाव है मनुष्य का

पर मूल में तो भावना पुनीत होनी चाहिए।

उक्त सब कुछ सम्भव होगा यदि हम सद् सङ्गति में होंगे।

4 – धैर्य व जोश का समागम / Patience and passion –

याद रखें हमारे दो प्रमुख शत्रु आलस्य और अधैर्य हमें चतुरता पूर्वक गिरफ्त में ले लेते हैं और अच्छा खासा व्यक्तित्व बेचारे की श्रेणी में जा कर खड़ा हो जाता है। होश के साथ जोश हो तो सोने पर सुहागा है। वरना यही कहोगे की वो तो अभागा है। असल में धैर्य वह आलम्ब है जो हमको यथोचित व्यवहार सिखाता है और हम सफलता की सीढ़ियां अपने सही निर्णय के आधार पर चढ़ते जाते हैं। याद रखें धैर्य व जोश का समागम  वह कार्य करा जाता है जिसका अनुकरण करने को दुनिया विवेश होती है।आभार सहित लेता हूँ  पँक्तियाँ जिनमें क्या खूब कहा गया है। –

है वही सूरमा इस जग में जो अपनी राह बताता है,

कोई चलता पद-चिन्हों पर, कोई पद-चिन्ह बनाता है।

मुझे लगता है की यदि  व्यक्तित्व गढ़ना है तो पद चिन्ह बनाने की अपनी सक्षमता सिद्ध करनी ही होगी।

5 – अद्यतन जानकारी / updated information-

समय के साथ चलते हुए यदि उससे आगे निकलना है तो अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी पड़ेगी। इसलिए यह परम आवश्यक है की हम अपनी जानकारी के स्तर को अद्यतन रखें। प्रत्येक समस्या  समाधान में हमारा प्रयास समाधान की ओर ले जाने वाला होना चाहिए उलझाने और लटकाने वाला नहीं। विचार विनिमय, प्रभावशाली विश्लेषण तभी सम्भव होगा जब उसकी अद्यतन जानकारी हमारे पास होगी और तभी हम अपनी या अपने व्यक्तित्व की कोइ छाप छोड़ सकेंगे। त्वरित समस्या को यदि त्वरित समाधान मिल जाए तो समस्या विकराल होने से बच जाती है और यह त्वरित संज्ञान और निदान क्षमता पर निर्भर करती है। अतः अद्यतन जानकारी परम आवश्यक है।

6 – सम्प्रेषण कौशल / Communication skills –

    यहाँ  यह समझना नितान्त आवश्यक है कि सम्प्रेषण बोलकर और लिख कर दोनों तरीके से किया जाता है और यह प्रभावी तब होता है जब यह उस भाषा में हो, जिस तक पहुँचाना है। जिस तरह संस्कृत निष्ठ बाल्मीकि रामायण का जब बाबा तुलसी ने सरल भाषा में प्रस्तुतीकरण किया तो यह सहज सम्प्रेषणीय बन गयी।

जब बुद्ध जी से पुछा गया की ज्ञान किस भाषा में सम्प्रेषित हो तब उनका जवाब था जिस भाषा में समझ में आये।

    सम्प्रेषण की कला जादू सा प्रभाव रखती है और इसमें निपुण जादुई व्यक्तित्व वाला स्वीकार किया जाता है। इन शब्दों और कहने के अन्दाज से बहुत बड़ी जान संख्या को प्रभावित किया जा सकता है। शास्त्री जी, इन्दिरा जी, विनोबाजी, विवेका नन्द जी और वर्तमान में मोदीजी इसी श्रेणी में हैं। एक ही कथा अलग अलग श्री  अलग अलग प्रभाव छोड़ती है। इसीलिये कहा जाता है सफल वक्ता सफल व्यक्तित्व। मेरा कहना हे कि –

प्रेम और सद्भाव का झरना, तब झर-झर बहता जाता,

यदि तथ्य निरूपण में हमको सम्प्रेषण कौशल आता।

7 – मुस्कुराहट का सम्यक प्रयोग / Use of smile –

     मुस्कराहट कई प्रश्नों का जवाब है, इससे कई चिन्ताओं को हवा में उड़ाने की ताक़त मिलती है यदि आपके पास बच्चों सी निस्वार्थ मुस्कान है तो समझिए आप सौभाग्यशाली हैं। मुस्कराहट इसलिए नहीं होती कि जिंदगी में खुशियाँ बहुत हैं बल्कि यह इसलिए होती है कि जिन्दगी में हार न मानने का जज्बा अधिक है। किसी ने क्या खूब कहा है कि –

बाँटो मुस्कुराहट इतनी कि

किसी आँख में पानी न हो।

जियो जिन्दगी जिन्दादिली से

जीत कभी बेमानी न हो।

विषम स्थिति में आपकी मुस्कुराहट आपके बहुत से गुणों की अभिव्यक्ति करती हैं याद रखिये रोते हुए उतने समाधान नहीं मिलते जितने सहज मुस्कान के साथ मिलते हैं। आपकी मुस्कराहट आपके व्यक्तित्व में गजब का इजाफा करती है। आपक व्यक्तित्व खुशनुमा व्यक्तित्व कहलाता है। दूरदर्शन पर रामायण के राम और महाभारत के कृष्ण की मुस्कराहट से आप प्रभावित तो हुए ही होंगे जब कि यह अभिनय था। सत्य कितना प्रभावी होगा।

8 – व्यापक दृष्टिकोण अभ्युदय / Comprehensive outlook-

     वह व्यक्तित्व ज्यादा प्रभावी होता है जो जितने बड़े क्षेत्र के उत्थान में योग देता है और जो केवल अपने लिए नहीं जीता। इस संस्कृत श्लोक में कितने सहजता से यह बात कही गयी है –

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्

उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुम्बकम।

भारतीय दर्शन, अष्टाङ्ग योग इतनी क्षमता रखते हैं की यदि इनका अध्ययन किया जाए तो संकीर्ण दृष्टिकोण विकसित हो ही नहीं सकता। गीताएं, वेद, पुराण इसी क्रम में आते हैं। इसीलिए यथा सम्भव इनका अध्ययन किया जाए।  लोग आपके व्यक्तित्व के कायल हो जाएंगे।

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शिक्षा

PERSONALITY

October 8, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

व्यक्तित्व

आशय व परिभाषाएं / Meaning and Definitions –

व्यक्तित्व शब्द पुरातन काल खण्ड का एक महत्त्वपूर्ण विषयवस्तु है अथर्ववेद में सतोगुणी, रजोगुणी,और तमोगुणी व्यक्तित्वों के बारे में बताया है यह त्रिगुणी अवधारणा मानव चेतना की यात्रा के अंश हैं सत्व,स्थिरता का रज सक्रियता का तथा तम जड़त्व से सम्बद्ध है। इन्हें आगे चलकर सांख्य दर्शन ने अपनाया। श्रीमद्भगवद्गीता में व्यक्तित्व पर सारगर्भित दिशा निर्देश है। सामान्य अर्थों में व्यक्तित्व को बाहरी सौन्दर्य व सद्गुणों के समाविष्ट स्वरुप के रूप में देखा जाता है।

            पाश्चात्य दृष्टिकोण में व्यक्तित्व आंग्ल भाषा के Personality शब्द का समानार्थी है।यह शब्द लेटिन के परसोना (Persona) से विकसित हुआ जिससे आशय है नकली चेहरा या मुखौटा अर्थात उस काल में शरीर रचना, पोशाक, रंगरूप आदि वाह्यगुण व्यक्तित्व में समाहित स्वीकार किये गए।

            विभिन्न दृष्टिकोणों व मतों के कारण अलग अलग विद्वतजनों ने इसे अलग अलग तरह से पारिभाषित किया उनमें से कुछ यहां द्रष्टव्य हैं यथा –

Allport / आलपोर्ट महोदय के अनुसार

“Personality is the dynamic organisation within the individual of those psychophysical systems that determine his unique adjustment to his environment.”

“व्यक्तित्व, व्यक्ति में उन मनोदैहिक व्यवस्थाओं का संगठन है जो वातावरण के साथ उसका सुसमायोजन स्थापित करता है। ”

munn,N.L के अनुसार

“Personality may be defined as the most characteristic integration of an individual’s structures, modes of behaviour, interests attitudes, capacities, abilities, and aptitudes.”

“व्यक्तित्व एक व्यक्ति के गठन व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं और तरीकों का सबसे विशिष्ट संगठन है।” 

May and Hartshorn महोदय का मानना है कि –

“Personality is that which makes one effective and gives influence over others.”

“व्यक्तित्व, व्यक्ति का वह स्वरुप है जो उसे प्रभावशाली बनाता है और दूसरों को प्रभावित करता है। ”

  Drever महोदय इस सम्बन्ध में कहते हैं –

“Personality is a term used for the integrated and dynamic organization of the physical, mental, moral, and social qualities of the individual, as that manifests itself to other people, in the give and take social life.” 

 “व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग, व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक, और सामाजिक गुणों के सुसंगठित और गत्यात्मक संगठन के लिए किया जाता है, जिसे वह अन्य व्यक्तियों के साथ अपने सामाजिक जीवन के आदान प्रदान में व्यक्त करता है।”

व्यक्तित्व के प्रकार / Types of Personality –

व्यक्तित्व के कोई निश्चित प्रकार नहीं बताये जा सकते इसीलिये विविध विद्वानों द्वारा इन्हें अलग अलग तरह से वर्गीकृत किया गया है।सामान्यतः इन्हें निम्न तीन भागों में बाँटकर अध्ययन करेंगे –

1 – शरीर बनावट के आधार पर (Based on body composition)

2 – समाजशास्त्रीय प्रकार (Sociological type)

3 – मनोवैज्ञानिक प्रकार (Psychological type)

1 – शरीर बनावट के आधार पर (Based on body composition)–

क्रेचमर (Kretschmer) महोदय इन्हें चार भागों में बाँटा है जो इस प्रकार है –

A – मिलनसार (Pyknic) – सामान्य कद काठी के मृदुभाषी व्यक्ति मित्रता, अच्छे स्वभाव और मिलनसारिता के गुण से युक्त होते हैं  ये समाज से मिलकर चलते हैं।

B – एकान्तप्रिय (Leptosome) – ये कमजोर, शर्मीले, चुप रहने वाले, अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के होते हैं।इन्हें एकान्त पसन्द होता है।  

C – चुस्त (Athletic) – इस प्रकार के व्यक्ति का सीना चौड़ा व उभरा, कन्धे चौड़े, मजबूत माँसपेशियाँ, ताक़तवर भुजाएं, हृस्टपुष्ट स्वस्थ शरीर होता है। इन्हे चुस्त(Athletic) व्यक्तित्व वाला कहते हैं।    

D – मिश्रित (Dysplastic) -इस तरह के व्यक्ति लम्बे, चौड़े, मोटे होते हैं और इनमें ऊपर वर्णित प्रकारों का आंशिक सम्मिश्रण होता है।

2 – समाजशास्त्रीय प्रकार (Sociological type)-

स्प्रेंगर / Spranger  महोदय ने अपनी पुस्तक “Types of Men” में 6 प्रकार के व्यक्तित्व बताए हैं –

1 – वैचारिक (Theoretical) – दार्शनिक, आविष्कारक, वैज्ञानिक आदि को इसमें स्थान दिया जाता है।  

2 – आर्थिक (Economic) – ऐसे व्यक्ति धन को अधिक महत्ता प्रदान करते हैं। व्यवसायी, दुकानदार, उद्योगी आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।

3 – सौन्दर्यात्मक (Esthetic) – सौन्दर्य व कला को महत्ता प्रदान करने वाले इस श्रेणी में आते हैं। यथा चित्रकार, साहित्यकार, कलाकार आदि।

4 – धार्मिक (Religious) – ईश्वर में आस्था रखने वाले,सशक्त आध्यात्मिक पक्ष वाले लोग इसमें आते हैं जैसे संत, पुजारी, पादरी, भक्त, मुल्ला मौलवी इसके तहत आते हैं। 

5 – सामाजिक (Social) – सामाजिक हितों व सामाजिक समस्याओं से जूझने वाले लोग इसमें गिने जाते हैं जैसे विनोबाजी, गाँधीजी, नेल्सन मंडेला,दयानन्द सरस्वती आदि। 

6 – राजनैतिक (Political) – सत्ता, नियन्त्रण, प्रभुसत्ता, राज व्यवस्था के दावपेचों से उलझने वाला इस क्षेत्र में आता है जैसे नेता, मन्त्री, आदि।

3 – मनोवैज्ञानिक प्रकार (Psychological type)-

मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर जिन विद्वानों ने व्यक्तित्व का वर्ग विभाजन किया है उनमें C.G.JUNG को सर्वाधिक स्वीकार किया जाता है इनका पुस्तक “Psychological Types” दिया गया विवरण आज भी महत्ता रखता है इन्होने व्यक्तित्त्व वर्गीकरण इस प्रकार किया है –

1 – बहिर्मुखी (Extrovert) – ऐसा व्यक्तित्व बहुत सामाजिक बाहरी दुनिया से मेलजोल बढ़ाने वाला व्यक्तिगत धन या स्वास्थ्य की कम परवाह कर नई परिस्थितियों से सुसमायोजन कर लेता है। इनका आत्मविश्वास बहुत अच्छा होता है, ये विज्ञापन, भाषण कला, प्रकाशन आदि के द्वारा दूसरों को अपने अनुकूल बना लेते हैं यथा शास्त्रीजी, श्रीमति इन्दिरा गाँधी, नरेन्द्र मोदी जी, विवेकानन्द जी आदि को समझा जा सकता है।   

2 – अन्तर्मुखी (Introvert) – ये बहुधा अपनेआप में खोये रहते हैं किताबें पढ़ना, निर्धनता में खुश रहना, सामाजिक व्यवहार निर्वाहन में संकोची, स्वयं के प्रगटन से परे, शीघ्र दुःखी होने वाला, कम लोचपूर्ण दृष्टिकोण, संसार की परवाह न कर स्वपथ पर अग्रसर, कम बोलने वाला, बहिर्मुखी से अधिक कार्य क्षमता वाला होता है।      

3 – उभयमुखी (Ambivert) – ऐसे व्यक्ति किन्ही परिस्थितियों में अन्तर्मुखी व भिन्न परिस्थिति में बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले होते हैं आपने भी देखा होगा एक अच्छा लिखने वाला और बोलने वाला एकान्त में कार्य करना पसन्द करता है।

जुंग महोदय ने इस सिद्धान्त की आगे और व्याख्या की है जिससे यह बहुत बड़ा हो जाता है उसने अंतर्मुखी व बहिर्मुखी को चार चार भागों में बांटा है –

1 – विचार प्रधान (Ideological)

2 – तर्क बुद्धि प्रधान (Logic minded)

3 – भाव प्रधान (Sentimental)

4 – दिव्य दृष्टि प्रधान (Celestial vision)

        इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्तित्व को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। क्रो व क्रो ने विभिन्न दृष्टिकोणों की आलोचना  हुए कहा –

“A general criticism of such classifications is the tendency to place emphasis upon one or another phase of development and to deal with extremes rather than with the mediocrity of human nature.”

“इस प्रकार के वर्गीकरणों की एक सामान्य आलोचना यह है कि यह विकास के किसी न किसी पहलू पर बल देते हैं और सामान्य मानव स्वभाव की अपेक्षा उसके उग्र रूपों की व्याख्या करते हैं।” 

व्यक्तित्व विशेषक / Traits of Personality –

व्यक्तित्व का निर्धारण उसकी विशेषता या गुणों के आधार पर होता है। गैरट महोदय कहते हैं –

“Personality traits are distinctive ways of behaving more or less permanent for a given individual. Personality traits are neat short ways of describing the multifold aspects of behaviour.”

“व्यक्तित्व के गुण व्यवहार करने की निश्चित विधियाँ हैं जो प्रत्येक व्यक्ति में बहुत कुछ स्थाई होती हैं। व्यक्तित्व के गुण, व्यवहार के बहुसंख्यक स्वरूपों का वर्णन करने की स्पष्ट और संक्षिप्त विधियां हैं।”

व्यक्तित्व के अंगों को हम दो भागों में विभक्त कर विशेषता बता सकते हैं –

1 – प्रत्यक्ष – शारीरिक विशेषक

2 – अप्रत्यक्ष (क्रिया आधारित) – बौद्धिक, सामाजिक, संवेगात्मक,चारित्रिक व अन्य विशेषक।

उक्त विशेषक भी अपने आप में बहुत से गुण रखते हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित कर सकते हैं।

A – शारीरिक विशेषक (Physical Traits)      B – बौद्धिक विशेषक (Intellectual Traits)

                                                                             सामाजिक विशेषक (Social Traits)

                                                                              संवेगात्मक विशेषक (Emotional Traits)

                                                                              चारित्रिक विशेषक (Character Traits)

                                                                              अन्य विशेषक (Other Traits)

व्यक्तित्व के सिद्धान्त / Theories of Personality –

मनोवैज्ञानिकों हेतु यह परमावश्यक हो गया कि व्यक्तित्व का अध्ययन किया जाए लेकिन सच्चाई यह है कि एक नहीं बहुत से कारक हैं जो व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं विविध वैयक्तिक धारणाओं के आधार पर विविध सिद्धांतों का उदय हुआ है उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धांत देने का यहां प्रयास है –

मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त – यह मत सिग्मण्ड फ्रायड की देन है फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व का निर्माण इड (Id), इगो (Ego), सुपर इगो (Supar Ego) से हुआ है।

इड (Id) अचेतन मन है इसमें मूल प्रवृत्तियों व प्राकृतिक इच्छाओं का निवास है ये शीघ्र संतुष्ट होना चाहती हैं तृप्ति चाहती हैं।

इगो (Ego) चेतना बुद्धि, तर्क तथा इच्छा शक्ति है।

सुपर इगो (Supar Ego) इसका निर्माण आदर्शों से होता है।

Sigmund Freud  ने ईगो के बारे में कहा –

“Ego is the part of Id which has been modified by its proximity to the external world and the influence the later has on it and which serves the purpose of receiving stimuli and projecting the organism from them ,like the cortical layer with which a particle of living subustance surrounds itself.”

“इगो, इड का वह भाग है जो वाह्य संसार के अनुमान और संभावना से परिष्कृत होता है और उसका कालान्तर में प्रभाव भी पड़ता है, जो प्राणी को उद्दीपन करने एवं उसके इर्द गिर्द जमी परत के अंश के रूप में व्याप्त रहता है।”

Sigmund Freud  ने सुपर ईगो के बारे में कहा –

“Super Ego that expect of the ego which makes possible the processes of self observation and what is commonly called conscience.”

“सुपर ईगो, ईगो का वह पक्ष है जो आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया को सम्भव बनाता है जिसे सामान्य रूप से चेतना कहते हैं। ”

Sigmund Freud महोदय का मानना है कि मानव के व्यक्तित्व का निर्माण इन्हीं तत्वों से मिलकर होता है जो विभिन्न रूप में परिलक्षित होते हैं। 

रचना (Constitution) सिद्धान्त –

इस विचार धारा के प्रतिपादक शैलडॉन / SHELDON महोदय हैं इन्होने व्यक्तित्व के प्राथमिक आधारों की संख्या तीन बताई है –

1 – गोलाकृति (Endomorphy) – इस तरह के लोगों का व्यक्तित्व अलग तरह से परिलक्षित होता है इस व्यक्तित्व के मनुष्य गोल गर्दन, माँस पेशियों का पूर्ण विकसित न होना, चर्बी की वृद्धि आदि गुणों से युक्त होते हैं। 

2 – आयताकृति (Mesomorphy) – इस तरह के व्यक्तित्व में मुख्यतः माँस पेशियों व हड्डियों का विकास परिलक्षित होता है।

3 – लम्बाकृति (Ectomorphy) – इस तरह के व्यक्तित्वों में केंद्रीय स्नायु संस्थान के माँस पेशी तन्तु विकसित होते हैं।

    इस मत के अनुसार मूलतः यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि इसमें शरीर के विभिन्न अंगों को व्यक्तित्व निर्माण का आधार माना जाता है।

प्रतिकारक (Factorial) प्रणाली सिद्धान्त –

इस मत का प्रतिपादन आर ० बी ० कैटल (R. B. Cattell) महोदय द्वारा किया गया। इन्होने बताया मानव चरित्र अनेक कारकों से युक्त होता है इनके अनुसार निम्न तथ्य प्रतिकारक चरित्र का निर्माण करते हैं –

चरित्र की सुन्दरता (Fitness of Character)

सामाजिकता (Sociability)

भावात्मक एकता (Emotional Integration)

कल्पनाशीलता (Imagination)

अभिप्रेरक (Motivator)

उत्सुकता (curiosity)

लापरवाही (Negligence)

उक्त आधारों पर कैटल महोदय ने कहा –

“Personality is, that permits a prediction of what a person will do in a given situation.”

“व्यक्तित्व वह है जो किसी विशेष परिस्थिति में जो कार्य करता है उसका प्रतिरूप ही व्यक्तित्व है। ”

ऑलपोर्ट (Allport) का सिद्धान्त –

व्यक्तित्व के सम्बन्ध में गोर्डन डब्ल्यू ऑलपोर्ट (Gordon W. Allport) का सिद्धान्त वंशक्रम वातावरण वैयक्तिक भेद पर अवलम्बित है इन्होने वंशक्रम के द्वारा निर्धारित व्यक्तित्व के जटिल मिश्रण के प्रति न्याय करने ,सामाजिक,स्वाभाविक तथा मनोवैज्ञानिक कारणों के प्रति न्याय करने को कहा है। तथा साथ में विभिन्न सम्प्रदायों तथा व्यक्तित्वों की नवीनता को भी मान्यता देनी चाही है। इन्होने स्पष्टतः स्वीकार किया की प्रवृत्तियों,विशेषताओं तथा वातावरण के प्रति समायोजन से व्यक्तित्व का गठन होता है।

            उक्त सिद्धांतों के अतिरिक्त भी विविध सिद्धांत भी अपनी धमक रखते हैं।  व्यक्तित्व के सिद्धान्तों में विविध दृष्टिकोणों का समावेशन करने पर इसका विशेष वृहत प्रखण्ड प्रस्तुत किया जा सकता है लेकिन इसे यहीं विराम दिया गया है।

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