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दर्शन

J. Krishnamurti 

August 13, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


जिड्डू कृष्णमूर्ति (1895 -1986 )

आधुनिक युग का वह पुरोधा जिसे हम श्रेष्ठ दार्शनिक, चिन्तक, शिक्षा शास्त्री के रूप में स्वीकारते हैं। इनके क्रान्तिकारी विचारों ने मानवता की दिशा निर्धारण का गम्भीर प्रयास किया मानव को विविध संकीर्णताओं से ऊपर उठा यथार्थ ज्ञान दर्शन का साक्षात्कार कराया और तत्कालीन मानवता को सरल दिशा बोध का सम्यक प्रयास किया।

जीवन की विसंगतियों से जूझते हुए ये थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा डॉ ० एनी बेसेन्ट के सम्पर्क में आये इनकी प्रतिभा को पहचान कर उन्होंने इनकी शिक्षा दीक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया और उच्च शिक्षा की प्राप्ति हेतु इंग्लैण्ड भेजा। जब इन्हे 1922 में अध्यात्म की अनुभूति हुयी तभी से इनके जीवन की दिशा मानव कल्याणार्थ चिन्तन के धरातल पर उतरी। मानव को दुखों से छुटकारा दिलाने का मार्ग तलाशना ही जीवन का उद्देश्य हो गया।

इन्होंने बौद्धिक वर्ग के बीच अपनी बात रखने के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड, भारत, हालेण्ड  में व्याख्यान दिए। इनके विचारों में प्यार (Love) पर विशेष ध्यान देने की ओर ध्यानाकर्षण किया गया। इन्होने कहा –

“यदि आपके हृदय में प्यार है तो फिर किसी ईश्वर को तलाश करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि प्यार ही ईश्वर है।”

प्यार हेतु ये आत्म ज्ञान और आत्म शोध को आवश्यक तत्व स्वीकारते हैं।

शैक्षिक चिन्तन (Educational thinking)-                                                       

इन्होंने अपने विचारों के प्रसार हेतु व्याख्यान, पुस्तक लेखन, व्याख्यान संग्रह प्रकाशन आदि को माध्यम बनाया आज इनकी कैसेट्स भी उपलब्ध है इनका मूल कार्य अंग्रेजी में है लेकिन आज विविध भारतीय भाषाओँ में इनका अनुवाद हो चुका है। हिन्दी  में अनुवादित कुछ रचनाओं को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –

संस्कृति का प्रश्न,स्कूलों के नाम पत्र, हिंसा से परे, ज्ञान से मुक्ति, जीवन की पुस्तक,प्रथम एवं अंतिम मुक्ति,जो मनुष्य कुछ नहीं है वह सुखी है, ध्यान, आनन्द की खोज,दिमाग ही दुश्मन है?, ईश्वर क्या है?, प्रेम क्या है?,  मन क्या है?, शिक्षा क्या है?, जीवन और मृत्यु, सत्य और यथार्थ, सोच क्या है? आदि ।

शिक्षा से आशय /Meaning of education -

इनके द्वारा  स्थापित संस्था ‘कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन’ आज भी इनके विचारों के क्रियान्वयन कर रही है  इनके लेखन व विचारों से शिक्षा की प्रभाव शीलता स्पष्ट होती है इन्होने कहा –

“शिक्षा द्वारा ही मनुष्य को जीवन का सही अर्थ समझाया जा सकता है और शिक्षा द्वारा ही उसको गलत रास्ते से सही रास्ते पर लाया जा सकता है।”

इनका मानना हे कि शिक्षा  विश्व को वस्तुगत रूप से देखना सिखाती है इसीलिये जे ० कृष्णमूर्ति  महोदय स्पष्ट रूप से कहते हैं –

“शिक्षा का कार्य तुम्हें एक पूर्णतया मित्र बुद्धिमत्ता पूर्ण तरीके से संसार का सामना करने में सहायता करना है।”

“The function of education is to help you to face the world in a totally different intelligent way.”

अर्थोपार्जन को यह मात्र एक पक्ष के रूप में स्वीकारते हैं और रटना, डिग्री प्राप्त करना, परीक्षा पास करना आदि को शिक्षा नहीं मानते ये कहते हैं –

“अन्तः मन का ज्ञान ही शिक्षा है।”

शिक्षा के उद्देश्य /Aims of education –
बहुत से विद्वानों से भिन्न मत रखते हुए जे ० कृष्ण मूर्ति महोदय कहते हैं -
"To be really educated means not to confirm, not to imitate, not to do what millions and millions are doing.  If you feel like doing that,  do it, but be awake to what you are doing.''
"वास्तविक रूप से शिक्षित होने का अर्थ करोड़ों जो कर रहे हैं उससे अनुरूपता, उसका अनुसरण, उसे करना नहीं है। यदि तुम वह करना चाहते हो तो करो? परन्तु जो कुछ तुम कर रहे हो उसके प्रति जागरूक रहो। ''
 जे ० कृष्ण मूर्ति एकीकृत मानव, समग्र या सम्पूर्ण मानव के प्रगटन हेतु शिक्षा को एक आवश्यक कारक के रूप में स्वीकार करते हैं और इसकी प्राप्ति हेतु शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य इनके विचारों द्वारा स्पष्ट होने लगते हैं जिन्हे हम इस प्रकार क्रम दे सकते हैं -
1 - आत्म ज्ञान का उद्देश्य/ Purpose of self-knowledge - 

इनका मानना है कि प्रत्येक मानव स्वयं को जानने का प्रयास करे इनका अपने को जाने से आशय चेतन आत्म तत्व को जानने से नहीं है बल्कि ये चाहते हैं  कि शिक्षा यह जानने में मदद करे कि हम क्षण क्षण क्या हैं अर्थात विभिन्न क्षणों में हम क्या सोचते, विचार करते, अनुभव करते हैं हमें उसे जानने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा न हो कि जिस धर्म का उद्भव मानव से हुआ है वह उसका गुलाम बनकर न रह जाए।

2 - सृजन शीलता का विकास/ Development of creativity - 

इससे इनका  आशय शरीर, आत्मा, मन तीनों की सृजनशीलता से है। विद्यार्थियों को स्वतंत्र निर्णयन के अवसर प्रदान किये जाएँ इनके ऊपर अपने विचार थोपने का प्रयास न किया जाए। यह भयमुक्त वातावरण सृजनशीलता की वास्तविक पृष्ठ भूमि तैयार करेगा।

3 - वर्तमान महत्त्वपूर्ण/ Importance of Present time -  

ये कहते हैं कि काल की सत्ता नहीं है और शुद्ध चेतना मात्र का अस्तित्व है। हमारे जीवन का वर्तमान क्षण ही प्रिय अप्रिय भूत या भविष्य से सम्बन्ध रखने वाला हो सकता है इसीलिये ये जीवन में वर्तमान को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। अतः शिक्षा वर्तमान में जीना सिखाये।

4 - विज्ञान का यथोचित समावेशन /Reasonable inclusion of science- 

ये विज्ञान व तकनीकी के विरोधी नहीं थे इनका मानना था की विज्ञान को मानव के विकास का सहयोगी होना चाहिए। ये विज्ञान के सम्यक प्रयोग द्वारा मानव मात्र का कल्याण करना चाहते थे।विज्ञान व तकनीकी को कोई ऐसा कार्य सम्पादित नहीं करना चाहिए जो मानवता विरोधी हो।मानव मात्र के कल्याणार्थ अध्यात्म और विज्ञान का यथायोग्य सम्मिलन भी होना चाहिए।

5 - संवेदनशीलता में वृद्धि /Increased sensitivity-

इनका मानना था कि बालकों को प्रतिस्पर्धा और भय मुक्त वातावरण मिले अनुशासन के साथ संवेदनशीलता का गन अपरिहार्य है। बच्चों में प्रेम का ऐसा प्रस्फुटन हो जिससे वे प्रकृति व मानव मातृ से प्रेम करना सीख सकें। वे इतने संवेदनशील बनें की क्रोध, घृणा, हिंसा, द्वेष को भाव पूर्ण तिरोहित हो जाए।

6 -व्यावसायिक योग्यता का विकास/ Development of professional competence- 

यह नितान्त पलायनवादिता की जगह व्यावहारिकता से बालक को जोड़ना चाहते थे इसी लिए बालक को व्यावसायिक निपुणता सिखाना चाहते थे क्योंकि जीवन यापन हेतु कोइ न कोइ व्यवसाय प्रत्येक को करना ही होता है।शिक्षा को इंगित करते हुए मानव को एक विशेष सन्देश देते हुए इन्होने कहा –

“Education must help in facing the world in a totally different, intelligent way, knowing you have to earn a livelihood, knowing all the responsibilities the miseries of it all.” Begning of Learning, p 171 

“यह जानते हुए की तुमने जीविकोपार्जन करना है, सम्पूर्ण जिम्मेदारियों को निभाना है उस सबका दुःख उठाना है। शिक्षा को तुम्हें एक पूर्णतया मित्र, बुद्धिमत्ता पूर्ण तरीके से संसार का सामना करने में सहायता करनी चाहिए। ”

7 - नवीन मूल्यों की वाहक संस्कृति का निर्माण/ Creating a culture of new values- 

इनका स्पष्ट रूप से मानना था कि विविध संस्कृतियों का प्रभाव हमारे दृष्टिकोण को संकीर्ण कर देता है जबकि आवश्यकता है पूर्व धारणाओं व पूर्वाग्रहों से मुक्त होने की। शिक्षा का उद्देश्य ऐसी अन्तः चेतना व आत्मिक उत्थान की पृष्ठ भूमि बनाना है जो दृढ़तापूर्वक हमें पूर्वाग्रहों के खिलाफ खड़ा कर सके। तभी नवीन मूल्यों व नव संस्कृति का उद्भवन सम्भव हो सकेगा।

पाठ्यक्रम Syllabus

जे ० कृष्णमूर्ति जी का मानना था कि पाठ्यक्रम ऐसा हो जो सम्पूर्ण मानव बनाने में सहयोग प्रदान कर सके। इन्होने आर्थिक पक्ष की सबलता हेतु व्यावसायिक शिक्षा, भौतिक विज्ञान, मानवोपयोगी विज्ञान तकनीकी के प्रयोग पर बल दिया। तथा भावात्मक पक्ष के प्रबलन हेतु सृजनात्मकता, सौन्दर्य बोध, कविता कला, सङ्गीत को पाठ्यक्रम में स्थान देने की बात कही है।

शिक्षण विधियाँ Teaching methods

इन्होंने अधिगम की प्रभावशीलता की वृद्धि हेतु निम्न विधियों का समर्थन किया।

1 – निरीक्षण विधि

2 – अनुभव आधरित विधि

3 – स्वाध्याय

4 – परीक्षण विधि

5 – श्रवण

6 – शान्ति व मनन

7 – ध्यान

 इन्होने ध्यान की महत्ता की गहन अनुभूति की। जिससे उसके गूढ़ अर्थ निकलते हैं ये मानते हैं कि ध्यान इच्छा शक्ति, निष्प्रयोजन, और चेष्टा विहीन होता है। जिससे एकाग्रता उद्भूत होकर आत्म ज्ञान के प्रति सचेष्ट रखती है।

अध्यापक/Teacher

इन्होने बहुत स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया की गुरु एक एकीकृत मानव होना चाहिए वह धैर्य की प्रतिमूर्ति हो और बच्चों के साथ उसका व्यवहार प्रेम पूर्ण हो। अपनी इच्छा थोपने की जगह वह विद्यार्थियों की सीखने में मदद करने वाला हो। इस प्रकार अच्छा अध्यापक वह होगा जो प्रेम के आधार पर बच्चों में लोकप्रिय होगा।  

विद्यार्थी/Student

ये विद्यार्थियों को ऐसी चेतना से युक्त करना चाहते हैं  जो उनमें वह शक्ति पैदा कर सके जिससे वे स्वयम् मूल्य सिद्धान्त व नियमों का चयन कर सकें। वे यह बिलकुल नहीं चाहते की उनपर किसी तरह के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक,धार्मिक पूर्वाग्रह थोपे जाएँ। इन्होने विद्यार्थियों से स्पष्ट रूप से कहा –

“Education implies to live a life of  tremendous order in which obedience is under stood, in which it is seen where conformity in necessary and where it is totally unnecessary, as to see when you are imitating.” Ibid p.187 

“वास्तविक शिक्षा एक जबरदस्त व्यवस्था का जीवन जीना है जिसमें आज्ञापालन को समझ लिया जाता है, जिसमें यह जान लिया जाता है कि कहाँ अनुरूपता आवश्यक है और कहाँ वह पूर्णतया अनावश्यक है, यह देख लिया जाता है कि कब आप अनुकरण कर रहे हैं।”

अनुशासन/Discipline

ये विद्यार्थियों को आतंरिक व वाह्य दोनों प्रकार की स्वतन्त्रता देना चाहते हैं। और आत्म अनुशासन के प्रचलित सिद्धान्तों को भी नहीं मानते। लेकिन साथ हे यह भी कहते हैं की स्वतन्त्रता का अर्थ स्वछंदता नहीं है दूसरों का ध्यान रखा जाए उनके प्रति विवेकशील, नम्र व यथोचित व्यवहार किया जाए।

विद्यालय /School

यह प्रभावी अधिगम, अध्यापन, व्यवस्थापन हेतु विद्यालय की भूमिका को स्वीकार करते थे। इन्होने विद्यालय सुसंचालन हेतु प्रशासन में अध्यापक व विद्यार्थियों की भागीदारी की बात कही। ये चाहते थे कि विद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या को सीमित रखा जाए। विद्यालय की समस्याओं के निराकरण हेतु शिक्षक परिषद व छात्र परिषद का निर्माण किया जाए। छात्र परिषद में भी शिक्षकों का प्रतिनिधित्व हो ,विद्यालय की साफसफाई ,अनुशासन, भोजन आदि की जिम्मेदारी विद्यार्थियों को दी जाए। ऐसे पर्यावरण का निर्माण किया जाए जिससे विद्यार्थी अपनी शक्तियों को पहचान सकें और स्वयम् समस्या निराकरण में सक्षम बन सकें।

                               अन्य आवश्यक पक्ष/ Other necessary dimensions
 

1  – नैतिक व धार्मिक शिक्षा

2  – जन शिक्षा

3  – स्त्री शिक्षा

4  – व्यावसायिक शिक्षा

 
                   शैक्षिक चिन्तन का मूल्याङ्कन/Assessment of academic thinking

जे ० कृष्णमूर्ति महोदय शिक्षा को साधारणतया जिन अर्थों में स्वीकार किया जाता है उसके अनुसार ये पुनः विचार की विषय वस्तु है इन्होने कहा –

“Education generally used to mean learning out of books, storing up information and using it either selfishly or a particular cause or a particular sect, and marketing oneself important in that sect of organisation.”

“साधारणतया शिक्षा का अर्थ पुस्तकों को पढ़ना, जानकारी का संग्रह करना और उसे या तो स्वार्थ के लिए या किसी विशिष्ट कारण के लिए, किसी विशेष सम्प्रदाय के लिए स्वयं को उस सम्प्रदाय में अथवा संगठन में महत्त्वपूर्ण बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। ”

ये अन्तः चेतना के विकास की बात करते हैं जबकि सर्वांगीण विकास में प्रगति के अधिक बीज संग्रहीत हैं।

उद्देश्यों के क्रम जो पूर्ण मानव के विकास की बात इनके द्वारा रखी गयी उसके निर्माण हेतु सुझाये गए साधन और बताया गया पाठ्यक्रम अपर्याप्त है। यहां तक स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अन्तः चेतना विकास की यात्रा इस पाठ्य क्रम से होना संभव नहीं है। शिक्षण विधियों में मनोवैज्ञानिकता अच्छी विचारधारा है पर कोई नई विधि सुझाई नहीं गयी है। गुरु शिष्य सम्बन्धों को ये आवश्यक नहीं मानते और कहते हैं –

“Disciple means one who learns but the generally accepted meaning is that a disciple is one who follows someone, some guru, some silly person. But both the follower and the one who follows are not learning,”

“शिष्य का अर्थ है जो सीखता है परन्तु शिष्य का साधारण स्वीकृत अर्थ वह है जो किसी का, किसी गुरु का, किसी बुद्धिहीन व्यक्ति का अनुसरण करता है,ऐसी स्थिति में गुरु और शिष्य दोनों नहीं सीख रहे हैं।”

यदि निष्पक्षता के चश्मे से देखा जाए तो इसमें सत्य का अंश परिलक्षित होता है। शिक्षण को प्रभावी बनाने हेतु जो कम संख्या विद्यालय से संयुक्त करने की बात इन्होने की वह सैद्धांतिक दृष्टिकोण से अच्छी लगती है पर भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देश में व्यावहारिक नहीं है।

कुल मिलाकर इनके विचार नवपरिवर्तन की इच्छा से युक्त लगते हैं पर स्पष्ट रूप रेखा के अभाव में मजबूत सम्बल नहीं मिल सका है। ध्यान, आत्म ज्ञान ,आत्म शोध हेतु स्तर का अभाव दिखता है। परन्तु इनके द्वारा स्थापित विद्यालय प्रेम, सौंदर्य बोध, सहयोग की अपनी विचार श्रृंखला  के कारण ये हमेशा याद किये जाएंगे।    

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दर्शन

ROUSSEAU[Jenewa1712-1778 France] रूसो

June 19, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

जीवन परिचय (Life introduction) –

रूसो का जीवन बहुत से विरोधाभासों का एक समुच्चय है,वह जेनेवा के एक साधारण कसवे में पैदा हुआ जिसकी माँ बाल्यावस्था में चल बसी और पिता ने उपन्यासों, कल्पना, संवेदना द्वारा उसे अकाल प्रौढ़ता प्रदान कर दी, वह दो वर्ष जेनेवा से बाहर रहा जिसमें उसे प्रकृति के प्रति अनुराग जाग्रत हुआ। उसका निजी जीवन निम्न कोटि का रहा काहिली और बुरी सङ्गति में उसने कई वर्ष व्यतीत किये बाद में जीवन की कृत्रिमताओं ने उसे व्यथित कर दिया लेकिन इन सारी स्थितियों में वह अध्ययन करता रहा वह उसकी निम्न कोटि की नौकरी के कारण जैसा भी रहा। कृत्रिमता के प्रति घृणा का स्तर बढ़ा और प्रतिक्रिया स्वरुप व्यर्थ सामाजिक आदर्श, कृत्रिमता के आवरण में लिपटी चरित्र हीनता को जब उसने जनमानस के समक्ष रखा तो सुषुप्त जनमानस में क्रांतिकारी ज्वार आ गया और वह अकस्मात् प्रसिद्द हो गया। अन्ततः वह एक अच्छे अध्यापक, नाटककार, संगीतज्ञ व लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उसने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सृजित किये।

1 – प्रोजेक्शन फॉर द एजुकेशन ऑफ़ एम० डीसेंट मैरी

2 – डिस्कोर्स  ऑन द साइंसेज एन्ड आर्ट्स (1750)

3 – ओरिजिन ऑफ़ इनइक्विलिटी एमंग मैन (1755)

4 – डिस्कोर्सऑन पोलिटिकल इकोनॉमी (1755)

5 – द न्यू हेलाइस (1761)

6 – द सोशल कॉन्ट्रेक्ट (1762)

7 – एमील (1762)

8 –  सोशल इनइक्विलिटी(1754)

9 –  कॉनफैशन ऑफ़ द विकार ऑफ़ सेवाय  

रूसो के अनुसार शिक्षा (Education according to Rousseau)-

1 – शिक्षा एक स्वाभाविक प्रक्रिया

2 – शिक्षा के दो रूप

      (a) – सार्वभौमिक शिक्षा -राज्य द्वारा जैसा कि प्लैटो की रिपब्लिक में

      (b) – घरेलू शिक्षा – घर द्वारा जैसा कि एमील में वर्णित 

3 – आन्तरिक शक्ति का विकास सच्ची शिक्षा

Rousseau –

“True education is something that happens from within the individual. It is an unfolding of his own latent powers.”

 “सच्ची शिक्षा वह है जो व्यक्ति के भीतर से होती है। यह उसकी अपनी गुप्त शक्तियों का प्रकटीकरण है।”

4 – शिक्षा सभी के लिए आवश्यक

5 – शिक्षा का परम लक्ष्य – सुव्यवस्थित स्वतन्त्रता

रूसो महोदय के अनुसार –

“वही व्यक्ति स्वतन्त्र है जो उसी बात की कामना करता है जो करना चाहता है और वही करता है जो चाहता है।” 

6 – शिक्षा आयु के अनुसार →शैशवावस्था →बाल्यावस्था →किशोरावस्था →युवावस्था

7 – शिक्षा का उद्देश्य मानव को मानव बनाना →रूसो स्वयं कहते हैं कि →

“मैं यह बात स्वीकार करता हूँ कि मेरे पढ़ाने के बाद वह सबसे पहले मनुष्य बनेगा,न्यायाधीश,सैनिक,पादरी बाद में। ”

8 – शिक्षा प्राकृतिक शक्तियों का विस्तार → उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा –

“यह प्राकृतिक शक्तियों का एक विस्तार है न कि सूचनाओं का एक संग्रह। यह स्वयं जीवन है न कि    बाल्यजीवन की रुचियों एवं विषमताओं से दूर भावी जीवन की एक तैयारी। ” ((भाषा और भूगोल थोपना गलत)

शिक्षा के उद्देश्य (Aims of education) –

1 – इन्द्रिय प्रशिक्षण (Sense training)

2 – शारीरिक विकास (Physical development)

3 – बुध्दि का विकास (Development of intelligence)

4 – भावात्मक विकास Emotional development)

5 – जीवन कला (Life art)

6 – अधिकार रक्षा (Protection of rights)

7 -व्यक्तित्व विकास (Personality development)

पाठ्यक्रम (Syllabus) →

रूसो महोदय ने पाठ्यक्रम को तीन भागों में बाँटा –

A – प्रकृति सम्बन्धी विषय – प्राकृतिक विज्ञान,भूगोल आदि 

B – मनुष्य सम्बन्धी विषय – भाषा,मनोविज्ञान,समाजिकशास्त्र, राजनीति शास्त्र,अर्थशास्त्र,आदि।

C – वस्तु सम्बन्धी विषय – भौतिक शास्त्र और पदार्थ विज्ञान।

जीवन की अवस्थाओं के आधार पर पाठ्यक्रम वितरण →

1 – शैशवावस्था → खेलना, घूमना, ऋतुओं को सहन करना,शारीरिक विकास।  

2 – बाल्यावस्था → खेलकूद, नापना, गिनना, तौलना, संगीत, नृत्य, गणित, रेखागणित, भूगोल, प्रकृति अध्ययन,

                        (पुस्तकीय ज्ञान का अभाव, *निषेधात्मक शिक्षा का प्रतिपादन)

3 – किशोरावस्था → इतिहास,भूगोल,कला,संगीत,दस्तकारी,प्राकृतिक विज्ञान,निश्चयात्मक शिक्षा, सदाचार. 

4 – युवावस्था → धर्म, नीति, इतिहास, कला, संगीत, यौन शिक्षा, प्राकृतिक विज्ञान, अर्थ शास्त्र, राजनीति शास्त्र,सामाजिक शास्त्र आदि 

       नारी शिक्षा हेतु गृह विज्ञान,संगीत,नृत्य,सिलाई,बुनाई,धर्म,नीति आदि ।

 *निषेधात्मक शिक्षा – रूसो महोदय के अनुसार -→

“शिक्षा निषेधात्मक होनी चाहिए। निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ आलस्य में समय बिताना नहीं है बल्कि जो ज्ञान देने के पूर्व बालक के शारीरिक व मानसिक विकास के द्वारा उसे विचारशील बनाती है वही निषेधात्मक शिक्षा है। इस शिक्षा के द्वारा बालक अपना अच्छा बुरा पहचानने में समर्थ हो जाता है।”

रूसो तत्कालीन व्यवस्था से इतना दुःखी था कि उसे कहना पड़ा  -→

“Take the reverse of the accepted practice and you will almost always do right.”

“शिक्षा के जितने प्रचलित सिद्धान्त हैं उसके विपरीत कार्य करो तभी तुम सही काम कर सकोगे।”

शिक्षण विधियाँ (Teaching methods) –

व्यवसाय की शिक्षा तथा हाथों का प्रयोग उसे प्रिय है पुस्तकों में संलग्नता की जगह हाथों का काम उचित है इस हेतु ‘योजना पद्यति’ का एक रूप उसने दिया।  करके सीखना, योजना पद्यति का वर्णन उसने व्यवहार वाद से पहले ही कर दिया। केवल भाषण व आदेशात्मक शिक्षा का वह विरोधी था। भ्रमण द्वारा शिक्षा, प्रकृति निरीक्षण व स्व अनुभव द्वारा शिक्षण पर वह बल देता था। उसने स्वयं शोध व उपदेशात्मक शिक्षण विधि को स्वीकार किया।  

गुरु शिष्य सम्बन्ध (Teacher-disciple relationship) –

वह बालकेन्द्रित शिक्षा पर अधिक बल देता है, अध्यापक शिक्षा हेतु वातावरण सृजित करे उसकी महती भूमिका परदे के पीछे है। कृत्रिमता से हटाकर प्रकृति सानिध्य में लाने का कार्य अध्यापक का है उसने ऐन्द्रिक विकास हेतु शिक्षक का आवाहन किया और कहा –

“All wickedness comes from weakness, a child is bad because hi is weak, make him strong and hi will be good.”

“सारे दोष कमजोरी से आते हैं बालक कमजोर है इसलिए बुरा है उसे बलिष्ठ बनाओ और वह अच्छा हो जाएगा।”

अनुशासन (Discipline) –

ये बच्चे को समाज से दूर प्राकृतिक वातावरण में रखना चाहते थे इनका मानना था –

“Everything is good as it comes from the hands of the author of nature, men maddle with it and it degenerates.” 

“सब कुछ अच्छा है क्योंकि यह प्रकृति के लेखक के हाथों से आता है, पुरुष इसके साथ खिलवाड़ करते हैं और यह पतित हो जाता है।”

इसीलिये इन्होने स्वतन्त्रता का सिद्धान्त व प्राकृतिक परिणामों को स्वीकारने की बात कही।

विद्यालय (School)-

ये चाहते थे की प्राकृतिक वातावरण में विद्यार्थी स्वतन्त्रता पूर्वक अध्ययन करें और अध्यापक उनके सहयोगी के रूप में कार्य करें न कि अनुदेशक के रूप में। बच्चे को प्रेम पूर्वक सिखाएं व अधिकतम स्वतन्त्रता प्रदान करें।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनके कई विचार अर्थहीन हो चुके हैं लेकिन उनका ‘प्रकृति की ओर लौटो‘ का नारा आज भी प्रासंगिक है और बाल केन्द्रित शैक्षिक अवधारणाएं आज भी रूसो के विचारों की प्रदक्षिणा करती दीखती हैं। उन्हें लोकतन्त्र के प्रणेता के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

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दर्शन

सांख्य दर्शन/SANKHY DARSHAN

June 10, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

भारतीय षड दर्शन में सांख्य सर्वाधिक प्राचीन है सांख्य सिद्धान्त के संकेत छान्दोग्य, प्रश्न, कठ और विशेषतया श्वेताश्वर उपनिषद से प्राप्त होते हैं याकोबी के अनुसार इसका प्रगटन उपनिषदों के रचनाकाल के बीच हुआ। प्राचीन काल से ‘नहि  सांख्य सम ज्ञानम्’ कहकर इसकी प्रशंसा की जाती रही है इसी आधार पर मैक्समूलर जैसे पाश्चात्य विद्वान ने  इसे अद्वैत वेदान्त के बाद हिन्दुओं का प्रिय और प्रमुख दर्शन कहा है। आचार्य शंकर ने इसे वेदान्त का प्रमुख मल्ल कहा है। सांख्य दर्शन को ‘षष्टि तन्त्र ‘ के नाम से भी जाना जाता है आचार्य कपिल सांख्य के प्रतिस्थापक आचार्य माने जाते हैं।

इस दर्शन ने सर्वप्रथम तत्वों की गिनती की जिसका ज्ञान हमें मोक्ष की ओर ले जाता है गिनती को संख्या कहते हैं संख्या की प्रधानता के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।

दूसरी व्याख्या के अनुसार सांख्य का अर्थ विवेक ज्ञान है प्रकृति तथा पुरुष के विषय में अज्ञान होने से यह संसार है और जब हम इन दोनों के ‘विवेक’ को जान लेते हैं कि पुरुष प्रकृति से भिन्न तथा स्वतन्त्र है तब हमें मोक्ष की प्राप्ति होती है।  इसी विवेक ज्ञान की प्रधानता होने के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।

आचार्य कपिल की दो रचनाएँ उपलब्ध हैं एक तत्व समास और दूसरी सांख्य सूत्र। तत्व समास सांख्य दर्शन की प्राचीनतम रचना है इसमें केवल 22 सूत्र हैं सांख्य सूत्र में केवल 537 सूत्र हैं इसकी व्याख्या में निम्न सांख्य ग्रन्थ उपलब्ध हैं।

1 – सांख्य कारिका (ईश्वर कृष्ण)

2 – जय मङ्गला

3 – युक्ति दीपिका

4 – हिरण्य सप्तति (परमार्थ भिक्षु)

5 – सांख्य तत्व कौमुदी (वाचस्पति मिश्र)

6 – चन्द्रिका (नारायण तीर्थ)

7 – सरल सांख्य योग (हरि हराण्यक 

8 – सांख्य प्रवचन (विज्ञान भिक्षु)

9 – सांख्य तत्व विवेचन (सोमा नन्द)

10 – सांख्य तत्व यथार्थ दीपन (भाव गणेश)

सांख्य दर्शन के अनुसार शिक्षा :-

सांख्य दर्शन में प्रकृति तथा पुरुष दोनों को मूल तत्व माना गया है और इन दोनों में मूल भूत अन्तर किया गया है इस प्रकार शिक्षा की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जो प्रकृति और पुरुष  भेद का ज्ञान प्रदान कर सके। यह शिक्षा प्रक्रिया को बालकेन्द्रित बताते हुए प्रतिपादित करती है कि मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है। जो विवेक ज्ञान एवम् योग साधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। हम सृष्टि प्रक्रिया को इस प्रकार समझ सकते हैं –

                                     त्रिगुणात्मक 

पुरुष —-प्रकाश ———          ↓

                                      महत (बुद्धि)

                                                ↓

                                      अहंकार

                                                  ↓

पञ्च महाभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी

सांख्य दर्शन के मूल सिद्धान्त :-

1 – प्रकृति व पुरुष के योग से सृष्टि निर्मित

2 – प्रकृति व पुरुष दोनों मूल तत्व – पूरक

3 – पुरुष की स्वतन्त्र सत्ता – वह अनेक – अनेकात्मवादी दर्शन

4 – मनुष्य (प्रकृति व पुरुष का योग) – सप्रयोजन

5 – मनुष्य का विकास उसके जड़ व चेतन तत्वों पर निर्भर -तीन दशाएं -1 -शारीरिक, 2 – मानसिक, 3 – आध्यात्मिक  

6 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति (दुःख त्रय से मुक्ति) – शरीर का नाश 

7 – मुक्ति के लिए विवेक ज्ञान आवश्यक

8 – विवेक ज्ञान के लिए अष्टांग मार्ग (योग साधन आवश्यक)

9 – योग मार्ग की प्रमाणिकता हेतु नैतिक आचरण आवश्यक (यम, नियम अनुपालन)

सांख्य दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य :-

1 – शारीरिक विकास

2 – मानसिक विकास

3 – भावनात्मक विकास

4 – बौद्धिक विकास

5 – नैतिक विकास

6 – मोक्ष प्राप्ति

7 – सद् तथा असद् को समझना (उचित आचरण विकास)

8 – सर्वाङ्गीण विकास

शिक्षा का पाठ्यक्रम :-

इन्होने अपने पाठ्यक्रम को भौतिक व आध्यात्मिक आधार प्रदान किया।

भौतिक विकास के अन्तर्गत ये कर्मेन्द्रिय का विकास लक्ष्य मानते हैं और इसके लिए विविध पाठ्य सहगामी क्रियाओं व खेल कूद को प्रश्रय देना चाहते हैं।

आध्यात्मिक विकास हेतु ये ज्ञानेन्द्रियों का विकास करना चाहते हैं और इस हेतु योग,दर्शन,मनोविज्ञान को प्रश्रय देना चाहते हैं।

शिक्षण विधि :-

सांख्य दर्शन मुख्यतः तीन विधियों प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द को प्रयोग करने पर जोर देता है।

प्रत्यक्ष विधि – इसमें ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को क्रिया शील बनाया जाता है जिससे अनुभव व प्रत्यक्षीकरण का अवसर मिलता है।

अनुमान विधि – इसमें इन्द्रियों से परे चेतना को जिसमें अनुभूति हेतु अवसर प्रदान किया जाता है इसमें भाव पक्ष प्रधान होता है।

शब्द विधि – इसके अन्तर्गत  दृष्टान्तों,उदाहरणों का उपयोग किया जाता है जिसमें ज्ञान की प्रमाणिकता सिद्ध होती है।

इनके अतिरिक्त यह कुछ अन्य विधियों के प्रयोग को भी उचित समझते हैं यथा – सूत्र विधि, कहानी विधि, व्याख्यान विधि,तर्क विधि, क्रिया एवम् अभ्यास विधि।  

शिक्षक शिष्य सम्बन्ध –

सांख्य गहन मीमाँसा का दर्शन है अतः शिक्षक का विषय पर स्वामित्व परमावश्यक है। अध्यापक में यह योग्यता होनी चाहिए कि वह प्रकृति, पुरुष, जगत सम्बन्धी ज्ञान रखने के साथ विविध सूक्ष्म अन्तरों को व्यवस्थित तरीके से अधिगम कराने में समर्थ हो।

शिष्य –

इस दर्शन के अनुसार विद्यार्थी का व्यवहार नैतिकता पर अवलम्बित हो वह ज्ञान लब्धि हेतु जिज्ञासु हो व अपने गुरुओं के प्रति आदरभाव रखने वाला हो।  सांख्य दर्शन अनुशासन को सर्व प्रथम वरीयता देता हैं वस्तुतः सांख्य और योग दर्शन एक दूसरे के पूरक हैं और इसीलिये ये यम (अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य) व नियम (शौच, सन्तोष, तप,स्वाध्याय,ईश्वर प्राणिधान) का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहते हैं।

विद्यालय –

योग और सांख्य समकालीन दर्शन हैंइस समय गुरुकुल प्रणाली प्रचलित थी तथा शिक्षा गुरु आश्रम में प्रदान की जाती थी।  

सांख्य दर्शन का प्रभाव शिक्षा के विभिन्न अंगों पर आज भी परिलक्षित होता है और इसे किसी प्रकार कमतर नहीं आँका जा सकता।

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दर्शन

EXISTENTIALISM/अस्तित्व वाद

April 7, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

अस्तित्व वाद एक ऐसा चिन्तन है जिसे दायरे में कैद करना बहुत मुश्किल है विश्लेषक कई बार इस भ्रम का शिकार हो जाते हैं कि क्या इसे दार्शनिक चिन्तन के परिक्षेत्र में स्वीकारा जाए। वस्तुतः यह एक सङ्कट का दर्शन है मानव आज स्वयं से भी अजनबी होता जा रहा है। यह विविध चिन्तनों के विरोध स्वरुप उत्पन्न हुआ है। और मानव मात्र के अस्तित्व से जुड़ा है, इसीलिए इस वाद के चिन्तन की धुरी मानव व उसका अस्तित्व ही है। अस्तित्ववाद सङ्कट (Crises) का वह दर्शन है जो बीसवीं शताब्दी की देन है और व्यक्ति के मौलिक व्यक्तिगत अस्तित्व पर बल देता है।

सोरेन किर्कगार्द, मार्टिन हीडेगर,जीन पॉल सात्रे वे प्रसिद्ध नाम हैं जो अस्तित्ववाद के पोषकों में सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।

सोरेन किर्कगार्द(Soren Kierkegaard) चाहते थे कि व्यक्ति को चयन की पूर्ण स्वतन्त्रता मिले और जो वह बनाना चाहता है उसके लिए वह स्वतंत्र हो।

मार्टिन हीडेगर(Martin Heidegger) मानते थे कि मनुष्य का अस्तित्व नश्वर है सीमित है मृत्यु सभी सम्भावनाओं का अन्त कर देती है और सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है।

जीन पॉल सात्रे Jean Paul Satre (1905 -82) ने अपने दर्शन को अस्तित्ववादी स्वीकारा है वह इस दर्शन को किसी का पिछलग्गू नहीं मानता। वे स्वीकार करते हैं कि मनुष्य का अस्तित्व किसी पूर्वसत्ता और सिद्धान्त पर निर्भर नहीं करता बल्कि वे कहते हैं  ‘मैं हूँ इस लिए मेरा अस्तित्व है।’ 

DEFINITIONS OF EXISTENTIALISM

अस्तित्व वाद की परिभाषाएं –

अस्तित्ववाद वह दर्शन है जिसमें मानव की स्वतन्त्रता के सच्चे दर्शन होते हैं इसे हम एक अभिमत के रूप में स्वीकार कर सकते हैं इसे मानव जीवनके प्रति एक दृष्टिकोण कहना भी तर्क संगत होगा आर०एन० बेक महोदय  कहते हैं –

“The term (Existentialism) refers to a type of thinking that Emphasizes human existence and the qualities peculiar to it rather than to nature or Physical world.”

“अस्तित्ववाद एक प्रकार के चिन्तन की और संकेत करता है जो प्रकृति अथवा भौतिक संसार की अपेक्षा मनुष्य के अस्तित्व और उसके गुणों पर बल देता है।”

एक अन्य प्रसिद्ध विचारक एच० एच० टाइटस महोदय कहते हैं –

“Existentialism is an attitude and outlook that Emphasizes human existence that is distinctive qualities of individual persons rather than man in the abstractor nature and the world in general.”

“अस्तित्ववाद सामान्य रूप में विश्व और प्रकृति अथवा सामान्य मानव की अपेक्षा ‘व्यक्ति‘ के रूप में मनुष्य के विशिष्ट गुणों पर जोर देता है।”

अस्तित्ववाद के सम्बन्ध में प्रो ० रमन बिहारी लाल का कहना है –

“अस्तित्ववाद एक ऐसा बन्धनमुक्त चिन्तन है जो नियतिवाद एवं पूर्व निश्चित दार्शनिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं नियमों में विश्वास नहीं करता और यह प्रतिपादन करता है कि मनुष्य का स्वयं में अस्तित्व है और जो वह बनाना चाहता है उसका चयन करने के लिए स्वतंत्र है। इसके अनुसार मनुष्य वह है जो वह बन सका है अथवा बन सकता है और उसका यह बनना उसके स्वयं के प्रयासों पर निर्भर करता है। ”

अस्तित्व वाद की विभिन्न मीमांसाएँ  –

किसी दर्शन किसी को समझना उसकी मीमांसाओं को जानने से सरल हो जाता है आइये सबसे पहले जानते हैं –

अस्तित्ववाद की तत्व मीमांसा (Metaphysics of Existentialism) –

सात्रे चेतना और पदार्थ दोनों की सत्ता के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि वास्तु का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है ,मानव की चेतना में आने से पहले भी वस्तु अस्तित्व में थी,  है और रहेगी। ये मानव के अस्तित्व को व्यक्तिगत मानते थे और विश्वास करते थे कि यह उसके साथ ही समाप्त हो जाने वाला है इनके अनुसार मनुष्य जन्म के साथ अस्तित्व में आता है और मृत्यु के साथ अस्तित्व विहीन हो जाता है। हीदेगर के अनुसार हताशा,चिन्ता तथा इसके द्वारा होने वाला दुःख स्वयं प्रमाणित है इनका अनुभव प्रत्येक मानव करता है।

अस्तित्ववाद की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology of Existentialism) – 

इन विचारकों का मानना था कि मनुष्य जीवन पर्यन्त जो अनुभव विभिन्न माध्यमों से करता है और इस माध्यम से अपनी चेतना और भावनाओं को जिस प्रकार युक्त करता है वही ज्ञान है इस ज्ञान को वह स्वतंत्र तरीकों से विभिन्न विधियों द्वारा प्राप्त करता है। लेकिन यह सत्य तभी स्वीकारा जाएगा जब सत्यापित हो जाएगा। ये अनुभव जनित ज्ञान के ठीक विपरीत विचार को लेकर तर्क द्वारा ज्ञान की सत्यता को प्रमाणित करना आवश्यक मानते हैं।

अस्तित्ववाद की मूल्य व आचार मीमांसा (Values ​​and Ethics of Existentialism)-

ये मानव हेतु किसी पूर्व स्वीकृत मूल्य या आचार संहिता को स्वीकार नहीं करते,इनका तो मूल मन्त्र ही यह है की वह अपने अनुसार चयन के लिए स्वतन्त्र है ये स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्व को ही मानव जीवन के आधार भूत मूल्य मानते हैं। सात्रे कहता है कि संसार बहुत कठोर है और इस कठोरता व दुरूहता का सामना कोई तभी कर सकता है यदि वह साहसी हो। अधिकाँश अस्तित्ववादी विचारक मृत्यु को सबसे बड़ा सत्य मानते हैं और स्वीकारते हैं कि मृत्यु का ज्ञान ही मनुष्य को सही मार्ग पर लाता है।

अस्तित्व वाद के मूल तत्व और सिद्धान्त

Fundamental Elements and Principles of Existentialism-

01 – केन्द्र बिन्दु मानव मात्र 

02 – केवल भौतिक जगत सत्य

03 – नियामक सत्ता के बिना ब्रह्माण्ड का अस्तित्व

04 – निराशा व दुःख विशद तत्व

05 – जीवन अन्तिम उद्देश्य विहीन

06 – मानव की स्वतन्त्र सत्ता

07 – चयन की स्वतन्त्रता

08 – विकास की निर्भरता स्वयं पर

अस्तित्ववाद और शिक्षा

Existentialism and Education

अस्तित्ववाद और शिक्षा

Existentialism and Education

शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है और इनका समूचा ध्यान वैयक्तिकता पर है यह दर्शन एक स्वतन्त्र दृष्टिकोण तो रखता है लेकिन कहीं कहीं अन्य दर्शनों को छूटा सा दीखता है वैयक्तिकता के क्षेत्र में यह आदर्शवादियों की तरह वैयक्तिकता के महत्त्व को स्वीकारता है आत्मविकास और आत्म अनुभव के विचार भी आदर्शवादियों से साम्य रखते हैं लेकिन फिर भी यह कई विचारों में इतना अलग है कि पलायन वाद की कोइ गुंजाइश नहीं छोड़ता ये कहते हैं –

“शिक्षा मनुष्य को उसके अस्तित्व और उत्तरदायित्व का बोध कराने की प्रक्रिया होनी चाहिए।”

मानव को अस्तित्वहीनता के दौर से हटाकर उसकी पुनः प्रतिष्ठा के क्रम में शिक्षा को उपयोगी साधन स्वीकार किया है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्यों व अंगों पर जो प्रभाव परिलक्षित हुए हैं उन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया जा सकता है।

शिक्षा के उद्देश्य  (Aims of Education ) –

1 – उत्तरदायित्व की क्षमता का विकास (To Development of Responsibility)

2 – अपने भाग्य का निर्माता स्वयं (The maker of own destiny)

3 – सृजनात्मकता का विकास (Development of creativity)

4 – शक्तिशाली व साहसी बनाना (Make strong and courageous)

5 – श्रेष्ठ मानव प्रजाति का विकास (Evolution of the best human species)

पाठ्य क्रम (Curriculum) –

इनके अनुसार व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के कारण विविध विषयों को स्थान मिलना चाहिए। सौन्दर्यात्मकता और भावनाओं का महत्त्व अस्तित्ववादी महसूस करते हैं यही तो उन्हें अन्य प्राणियों से अलग करते हैं इस लिए कला,साहित्य,संगीत विषयों को स्थान मिलना चाहिए। किर्क गार्द मानव को नैतिक प्राणी मानते हैं इसलिए नीति शास्त्र की उपादेयता है। अस्तित्व रक्षार्थ व्यावसायिक विषयों को पाठ्य क्रम में स्थान आवश्यक है। धार्मिक विषयों के स्थान पर ये क्रियात्मक व वैज्ञानिक विषयों को संकट निवारणार्थ रखना चाहते हैं अर्थात भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान,जीव विज्ञान ,कृषि विज्ञान,चिकित्सा शास्त्र,व तकनीकी विषयों पर बल देना चाहते हैं।

शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –

यह समूह शिक्षण के पक्षधर नहीं हैं इसलिए निर्धारित पूर्व नियोजित शिक्षण विधियों कीजगह स्वाध्याय, चिन्तन, मनन,व अनुभव द्वारा सीखने की महत्ता प्रतिपादित करते हैं व तार्किक विधि का समर्थन करते हैं।ये विविध मंतव्यों हेतु विविध विधियों के समर्थक हैं।

शिक्षक (Teacher) –

इनका विचार है की अध्यापक अपने निर्णय बालकों पर न थोपें बल्कि उन्हें इस योग्य बनाएं कि वे अपने लिए उचित निर्णय ले सकें, विभिन्न परिस्थितियों से लड़ने हेतु उसे समर्थ बनाते हुए यह बोध भी कराना है कि वह अकेला है आत्मबोध से युक्त कर कर्मपथ पर बढ़ने का कौशल विकसित किया जाना है। इस प्रकार अध्यापक की भूमिका दुरूह है।

विद्यार्थी (Student) –

विद्यार्थी चयन हेतु स्वतन्त्र है और इस चयन व स्वतन्त्रता की रक्षा अध्यापक द्वारा की जानी चाहिए ये बालक की पूर्ण स्वतन्त्रता के  समर्थक हैं और उसके सम्मान का कार्य शिक्षा द्वारा सम्पादित होना चाहिए।

विद्यालय (School) –

जिस तरह ये विद्यार्थी की स्वतन्त्रता के पक्षधर हैं ठीक उसी तरह ये विद्यालयों को नियन्त्रण मुक्त रखना चाहते हैं  सामूहिक शिक्षा के स्थान पर व्यक्तिगत शिक्षा के पक्षधर हैं। ये मानते हैं की कुछ सिखाने या बालकों की स्वतन्त्रता छीनने के प्रयास न हों वे अपने आप ही सीखेंगे। कुछ चुने हुए लोगों का  बौद्धिक विकास कर उन्हें उत्तरदायित्व दिया जाना चाहिए।

अनुशासन (Discipline) –

ये मानते हैं की मनुष्य स्वभाव से ही अनुशासन प्रिय है और यदि उससे चयन में गलती हो जाती है तो इसका दुःख वह स्वयं भोगेगा  सुधार कर लेगा। ये किसी भी आचार संहिता के विरोधी थे। इस विचार धारा के अनुसार बालकों द्वारा उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार सच्चा अनुशासन है। 

मूल्याङ्कन (Evaluation) –

अस्तित्ववाद पूर्व निश्चित ,मान्यताओं,धारणाओं,मूल्यों,धार्मिक नैतिक अवधारणाओं से छिटक  खड़ा हो गया है। संकट ग्रस्त हेतु इसने आकर्षक छवि बनाने का प्रयास अवश्य किया पर कोइ भी भारतीय विचारक इसे न तो शैक्षिक चिंतन में स्थान दे पायेगा  दार्शनिक चिन्तन में। ये मानव हेतु कोइ ऐसा आलम्ब न दे सका जो उज्जवल भविष्य हेतु  बोधक हो। शिक्षा के हर अंग पर इस वाद का प्रभाव कोई निशाँ न छोड़ सका। इन्हें सब कुछ मानव विरोधी लगता है।यही कह सकते हैं कि इनके इरादे बुरे नहीं थे बस सही रास्ता नहीं बना सके।

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दर्शन

यथार्थ वाद (Realism)

March 3, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

यथार्थ वाद का आशय व परिभाषा (Meaning and Definition of Realism)-

वास्तव वाद या यथार्थ वाद का आंग्ल रूपान्तर है ‘Realism’ . शब्द Real की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द  ‘realis’ से हुई है यह शब्द res से बना है जिसका आशय है ‘वस्तु’ इसलिए Realism का शाब्दिक अर्थ हुआ वस्तु के अस्तित्व सम्बन्धी विचार धारा। कहने का आशय है कि मात्र इन्द्रिय जन्य ज्ञान सत्य है इसी लिए ये वाह्य जगत को सत्य मानते हैं मिथ्या नहीं।

यथार्थवाद को विभिन्न विद्वानों ने जिस प्रकार पारिभाषित किया उनमें से कुछ को यहाँ दिया गया है।

स्वामी रामतीर्थ (Ramtheerth) महोदय के अनुसार –

“Realism means a belief or theory which works upon the world as it seems to us.”

“यथार्थवाद का अर्थ वह विश्वास या सिद्धान्त है, जो जगत को वैसा ही स्वीकार करता है, जैसा कि  हमें दिखाई देता है।”

जे एस रॉस ( J. S. Ross) के अनुसार  

“The doctrine of realism asserts that there is a real-world of things behind and corresponding to the objects of our perception.” 

“यथार्थवाद यह स्वीकार करता है कि जो कुछ हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते हैं, उनके पीछे तथा मिलता जुलता वस्तुओं का एक यथार्थ जगत है।”

बटलर ( Buttler ) महोदय के अनुसार –

“Realism is the reinforcement of our common acceptance of the world as it appears to us.”

“यथार्थवाद या वास्तववाद इस संसार को उसी रूप में स्वीकार करता है जिस रूप में उसे दिखाई देता है।”

मीमांसाएं –

किसी भी दर्शन के वास्तविक स्वरुप को समझने के लिए यह परम आवश्यक है कि उसकी तत्त्व मीमांसा(Meta Physics), ज्ञान व तर्कमीमांसा(Epistemology and Logic) एवम् मूल्य व आचार मीमांसा(Axiology and Ethics) को समझा जाए। यहाँ इन्ही को इसी क्रम में वर्णित करेंगे।

तत्त्व मीमांसा (Meta Physics )-

यथार्थवादी तात्त्विक विश्लेषण के क्रम में तत्त्व मीमांसक विश्लेषण के आधार पर सरल वास्तव वाद (Naïve Realism), नववास्तव वाद(Neo Realism), आलोचनात्मक वाद  (Critical Realism),मानवतावादी यथार्थवाद ( Humanistic Realism), सामाजिकता वादी यथार्थवाद (Socialistic Realism), ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद  ( Sense Realism ),अवयव दर्शन (Philosophy of Organism )आदि का अभ्युदय हुआ। इस दर्शन के अनुसार पदार्थ का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और यह ब्रह्माण्ड पदार्थजन्य है अर्थात इस जगत की उत्पत्ति का मूल कारण भौतिक यानी कि स्थूल तत्त्व हैं। वास्तु के सम्बन्ध में ये अपने ज्ञान को प्रयोग सिद्ध( Empirical  ) मानते हैं। आत्मा को भी पदार्थजन्य चेतन तत्त्व मानते हैं।

ज्ञान व तर्कमीमांसा (Epistemology and Logic) –

यथार्थवादी वस्तु व चेतना दोनों के महत्त्व को स्वीकार करते हैं और ज्ञान प्रक्रिया में ज्ञाता व ज्ञेय दोनों को महत्त्व देते हैं। ज्ञान के स्रोत कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जब आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं तो ये तर्क देते हैं कि वस्तु के ज्ञान का आधार यही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं इसलिए इनसे परे ज्ञान नहीं होता ये शाब्दिक ज्ञान को भी प्रत्यक्षीकरण के बाद ही स्वीकारते हैं।

मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) –

ये भौतिक संसार को सत्य मानते हुए कहते हैं कि जीवन रक्षा और सुख पूर्वक जीना ही मानव का उद्देश्य है इसके लिए क्रियाशीलता हो और उत्पादकता को बढ़ाया जाए। अगले क्रमिक चरण के रूप में ये उन मूल्यों पर बल देते हैं जिससे मानव को सुखानुभूति हो। मानव में संवेदनशीलता का गुण ये मूल्यों की अनुभूति हेतु आवश्यक मानते हैं साथ ही स्वीकार करते हैं मूल्य सबके लिए सामान नहीं हो सकते अतः आचार संहिता बनाना सम्भव नहीं है।

यथार्थवाद के मूल सिद्धान्त (Basic Principles of Realism) –

  • – प्रत्यक्ष जगत ही सत्य है (Phenomenal world is true)-

वह जगत जिसे हम प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं वही सत्य है अर्थात यह भौतिक जगत ही सत्य है जे0 एस0 रॉस महोदय कहते हैं-

“Realism simply affirms the existence of an external world and is therefore the antithesis of subjective Idealism. ”

“यथार्थवाद केवल वाह्य जगत की सत्ता को ही स्वीकार करता है। अतः यह आत्मगत आदर्श वाद के विपरीत है।”

  • – ब्रह्माण्ड पदार्थ पर आधारित है (Universe is based on substance) –

ये पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकारते हैं और संसार को विविध तत्त्वों का योग मानते हैं संसार के सारे परिवर्तन पदार्थों का रूप परिवर्तन ही है।

  • इन्द्रियाँ ज्ञान के द्वार हैं (Senses are the Gateways of knowledge) –

ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख साधन इन्द्रियाँ हैं इन्द्रियाँ ही संवेदना के आधार पर अनुभूति करतीं हैं रसेल महोदय कहते हैं –

“I content that ultimate constituent of matter are not atoms … but sensation. I believe that the stuff of our mental life …….. consists wholly of sensations and images.”

“पदार्थ के अन्तिम निर्णायक तत्त्व अणु नहीं हैं, वरन संवेदन हैं। मेरा विश्वास है कि हमारे मानसिक जीवन के रचनात्मक तत्त्व पूर्णतः संवेदनाओं और प्रतिभाओं में निहित होते हैं।”

  • – मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ (Man is world’s best substance)-

यथार्थवादी मानव को पदार्थ रूप में स्वीकार करते हैं लेकिन उसे अन्य पदार्थों से भिन्न मानते हैं क्यों कि मानव मन रखता है और मन के आधार पर जगत का सुव्यवस्थित ज्ञान प्राप्त कर सुख पूर्वक जीवन यापन के उपागम प्रयुक्त करता है आँख,कान,जिह्वा,नाक,त्वचा के सम्यक प्रयोग से मानव प्रगति करता है अतः यह सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है।

  • – आंगिक सिद्धान्त (Theory of Organism)-

प्रसिद्द यथार्थवादी व्हॉइटहैड संसार की प्रत्येक वस्तु को समष्टि का एक अंग मानते हैं और कहते हैं की समस्त अवयवों में सम्मिलित रूप से तरंगित प्रक्रिया हो रही है इसी वजह से परिवर्तन हो रहे हैं ये नियमों को शाश्वत न मानकर परिवर्तनशील मानते हैं। ए एन व्हॉइटहैड(A. N. Whitehead) महोदय कहते हैं –

“Realism is a system, which is always organic. Every part of it is itself an active system, a coordinated process. It is not only the result but also the cause itself the world is a wavering element in the process of development. Change is this wavering process is the fundamental quality of the universe. Truth is an essential process of reality. Mind must be accepted as the function of the organ.’’

“यथार्थवाद एक व्यवस्था है,जो सदैव आंगिक है। इसका प्रत्येक भाग स्वयम् एक सक्रिय व्यवस्था है,एक समन्वित प्रक्रिया है। यह केवल परिणाम नहीं है,वरन स्वयं कारण भी है, संसार विकास की प्रक्रिया में एक तरंगित अवयव है। परिवर्तन इस तरंगित विश्व का आधारभूत गुण है। सत्य वास्तविकता की एक सारभूत प्रक्रिया है। मन को अवयवी के कार्य रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।”

  • – आत्मा पदार्थजन्य चेतन तत्व (Soul material born, conscious element)-

मानव में चेतना आत्मिक विकास का प्रतिफल है और चेतना की विलुप्ति ही मरण है अर्थात यथार्थवादियों के अनुसार आत्मा पदार्थजन्य चेतन तत्त्व है।

  • – मानव जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना (The aim of human life is to live happily) –

ये कहते हैं कि जीवन का कोई अंतिम उद्देश्य नहीं होता,शरीर जैवकीय पदार्थ है जो क्षीण होकर ख़तम हो जाता है इसलिए इसको स्वस्थ रखने का प्रयास हो और मष्तिस्क व अन्य इन्द्रियों के प्रशिक्षण की आवश्यकता है जिससे ये सुचारु रूप से कार्य कर सकें।

रस्क (Rusk) महोदय के अनुसार

“The aim of new realism is to expound a philosophy which is not inconsistent with the fact of common life and with the development of physical science.”

“नवयथार्थवाद का उद्देश्य एक ऐसे दर्शन का प्रतिपादन करना है,जो सामान्य जीवन के तथ्यों तथा भौतिक विज्ञान के विकास के अनुकूल हो।”

  •  – वस्तु जगत की नियमितता स्वीकार करना (To accept regularity of materialistic world) –

ये मन को यांत्रिक ढंग से क्रियाशील मानते हैं इसीलिए इनका दृष्टिकोण भी यांत्रिक हो गया है प्रो 0 एम एल मित्तल के अनुसार यथार्थवादी स्वीकार करते हैं कि –

“Experience and knowledge require regularity.”

“अनुभव और ज्ञान के लिए नियमितता का होना आवश्यक है। ”

  • –  प्रयोग पर बल (Emphasis on experiment) –

चूंकि ये तथ्य निरीक्षण ,अवलोकन तथा प्रयोग पर इतना ध्यान देते हैं कि किसी भी तथ्य को तब तक स्वीकार नहीं करते जब तक कि वह निरीक्षण व प्रयोग की कसौटी पर खरा सिद्ध न हो गया हो।  

 यथार्थ वाद के रूप (Forms of Realism) –

Forms of Realism in Education-

यथार्थवादी दृष्टिकोण का अध्ययन करने में इसके कई रूपों के दर्शन होते हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है।

[A] – मानवतावादी यथार्थवाद (Humanistic Realism) –

मानवतावादी यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों में इरेसमस,रैबले और मिल्टन का नाम आता है इनके अनुसार शिक्षा यथार्थवादी होनी चाहिए जिससे मानव वास्तव में सुख से जी सके पॉल मुनरो के शब्दों में –

“मानवता वादी यथार्थवाद का उद्देश्य – अपने जीवन की प्राकृतिक एवम् सामाजिक परिस्थितियों का पूर्ण अध्ययन प्राचीन व्यक्तियों के जीवन की व्यापक परिस्थितियों के माध्यम से करना था लेकिन यह कार्य केवल ग्रीक एवम्  रोमन साहित्य के विस्तृत ज्ञान से पूर्ण किया जा सकता था।”

[B] – ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद  (Sense Realism) –

 ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों में रिचार्ड मूल कास्टर, फ्रांसिस बेकन, वूल्फगैंग रटके, जॉन एमोस कमेनियस का नाम आता है। ये विचारक ज्ञानेन्द्रियों को ही ज्ञान का आधार मानते हैं। पॉल मुनरो के अनुसार –

“The term (sense Realism) itself is drived from the fundamental belief that knowledge comes through senses.”

 “ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद उस मौलिक विश्वास से विकसित हुआ है, जो यह मानता है कि ज्ञान प्राथमिक रूप से ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है। ”

[C] – सामाजिक यथार्थवाद (Social Realism) –

सामाजिक यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों में माइकेल डी  माण्टेन, जॉन लॉक का नाम आता है,  सामाजिक यथार्थवादी पुस्तकीय शिक्षा के अत्याधिक विरोधी थे इनका उद्देश्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति  के माध्यम से जीवन को सुखी बनाना था।  जे एस रॉस के विचारों में इसकी झलक मिलती है –

 “The social realists looking askance at bookish studies, stressed the value of direct studies of man and things, having in mind chiefly the upper class, they advocated a period of travel, a grand tour, which would give real experience of the varied aspects of life.”

“सामाजिक यथार्थवादी पुस्तकीय अध्ययन को व्यर्थ समझते हैं तथा मनुष्यों एवं वस्तुओं के प्रत्यक्ष अध्ययन पर बल देते हैं, यद्यपि वे अपने मस्तिष्क में उच्च वर्ग का ही ध्यान रखते हैं। इसी कारण वे लम्बी यात्रा करने के लिए कहते हैं, जिससे वास्तविक जीवन के विभिन्न पहलुओं का यथार्थ अनुभव हो जाए।”

[D] – नव यथार्थवाद (Neo- Realism) –

नव यथार्थवाद दृष्टिकोण के समर्थकों में  व्हॉइट हैड व  बर्टेन्ड रसेल का नाम आता है, इस विचारधारा के अनुसार अन्य विभिन्न नियमों की तरह भौतिक विज्ञान के नियम भी परिवर्तनशील हैं ये कुछ विशेष परिस्थितियों में ही सही साबित होते हैं। रस्क महोदय कहते हैं –

“The positive contribution of neo-realism is its acceptance of the methods and results of modern development in physics.”

“नव यथार्थवाद का महत्त्वपूर्ण योगदान उन पद्धतियों तथा निष्कर्षों को मान लेने में है जो भौतिक शास्त्र के आधुनिक विकास से प्राप्त हुए हैं। ”

शिक्षा का सम्प्रत्यय (Concept of Education) –

यथार्थवादियों के अनुसार निरन्तर विकास की प्रक्रिया ही शिक्षा है ये ज्ञान ज्ञान के लिए और ज्ञान मुक्ति के लिए जैसे सिद्धांतों का मुखर विरोध करते हैं इनका कहना है की ज्ञान केवल जीवन के लिए ही होता है। आदर्श वादी अरस्तु  के विचारों को यथार्थवादियों के निकट माना गया जैसे अरस्तु का विचार है कि –

“Education is the creation of healthy mind in a healthy body.”

“स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करना ही शिक्षा है। ”

जॉन मिल्टन (JohnMilton) महोदय के अनुसार

“मैं पूर्ण तथा उदार शिक्षा उसको कहता हूँ जो व्यक्ति को शान्ति तथा युद्ध, दोनों समय में व्यक्तिगत और सार्वजनिक कार्यों को न्यायोचित ढंग से दक्षता और उदारता के साथ करना सिखाती है। ”

“I call complete and generous education that which fits a man to perform justly, skillfully and magnanimously all the offices both private and public at peace and war.”

कमेनियस Comenius महोदय ने व्यक्ति और समाज के उत्थान में शिक्षा की भूमिका को स्वीकारते थेउन्होंने कहा –

“Education is the process of social and individual rejenerating force.”

सामाजिक एवं वैयष्टिक शक्तियों को पुनर्जीवित करने की प्रक्रिया ही शिक्षा है। ”

यथार्थवादी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएं

Main Characteristics of Realistic Education-

1 – ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल (Emphasis on training of senses)-

यथार्थवादी ज्ञान को इन्द्रिय से ज्ञात स्वीकारते हैं अतः इन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल देते हैं इससे शिक्षा के परिक्षेत्र में सहायक सामग्री व दृश्य श्रव्य सामग्री के महत्त्व को प्रश्रय मिला।

2 – प्रत्ययवाद का विरोध (Opposing of Idealism) –

इन्होने शिक्षा के माध्यम से जीवन को सुखी बनाने पर बल दिया और आदर्शवाद का विरोध किया और कहा कि कोरा आध्यात्मिक सिद्धान्त आज बालक के लिए कोई मायने नहीं रखता। 

3 – वैज्ञानिकता को प्रश्रय (support of science) –

ये बालकों के लिए उपयोगी आधुनिक ज्ञान विज्ञान को आवश्यक समझते हैं और कृत्रिम शिक्षा के स्थान पर प्रकृति की शिक्षा पर बल देते हैं ये चाहते हैं की वैज्ञानिक विषयों को महत्ता प्रदान की जाए।

4 – पुस्तकीय ज्ञान का विरोध (Opposing bookish knowledge)-

ये पुस्तकीय ज्ञान का विरोध करते हैं और कहते हैं कि इससे वस्तु का बोध नहीं होता वे शब्द के स्थान पर वस्तु और वातावरण के ज्ञान को आवश्यक समझते हैं। रॉस महोदय कहते हैं कि –

“Just as naturalism has appeared in the field of education as a protest against artificial teaching methods, so realism has come against the curriculum, which has become bookish, unrealistic and complex.”

 “जिस प्रकार प्रकृतिवाद शिक्षा के क्षेत्र में बनावटी शिक्षण पद्धतियों के विरोध स्वरुप उपस्थित हुआ है, उसी प्रकार यथार्थवाद उस पाठ्यक्रम के विरोध में आया है,जो पुस्तकीय, अवास्तविक एवम् जटिल हो गया है। ”

5 – व्यावहारिकता पर बल (Emphasis on practicality)-

ये बालक को ऐसा ज्ञान देना चाहते हैं जिससे वह अपने जीवन में आने वाली समयाओं को समाधान तक ले जा सकें। ये ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ जैसे सिद्धान्तों का खंडन करते हैं और व्यावहारिक प्रसन्नता प्राप्त करना चाहते हैं। कमेनियस Comenius ने कहा –

“The ultimate end of man is eternal happiness of God.”

“मनुष्य का अंतिम लक्ष्य ईश्वर के साथ शाश्वत प्रसन्नता को पाना है। ”

6 – नवीन शिक्षण विधियाँ व शिक्षा सूत्र (New Teaching Methods and Education Formulas) –

इन्हें महत्त्वपूर्ण शिक्षण सहायकों के रूप में स्वीकार किया जाता है क्योकि बेकन द्वारा प्रदत्त आगमन विधि आज भी स्वीकार्य है,ये निरीक्षण, परीक्षण,और सामयिक नियमीकरण के आधार पर ज्ञान से सम्बद्ध करना चाहते हैं रटके  और कमेनियस ने प्रभावी शिक्षण सूत्र दिए। वास्तव में यथार्थवादियों ने शिक्षण विधियों के क्षेत्र को दिशा दी।

7 – विस्तृत पाठ्यक्रम (Detailed Curriculum) –

यह इनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता में गिना जा सकता है क्योंकि इन्होने विविध व्यवहारिक विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान देकर इसे व्यावहारिक व विस्तृत बनाया जैसा कि कार्टर वी गुड ने कहा –

“The detailed curriculum was a key feature of realism.”

“विस्तृत पाठ्यक्रम, यथार्थवाद की एक प्रमुख विशेषता थी। ”

8 – वैयक्तिकता व सामाजिकता दोनों को समान महत्त्व (Equal importance to both individuality and       sociality) –

ये शिक्षा द्वारा मनुष्य को समाज के लिए उपयोगी बनाना चाहते हैं और वैयक्तिकता और सामाजिकता को समान महत्त्व प्रदान करते हैं। जायसवाल महोदय ने कमेनियस के बारे में लिखा –

“कमेनियस की शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को जीवन में सफल बनाना और ज्ञान द्वारा नैतिक तथा धार्मिक भावना का विकास करना है। ”

यथार्थवादी शिक्षा के उद्देश्य (Realistic Education Objectives) –

1 – जीवन को व्यावहारिक व सुखमय बनाना (To make life practical and happy)

2 – मानसिक शक्तियों का सम्वर्धन (Enhancement of Mental powers)

3 – प्रकृति का ज्ञान कराना (To make knowledge of nature)

4 – सामाजिक पर्यावरण का ज्ञान (Knowledge of the social environment)

5 – वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास (Development of scientific attitude)

6 – सुखी जीवन हेतु तैयार करना (Preparing for a happy life)

7 – व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करना (Providing vocational education)

डेविनपोर्ट महोदय के अनुसार –

“No individual shall be obliged to chose between an education without a vocation and vocation without an education.”

“कोई भी व्यक्ति किसी व्यवसाय के बिना शिक्षा का चयन न करे, और न बिना शिक्षा के व्यवसाय का चयन करे।”

यथार्थवाद और पाठ्यक्रम (Realism and curriculum)-

ये आधुनिक ज्ञान विज्ञान को प्रश्रय प्रदान कर साहित्यिक, काल्पनिक, कलात्मक, दार्शनिक विषयों को द्वित्तीयक स्थान प्रदान करते हैं यथार्थवादी दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं –

प्रधान विषय – भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, उद्योग,व्यवसाय, कृषि, शिल्पकार्य, मातृ भाषा व अन्य जीवनोपयोगी विषय

गौड़ विषय – साहित्य,कला,संगीत,दर्शन,इतिहास,भूगोल,नीतिशास्त्र,समाजशास्त्र,कानून आदि।

यथार्थ वाद और शिक्षण विधि (Realism and Teaching Method) –

वस्तु व इन्द्रिय प्रशिक्षण पर ध्यान देने वाले यथार्थवाद में मुख्यतः निम्न शिक्षण विधियों को प्रश्रय मिला है –

भ्रमण विधि, प्रयोग विधि,निरीक्षण विधि, अनुभव आधारित विधि,आगमन विधि,दृश्य श्रव्य सामग्री युक्त विधि व अन्य क्रियात्मक विधियाँ।  

यथार्थ वाद और अनुशासन  (Realism and Discipline ) –

ये विद्यालय का वातावरण घर की तरह बनाना चाहते हैं और प्रेम, सुरक्षा,सहानुभूति के आधार पर न्याय, संयम, स्वतन्त्रता आदि का विकास करना  चाहते हैं। ये वाह्य अनुशासन का विरोध व वस्तुनिष्ठ अनुशासन का समर्थन करते हैं। ये प्रकृतिवादियों के विपरीत नैतिक व धार्मिक विकास को जीवन नियंत्रित करने का साधन मानते हैं।

यथार्थवाद और शिक्षक (Realism and Teacher) –

ये आदर्शवाद की तरह प्रमुख स्थान तो नहीं देते लेकिन उसके महत्त्वपूर्ण स्थान को पूरी तरह नकारते भी नहीं। अध्यापक वातावरण को नियन्त्रित करने के साथ अनुभव द्वारा सीखने का माहौल बनाएं। आचरण की शिक्षा हेतु ये अध्यापकीय प्रशिक्षण पर बल देते हैं।

यथार्थवाद और बालक  (Realism and Child) –

इन्होने बालक केन्द्रित शिक्षा प्रक्रिया को प्रमुख स्थान प्रदान किया है और उनका सर्वांगीण विकास भी  करना चाहता है ये प्रकृतिवादियों की भाँति बालक को स्वतन्त्र छोड़ने की जगह सजग प्रहरी की तरह प्रत्येक गतिविधि व उनकी रुचियों पर ध्यान देते हैं। ये विभिन्न परिस्थितियों व समस्याओं से जूझने हेतु बालक को तैयार करना चाहते हैं।

यथार्थवाद के गुण (Merits of Realism) –

1 – व्यावहारिक शिक्षा

2 – सार्वभौमिक शिक्षा

3 – वैज्ञानिकता को बढ़ावा

4 – व्यावसायिक व प्राविधिक शिक्षा

5 – आगमन विधि का प्रयोग

6 – वस्तुनिष्ठ रीति से तथ्यों का ज्ञान

7 – ज्ञानेन्द्रियों के प्रक्षिक्षण पर बल

8 – वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्यों का समन्वय

9 – बालकेन्द्रित शिक्षा

10 – अनुशासन व्यवस्था

यथार्थवाद के दोष (Demerits of Realism) –

1 – भौतिक जगत को अंतिम सत्ता मानना उचित नहीं

2 – आध्यात्मिक सत्ता पर अविश्वास 

3 – शाश्वत मूल्य सत्यम शिवम् सुन्दरम पर अविश्वास 

4 – कला साहित्य, दर्शन,मानविकी विषयों की उपेक्षा 

5 – कल्पना, संवेग,स्थायी भाव को महत्तव नहीं  

6 – नैतिकता को प्रश्रय नहीं

7 – दर्शनों की उपेक्षा केवल भौतिक दर्शन को स्थान

8 – निराशा को प्रश्रय

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दर्शन

प्रयोजनवाद (Pragmatism) 

February 11, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

प्रयोजनवाद को फलक वाद,नैमेत्तिक वाद, व्यवहार वाद आदि नामों से जाना जाता है पाश्चात्य दर्शन की उस विचार धारा को प्रयोजनवाद के नाम से जानते हैं जो मानव के मात्र व्यावहारिक पक्ष पर विचार करती है इसे आँग्ल भाषा में प्रैग्मेटिज्म (Pragmatism) कहा जाता है। यह ग्रीक भाषा के प्रेग्मा (Pragma) अथवा प्रेग्मेटिकोस (Pragmaticos) शब्द से बना है। इसका अर्थ व्यावहारिकता से होता है इसलिए इसे प्रैग्मेटिज्म (Pragmatism) कहते हैं।

प्रयोजन वाद की मीमांसाएँ –

प्रयोजनवादियों का मानव और सृष्टि के सम्बन्ध में जो चिन्तन है उसे समझने हेतु उसकी तत्त्व मीमांसा (Metaphysics), ज्ञान व तर्क मीमांसा ( Episteomology and Logic) तथा मूल्य आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) को जानना परम आवश्यक है इसलिए पहले हम उक्त मीमांसाओं को विवेचित करेंगे।

(a) – तत्त्व मीमांसा (Meta Physics)- प्रयोजनवाद का तात्विक विवेचन यह तथ्य स्पष्ट करता है की सत्य निर्धारण की स्थिति में रहता है कोइ पूर्व निर्धारित सत्य नहीं हो सकता,यह परिवर्तनशील होता है। इसे मानवतावादी प्रयोजनवाद (Humanistic Pragmatism) कहते हैं कुछ प्रयोजनवादी उसे ही सत्य स्वीकारते हैं जो प्रयोग की कसौटी पर खरा उतरे इसे प्रयोगवादी प्रयोजन वाद(Experimental  Pragmatism) कहा जाता है कुछ प्रयोजनवादी ऐसे भी हैं जो अनुभव को प्रमाण मानते हैं अनुभव सिद्ध ज्ञान का आधार ले ये कहते हैं कि तथ्य आधारित सत्यता भाषा भिन्न होने पर भी सामान परिणाम देती है इसलिए अलग अलग भाषा होने पर भाषा पर नहीं बल्कि परिणाम पर ध्यान दिया जाना चाहिए इसे नाम रूपी प्रयोजनवाद ( Nominalistic  Pragmatism) कहा जाता है।

प्रयोजनवादियों का एक समूह केवल उसी को सत्य स्वीकारता है जो मानव की जीव वैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं इन्हें जीव विज्ञानी प्रयोजनवाद (Biological Pragmatism) का समर्थक कहा जाता है। कार्य साधन सम्बन्ध के आधार पर तात्विक विवेचना इसे साधनवाद, नैमित्तिकवाद कहने में नहीं हिचकिचाती। डीवी का उपकरण वाद (Instrumentalism) प्राणी को उपकरण मानने के कारण चर्चा में रहा।

(b) – ज्ञान व तर्क मीमांसा (Episteomology and Logic) – इनके अनुसार ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं है बल्कि यह सुख पूर्वक जीवन जीने का आधार है जीवन को सुखमय बनाने वाले साधन के रूप में ये ज्ञान को स्वीकारते हैं सामाजिक गतिविधियों में क्रिया कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ज्ञान और कर्म की इन्द्रियाँ ही वह माध्यम हैं जो ज्ञान, मस्तिष्क, बुद्धि का आधार हैं।

(c) –मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) – चूँकि ये सत्य को शाश्वत मानते ही नहीं इसलिए कोई पूर्व निर्धारित मूल्य या आचरण सार्व कालिक हो ही नहीं सकता। यह मानते हैं कि बच्चों में सामजिक कुशलता का गुण विकसित कर हर परिस्थिति में उसकी जीविकोपार्जन क्षमता, समायोजन क्षमता, समाधान क्षमता को निरन्तर परिमार्जनशीलता से जोड़े रखना चाहते हैं जिससे परिस्थिति अनुसार मूल्य व आचरण नया रूप धारण कर सके।

प्रयोजनवाद की परिभाषाएं (Defenitions of Pragmatism) – प्रयोजनवाद के विविध रूप हैं इसी कारण परिभाषाओं में भी इसी विविधता के दर्शन होते हैं कुछ परिभाषाएं दृष्टव्य हैं जेम्स बी. प्रेट (James B Prett) के शब्दों में –

 ”Pragmatism offer as a theory of meaning, a theory of truth of knowledge and theory of reality.”

”प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धान्त, सत्यता का सिद्धान्त, ज्ञान का सिद्धान्त एवं वास्तविकता का सिद्धान्त प्रदान करता है।”

रॉस (Ross) महोदय कहते हैं। –   

”Pragmatism is essentially a humanistic philosophy maintaining that man creates his own values in course of activity, that reality is still in making and awaits its part of the completion from the future. -Ross

”प्रयोजनवाद निश्चित रूप से एक मानवतावादी दार्शनिक विचारधारा है इसकी यह मान्यता है की मनुष्य कार्य करने के दौरान अपने मूल्यों का स्वयं निर्माण करता है, सत्य अभी निर्माण की अवस्था में है जिसके शेष भागों की पूर्ति भविष्य में होगी।”

प्रयोजनवाद के बारे में विलियम जेम्स (William James) महोदय कहते हैं। –

”Pragmatism is a temper of mind, an attitude, it is also a theory of the nature of ideas and truth and finally, it is a theory about reality.”

फलकवाद मस्तिष्क का एक स्वभाव है, एक अभिवृत्ति है यह विचार और सत्य की प्रकृति का सिद्धान्त है और अन्ततः यह वास्तविकता के बारे में सत्यता का सिद्धान्त है।”

रमन बिहारी लाल ने प्रयोजन वाद की कई विचार धाराओं को समाहित करते हुए  इस प्रकार पारिभाषित किया –

” प्रयोजन वाद पाश्चात्य दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को विभिन्न तत्वों और क्रियाओं का परिणाम मानती है और यह मानती है कि भौतिक संसार ही सत्य है और इसके अतिरिक्त कोई आध्यात्मिक संसार नहीं है।” 

प्रयोजनवाद और  शिक्षा(Pragmatism and Education ) –

प्रयोजनवाद का शिक्षा पर व्यापक प्रभाव पड़ा इस वाद के प्रमुख दार्शनिकों में विलियम जेम्स, जॉन डीवी, किल पैट्रिक, मिलर आदि का नाम आता है इसके प्रभाव ने शिक्षा के उद्देश्यों व इसके अंगों पर परिवर्तनकारी छाप छोड़ी है। जिन्हें इस प्रकार अधिगमित किया जा सकता है।

प्रयोजनवाद के मूल सिद्धान्त (Fundamental Principles of Pragmatism) –

1- ब्रह्माण्ड अनेक तत्त्वों व क्रियाओं का फल

2 – भौतिक जगत मात्र का अस्तित्व

3 – पदार्थजन्य क्रियाशील तत्त्व आत्मा

4 – सहज सामाजिक प्रक्रिया का सोपान मानव विकास

5 – सांसारिक सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव 

6 – सुखपूर्वक जीवन यापन मानव उद्देश्य 

7 – सुखपूर्वक जीवन यापन व सामाजिक विकास परस्पर निर्भर                                                                   

8 – सामाजिक विकास का आधार सामाजिक कुशलता

9 – राज्य एक सामाजिक संस्था

प्रयोजनवाद और  शिक्षा के उद्देश्य (Pragmatism and Aims of Education ) –

प्रयोजनवादी शिक्षा के निश्चित उद्देश्यों को ही स्वीकार नहीं करते पर्यावरण व मूल्य निरन्तर परिवर्तित हो रहे हैं इस आधार पर डीवी महोदय कहते हैं –

”शिक्षा के अपने में कोई उद्देश्य नहीं होते, उद्देश्य तो व्यक्तियों के होते हैं और व्यक्तियों के उद्देश्यों में बड़ी भिन्नता होती है, जैसे जैसे व्यक्तियों का विकास होता जाता है उनके उद्देश्य भी बदलते जाते हैं।”

यह शिक्षा के उद्देश्यों की जगह शिक्षा से बालकों की योग्यताओं में निम्न अभिवृद्धि की आशा करते हैं। –

1 – सामाजिक वातावरण व पर्यावरण से अनुकूलन

2 – गतिशीलता

3 – सामाजिक कुशलता

4 – लोकतान्त्रिक अभिवृत्ति 

प्रयोजनवाद और पाठ्यक्रम (Pragmatism and Curriculum)- ये उद्देश्यों की तरह स्पष्ट विषय विभाजन की जगह पाठ्यक्रम हेतु उन सिद्धांतों को बढ़ावा देना चाहते हैं जो इनके अनुसार बालक हेतु आवश्यक हैं ये कहते हैं समयानुसार सिद्धांतों के अनुसार विषयों की आवश्यकता होगी। इनके अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण हेतु निम्न सिद्धांतों का अवलम्बन लेना होगा।

1 – उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility)

जेम्स महोदय ने कहा है –

”It is true because it is useful.”–William James

”किसी वस्तु की सत्यता उसकी उपयोगिता के आधार पर निर्धारित की जा सकती है।”

2 – रूचि का सिद्धान्त (Principle of Interest)

3 – अनुभव का सिद्धान्त (Principle of Experience)

”विद्यालय समुदाय का अंग है। इसलिए यदि ये क्रियाएं समुदाय की क्रियायों का रूप ग्रहण कर लेंगी तो ये बालक में नैतिक गुणों और पहल कदमी तथा स्वतन्त्रता के दृष्टिकोणों का विकास करेंगी। साथ ही ये उसे नागरिकता का प्रक्षिशण देंगी और उसके आत्मानुशासन को ऊँचा उठाएंगी।”

4 – एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration)

5 – सत्य की परिवर्तनशील प्रकृति (Nature of truth is changeable)

”The truth of an idea is not a stagnant property inherent in it, truth happens to an idea.”-William James

जेम्स महोदय के अनुसार –

”सत्य कोई पूर्ण निश्चित एवम् अनन्त सिद्धान्त नहीं, प्रत्युत वह सदा निर्माण की अवस्था में रहता है।”

जेम्स महोदय पुनः कहते हैं –

”सत्य किसी विचार का स्थाई गुण धर्म नहीं है। वह तो अकस्मात् विचार में निर्वासित होता है।”

6 – क्रिया प्रमुख, ज्ञान द्वित्तीयक (Action main, Knowledge Secondary)

प्रयोजनवाद और शिक्षण विधियां (Pragmatism and Methods of Teaching) –

ये सीखने हेतु किसी शिक्षण विधि का समर्थन करने की जगह व्यावहारिक विधियों के चयन हेतु प्रेरित करते हैं।

रॉस महोदय कहते हैं –

”यह (प्रयोजनवाद) हमें चेतावनी देता है की हम प्राचीन और घिसीपिटी विचार क्रियाओं को अपने शैक्षिक व्यवहार में प्रमुख स्थान न दें और नई दिशाओं में कदम बढ़ाते हुए अपनी विधियों में नए प्रयोग करें।”

  • – उद्देश्य पूर्ण शिक्षण विधि(Purposive Process of Learning) –

ये चाहते हैं कि अध्यापक ऐसी विधि का अनुसरण करे जिससे बालक अपनी इच्छा रूचि और प्रवृत्ति के अनुसार अपने आप ज्ञान लब्ध करे।

रॉस के शब्दों में – ”सीखने की प्रक्रिया उद्देश्य पूर्ण होनी चाहिए।”

  • – क्रिया विधि से सीखना  (Learning by Doing ) –

प्रयोजनवादी बालक को रटाने की जगह क्रिया द्वारा सीखने पर बल देते हैं ‘करके सीखना’ से आशय मात्र ‘व्यावहारिक कार्य’ को तरजीह देना नहीं है बल्कि उसे ऐसा बनाना है जो हर परिस्थिति से तारतम्य बना सके।

  • – प्रोजेक्ट विधि (Project Method) –

प्रोजेक्ट पद्धति, समस्या समाधान पद्धति, स्वक्रिया पद्धति, स्व अनुभव पद्धति,सह सम्बन्ध पद्धति, परीक्षण पद्धति ,प्रयोग पद्धति पर इन्होंने विशेष ध्यान केन्द्रित किया। इन्हें प्रोजेक्ट पद्धति का जनक कहा जाता है जिसमें उक्त सभी विधि तो सम्मिलित हैं ही साथ में निम्न तथ्य समाहित करने पर जोर दिया।

1 – बालक की रूचि के अनुसार शिक्षा प्रदान की जाए।

2 – ज्ञान प्राप्ति हेतु स्वतन्त्रता प्रदान की जाए।

3 – वैयक्तिक भिन्नता का ध्यान रखा जाए।

4 – सामाजिक भावना का विकास किया जाए।

5 – बालकों के शब्दों से अधिक कार्यों पर ध्यान दिया जाए।

प्रयोजनवाद और अध्यापक (Pragmatism and Teacher) –

प्रयोजनवादियों का मानना है कि शिक्षक बालक को समाजोन्मुख करने वाला प्रमुख व्यक्ति है समाज के प्रतिनिधि के रूप में उसे निरीक्षण करने सहयोग देने व बालक को उत्साहित मात्र कराने का अधिकार है उस पर अपने विचार लादने का नहीं। शिक्षक को अपनी परिष्कृत बुद्धि परिमार्जित व्यक्तित्व द्वारा बालकों के ज्ञान तथा समाज हेतु तैयारी के आधार पर बालकों की सहायता करनी चाहिए।

प्रयोजनवाद और अनुशासन (Pragmatism and Discipline) –

डीवी व अन्य प्रयोजनवादी अनुशासन को प्रजातान्त्रिक ढंग से स्व अनुशासन, रूचि व सहयोग पर आधारित करना चाहते हैं।

हैरोल्ड जी 0 शैन ने डीवी से प्रभावित होकर कहा –

”जहाँ तक अनुशासन का सवाल है, डीवी के मानदण्ड उच्च श्रेणी के थे आवश्यकता हो तो अध्यापकों पर कठोर नियन्त्रण रखने से लेकर, छात्रों की परिपक़्वता के साथ आत्मानुशासन के महत्त्व को स्वीकारने तक।”

प्रयोजनवाद और विद्यालय (Pragmatism and School) –

प्रयोजनवादी विद्यालय को समाज के लघु रूप में स्वीकारते हैं और विद्यालयों में शिल्पों पर बल देकर शिक्षा को जीविकोपार्जन हेतु उपयोगी बनाना चाहते हैं।

डीवी ने कहा – ” विद्यालय अपनी चहारदीवारी के बाहर से बहुत कुछ समाज की प्रतिच्छाया है।”

ये जीवन के सर्वोत्तम ढंग को सिखाना चाहते हैं।

डीवी ने कहा – ” विद्यालय सामाजिक प्रयोगों की प्रयोगशाला होनी चाहिए, जिससे बालक एक दूसरे के साथ रहकर जीवन यापन के सर्वोत्तम ढंगों को सीख सकें।”

प्रयोजनवाद का मूल्यांकन (Estimate of Pragmatism) – मूल्याङ्कन हेतु आवश्यक हे कि इसके गुण दोषों का अध्ययन किया जाए।

प्रयोजनवाद के गुण  (Merits of Pragmatism) –

1 – बाल केन्द्रित शिक्षा

2 – क्रिया आधारित शिक्षा

3 – लोकतन्त्रीय शिक्षा

4 – सामाजिक व्यवहारिक शिक्षा

5 – प्रोजेक्ट पद्धति का प्रयोग

6 – शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन

7 – विचारों को व्यवहार के अधीन लाना –

रस्क महोदय ने कहा –

”प्रयोजनवाद का वह रूप जिसने अपना सर्वाधिक प्रभाव डाला है, यह है की उसने शिक्षा के क्षेत्र में विचारों को व्यवहारों के अधीन कर दिया है।”

प्रयोजनवाद के दोष   (Demerits of Pragmatism) –

1 – सत्य सम्बन्धी धारणा अनुचित

2 – आध्यात्मिकता को तिलाञ्जलि  

3 – उपयोगिता निर्णयन दुष्कर

4 – निश्चित उद्देश्य का अभाव

5 – पाठ योजना बनाना कठिन

6 – बुद्धि के महत्त्व में कमी

7 – सांस्कृतिक अवमूल्यन

8 – अतीत की उपेक्षा

9 – एकत्व वाद के सापेक्ष बहुवाद पर अधिक बल

उपरोक्त विवेचन में भले ही दोष, गुण की तुलना में अधिक दिखते हों लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किय जा सकता कि इसने शिक्षा जगत में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये हैं। रस्क (Rusk) महोदय ने कहा –

”It is merely a stage in the development of a new Idealism that will do full justice of reality, reconcile the practical and the spiritual values, and result in a culture which is the flower of efficiency.”

”प्रयोजनवाद, नवीन आदर्श वाद के विकास में एक चरण मात्र है। यह नवीन आदर्शवाद ऐसा होगा, जो सदैव जीवन की वास्तविकता का ध्यान रखेगा और व्यावहारिक और आध्यात्मिक मूल्यों का समन्वय करेगा। इसके साथ ही, यह ऐसी संस्कृति का निर्माण करेगा, जो कुशलता का पुष्प होती है।”

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दर्शन

IDEALISM/आदर्शवाद या प्रत्यय वाद या विचार वाद

February 7, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

Meaning and definition

अर्थ एवम् परिभाषा –

शब्द ‘आदर्शवाद ‘ आंग्ल भाषा के ‘Idealism’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है प्लेटो के विचारवादी सिद्धान्त से ही शब्द ‘Idealism’ की उत्पत्ति हुई है जिससे आशय है की अन्तिम सत्ता विचारों की ही है इसलिए इसे विचारवाद या प्रत्यय वाद भी कहते हैं।  ‘Idea -ism’  में ‘l’ उच्चारण की सुविधा हेतु जोड़ा गया। वास्तविक शब्द  Idea-ism ही है।

आदर्शवादी धारणा भौतिक जगत की तुलना में आध्यात्मिक जगत को महत्त्व पूर्ण मानती है इस धारणा  के अनुसार भौतिक जगत नाशवान व असत्य है और आध्यात्मिक जगत सत्य है जैसा कि डी ० एम ० दत्ता जी ने कहा –

” Idealism holds that ultimate reality is spiritual.”

“आदर्शवाद वह सिद्धान्त है जो अन्तिम सत्ता आध्यात्मिक मानता है। “

आदर्शवादी संसार का उत्पादक कारण मन या आत्मा को मानते हैं जैसा कि J.S. Ross  महोदय ने कहा –

“Idealistic philosophy takes many and varied forms, but the postulate underlying all that mind or spirit is the essential world stuff, that the true reality is of a mental character.”

“आदर्शवाद के बहुत से और विविध रूप हैं परन्तु सबका आधारभूत तत्व यह है कि संसार का उत्पादक कारण मन या आत्मा है और मानसिक स्वरूप ही वास्तविक सत्य है।”

आदर्शवादी मानता है कि स्थाई तत्त्व की प्रकृति मानसिक है पहले विचार आता है और उसकी अभिव्यक्ति से सृजन होता है। Herman H. Horne  के अनुसार –

”  Idealism is the conclusion that the universe is an expression of intelligence and will, that the enduring substance of the world is of the nature of mind that the material is explained by the mental.”

“आदर्शवाद का सार है कि ब्रह्माण्ड बुद्धि एवम् इच्छा की अभिव्यक्ति है विश्व के स्थाई तत्व की प्रकृति मानसिक है और भौतिकता की व्याख्या बुद्धि द्वारा की जाती है ।”

Fundamental principles of Idealism

आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त –

or

Basic assumptions of Idealism

शिक्षा की मूलभूत अवधारणाएं –

  • जड़ प्रकृति की अपेक्षा मनुष्य को महत्त्व

Rusk महोदय के अनुसार –

” The spiritual and cultural environment is an environment of man’s own making, It is a product of man’s creative activity.”

” इस आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण स्वयं मनुष्य ने किया है अर्थात समस्त नैतिक तथा आध्यात्मिक वातावरण समस्त मनुष्यों की रचनात्मक क्रियाओं का फल है। “ 

२ – भौतिक से अधिक आध्यात्मिक जगत को महत्त्व –          

आदर्शवादी विचारकों ने स्वीकार किया की आध्यात्मिक जगत ही अधिक महत्त्व पूर्ण है इसीलिये भौतकवादी व्यवस्था का स्थान गौड़ है।

३ – वस्तु की अपेक्षा विचार को महत्त्व – विचार की महत्ता स्वीकारते हुए प्लेटो महोदय ने कहा –

“विचार अन्तिम एवम् सार्वभौमिक महत्तव वाले होते हैं यही वे परमाणु हैं जिनसे विश्व को रूप प्राप्त होता है। ये वे आदर्श अथवा प्रतिमान हैं जिनके द्वारा उचित की परीक्षा की जाती है। ये विचार अन्तिम एवम् अपरिवर्तनीय हैं। ”

४ -आध्यात्मिक मूल्यों में आस्था – हैंडरसन महोदय ने अपने विचारों को इस प्रकार अभिव्यक्ति किया –

“Idealism emphasis the spiritual side of man because to the idealist spiritual values are the most important aspects of man and life.”

 “आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर बल देता है क्योंकि आदर्शवादियों के लिए आध्यात्मिक मूल्य जीवन के तथा मनुष्य के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। ”

५ -व्यक्तित्व के विकास पर बल – आदर्श वादी स्वीकारते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति से व्यक्तित्व का विकास होता है जैसा कि रॉस महोदय ने कहा-

” The aim of Education especially associated with Idealism is the exaltation of personality or self.”-J. S. Ross

” आदर्श वाद से विशेष रूप से सम्बन्धित शिक्षा का उद्देश्य है -व्यक्तित्व का उत्कर्ष अथवा आत्मानुभूति। ”

६ – विभिन्नता में एकता का सिद्धान्त-

विभिन्नता (विविधता ) ———————-एकता (चेतन तत्त्व, ईश्वर, एक शक्ति )

यह केन्द्रीय शक्ति संसार के सभी प्राणियों को एकता के सूत्र में आबद्ध करती है।   

७ -ब्रह्माण्ड मानव मस्तिष्क में निहित –

ब्रुवेकर  ( Brubacher  )-

 “The idealists point out that it is a mind that is central in understanding the world.”

                                 “आदर्श वादियों का कहना है कि संसार को समझने के लिए मस्तिष्क सर्वोपरि है।”

आदर्शवादी विचार को शाश्व

त मानते हैं उदाहरण के लिए कार आज है कल नष्ट हो सकती है परन्तु कार का विचार नष्ट नहीं हो सकता है।

आदर्शवाद व शिक्षा के उद्देश्य(Idealism and its aim) –

1-व्यक्तित्व का उत्कर्ष या आत्मानुभूति –रॉस – ”आदर्शवाद से विशेष रूप से सम्बन्धित शिक्षा का उद्देश्य है – व्यक्तित्व का उत्कर्ष या आत्मानुभूति ;अर्थात आत्मा की सर्वोत्तम शक्तियों या क्षमताओं को वास्तविक रूप देना ।”

2-सांस्कृतिक विरासत की समृद्धि –

रस्क -”शिक्षा को मानव जाति को इस योग्य बनाना चाहिए कि वह अपनी संस्कृति की सहायता से आध्यात्मिक जगत में अधिक से अधिक पूर्णता से प्रवेश कर सकें और आध्यात्मिक जगत की सीमाओं का विस्तार कर सकें।”

3-मूल्यों व आदर्शों की स्थापना –

रस्क -”आदर्श या मूल्य तीन हैं –

1- मानसिक- जो ज्ञात हैं।

2 – भावात्मक- जिनका अनुभव किया जाता है।

3 -सांस्कृतिक- जिनका संकल्प किया जाता है।

4 – पवित्र जीवन की प्राप्ति – फ्रोबेल महोदय ने कहा –

“शिक्षा का उद्देश्य भक्तिपूर्ण, पवित्र तथा कलंक रहित जीवन की प्राप्ति है। शिक्षा को मनुष्य का पथ प्रदर्शन इस प्रकार करना चाहिए कि उसे अपने आप का ,प्रकृति का सामना करने का और ईश्वर से एकता स्थापित करने का स्पष्ट ज्ञान हो जाए।

  5 – आध्यात्मिक  चेतना का विकास –

आदर्शवादियों  विश्वास है कि जब मनुष्य अपने प्राकृतिक ‘स्व’ एवम् सामाजिक ‘स्व’ से ऊपर उठकर अपने बौद्धिक ‘स्व’ से नियन्त्रित होने लगता है तो यह यात्रा अन्ततः आध्यात्मिक ‘स्व’ के क्षेत्र में प्रवेश कर जाती है।

6 – नैतिक एवम् चारित्रिक विकास –

आदर्शवादी दार्शनिकों का स्पष्ट मत है कि शिक्षा के द्वारा मानव का चारित्रिक व नैतिक उत्थान हो जिससे वह राष्ट्रोत्थान हेतु तत्पर हो प्लेटो,हीगल व फिक्टे भी श्रेष्ठ नागरिकों के निर्माण उद्देश्य रूप में स्वीकार करते हैं।

7 –  शारीरिक विकास –

आदर्श वादी शिक्षा द्वारा हृष्ट पुष्ट व्यक्ति तैयार कर स्व रक्षार्थ व राष्ट्र रक्षार्थ उनका उपयोग निस्वार्थ करना चाहते हैं। वे शारीरिक से मानसिक व आध्यात्मिक उद्देश्य लब्धि सुनिश्चित करना चाहते हैं।

8 –  सत्यम् शिवम् सुंदरम् की प्राप्ति –

 ये विश्वात्मा से तादात्म्य हेतु सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की मानव मन में स्थापना चाहते हैं यद्यपि ये पृथक सत्ताएं नहीं हैं सत्ता एक है वही सत्यम् है वही  शिवम् है वही सुंदरम् है। सब इसी में निहित है।

Idealism and Curriculum

आदर्शवाद और पाठ्यक्रम –

आदर्शवादी मानव के मानसिक, शारीरिक,बौद्धिक,सांस्कृतिक,सामाजिक,नैतिक,चारित्रिक व आध्यात्मिक प्रगति पर बल देते हैं और इस हेतु पाठ्यक्रम में साहित्य, भाषा,नीति शास्त्र और अध्यात्म शास्त्र पर विशेष बल देते हैं।

प्लेटो ने पाठ्यक्रम से मानव मूल्यों का पोषण चाहा इसीलिये सत्यम् हेतु भाषा, साहित्य, गणित, भूगोल ,विज्ञान,इतिहास, शिवम् हेतु नैतिक शास्त्र,धर्म शास्त्र अध्यात्म शास्त्र और सुन्दरम् को आचरण में लाने के लिए कला,कविता,नृत्य आदि का पाठ्यक्रम में समावेशन चाहा।  

जर्मन आदर्शवादी हर्बर्ट भाषा,साहित्य,संगीत व कला को प्रमुख व विज्ञान को गौड़ स्थान प्रदान करते थे।

इंग्लैण्ड के आदर्शवादी नन महोदय शरीर विज्ञान, समाज शास्त्र,धर्म, नीति शास्त्र,साहित्य,कला,संगीत, इतिहास,भूगोल,गणित,विज्ञान को उचित समझते थे।  

Idealism and Methods of Teaching

आदर्शवाद और शिक्षण की विधियाँ –

आदर्शवाद में शिक्षण उद्देश्य स्पष्ट व निश्चित हैं इसलिए उद्देश्य प्राप्ति को प्रमुख मानकर बालक की रूचि व योग्यता के अनुसार शिक्षण विधि विकसित व प्रयुक्त करना चाहते हैं बटलर ने कहा भी है –

“Idealists consider themselves creators and determiners of methods not devotees of some one method.”

 ”आदर्शवादी अपने को किसी एक विधि का भक्त न मानकर विधियों का निर्माण व निश्चय करने वाला मानते हैं।”

कुछ आदर्शवादियों द्वारा प्रयुक्त विधियों को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –

सुकरात – वाद विवाद, व्याख्यान, प्रश्नोत्तर

प्लेटो  –    प्रश्नोत्तर, संवाद

अरस्तु –   आगमन विधि,निगमन विधि

हीगल  –   तर्क विधि

पेस्टालोजी – अभ्यास एवं आवृत्ति विधि

हर्बर्ट    –   अनुदेशन विधि

फ्रोबेल  – खेल विधि 

Idealism and Discipline

आदर्शवाद और अनुशासन –

आदर्शवादी अनुशासन को अत्याधिक महत्तव प्रदान करते हैं लेकिन यह अनुशासन दमनात्मक न होकर आत्म अनुशासन होना चाहिए जो समर्पण भाव पर आधारित हो न की स्वातन्त्रय  आधारित। थॉमस व लैंग के अनुसार –

”Freedom is the cry of naturalists while discipline is that of Idealists.”

“प्रकृतिवादियों का नैरा स्वतन्त्रता है जबकि आदर्शवादियों का नैरा अनुशासन है। ”

एक अन्य विचारक फ्रोबेल अनुशासन स्थापन में प्रेम व सहानुभूति की आवश्यकता महसूस करते हुए कहते हैं –

”Control over the child is to be exercised through a knowledge of his interests and by expression of love and sympathy.”

”बालक की रूचि का ज्ञान प्राप्त करके तथा प्रेम और सहानुभूति प्रकट करके उस पर नियन्त्रण किया जाना चाहिए।”

आदर्शवादी मानते हैं कि अनुशासन में रहकर ही आत्मानुभूति जैसा विहिश्त आध्यात्मिक उद्देश्य प्राप्त हो सकता है।

Idealism and Teacher

आदर्शवाद और शिक्षक –

आदर्शवादी शिक्षक को गरिमामयी गौरवपूर्ण स्थान प्रदत्त करते हैं इनकी दृष्टि में बालक के आध्यात्मिक विकास में शिक्षक महत्त्वपूर्ण कारक है क्योंकि वह आध्यात्मिक गुणों का वह प्रकाश पुंज है जो आध्यात्मिक वातावरण का सृजन कर सकता है। वह माली की भाँती है जो मनमोहिनी छटा के सृजन में महत्तानपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है शिक्षक के महत्तव को दर्शाते हुए Ross कहते हैं –

”The naturalist may be content with briars but the idealist wants fine roses, so the educator by his efforts assists the educand who is developing according to the laws of his nature to attain levels that would otherwise be denied to him.”

”एक प्रकृतिवादी केवल काँटों को देखकर ही सन्तुष्ट हो सकता है परन्तु आदर्शवादी सुन्दर गुलाब का पुष्प देखना चाहता है इसलिए शिक्षक अपने प्रयासों से बालक को, जो अपनी प्रकृति के नियमों के अनुसार विकसित होता है उस उच्चता तक पहुँचाने में सहायता देता है जहां तक वह स्वयं नहीं पहुँच सकता।”

Idealism and Child 

आदर्शवाद और बालक –

आदर्शवादी बालक को मन व शरीर दोनों मानते हैं जिसमें मन को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं उनके अनुसार अनुभव का केन्द्र मष्तिस्क नहीं आत्मा है और इस दृष्टि से सब बच्चे सामान हैं व पूर्णता की अनुभूति के योग्य हैं लेकिन ज्ञान को आत्मा ( बोध स्तर ) तक पहुंचाने में शरीर की इन्द्रियाँ कार्य करती हैं और इनकी क्षमता की भिन्नता अन्तर का कारण है।

जर्मन शिक्षा शास्त्री पेस्टालॉजी ने सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक भिन्नता के आधार पर शिक्षा का विधान दिया उनके शिष्य हर्बर्ट व फ्रोबेल ने इसे मूर्त रूप दिया।

Evaluation of Idealism as educational philosophy

शिक्षा दर्शन के रूप में आदर्शवाद का मूल्यांकन –

विश्व के महान दार्शनिक सुकरात,प्लेटो, बर्कले, लाइबनित्स,फिख्टे,शॉपेन हॉवर, हीगल, कार्लायल, एमर्सन, ग्रीन, ब्रैडले, टेलर, पेस्टालॉजी, हर्बर्ट, फ्रोबेल, आदि पाश्चात्य विचारकों की विचारधारा में कुछ अन्तर अवश्य है लेकिन ये सभी परम सत्य में अखण्ड विश्वास रखते थे यह विचारधारा भारतीय विचारधारा के सबसे निकट है गन दोषों के आधार पर इसका मूल्याँकन इस प्रकार किया जा सकता है – 

Merits of Idealism (आदर्शवाद के गुण)-

1- सर्वोत्कृष्ट मूल्यों की स्थापना

2 – चारित्रिक विकास

3 – सशक्त व्यक्तित्व का गठन

4 – शिक्षक को गौरवपूर्ण स्थान

5 – आत्म अनुशासन की भावना

6- विद्यालय को सामाजिक संस्था का स्थान

7 – रचनात्मक शक्ति का विकास

8 – निश्चित उद्देश्य 

Demerits of Idealism (आदर्शवाद की कमियाँ) –

1 – अध्यात्म पर अधिक बल

2 – केवल भविष्य से सम्बन्ध

3 – बौद्धिकता को आवश्यकता से अधिक महत्तव

4 – बालक को गौण स्थान

5 – अंतिम ध्येय पर सम्पूर्ण ध्यान

6 – वैज्ञानिक विषयों को कम महत्त्व

7 – शाश्वत आदर्श की परिकल्पना विवादास्पद         

आदर्शवाद के गुण दोषों का मन्थन करने पर हमें गुणों का पलड़ा ही भारी महसूस होता है इस विचारधारा ने सबसे दीर्घ अवधि तक अपनी छाप छोड़ी है व मानव को सच्चे अर्थों में मानव बनने में योग दिया है इसमें मानसिक, नैतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक शक्तियों को बल मिला है।रस्क कहते हैं –

“These powers lie beyond the range of the positive sciences-biological and even psychological, they raise problems which only philosophy can hope to solve and make the only satisfactory basis of education a philosophical one.” 

“ये शक्तियाँ जीव विज्ञान तथा मनोविज्ञान जैसे वास्तविक विज्ञानों की सीमा से परे हैं ये शक्तियाँ ऐसी समस्याओं को प्रस्तुत करती हैं जिनको केवल दर्शन ही सुलझा सकता है इस प्रकार केवल यही शक्तियाँ शिक्षा के संतोषजनक आधार अर्थात दार्शनिक आधार को निर्मित करती हैं।” 

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दर्शन

प्रकृतिवाद और शिक्षा /NATURALISM AND EDUCATION

January 27, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

प्रकृतिवाद क्यों उठा (Why did Naturalism arise?)

               अथवा                                        or

प्रकृतिवाद की उत्पत्ति के उत्तरदाई कारण(Causes responsible for arising Naturalism)

पाश्चात्य चिन्तनधारा की दार्शनिकता अठारहवीं शताब्दी के मध्य में वह ज्वार लाई जिससे प्रकृतिवाद उद्भवित हुआ वस्तुतः उक्त तथ्य के स्पष्टीकरण हेतु उस काल की सामाजिक स्थिति का अवलोकन अपरिहार्य प्रतीत होता है, उस काल में जर्मनी में अति धार्मिकता या पूण्य शीलता (Pietism), फ्रांस में जैनसेनिज्म(Jansenism), इंग्लैण्ड में अतिनैतिकतावाद (Puritanism) के आन्दोलन से धर्म में नियम निष्ठता व नियमित विनय (Formalism) बढ़ रहा था, धर्म की कठोरता आडम्बर की उत्पत्ति का कारण बन रही थी।

            लुई चतुर्दश का यह शासनकाल योरोप में फ्रान्स की श्रेष्ठता का काल था, साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, प्रायः सभी क्षेत्रों में फ्रांस दूसरों हेतु आदर्श स्वरुप हो रहा था चर्च सर्वेसर्वा था।  विचार और कार्य के क्षेत्र में उसकी ध्वनि अन्तिम थी। इस निरंकुशता ने धनिक वर्ग को मदमस्त किया व साधारण जन वर्ग इस मस्ती का शिकार बना यथा साधारण लोगों को आलू की तरह भून देना, 164 अपराध होने पर मृत्यु दण्ड (इंग्लैण्ड), कल्पित नास्तिकों पर अत्याचार आदि के परिणाम स्वरुप विरोध की ध्वनि का गुञ्जन हुआ।

            यह मुख्यतः दो तरीकों से हुआ –

(a) – बुद्धि द्वारा विचारों के प्रसार की परिणति प्रकृति वाद में हुई, जिसे बुद्धि द्वारा विरोध या प्रबोध (Enlightenment) कहते हैं। प्रबोध की लहर प्रकृतिवाद के उद्भव का कारण बनी, इस लहर को फैलाने का श्रेय फ्रांस व जर्मनी के दार्शनिकों, स्वतन्त्र विचारकों व आध्यात्मिक लेखकों को है इंग्लैण्ड में लॉक को प्रबोध का प्रतिनिधि कहा जाता है कई विद्वान बौद्धिक शक्ति की प्रथम लहर का प्रतिनिधि वाल्टेयर व उत्तर काल की लहर  का प्रतिनिधि रूसो को स्वीकारते हैं।रूसो के व्यापक प्रभाव को स्वीकारते हुए ही कहा गया कि जो दूसरे सोच रहे थे उसे वाल्टेयर ने कहा परन्तु जो दूसरे अनुभव कर रहे थे उसे रूसो ने कहा।  

(b) – जनवर्ग द्वारा अधिकार प्राप्ति के संघर्ष की परिणति फ्रांस की राज्य क्रान्ति के रूप में हुई और प्रकृतिवाद को आधार मिला।

            इस प्रकार राजनीति, धर्म व विचार के क्षेत्र की निरंकुशता का परिणाम प्रकृति वाद के रूप में अस्तित्व में आया अब धर्म का आधार चर्च नहीं बल्कि मानव स्वभाव नया आदर्श बना।

प्रकृति वाद की परिभाषा –

प्रकृति वाद की परिभाषा देते हुए W.E. Hocking ने  कहा –       

“Naturalism is the type of metaphysics which takes nature as the whole of reality. That is it excludes whatever is supernatural or otherworldly.”

“प्रकृतिवाद तत्त्वमीमांसा का वह रूप है जो प्रकृति को पूर्ण वास्तविकता मानता है अर्थात यह परा प्राकृतिक या दूसरे जगत को अपने क्षेत्र के बाहर रखता है।”

जबकि James Ward महोदय का मानना है कि –

“Naturalism is the doctrine which separates nature from God, subordinates spirit to the matter, and sets up unchangeable laws as supreme.”

“प्रकृतिवाद वह सिद्धान्त है जो प्रकृति को ईश्वर से अलग करता है आत्मा को पदार्थ के अधीन करता है तथा अपरिवर्तनीय नियमों को सर्वोच्च मानता है।”

Thomas and Lang महोदय कहते हैं –

“Naturalism as opposed to Idealism subordinates mind to matter and holds that ultimate reality is material not spiritual.”

प्रकृतिवाद आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधीन मानता है और विश्वास करता है कि अन्तिम वास्तविकता भौतिक है आध्यात्मिक नहीं।”

Joyse महोदय का मानना है

“Naturalism is a system whose silent characteristics is the exclusion of whatever is spiritual or indeed whatever is transcendental of experience from our philosophy of nature and man.”

“प्रकृतिवाद वह तन्त्र है जिसकी प्रमुख विशेषता आध्यात्मिकता को अस्वीकार करना है अथवा प्रकृति एवम् मनुष्य के दार्शनिक चिन्तन में उन बातों को स्थान देना है जो हमारे अनुभवों से परे नहीं हैं।’’

प्रकृतिवाद के प्रकार–

तत्त्व ज्ञान की दृष्टि प्रकृतिवाद को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है –

(A) – वैज्ञानिक प्रकृतिवाद –

इसमें भौतिक विज्ञान आधारित प्रकृतिवाद(आकस्मिकता सिद्धान्त ) व जीव विज्ञान आधारित प्रकृतिवाद (डार्विन का विकास वाद )आते हैं।

(B) – यन्त्र वाद

प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएं  (Characteristics of Naturalistic Education) –

(1) – पूर्ण स्वतन्त्रता (Full Freedom)

(2) – बालक केन्द्रित शिक्षा (Child Centered Education)

(3) – प्रगतिशीलता (Progressiveness)

(4) – किताबी ज्ञान का विरोध (Abolition of Bookish Knowledge)

(5) – निषेधात्मक शिक्षा (Negative Education)

Rousseau महोदय इसके समर्थन में कहते हैं –

“The first education ought to be purely negative. It consists not all in teaching virtue or truth but in shielding the heart from vice and the mind from the error.”

“बालक की प्रथम शिक्षा विशुद्ध रूप से निषेधात्मक होनी चाहिए इसमें सत्य और सद्गुण की शिक्षा बिलकुल सम्मिलित न होकर बालक के हृदय को अवगुण से तथा मन को त्रुटि से बचाना निहित है।”

(6) – प्राकृतिक पद्धतियों का अनुसरण (Follow of Natural Process)

प्रकृतिवाद के मूल सिद्धान्त

Fundamental Principles of Naturalism –

(1) – ब्रह्माण्ड एक प्राकृतिक रचना

(2) – भौतिक संसार सत्य, इससे परे कोई आध्यात्मिक संसार नहीं 

(3) – आत्मा पदार्थजन्य चेतन तत्व

(4) – सर्वश्रेष्ठ सांसारिक कृति मानव

(5) – मानव विकास एक प्राकृतिक क्रिया

(6) – मानव जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना

(7) – सुखपूर्वक जीने हेतु प्राकृतिक जीवन उत्तम 

(8) – प्राकृतिक जीवन में सामर्थ्य, समायोजन और परिस्थिति पर नियन्त्रण आवश्यक 

(9) – राज्य केवल व्यावहारिक सत्ता

प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य (The Aims of Education According to Naturalism)-

(1) – प्रकृति का अनुसरण – रूसो की प्रसिद्ध कृति ‘एमील’ के अंग्रेजी अनुवाद में विलियम पैने अपने अनुवादकीय प्राक्कथन में लिखते हैं –

“Simplify your methods as much as possible, distrust the artificial aids that complicate the process of learning, bring your people face to face with reality connect symbol with substance, make learning as for as possible process of personal discovery, depend as little as possible on mere authority. This is my interpretation of Rousseau’s follow nature.”

“अपनी पद्धतियों को यथा सम्भव सरल बनाओ, शिक्षण प्रक्रिया को जटिल बनाने वाले कृत्रिम साधनों में विश्वास न करो। अपने शिष्य को यथार्थ का सामना करने दो। प्रतीक को पदार्थ से संयुक्त करो यथा सम्भव सीखने की क्रिया को स्वानुसन्धान की प्रक्रिया बनाओ। केवल शब्द प्रमाण पर बहुत कम निर्भर रहो, मैं रूसो की उक्ति – प्रकृति का अनुसरण करो – का यही तात्पर्य समझता हूँ।”

(2 – मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण एवम् शोधन

(3) – जीवन संघर्ष की सामर्थ्य का विकास

(4)- पर्यावरण से अनुकूलन

(5) – प्राकृतिक जीवन जीने योग्य बनाना

(6)- पूर्ण सामाजिक जीवन की तैयारी

(7)- व्यक्ति की वैयक्तिकता का विकास

(8)- जातीय गुणों का विकास व संरक्षण

(9)- अवकाश का सदुपयोग

(10) – आत्म रक्षा

प्रकृतिवाद और बालक (Naturalism And Child)-

बालक जन्म के समय विकार रहित, निश्छल, निष्कपट, वर्ग, समुदाय, रीति रिवाज, रूढ़ियों व सामाजिक विकृतियों से मुक्त होता है जबकि मनुष्य इसके विपरीत स्वभाव का होने के कारण सुन्दर की जगह असुन्दर अच्छाई के स्थान पर बुराई प्रत्यारोपित करता है ऐसे दूषित समाज के सम्पर्क में आकर बालक भी स्वाभाविक रूप से विकृत हो जाएगा। प्रकृतिवादी बालकों की शिक्षा व्यवस्था उनकी रूचि, क्षमता और स्वाभाविक विकास को ध्यान में रखकर देना चाहते हैं।

प्रकृतिवाद और अध्यापक (Naturalism and Teacher)-

प्रकृतिवादी बाल केन्द्रित शिक्षा व स्वतन्त्रता पर अधिक बल देते हैं और इस हेतु अध्यापक को वातावरण सृजित करने वाला मानते हैं वे अध्यापक में वैयक्तिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, मानवीय व प्रकृति प्रेम के गुणों को आवश्यक मानते हैं। जिससे वे बालकों की योग्यताओं और अभिरुचियों को जान सकें उनके प्रति समता स्नेह और सहानुभूति के भावों को प्रदर्शित कर सकेंऔर बच्चे उनसे भयभीत न हों। बच्चों को प्रकृति के सानिध्य में लाकर ऐन्द्रिक विकास करने हेतु रूसो ने अध्यापकों का आवाहन करते हुए कहा –

“All wickedness comes from weakness, A child is bad because he is weak make him strong and he will be good.”

“सारे दोष कमजोरी से आते हैं बालक कमजोर है इसलिए बुरा है उसे बलिष्ठ बनाओ और वह अच्छा हो जाएगा।”

प्रकृतिवाद और शिक्षण विधि  (Naturalism and Methods of Teaching )-

ये बाल मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षण विधि को समर्थन देते हुए निम्न शिक्षण विधियों का समर्थन करते हैं –

बाल केन्द्रित शिक्षण विधि

क्रिया प्रधान शिक्षण विधि

रूचि आधारित शिक्षण विधि   

भावना आधारित शिक्षण विधि

भ्रमण द्वारा शिक्षण

मुक्तयात्मक शिक्षण विधि 

प्रकृतिवाद और अनुशासन   (Naturalism and Discipline )-

प्रकृतिवादी अध्यापक द्वारा किसी भी प्रकार दण्ड देने के खिलाफ थे उनका मानना था की प्रकृति स्वयं दण्ड देगी। ये मुक्तयात्मक अनुशासन चाहते थे और प्राकृतिक दण्ड व्यवस्था के कायल थे।

प्रकृतिवाद और पाठ्यक्रम   (Naturalism and Curriculum) –

इन्होंने शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भौतिक विज्ञान पर अधिक व साहित्य, कला, सङ्गीत पर उससे कम, धर्म शास्त्र  व नीति शास्त्र पर कोई ध्यान नहीं दिया।

रूसो ने सैद्धान्तिक ज्ञान का विरोध किया, खेल कूद, तैराकी, घुड़सवारी व हस्त कार्यों को महत्त्व प्रदान किया व नारियों हेतु गृह कार्य को उचित बताया।

हर्बर्ट स्पेंसर महोदय ने क्रिया आधारित पाठ्यक्रम का सुझाव दिया। जो इस प्रकार है –

 प्रकृतिवाद का मूल्यांकन(Estimate of Naturalism) –

मूल्यांकन हेतु गुण दोषों का विवेचन आवश्यक है इसलिए पहले गुण उसके बाद कमियों पर विचार करेंगे।

गुण (Merits) –

प्रकृतिवाद ने शिक्षा के क्षेत्र को दिशा दी जिससे प्रभावित होकर पॉल मुनरो महोदय कहते हैं –

“Naturalism has given impetus to the clear formation of the psychological, Sociological and Scientific conception of Education.”

“प्रकृतिवाद ने शिक्षा की मनोवैज्ञानिक समाजशास्त्रीय तथा वैज्ञानिक धारणा के स्पष्ट निर्माण में प्रत्यक्ष प्रेरणा दी है।”

प्रेरणा के इस प्रभाव को निम्न गुणों में समावेशित देखा जा सकता है –

1 – बाल केन्द्रित शिक्षा का उद्भव

2 – पूर्ण स्वतन्त्रता

3 – दमन का विरोध

4 – बालक अनेक शक्तियों का केन्द्र

5 – प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों को समर्थन

6 – पाठ्यचर्या निर्माण में रूचि, स्वतन्त्रता, स्वक्रिया व विकास पर बल   

7 – डॉल्टन, माण्टेसरी, किण्डर गार्टन व प्रोजेक्ट पद्धति का विकास   

8 – व्यवहार वाद की उत्पत्ति का कारक

9 – समाज शास्त्र के वैज्ञानिक अध्ययन को बढ़ावा

10 – बाल मनोविज्ञान का शिक्षा में प्रयोग

11 – प्राकृतिक वातावरण में विद्यालय 

दोष (Demerits)-

1 –  स्वतन्त्रता पर आवश्यकता से अधिक बल

2 – प्राकृतिक अनुशासन न्याय आधारित नहीं

3 – भविष्य की उपेक्षा (वर्तमान पर बल)

4 – आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा

5 – पाठ्य क्रम के महत्त्व में कमी ( बालक पाठ्य क्रम का आधार )

6 – अध्यापक को गौण स्थान

7 – आदर्श विहीनता की स्थिति का जन्म (स्वमूल्यांकन भ्रामक)

8 – उपयोगितावाद को अधिक प्रश्रय (कार्य-परिणाम आकलन)

9 – उच्च शैक्षिक उद्देश्यों का अभाव (लक्ष्य आधारित योजना का अभाव )

10 – पुस्तकों की अवहेलना उचित नहीं (सभ्यता संस्कृति संरक्षित )

11 – वैयक्तिकता को बढ़ावा (समाज विरोधी)

12 – प्रकृतिवादी शिक्षा की अभावात्मक परिकल्पना भ्रामक

       (क्या नहीं सीखना बताया -क्या सीखना नहीं बताया)

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Uncategorized•दर्शन

मानवता वाद (HUMANISM)

January 21, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

ममानवतावाद का उद्भव एक विशेष प्रकार की मानव स्थिति की अनुभूति पर निर्भर है तथा वह अनुभूति इस मानवीय संवेदना की है जिससे आधुनिक काल का मानव घिरा है, विज्ञान एवम् टैक्नोलॉजी की प्रगति से युक्त मानसिकता, विज्ञान की मानकीकरण की विकृति, विश्व युद्ध की विभीषिकाओं की स्पष्ट अनुभूति, मानव के संत्रास, कुण्ठा, निराशा, चिंता, अकेलापन व नीरसता की स्पष्ट अनुभूति – इसकी पृष्ठभूमि में मानवतावादी दृष्टि सर्जित होती है प्रोटागोरस (Protagoras) ने 480 से 490 ईसा पूर्व कहा-

“मानव सभी बातों का माप दण्ड है जो है वह वास्तविक है और जो नहीं है वह वास्तविक नहीं है।”

“Man is the measure of all things; of what is, that it is, of what is not, that it is not.”

मानवतावाद का आशय उस वाद से है जिसमें मनुष्य के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है इसमें मानव ही सबकुछ है वह किसी का प्रतीक मात्र नहीं है उसकी वैयक्तिकता पहचानी जा सकती है।

डॉ 0 राधाकृष्णन ने ऑक्सफ़ोर्ड में अपने एक भाषण में कहा था –

“Man has become the philosopher of man. A new humanism is on the horizon. But this time it embraces the whole of mankind.”

– Dr. Radha Krishanan

“मनुष्य मनुष्य का दार्शनिक हो गया है। एक नया मानवतावाद क्षितिज पर उदीयमान है किन्तु इस बार वह सम्पूर्ण मानवता को अपने में समेटे हुए है।”

मानवतावाद सम्बन्धी विचारधारा अनेक पाश्चात्य व भारतीय दार्शनिकों के चिन्तन का विषय रही है डॉ राधा कृष्णन, जाकिर हुसैन, जवाहर लाल नेहरू, विवेकानन्द, रबीन्द्र नाथ टैगोर सभी इसका समर्थन करते दीखते हैं यह दर्शन मानवता को दर्शाता है।     

मानवतावादी दर्शन वह दर्शन है जो मनुष्य को सर्वोपरि मानता है उनके अनुसार मनुष्य ही इस संसार का केन्द्र बिंदु है वह अपने भाग्य का निर्माण खुद करता है।

ब्रह्मवादियों तथा निरपेक्ष वादियों के अनुसार –

“ब्रह्म कोई अतिरिक्त या पारलौकिक सत्ता नहीं है यह मनुष्य के स्वरुप का ही एक आयाम है।”

वर्तमान में मानव पहचान की जो बेचैनी है उसके बीज इतिहास के अकुलाहट युक्त पृष्ठों के बीच छिपे हैं इतिहास भी समस्त सृजन में मानव की भूमिका को नज़र अन्दाज करने के पक्ष में नहीं है मैस्लो(Maslow) महोदय कहते हैं –

“Humanism is a word which is used by writers in many different senses, One of these implies that man makes up the entire framework of human thought, that there is no God, no super human reality to which he can be related or can relate himself.”

“मानवतावाद एक ऐसा शब्द है जो विभिन्न लेखकों द्वारा विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया गया है इनमें से एक में यह अर्थ निहित है कि मनुष्य मानव विचार की समस्त पृष्ठ भूमि है, ईश्वर नहीं है, कोई अति मानवीय वास्तविकता नहीं है जिससे मनुष्य को जोड़ा जा सके।”

वैज्ञानिक मानवतावाद (Scientific Humanism )-

वैज्ञानिक मानवता वाद जीवन के प्रति मानव केन्द्रित दृष्टिकोण है, वैज्ञानिक मानवतावाद सृष्टि के प्रति उसके दृष्टिकोण एवम् जीवन के लक्षण तथा मान्यताओं, सत्य के स्वरुप आदि के सम्बन्ध में विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है नेहरू जी ने मानवतावाद एवम् वैज्ञानिक प्रवृत्ति के बीच के संश्लेषण को वैज्ञानिक मानवतावाद का दर्जा दिया था।

वैज्ञानिक मानवतावादी सृष्टि को भ्रम न मानकर सत्य व विभिन्न सम्भावनाओं से युक्त मानते हैं वैज्ञानिक मानवतावाद एक ऐसा दृष्टिकोण है जो केवल वैज्ञानिक या केवल मानवीय नहीं है वैज्ञानिक मानवतावाद जीवन के प्रति मानव केन्द्रित दृष्टिकोण है इस सम्बन्ध में साबिरा जैदी कहती हैं-

“It affirms in a resounding voice the dignity and value of man and asserts unequivocaly that human happiness is the highest goal of all social reforms.”

“यह मनुष्य की गरिमा व मूल्य की ध्वनि को पुनः गुंजरित करता है और मानता है कि सभी समाज सुधारकों के लिए मनुष्य का सुख ही सर्वोच्च भद्र या शिव है।”

वैज्ञानिक मानवतावाद की शैक्षिक मान्यताएं (Educational premises of Scientific Humanism)-

1 – शिक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण

2 – सर्जनात्मकता

3 – उत्तर दायित्व निर्वहन व स्वतन्त्रता के उचित प्रयोग हेतु शिक्षा महत्त्वपूर्ण

4 – व्यावहारिकता व व्यवसाय प्रयोजन आवश्यक

मीमांसा आधारित संक्षिप्त विवेचन-

किसी भी दर्शन को अधिगमित करने हेतु मीमांसाओं की महती भूमिका है मानवतावाद के वास्तविक अर्थ को समझने हेतु उसकी तत्त्व मीमांसा (Metaphysics), ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and Logic),एवं आचार व मूल्य मीमांसा (Ethics and Axiology)  संक्षेप में प्रस्तुत हैं –

तत्त्व मीमांसा – ये प्रकृति को मूल तत्त्व मानते हैं और किसी अलौकिक सत्ता पर विश्वास नहीं करते। भौतिक जगत को सत्य मानते हुए मनुष्य को प्रकृति की श्रेष्ठतम रचना स्वीकार करते हैं।

ज्ञान व तर्क मीमांसा – इनके अनुसार सच्चे ज्ञान  श्रेणी में पदार्थजन्य जगत व उसकी समस्त क्रियाएं आती हैं विवेक आधारित ज्ञान   व तर्क की कसौटी पर खरा सत्य ही ज्ञान की श्रेणी में आएगा। 

 आचार व मूल्य मीमांसा – मानवतावादियों की बड़ी संख्या प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सुन्दरता,सामाजिक समानता, न्याय आदि को आचरण में उतारने व मूल्य के  रूप में स्वीकारने की बात करते हैं इनके अनुसार सम्पूर्ण मानवता की भलाई सबसे बड़ा मूल्य है।

मानवतावाद की प्रमुख विशेषताएं (Chief Characteristics Of Humanism)-

1 – यह संसार सत्य है भ्रम नहीं। यह निरन्तर विकास की असीम सम्भावनाओं से युक्त है। 

2 – मानव सेवा हेतु मानवता वाद का अभ्युदय हुआ है।

3 – मानव शक्तिशाली है व अपनी समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है।

4 – मानव एक सृजनात्मक जीव है।

5 – मानव असीम प्रगति उन्मुख सम्भावनाओं से युक्त है और अपने भाग्य का निर्माता है।

6 – मानवतावाद का मानव शिवम् व सुन्दरम की धारणा से युक्त है।

7 – मानवतावाद मानव को सबसे गुणयुक्त स्वीकार करता है।

8 – यह संस्कृति का पुनः जागरण करना चाहता है तथा यह मानवीय संस्कृति के पुनरुद्धार हेतु विश्व रंगमञ्च पर अवतरित हुआ है।

9 – यह वाद विकासोन्मुखता पर विश्वास करता है और मानव को इस हेतु विवेकयुक्त प्राणी स्वीकार करता है।

10 – मानवतावाद मानवीय प्रकृति को लचीला, परिवर्तनशील व सहयोगी मानता है।

मानवतावादी शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Humanistic Education)-

1 – आत्म विश्वास जाग्रत करना

2 – समस्त अन्तर्निहित शक्तियों का विकास

3 – मानवता का अधिकतम कल्याण

4 – मानव को सुखी बनाना

5 – समालोचनात्मक रचनात्मकता का विकास

“The cultivation of constructive criticism and a critical constructiveness should be one of the foremost aims of education, according to scientific humanism.”  – Sabira K Zaidi : Education and Humanism  (Indian Institute of Advanced Studies, Shimla 1971 p.110) 

6 – सशक्त चेतना का विकास

7 – समाज का विशिष्ट अंग बनाने हेतु आत्मबोध जाग्रत करना

8 – मानसिक स्वास्थ्य

9 – मानवीय मूल्य व सद् विवेक जागरण

10 – आत्म अनुशासन की भावना का विकास

“Education to be complete must be human, it must include not only the training of intellect but the refinement of the heart and discipline of the spirit.” – Dr. Radha Krishanan

“शिक्षा पूर्ण होने के लिए मानवीय होना चाहिए, इसमें न केवल बुद्धि का प्रशिक्षण शामिल करना चाहिए वरन ह्रदय का परिष्करण तथा आत्मा का अनुशासन भी।”

मानवतावाद व पाठ्यक्रम (Humanism and Curriculum)-

मानवतावादी पाठ्यक्रम में हृदय, आत्मिक विकास और मानवता पर विशेष ध्यान देना चाहते हैं इस सम्बन्ध में डॉ 0 राधा कृष्णन के शब्द भी यही इशारा करते हैं। – “No education can be regarded as complete if it neglects the heart and the spirit.”

“कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं समझी जा सकती यदि वह हृदय तथा आत्मा की उपेक्षा करती है।”

मानवतावादी भाषा के विकास के साथ मानवोपयोगी विषयों से मानव को जोड़ना चाहते हैं इसीलिये मानवतावादी उद्देश्यानुरूप निम्न विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहते हैं –

शिक्षा के उद्देश्य              —————————-     विषय

मानसिक विकास             —————————-   कला, तर्क शास्त्र, विज्ञान, गणित

शारीरिक विकास              —————————- व्यायाम, योग, शिल्प, क्रियात्मक शिक्षा

आध्यात्मिक विकास     —————————-  दर्शन, मूल्य शिक्षा, नीतिशास्त्र, धर्म शास्त्र

सामाजिक विकास       ————————–  इतिहास, साहित्य, संस्कृति, समाज विज्ञान, दार्शनिक व शिक्षा शास्त्रियों की जीवनी

उक्त के अतिरिक्त मानवतावादी हर उस विषयवस्तु का समर्थन करते हैं जो मानवतावादी विचार के प्रसार में आवश्यक हो।

शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –

ये जीवन से सम्बन्धित व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते हुए अधिगम कराना चाहते हैं इसीलिये तर्क विधि, प्रश्नोत्तर विधि, समस्या समाधान विधि, वाद विवाद विधि पर विशेष जोर देते हैं ये उच्च मानवीय संवेदना को समेटे हुए इन्द्रिय अनुभूत ज्ञान को भी विवेक और तर्क की कसौटी पर परखने के बाद आत्मसाती करण की प्रेरणा देते हैं।

मानवतावाद व शिक्षक (Humanism and Teacher)-

मानवतावादी चाहते हैं की शिक्षण कार्य उन लोगों को मिले जो मानवीय दृष्टिकोण पर बल देने वाले हों जैसा कि ब्रुबेकर (Brubacher) महोदय कहते हैं –

“Humanism emphasises human nature and the human point of view.”

“मानवतावाद मानव स्वभाव एवम् मानवीय दृष्टिकोण पर बल देता है।”

मानवतावादी शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अध्यापक क्रान्तिकारी मानवतावादी हो एवम् निम्न गुणों से युक्त हो –

1 – शिक्षक, शिक्षण जैसे महान दायित्व बोध में सक्षम हो। 

2 – अपने क्षेत्र का विद्वान् हो।

3 – मानसिक, आध्यात्मिक, शारीरिक, आन्तरिक आदि विविध शक्तियों के सम्यक विकास हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन के योग्य हो। 

4 – मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समझ कर विकास का पथ प्रशस्त करने वाला हो।

5 – सकारात्मक विकास व प्रेरणा देने में सक्षम हो।

मानवतावाद व शिक्षार्थी (Humanism and Student)-

ये शिक्षार्थियों की स्वतन्त्रता व व्यक्तित्व का आदर करते हैं  तथा शिक्षक व शिक्षार्थी के बीच शासक व शासित जैसे सम्बन्धों के घोर विरोधी हैं। मानवतावादी प्रेम व सहयोग आधारित सम्बन्धों की उम्मीद रखकर अध्यापकों से मानवतावादी दृष्टिकोण की अपेक्षा करते हैं और चाहते हैं कि वे अपने बालकों को भय द्वन्द व तनाव से दूर रखें। इससे विद्यार्थियों में मानवीय गुणों का विकास किया जा सकेगा।

शिक्षा के अन्य विविध पक्ष –

1 – जन शिक्षा

2 – स्त्री शिक्षा

3 – व्यावसायिक शिक्षा

4 – धार्मिक शिक्षा

5 – यथार्थ शिक्षा

मूल्यांकन (Evaluation)-

मानवतावाद शिक्षा द्वारा मानव को मानवता का पाठ पढ़ाकर श्रेष्ठ नागरिक बनाना चाहता है यह सम्पूर्ण मानवता को एक मानकर मनुष्य को विश्व का मूलभूत बिन्दु व  केन्द्र मानता है यह धर्म, जाति, राज्य, समाज किसी का भी विरोधी नहीं है यह मात्र मानव मानव को अलग करने वाली संकीर्णताओं का विरोध करता है यह विध्वंसक आयुधों को उचित नहीं समझता जिसने मानव मात्र के समक्ष अस्तित्व का खतरा पैदा कर दिया है।

ये तर्क को ज्ञान का आधार मानते हैं इनके पाठ्यक्रम,शिक्षक, शिक्षार्थी,शिक्षण विधि विद्यालय आदि के विचारों का मूल मन्तव्य मूल्य आधारित मानवीय गन्तव्य निर्धारित करना है। व्यक्तिगत भिन्नता, जन शिक्षा, सामान शिक्षा,मूल्य आधारित शिक्षा,तर्क शक्ति उन्नयन,सृजनात्मकता उन्नयन सम्बन्धी विचार स्वागत योग्य हैं लेकिन धर्म की जगह धार्मिक संकीर्णताओं से दूर रहने की प्रेरणा दी जानी चाहिए।

Encyclopidia Britannica में मानवतावाद को सही पारिभाषित किया गया –

“Humanism is the attitude of mind which attaches primary importance to mean and to his faculties, affairs, temporal aspirations and well being,

“मानवता वाद मनुष्य के मस्तिष्क की वह अभिवृत्ति है जो मनुष्य को और उसके विभिन्न पक्षों, कार्यों, इच्छाओ और उसके हित को सर्वाधिक महत्त्व देती है।”

इन्होने स्वार्थी और संकीर्ण मानसिकता को दिशा देने का भरपूर प्रयास किया लेकिन सार्थक परिणाम आज भी दूर की कौड़ी जान पड़ते हैं मानवीय विकास के विभिन्न आयामों को समेटने के बावजूद इनकी शिक्षा दर्शन को देन अप्रभावी है इसे सच्चे धार्मिक दर्शन के आधारिक अवलम्ब की आवश्यकता है।

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दर्शन

Relationship between Philosophy and Education./दर्शन व शिक्षा का सम्बन्ध

December 14, 2021 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

दर्शन और शिक्षा (Philosophy and Education ) –  जीवन के पवित्र आवश्यकताओं की ओर निर्दिष्ट करने वाला प्रमुख कारक दर्शन है यह सिद्धान्त है तो शिक्षा इसका व्याहारिक पक्ष। दोनों में बहुत घनिष्ट सम्बन्ध है। जेण्टाइल महोदय ने कहा –

“The belief that men may continue to educate without concerning themselves with philosophy means a failure to understand the precise nature of education. The process of education cannot go on right lines without the help of philosophy.”

“जो व्यक्ति इस बात में विश्वास रखते हैं की दर्शन से सम्बन्ध बनाये बगैर कोई प्रक्रिया आम रीति से चल सकती है, शिक्षा के विशुद्ध स्वरुप को समझने में असमर्थता प्रकट करते हैं। शिक्षा प्रक्रिया दर्शन की सहायता के अभाव में उचित मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकती।”

Butler (बटलर ) महोदय ने कहा –

“Philosophy is a guide to educational practice, education as a field of investigation yields certain data for philosophical judgement.”

“दर्शन शिक्षा के प्रयोगों के लिए पथ प्रदर्शक है। शिक्षा, अनुसन्धान के क्षेत्र के रूप में दार्शनिक निर्णय के लिए निश्चित सामग्री को आधार के रूप में प्रदान करती है। ”

वस्तुतः दर्शन व शिक्षा एक विशिष्ट सम्मिश्रण है इसीलिए  जितने दार्शनिक हुए सभी शिक्षा शास्त्री भी रहे। बुद्ध, अरस्तु, शंकराचार्य, गाँधी, विवेकानन्द सभी दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री भी रहे। 

Impact of philosophy on Education (दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव ) –

दर्शन और शिक्षा के उद्देश्य(Philosophy and Aims of education) –

दर्शन का तत्वमीमांसीय आधार मानव जीवन के उद्देश्य अर्थात शैक्षिक उद्देश्य निर्धारित करता है दर्शन के पथ प्रदर्शन के आलोक में इन्हें प्राप्त किया जाता है जॉन डीवी कहते हैं –

“Philosophy is concerned with determining the ends of education.”

“दर्शन का सम्बन्ध शिक्षा के लक्ष्यों को निर्धारित करने से है।”

दर्शन और शिक्षा की पाठ्यचर्या(Philosophy and Curriculum) –

दर्शन के आधार पर ही यह निर्धारित होता है की किस काल में क्या विषय वस्तु पढ़ानी आवश्यक है और क्या त्याज्य है पाठ्यक्रम स्थाई नहीं है यह काल ,दशा ,आवश्यकता के अनुसार दर्शन निर्धारित करता है इसीलिए रस्क महोदय ने कहा –

“Nowhere  there  is dependence of education on philosophy more marked than in the question of curriculum.”

“शिक्षा, दर्शन पर पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में जितनी निर्भर है, उतनी अन्य किसी शैक्षिक समस्या के सम्बन्ध में नहीं।”

दर्शन व शिक्षण विधियाँ  (Philosophy and Methods of teaching) –

ये किसी एक शिक्षण विधि के भक्त नहीं थे बल्कि दार्शनिक की अंतर्दृष्टि द्वारा स्वीकारा साधन मात्र था इसी लिए R. W. Sellers ने कहा –

“Philosophy is a persistent attempt to gain insight into the nature of the world and of ourselves by means of systematic reflection.”

“दर्शन एक ऐसा अनवरत प्रयत्न है जिसके द्वारा हम संसार और अपनी प्रकृति के विषय में क्रमबद्ध अनुभवों द्वारा अन्तर्दृष्टि प्राप्त करते हैं।”

इसी लिए विभिन्न दार्शनिकों ने  अलग शिक्षण विधियों का समर्थन किया। 

सुकरात – वार्तालाप व प्रश्नोत्तर विधि।

रूसो – स्वानुभव व स्वक्रिया द्वारा सीखना।

बेकन  – प्रयोग व निरीक्षण विधि।

हर्बर्ट  – पञ्चपदी।

मॉन्टेसरी – इन्द्रिय प्रशिक्षण।

फ्रोबेल – किण्डर गार्टन पद्धति।

दूसरे शब्दों में कह सकते हैं की आदर्शवादियों ने प्रश्नोत्तर व वाद विवाद पद्धति ,प्रकृतिवादियों ने इंद्रियों द्वारा सीखने, प्रयोजनवादियों ने इकाई व प्रोजेक्ट विधि तथा यथार्थ वादियों ने निरीक्षण व स्वानुभव पद्धति को समर्थन दिया। 

दर्शन व अनुशासन (Philosophy and Discipline)–

अनुशासन प्रत्यक्षतः दर्शन से प्रभावित होता है जैसे प्रकृतिवादी प्राकृतिक परिणामों द्वारा स्वतन्त्रता को स्वीकारते हैं आदर्शवादी अध्यापक के व्यक्तित्व की प्रभावशीलता से अनुशासन स्थापन चाहते हैं प्रयोजनवादी सामजिक और सहयोगी क्रिया द्वारा अनुशासन स्थापित करना चाहते हैं Rusk (रस्क ) महोदय ने कहा –

“Discipline reflects the philosophical prepossessions of an individual or an age more directly than any other aspect of school work.”

“विद्यालय कार्य के अन्य किसी पक्ष की अपेक्षा अनुशासन किसी व्यक्ति या युग की पूर्वधारणाओं को अधिक प्रत्यक्ष रूप से प्रतिबिम्बित करता है।” 

दर्शन और पाठ्य पुस्तकें (Philosophy and Textbooks)-

पाठ्यपुस्तकें दर्शन से प्रभावित होकर मानदण्डों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती हैं वे बताती हैं की शिक्षक क्या जाने और विद्यार्थी क्या सीखे।

वेस्ले महोदय के शब्दों में -“पाठ्य पुस्तक, मानदण्डों को प्रतिबिम्बित एवं स्थापित करती हैं यह अधिकतर इस बात का संकेत देती हैं की शिक्षक को क्या जानना चाहिए और बालकों को क्या सीखना चाहिए। यह शिक्षण विधियों को प्रभावित करती हैं। तथा विद्वता के बढ़ते हुए मानदण्डों को प्रकट करती हैं।”`

दर्शन और शिक्षक (Philosophy and Teacher )-

क्षेत्र ,समाज,राष्ट्र के अनुरूप शिक्षक का जीवन दर्शन उसके व्यक्तित्व को गढ़ता है और विद्यार्थियों को दिशा देता है डॉ के 0 एल 0 श्रीमाली के शब्दों में –

“Thus, not merely must the teacher have a philosophy of education. He must come prepared to develop among his students a philosophy of life.”

“इस प्रकार शिक्षक का कोई शिक्षा दर्शन अवश्यमेव होना चाहिए केवल यही नहीं, शिक्षक को छात्रों में जीवन दर्शन का विकास करने के लिए तैयार होकर इस व्यवसाय में प्रवेश करना चाहिए।”

Influence of Education on Philosophy (शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव) –

शिक्षा, दर्शन के निर्माण का आधार – 

शिक्षा के आधार पर ही हमारी भाषा पर पकड़ होती है इसी के द्वारा हम विचार, मन्थन, अवलोकन, मनन सीखते हैं इसी से अन्तर्दृष्टि विकसित होती है अतः शिक्षा को दर्शन के निर्माण का आधार कहना युक्ति संगत है इसीलिए G. E. Patrtidge (जी 0 ई 0 पैट्रिज ) ने कहा –

“In a very deep sense, it is quite as reasonable to say that philosophy is based upon education as education is based upon philosophy.”

“अत्यंत गंभीर अर्थ में यह कहना बिल्कुल उचित है की जिस प्रकार शिक्षा दर्शन पर आधारित है उसी प्रकार दर्शन शिक्षा पर आधारित है।”

शिक्षा, दर्शन को प्राणवायु देने वाला कारक –

बिना शिक्षा के दार्शनिक सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता, शिक्षा सृष्टि -सृष्टा, जड़- चेतन, जन्म -मरण   की दार्शनिक  व्याख्या के अधिगम का आधार बनती है इसीलिए जॉन डीवी ने कहा –

“It is ultimately the most significant phase of philosophy, for it is through the process of education that knowledge is obtained.”

“यह दर्शन का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, क्योंकि शिक्षा प्रक्रिया द्वारा ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।”

शिक्षा द्वारा दर्शन के निर्धारित मार्ग अनुसरण –

शिक्षा ही वह कारक है जो दर्शन कोप्रवाह में बनाये रखता है शिक्षा प्रक्रिया द्वारा दार्शनिक उद्देश्यों की प्राप्ति होती है यही गतिशील पक्ष है इसी लिए डीवी कहते हैं -“Education is the dynamic side of philosophy. It is the active aspect of philosophical belief, the practical means of realising the ideals of life.”

“शिक्षा दर्शन का गतिशील पहलू है यह दार्शनिक विकास का सक्रिय पक्ष है और जीवन के आदर्शों को प्राप्त करने का वास्तविक साधन है।”

नवीन समस्याओं का परिचायक शिक्षा –

समस्या मानव की विकास यात्रा का महत्त्वपूर्ण पहलू है और शिक्षा ही दर्शन को इसका साक्षात्कार कराती है इसीलिए के 0 एल 0 श्रीमाली ने कहा –

“The task of educationist is to reconstruct the country’s philosophy and redefine values so that they may interpret our changing life and thought.”

 “शिक्षाशास्त्री का कार्य देश के दर्शन की पुनः रचना करना और मूल्यों को पुनः परिभाषित करना है जिससे कि वे मूल्य हमारे परिवर्तनशील जीवन एवम् विचार का स्पष्टीकरण कर सकें।”

उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है की शिक्षा और दर्शन में घनिष्ठ सम्बन्ध है इसीलिये उच्चकोटि के शिक्षाशास्त्री चाहे भारतीय हों या पाश्चात्य, शिक्षा दर्शन की समस्याओं पर मन्थन करते दृष्टिगोचर होते हैं इसीलिए डीवी ने कहा –

“Philosophy is the theory of education in its most general phases.”

“दर्शन शिक्षा का अत्यन्त सामान्य सिद्धान्त ही है। ”

कोई किसी को काम ज्यादा नहीं आंक सकता इसी लिए जॉन डीवी ने स्पष्टतः कहा –

“The philosophy of education is not a poor relation of general philosophy though it is so treated even by philosophers. It is ultimately the most significant phase of philosophy, for it is through the process of education that knowledge is obtained.”

“शिक्षा-दर्शन सामान्य दर्शन का दीन सम्बन्धी नहीं है यद्यपि दार्शनिकों ने भी अभी तक यही माना है। अन्ततः यह दर्शन का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, क्योंकि शिक्षा प्रक्रिया द्वारा ही ज्ञान प्राप्त होता है।”

जे 0 एस 0 रॉस महोदय ने अपने तत्सम्बन्धी विचार का प्रगटन सुन्दर ढंग से इस प्रकार किया –

“Philosophy and  education like the two sides of the same coin, present different views of same thing.”

-J.S.Ross

“दर्शन और शिक्षा एक सिक्के के दो पहलुओं के समान एक वस्तु के भिन्न पक्षों का बोध कराते हैं। ”

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