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शिक्षा

शिक्षार्थी स्वायत्तता / LEARNER AUTONOMY

May 30, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

सुविधा की दृष्टि से हमने शिक्षार्थी स्वायत्तता को कुछ भागों में बाँट लिया है।

शिक्षार्थी स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy

शिक्षार्थी स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective of learner autonomy

शिक्षार्थी स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education

1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy

2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy

3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy

4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner autonomy

5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy

निष्कर्ष /conclusion

शिक्षार्थी स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy

शिक्षार्थी की स्वायत्तता को अधिगम कर्त्ता के मनन, चिन्तन, निर्णयन, कार्य इच्छा और और स्वशक्ति पर विश्वास के रूप में परिकल्पित किया जा सकता है। इसे अधिगम कर्त्ता की जिम्मेदारी लेने की क्षमता के रूप में देखा जा सकता है। अधिगम करने वाले को अधिगम हेतु स्वायत्त स्थिति प्रदान करना मानवीय दृष्टिकोण से एक वहनीय जिम्मेदारी है।

शिक्षार्थी की स्वायत्तता के बारे में Henri Holec महोदय का विचार है –

“Autonomy is the ability to take charge of one’s own learning.”

“स्वायत्तता अपने स्वयं के सीखने का प्रभार लेने की क्षमता है।”

Leslie Dickinsion महोदय का विचार है कि 

“Autonomy is a situation in which the learner is totally responsible for all the decisions concerned with his learning and the implementation of those decisions.”

“स्वायत्तता एक ऐसी स्थिति है जिसमें शिक्षार्थी अपने सीखने और उन निर्णयों के कार्यान्वयन से संबंधित सभी निर्णयों के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है।”

उक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिगम कर्त्ता की स्वायत्तता से आशय अधिगम के परिक्षेत्र में उसके सीखने व निर्णयन हेतु स्वयं जिम्मेदारी लेने से है।

शिक्षार्थी स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective of learner autonomy

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अपनी जवाबदेही हेतु खुद जिम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति को बल मिला है और सभी अपने अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं शिक्षार्थी को गुण  सिखाना ही शिक्षार्थी स्वायत्तता का उद्देश्य है। आज की पीढ़ी निःसन्देह पूर्व पीढ़ी से अधिक जागरूक है और विभिन्न संसाधनों का प्रयोग कर ज्ञान परिक्षेत्र बढ़ा रही है। शिक्षार्थी स्वायत्तता उसे उसके अधिकारों के प्रति सचेष्ट करना एक उद्देश्य मानती है। Phill Bension महोदय लिखते हैं –

“Autonomy is a recognition of the rights of learner within educational system.” 

“स्वायत्तता शैक्षिक प्रणाली के भीतर शिक्षार्थी के अधिकारों की मान्यता है।”

शिक्षार्थी स्वायत्तता का उद्देश्य शिक्षार्थी को प्रभावी निर्णयन क्षमता की दक्षता प्रदान कर उसके परिणामों की जिम्मेदारी स्वीकार करने योग्य बनाती है।

संक्षेप में उद्देश्यों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –

1 – स्वायत्त निर्णय लेने की क्षमता का विकास/Develop the ability to make autonomous decisions

 2 – सहयोग की भावना का विकास / Develop a spirit of cooperation

3 – स्वमूल्यांकन व स्वप्रबन्धन /Self-evaluation and self-management

4 – शिक्षार्थी की सम्प्रभुता को महत्त्व /Importance of learner’s sovereignty

5 – व्यक्तिगत भिन्नता की स्वीकारोक्ति /Acknowledgment of individual difference

6 – आत्मविश्वास वृद्धि /Confidence Increase

7 – सृजनात्मकता का विकास /Development of creativity

8 – शैक्षणिक दवाब में कमी / Reduction of academic pressure

शिक्षार्थी स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education

परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है शिक्षा जगत को क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए स्वयं को तैयार करना होगा और शिक्षा के समस्त अंगों को बदलते परिदृश्य के अनुसार शिक्षार्थी स्वायत्तता के अनुरूप स्वयं  ढालना होगा। David Little महोदय ने कहा –

“Autonomy is essentially a matter of the learner’s psychological relation to the process and content of learning.”

 “स्वायत्तता अनिवार्य रूप से सीखने की प्रक्रिया और सामग्री के लिए शिक्षार्थी के मनोवैज्ञानिक संबंध का मामला है।”

1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy

2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy

3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy

4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner autonomy

5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy

निष्कर्ष /conclusion

आज के परिप्रेक्ष्य में जब हम शिक्षार्थी स्वायत्तता की बात करते हैं समस्त शिक्षा जगत को शिक्षार्थी स्वायत्तता के हिसाब से स्वयं को परिवर्तित करना होगा। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा –

“The boys were encouraged to manage their own affairs, and to elect their own judge, if any punishment was to be given. I never punished them myself.”

“लड़कों को अपने मामलों का प्रबंधन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था, और यदि कोई सजा दी जानी थी, तो अपने स्वयं के न्यायाधीश का चुनाव करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। मैंने उन्हें स्वयं कभी दंडित नहीं किया।”

निष्कर्षतः कहा  सकता है कि इस अवधारणा द्वारा शिक्षार्थी सशक्तीकरण  का नया अध्याय  हेतु शिक्षा जगत को तैयार रहना होगा। शिक्षार्थी को मानसिक सशक्त बनाने में ही शिक्षक व शिक्षा जगत की खुशी छिपी है।

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वाह जिन्दगी !

बुढ़ापा दूर रखने के 8 अचूक उपाय

May 28, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

बचपन, जवानी, बुढ़ापे का एक क्रम है और ये इस क्रम में ही आता है लेकिन हमारी जीवन शैली बुढ़ापे को शीघ्र निमंत्रण दे हमें निष्क्रिय कर रही है जबकि थोड़ा सा सचेत रहकर न हम बुढ़ापे को पीछे धकेल सकते हैं बल्कि बुढ़ापे में भी जवानों जैसे सक्रिय रह सकते हैं। आइये इसके कारण,निवारण पर विचार करते हैं।

1 – जल का सेवन –

जल का यथोचित सेवन होना चाहिए कुछ लोग कम सेवन करते हैं और इसके नुकसान शीघ्र परिलक्षित होने लगते हैं जो कब्ज,किडनी समस्या,ऊर्जा स्तर में कमी ,त्वचा का रुखापन,सिर दर्द आदि के रूप में सामने आता है। जब की अधिक जल का सेवन किडनी का कार्य भार बढ़ा देता है वात, पित्त, कफ के असन्तुलन का भी यह प्रमुख कारण है अधिक पानी के नुकसान बुढ़ापे को करीब लाने में मदद करते हैं।

अतः ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ को ध्यान में रखकर शरीर की मांग के अनुरूप पानी पीना चाहिए। जल घूँट घूँट कर बैठकर ही पीना चाहिए उकड़ूँ बैठकर पीएं तो सबसे अच्छा। फ्रिज के अधिक ठन्डे पानी से बचें। सदा सामान्य ताप युक्त जल का सेवन करें। पानी की स्वच्छता का ध्यान रखा जाए। कहीं का भी पानी न पीने लगें अच्छा होगा अपने साथ स्वच्छ जल रखें। दिन के पूर्वार्ध में अधिक और उत्तरार्ध में अपेक्षाकृत कम जल का सेवन करें।

2 – निद्रा –

संयमित निद्रा शरीर को व्यवस्थित रखने का एक उपक्रम है। आज लोगों को सोने का कार्यक्रम दुष्प्रभावित हुआ है कुछ लोग रात्रि में जागरण करते हैं और दिन में सोते हैं या देर तक सोते रहते हैं। कुछ दिन और रात दोनों में सोने की आदत विकसित कर लेते हैं रात्रि जागरण सम्पूर्ण दिनचर्या बिगाड़ बुढ़ापे को जल्दी बुलाने में मदद करता है,शरीर हर समय थका थका महसूस करता है।

हमारा शरीर रात्रि विश्राम व सूर्योदय के साथ जागृत रहकर कार्य करने में सुगमता महसूस करता है,जल्दी सोना और जल्दी जागना कई रोगों का उपचार है। इसीलिये सुबह को अमृत बेला गया है। त्वचा की चमक या आज वृद्धि का इससे सीधा सम्बन्ध है।

3 – गरिष्ठ भोजन व अधिक नमक –

गरिष्ठ  व अधिक नमक वाला भोजन सीधा झुर्रियों को निमन्त्रण पत्र है,नमक की अधिक मात्रा कोशिकाओं को शीघ्र बूढ़ा करती है जबकि नमक का कम सेवन कोशिकाओं की आयु में वृद्धि करता है। गरिष्ठ भोजन स्वाद में आपको अच्छा लग सकता है पर है वो धीमा जहर ही।एक तो गरिष्ठ और दूसरे काम चबाने से दाँतों का काम भी आँतों को करना पड़ता है जो कब्ज, अम्लता,उदर रोग, मोटापा, अजीर्ण को खुला आमन्त्रण देता है। आजकल जंकफूड और फास्ट फ़ूड ने सेहत का बेड़ा गर्क कर रखा है।शरीर को युवा और दीर्घकालिक क्रियाशील रखने के लिए सहज सुपाच्य व ताजा भोजन खूब चबा चबाकर करना चाहिए।

4 – व्यायाम –

व्यायाम,  प्राणायाम, योगासन, खेलकूद, दंगल, दौड़ आदि वह साधन हैं जिससे शरीर मानसिक रूप से अधिक युवा रहने हेतु तैयार होता है। ब्रह्म मुहूर्त की जादुई हवा तनमन को स्फूर्तिवान रखती है। और इनका अभाव हमें बुढ़ापे की और तेजी से बढ़ाता है।

5 – प्रवाह अवरुद्धन –

हमें मल, मूत्र के आवेग को बल पूर्वक नहीं रोकना चाहिए। शरीर पर अनावश्यक दवाब रखना उचित नहीं। छींक आदि के समय सामान्य ही रहना चाहिए।प्राकृतिक आवेग को रोकने से किडनी व आँतों पर अनावश्यक दवाब पड़ता है। और सम्पूर्ण शरीर इस व्याधि के नुक्सान झेलता है।

6 – नशा –

 सबको पता है होश में रहना परमावश्यक है लेकिन होश खोने वालों की कतार भी छोटी नहीं है। पता नहीं क्यों लोग नशा करते हैं व  अपनी जिन्दगी को छोटा और रोग ग्रस्त कर लेते हैं और जवानी में बुढ़ापे का शिकार हो जाते हैं। हमारा सारा चयापचय बिगड़ जाता है। प्रतिरक्षा तन्त्र ध्वस्त हो जाता है अपने साथ परिवार को गर्त में जाता देख नशेड़ी अवसादग्रस्त हो जाता है मस्तिष्क सोचने समझने की शक्ति खो तेजी से बुढ़ापे की और अग्रसर होता है।

प्रारम्भ से ही सचेत रहें, किसी के नशा करने के आमन्त्रण को सिरे से ठुकरा दें नहीं तो वही बात हो जाएगी मौत आई तो नहीं पर घर तो देख गयी। चिन्ता,परेशानी, समस्या प्रत्येक के जीवन में आती है सम्यक विमर्श करें स्वास्थ्य वर्धक चीजों का सेवन करें। सत्सङ्ग करें कुसंग से बचें। नशा किसी भी रूप में शरीर में प्रवेश न करे हमारा शरीर खुद इसको व्यवस्थित रखने का प्रयास करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में कितना सुन्दर मार्ग सुझाया है – 

युक्ताहार-विहारस्य युक्त-चेष्टस्य कर्मसु

युक्त-स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःख-हा ॥ १७ ॥

7 – प्रदूषण –

जल, वायु, ध्वनि के अलावा तमाम अन्य प्रदूषण मानव के जीवन को शीघ्र बुढ़ापे की और खींच कर ख़तम कर रहे हैं जबकि इन पर अंकुश लगाना,परिशोधन करना हमें आता है। मास्क का प्रयोग कोरोना ने हमें सीखा दिया जो दोपहिया वाहन चलाते हुए हेलमेट जितना ही आवश्यक है। प्रदूषण से बचने के यथा शक्ति प्रयास हमें दीर्घकालिक युवा रख सकता है निर्मल जल, वायु, आकाश अपरिहार्य है किसी ने  सचेत किया  –

हमीं गर्क करते हैं जब अपना बेडा तो बतलाओ फिर नाखुदा क्या करेंगे

जिन्हें दर्दे दिल से ही फुर्सत नहीं है फिर वो दर्दे वतन की दवा के करेंगे।

सचेत रहें,हर संभव बचाव का प्रयास करें।

08 – बुढ़ापा दिमाग की खिड़की से आता है। –

मानव मन अद्भुत है और सर्वाधिक सशक्त हैं विचार ,पहले हमारे मन में किसी भी वस्तु,क्रिया,सिद्धान्त को वरण करने का विचार आता है तत्पश्चात हमारी चेष्ठा उसे हमसे सम्बद्ध कर देती है यहाँ तककि हमारे शरीर पर हमारी सोच का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है यदि हम सकारात्मक सोच के हामी हैं तो व्यक्तित्व पर उसका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। हम अलग लोगों को अलग अलग मिजाज का देखते हैं यह स्वभाव मानव मन की तरंग दिशा से ही निर्धारित होता है कुछ लोगों को युवावस्था में बुढ़ापे का और कुछ वयो वृद्धों को वृद्ध होने पर भी युवावस्था का आनन्द लेते देखा जा सकता है।

गलत चिन्तन, कामुक चिन्तन, नकारात्मक चिन्तन वह कारक है जो हमें अन्दर से खोखला कर कहीं का नहीं छोड़ता। हम वीर्य,ओज, तेज, स्फूर्ति खो बुढ़ापे के दुष्चक्र में फँस जाते हैं। सकारात्मक सोचें जिन्दादिली को व्यक्तित्व का हिस्सा बनाएं। याद रखें –

‘जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं।’     

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शोध

CHARACTERISTICS OF A GOOD RESEARCH TOOL/एक अच्छे शोध उपकरण की विशेषताएं

May 27, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

शोध उपकरण (Research Tool) –

शोध उपकरण से आशय उन साधनों से है जिनका उपयोग करके समंकों का एकत्रीकरण किया जाता है यह अध्ययन हेतु डेटा संग्रह का उपागम बन जाता है। शोध को सही दिशा मिल जाती है यदि सम्यक उपकरण का प्रयोग किया जाता है। कभी कभी शोध के स्वरुप के अनुसार एक से अधिक उपकरणों की आवश्यकता परिलक्षित होती है। लेकिन कुल मिलाकर है यह एक साधन ही, जो डाटा (समंक ) संग्रहण में हमारी मदद करता है।

         शोध की दृष्टि से आज बहुत से उपकरण विद्यमान हैं सर्वेक्षण,केस स्टडी, प्रश्नावली, साक्षात्कार, अभिरुचि व निर्धारण पैमाने आज समंक संग्रहण हेतु प्रयुक्त किये जाते हैं। लेकिन किसी भी शोध उपकरण या मनोवैज्ञानिक परीक्षण की गुणात्मकता हेतु यह आवश्यक होगा कि वह निम्न विशेषताओं को धारण करे।

कसौटियाँ या विशेषताएँ (Criteria or Characteristics) –

आज शोध को सही दिशा देने हेतु यह आवश्यक है कि समंक सही प्राप्त हों ,क्योंकि समंकों के बारे में कहा जाता है कि समंक झूठ नहीं बोलते पर स्वयं झूठे हो सकते हैं। आज डाटा एकत्रीकरण हेतु हम मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का सहारा लेते हैं। Klausmeier & Goodwin महोदय कहते हैं –

“Good standardized tests must meet the criteria of validity, reliability, and usability.”

जिन गुण धर्मों के आकलन हेतु हम शोध उपकरण या मनोवैज्ञानिक परीक्षण का निर्माण करते हैं उस सम्पूर्ण साधन को उस गुण के मापन हेतु ही समर्पित रहना चाहिए। Douglas and Holland  का मानना है –

“A good examination must possess a number of characteristics, and these characteristics become the basic principles underlying the construction of each test.”

एक अच्छे मनोवैज्ञानिक या शोध परीक्षण को कुछ व्यावहारिक व कुछ तकनीकी कसौटियों पर परखना होगा ,जिन्हे इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।

[A] – व्यावहारिक कसौटियाँ (Practical Criteria)                          

1 – व्यापकता (Broadness)

2 – सोद्देश्यपूर्णता (Purposefulness)

3 – मितव्ययता (Economical)

4 – उपयोगिता (Usability)

5 – सुगमता (Ease)

6 – ग्राह्यता (Acceptability)

7 – प्रतिनिधित्वता (Representativeness)

[B] तकनीकी कसौटियाँ (Technical Criteria)

1 – मानकीकरण (Standardization)

2 – वस्तुनिष्ठता (Objectivity)

3- भेदकारिता (Discriminative)

4 – विश्वसनीयता (Reliability)

5 – वैद्यता (Validity)

6 – मानक (Norms) यथा आयु मानक,श्रेणी मानक,शतांशीय मानक आदि।

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शोध

NORMAL PROBABILITY CURVE(NPC)/सामान्य सम्भावना वक्र

May 25, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

सामान्य सम्भावना वक्र आज की ऐसी आवश्यकता है कि विविध विज्ञानों में इसका प्रयोग किया जाता है मनोविज्ञान और शिक्षा भी इससे अछूता नहीं है। यदि किसी चर से सम्बन्धित प्राप्ताङ्क वितरण किसी ग्राफ पेपर के माध्यम से दिखाने का प्रयास करेंगे तो घण्टे जैसी आकृति दिखाई पड़ती है खासकर तब जब वितरण का परिक्षेत्र बड़ा होता है यही आकृति सामान्य सम्भावना वक्र कहलाती है।

सामान्य सम्भावना वक्र से आशय (Meaning of normal  probability curve) –

सामान्य सम्भावना वक्र एक गणितीय वक्र है जो आवृत्ति के वितरण को सामान्य रूप से निरूपित करता है। जब हम किसी परीक्षण से प्राप्त अंकों के आधार पर आवृत्ति वितरण बनाते हैं और इसे ग्राफ पेपर पर प्रदर्शित करते हैं तो जो वक्र बनता है उसे अवलोकित वक्र कहते हैं जब यही किसी बड़े यादृच्छिक समूह के आंकड़ों पर अवलम्बित होता है तो वक्र की आकृति घण्टे के आकार की (Bell Shaped) होती है समूह का आकर बड़ा होने पर यह घण्टाकृति ही सामान्य सम्भावना वक्र (NPC)  या Normal Probability Curve के नाम से जानी जाती है। इस सम्बन्ध में डॉ ० डी ० एन ० श्रीवास्तव ने लिखा –

“सामान्य सम्भावना वक्र एक गणितीय आदर्श वक्र ही नहीं है बल्कि यह एक सैद्धान्तिक वक्र भी है जिसकी पूर्ण प्राप्ति बहुत कठिन है लेकिन इसके बाद भी व्यावहारिक समस्याओं से सम्बन्धित चरों के अध्ययन में इस वक्र का बहुत अधिक उपयोग है।”

सामान्य सम्भावना वक्र की विशेषताएं (Characteristics of Normal Probability Curve) –

यथार्थ तथ्य यह है की सामान्य सम्भाव्यता वक्र का व्यावहारिक उपयोग है और इसे सांख्यिकीय परिक्षेत्र से जुड़े अध्ययन कर्त्ता को जानना ही चाहिए इसकी कतिपय प्रमुख विशेषताओं को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं।–

01 – आकृति (Shape) –

सामान्य प्रायिकता वक्र का आकार घण्टाकार (Bell Shaped),पूर्ण सममिति (Symmetrical),एकल बहुलांकी (Uni modal) तथा सामान्य वक्रता वाला (Mesokurtic) होता है।  इसके मध्य में सर्वाधिक प्राप्तांकों की संख्या होती है।

02 – सामान्य सम्भावना वक्र का समीकरण (Equation of Normal Probability Curve) –

सामान्य प्रायिकता वक्र NPC की गणितीय समीकरण (Mathematical Equation) को इस प्रकार दिया जाता है इससे NPC का X अक्ष से विस्तार और Y अक्ष की ऊँचाई का निर्धारण किया जाता है –

x = मध्यमान से विचलन, x =X –M

Y= X अक्ष के ऊपर वक्र की ऊँचाई

N = कुल आवृत्ति

σ = प्राप्ताँकों का मानक विचलन

e = स्थिरांक, जिसका मान 2.71828 होता है।

π = स्थिरांक,जिसका मान 3.1416 होता है।

03 – केन्द्रीय मानों की समानता (Equality of Central Tendency Measures) –

सामान्य सम्भावना वक्र में केन्द्रीय प्रवृत्ति के तीनों मानों में समानता रहती है। कहने का आशय  यह है कि मध्यमान (M), मध्यांक (Mdn) और बहुलांक (Mo) तीनों का मान एक ही होता है अर्थात ये तीनों ही NPC के मध्य बिंदु पर स्थित होते हैं। यानी

                                                                       M = Mdn  =  Mo

04 – विषमता गुणाङ्क ( Cofficient of Skewness ) –

सामान्य सम्भावना वक्र में पूर्ण सीमितता पाई जाती है अतः सामान्य सम्भावना वक्र का विषमता गुणाङ्क शून्य माना जाता है अर्थात

                                                                       Sk     =0

05 – वक्रता या कुकुदता गुणाङ्क (Cofficient of Kurtosis )–

सामान्य सम्भावना वक्र (NPC)न तो बहुत अधिक नुकीला होता है और न चपटा बल्कि  यह औसत ऊँचाई वाला वक्र होता है सामान्य सम्भावना वक्र के वक्रता गुणाङ्क का मान 0.263 होता है अर्थात

                                                                       Ku = 0.263

06 – अनन्त स्पर्शी (Agymptotic) –

सामान्य सम्भावना वक्र के दाहिने और बांए चोर को यदि X – अक्ष पर निरीक्षित किया जाए तो दिखाई पड़ेगा कि इसका विस्तार ऋण अनन्त (-∞) से धन अनन्त (+∞) तक फैला होता है। इसी कारण सामान्य सम्भावना वक्र के दाएं और बांए सिरे कभी X – अक्ष को स्पर्श नहीं करते। अपनी इसी विशेषता के कारण इस वक्र को अनन्त स्पर्शी कहा जाता है जैसा कि पूर्व के चित्रों से स्पष्ट है।

07 – क्षेत्रफल सम्बन्ध (Area under NPC) –

सामान्य प्रायिकता वक्र (NPC) एवम् आधार रेखा के मध्य का क्षेत्रफल सामान्य प्रायिकता वक्र का क्षेत्रफल कहलाता है। प्राप्तांकों का के ±1σ के अन्तर्गत वितरण या जनसँख्या का 2 /3 क्षेत्रफल यानि  68.26 %भाग आ जाता है। 

सामान्य सम्भावना वक्र के ±2σ के अन्तर्गत वितरण या जनसँख्या या प्राप्तांकों का 95.44 % क्षेत्र आ जाता है।

सामान्य सम्भावना वक्र के ±3 σ के अन्तर्गत वितरण या जनसँख्या या प्राप्तांकों का 99.72 % क्षेत्रफल आ जाता है।

चूँकि ±3 σ के अन्तर्गत वितरण या जनसँख्या के 99.72 % प्राप्तांक आ जाते हैं अतः व्यावहारिक समस्याओं के समाधान हेतु यह मान लिया जाता है कि सामान्य प्रायिकता वक्र के  ±3 σ के बीच लगभग समग्र परिक्षेत्र या प्राप्तांक आ जाते हैं।

08 – मानक प्राप्तांकों में परिवर्तन (Conversion in Standard Scores) –

सामान्य सम्भावना वक्र के प्राप्तांकों को मानक प्राप्तांकों (Standard Scores) में परिवर्तित किया जा सकता है। मानक प्राप्तांकों को मानक दूरी (σ distance   द्वारा व्यक्त करते हैं )यह Z प्राप्तांक कहलाता है।

       Z=(X-M   )/σ   =  x/σ

                                                                  = 

09 – चतुर्थांशों में सामान अन्तर(similar difference in quartiles) –

सामान्य सम्भावना वक्र के पहले और तीसरे चतुर्थांश का मध्यांक से सामान अंतर होता है। यह अन्तर चतुर्थांश विचलन (Q) के बराबर होता है। इस समान अन्तर को सम्भाव्य त्रुटि Probable Error या P.E कहते हैं।

10 – Q व S.D  में सम्बन्ध (Relationship between Q and SD) –

सामान्य सम्भावना वक्र में चतुर्थांश विचलन (Q) का मान प्रामाणिक विचलन (SD) के मान का लगभग 2/3 होता है।

सामान्य सम्भावना वक्र के उपयोग (Applications of NPC) –

शिक्षा,समाज शास्त्र, मनोविज्ञान आदि के अधिकाँश चर सामान्य सम्भावना वक्र या सामान्य प्रायिकता वक्र के अनुरूप वितरित होते हैं। इसके अतिरिक्त मापन व मूल्याङ्कन के परिक्षेत्र में सामान्य प्रायिकता वक्र का अत्याधिक महत्त्व है। चिन्ता, बुद्धि, स्मृति आदि से सम्बंधित मापों ,प्राप्तांकों को सामान्य प्रायिकता वक्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है अर्थात यह सामाजिक विज्ञानों के प्राप्तांकों, वितरणों को व्यवस्थित क्रम देने में सहयोगी की भूमिका का निर्वहन करता है। इसके विविध उपयोग इस प्रकार हैं –

1 – किसी समूह में किसी दिए गए प्राप्ताङ्क से कम या अधिक अंक प्राप्त करने वालों की संख्या ज्ञात करना।

2 – किसी समूह में दिए गए दो प्राप्तांकों के बीच पाए जाने वाले शिक्षार्थियों की संख्या ज्ञात करना।

3 – परीक्षण के प्रश्नों के कठिनाई स्तर को ज्ञात करना।

4 – योग्यता का प्रसार ध्यान में रखते हुए सामान्य प्रायिकता वक्र के आधार पर विभिन्न उप समूहों में विभाजित करना।

5 – किसी समूह में किसी विशेष स्थिति वाले छात्रों हेतु प्राप्ताङ्क सीमायें ज्ञात करना।

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शिक्षा

योग अवधारणा व अष्टांग योग 

May 21, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


योग –

योग के सम्बन्ध में महर्षि पतञ्जलि से लेकर आजतक के मनीषियों का क्रमिक योग दान रहा है निश्चित रूप से महर्षि पतञ्जलि के व्यवस्थित क्रम देने से पूर्व यह विद्यमान रहा होगा और बहुत से अनुभवों से व लम्बी साधना से इसका  प्रागट्य सम्भव हुआ होगा। यह मानव मात्र को ऋषि मुनि परम्परा की अद्भुत भेंट है। श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञान योग ,भक्ति योग व कर्म योग के बारे में विस्तार से समझाया गया है योग को स्पष्ट रूप से समझने हेतु इन तीन मार्गों ज्ञान योग ,भक्ति योग व कर्म योग को समझना होगा। मानव मात्र में विविध वृत्तियों के दर्शन होते हैं अपनी वृत्ति प्रधानता के आधार पर हमें योग मार्ग का चयन करना चाहिए। जो लोग ज्ञान की और झुकाव रखते हों उन्हें ज्ञान मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।जिन मानवों का झुकाव कर्म की और हो उन्हें कर्म योग के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए और भावना प्रधान लोगों को भक्ति मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।  

अष्टाँग योग –

अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का संयोग है।   

यम –

इससे आशय संयम से है हमें कायिक,वाचिक व मानसिक संयम का परिचय देना होगा। यम को पाँच भागों में विभक्त किया गया है।

a – अहिंसा – विचार को इस कोटि का बनाना है कि हमारे चिन्तन व व्यवहार से प्राणिमात्र के प्रति किसी प्रकार का हिंसात्मक आचरण न हो।

b – सत्य – व्यवहार व सिद्धान्त में समान होना अर्थात मन व वचन द्वारा समान व्यवहार, अनुगमन या अनुसरण किया जाना।  

c – अस्तेय – किसी दूसरे के द्रव्य के प्रति अनासक्त भाव।

d – अपरिग्रह – विषयों के विभिन्न दोषों से विमुख रहना यानी विषयों के अर्जन, रक्षण से विमुक्त भाव रहना।  

e – ब्रह्मचर्य – संयम का परिचय अर्थात गुप्तेन्द्रिय उपस्थ का संयम में रहना।

नियम –

 नियम प्रवृत्तिमूलक होते हैं और शुभ या मंगल कार्यों केप्रति हमारी प्रवृत्ति के परिचायक होते हैं।ये ही शुभ कार्यो हेतु हमें प्रवृत्त कराते हैं  इन्हें पाँच भागों में विभक्त किया गया है –

a – शौच – शौच से आशय आंतरिक व वाह्य शुद्धि से है आन्तरिक से आशय मानस के मलों से निवृत्ति व वाह्य से आशय बाहरी शुद्धि जिसके लिए पहले मिट्टी व जल का प्रयोग होता था और आज साबुन व विविध उपादानों का प्रयोग किया जाता है।

b – सन्तोष – यह शान्ति प्राप्ति का सर्वथा सशक्त उपागम है। जो है जैसा है उसी में सन्तुष्ट रहना। यह गुण ही सन्तोष है। 

c – तप – इससे आशय है सुख दुःख को समान समझने की शक्ति का जागरण जो शरीर को तपाने, दुःख सहने योग्य बनाने, और इस हेतु गर्मी ,सर्दी,बरसात की त्रासदई स्थिति में रहने व कठिन व्रतों के अनुपालन के अभ्यास से है।   

d – स्वाध्याय – नियम, विधि विधान को ध्यान में रखकर धर्म ग्रंथों की स्वयम द्वारा की गई अनवरत साधना। 

e – ईश्वर प्राणिधान – भक्तिपूर्वक ईष्ट के प्रति सम्पूर्ण समर्पण।

आसन –

हमें साधना हेतु शरीर को एक ऐसी स्थिति में रखना होता है जिसमें दीर्घ अवधि तक सुख पूर्वक रहा जा सके.इसी स्थिति को आसन नाम से जाना जाता है। जगत में विविध प्रकार की जीव जातियां हैं उतने ही प्रकार के आसन हैं सिद्धासन,गरुण आसन,भुजङ्गासन, शीर्षासन आदि विविध प्रकार के आसान हैं हाथ प्रदीपिका में इसका सुन्दर वर्णन द्रष्टव्य है आजकल बाबा रामदेव व आचार्य बालकृष्ण की तत्सम्बन्धी पुस्तक में इसे देखा जा सकता है।

प्राणायाम –

प्राण शक्ति अर्थात श्वांस प्रश्वांस के विविध आयामों को ही प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम वस्तुतः श्वांस प्रश्वांस का गति विच्छेद ही है। इसमें मुख्यतः पूरक, कुम्भक व रेचक का आधार रहता है पूरक अर्थात श्वांस को पूरा अन्दर की ओर खींचना, कुम्भक से आशय इसके रोके जाने से एवं रेचक से आशय इसके छोड़े जाने से है। इनसे शारीरिक,मानसिक दृढ़ता व चित्त की एकाग्रता में अद्भुत प्रगति देखी जाती है।

प्रत्याहार –

मानव में विविध इन्द्रियों का समागम रहता है जो विविध क्रियाओं का आधार है जब इन्द्रियाँ वाह्य प्रपंचों से मुक्त होकर अर्थात वाह्य विषयों से हटकर चित्त के समान निरुद्ध हो जाती हैं तो यह स्थिति प्रत्याहार है। जब वाह्य जगत में मन विचरण की यात्रा अन्तर्मुखी  अन्दर की यात्रा सुनिश्चित करती है तब प्रत्याहार निष्पन्न होता है इस स्थिति में संसार में रहते हुए सांसारिक वस्तुएं साधक को बाँध नहीं पातीं।

धारणा –

चित्त को किसी एक स्थान पर स्थिर कर देना धारणा कहलाता है जैसे हृदय कमल में ,नाभि चक्र में या किसी भी बाहर की वस्तु में  स्थिर कर देना धारणा कहलायेगा।

ध्यान –

ध्यान की अवस्था में ध्येय का निरन्तर मनन किया जाता है और विषय का ज्ञान स्पष्ट रूप से प्राप्त हो जाता है एवम् इस तरह से योगी के मन में ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वरुप प्रगट हो जाता है। अतः जब ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप लेनेलगता है तो उसे ध्यान कहते हैं।

समाधि –

योग का अन्तिम लक्ष्य व्यक्ति को पूरी तरह से अन्तर्मुखी बनाना है समाधि, चित्त की वह अवस्था है जिसमें प्रतीति केवल ध्येय की ही होती है और चित्त का अपना स्वरुप शून्य सा हो जाता है।

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शिक्षा

शिक्षक की जवाबदेही/TEACHER’S ACCOUNTABILITY

May 19, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

शिक्षक अपने दायित्वबोध को समझ कर कई कार्यों को अंजाम देता है वे कार्य व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय जन आकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बनते हैं। एक शिक्षक की जवाब देही को भौतिक जगत बांधने की कोशिश कर सकता है लेकिन वह प्रकृति, पशु पक्षियों और सम्पूर्ण मानवता के प्रति जवाब देह है।आज बदलती हुई परिस्थितियों में शिक्षक के प्रति समय की अवधारणाओं ने करवट ली है जिससे जनमानस की सोच और आज के शिक्षक के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है।

बदलते हुए काल ने बाजारवाद का प्रभाव हर परिक्षेत्र पर छोड़ा है और अध्यापकीय परिवेश भी इससे अछूता नहीं है।श्रीवास्तव एवं पण्डा ने अपने 2006 के शोध में दर्शाया –

“शिक्षकों की जवाबदेही से तात्पर्य है कि शिक्षक दिए गए उत्तरदायित्वों को किस मात्रा व् किस सीमा तक निभाता है। ऐसा न करने पर वह कारण बताने पर बाध्य होता है। जवाबदेही अथवा प्रतिबद्धता किसी अधिकारी द्वारा सॉंप गए कार्य को गुणात्मक एवं सर्वोत्तम रूप से अधिकारी के निर्देशन अनुरूप करने का बंधन एवं कार्य है।” 

हुमायूं कबीर के वे शब्द याद आते हैं –

“शिक्षक ही राष्ट्र के भविष्य निर्माता हैं।”

इस तरह के विचार जवाबदेही हेतु और विवश करते हैं। जिसे हम इस प्रकार विवेचित कर सकते हैं।

शिक्षक की जवाबदेही का वर्गीकरण  [Classification of teacher accountability]-

A – व्यक्तिगत जवाब देही (Personal accountability)

(1) – स्वयं के प्रति

                        (2) – स्वयं के छात्र के प्रति

B – सामाजिक जवाब देही (Social accountability)

1 – सामाजिक आदर्श स्थापन हेतु

2 – भविष्य की दिशा निर्धारण हेतु

3 – सामाजिक कुरीति उन्मूलन हेतु

4 – सामाजिक सुदृढ़ीकरण हेतु जवाब देही

 C - राष्ट्र के प्रति जवाबदेही (Accountability to the nation)

                        (1) – एकता हेतु 

                        (2) – अधिकारियों के प्रति जवाबदेही

(3) – राष्ट्रोत्थान हेतु जवाबदेही

(4) – विश्वबन्धुत्व हेतु जवाबदेही

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शिक्षा

TEACHER AUTONOMY/शिक्षक स्वायत्तता

May 18, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

शिक्षक स्वायत्तता से आशय उस शक्ति से है जिससे एक अध्यापक को अपना स्वयं पर फैसला करने का अधिकार मिलता है यहाँ स्वयं पर फैसला से तात्पर्य स्वयं के दायित्वबोध के निर्वहन हेतु उपयुक्त विधि के प्रयोग से लिया जा सकता है वह अपने कार्यों के सम्पादन हेतु सम्प्रभु है। वास्तव में स्वायत्तता एक प्रकार की सम्प्रभुता ही है जिससे निर्णय लेने में उत्तमता आती है।

उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि स्वायत्तता से आशय है किसी अन्य के हस्तक्षेप के बिना व्यक्ति विशेष , राज्य, संस्था,का देश के अधिकार क्षेत्र में विषयों और मामलों में स्वतन्त्र निर्णय लेना।

कॉलिन्स (Collins) महोदय कहते हैं कि   –

“स्वायत्तता का अर्थ उस योग्यता से लगाया जा सकता है जो व्यक्ति को दूसरों के कथनों या विचारों से प्रभावित होने के बजाय स्वयं निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है।”

शिक्षक स्वायत्तता का कार्य क्षेत्र (Scope of teacher autonomy)

[A] – विद्यालय परिक्षेत्र में (In school premises)

[B] – विद्यालय परिक्षेत्र के बाहर (Outside school premises)

[A] – विद्यालय परिक्षेत्र में (In school premises)

        1 – पाठ्य क्रम सम्प्रेषण

        2 – शिक्षण विधियों के प्रयोग में

        3 – विद्यालय का वातावरण

        4 – पाठ्य सहगामी क्रियाओं में

        5 – समाज उत्पादक कार्यों से सम्बद्धता

        6 – अनुशासन

        7 – शिक्षक छात्र सम्बन्ध

[B] – विद्यालय परिक्षेत्र के बाहर (Outside school premises)

         1 – पाठ्य क्रम निर्माण में सहभागिता

         2 – शिक्षा सम्बन्धी नीति निर्णयन

         3 – प्रश्न पत्र निर्माण।

         4 – मूल्याङ्कन व सुधार

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शिक्षा

शरीर को गर्मी में ठण्डा रखने के उपाय. Tips to keep the body cool in summer.

May 16, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

गर्मी के दिनों में लोग इस बात से परेशान रहते हैं की वे अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पाते। यदि सम्पूर्ण दिन को गर्मी के लिहाज से तीन भागों में बाँटते हैं प्रातः, दोपहर, शाम तो इसमें बीच वाला भाग अर्थात दोपहर सबसे तपिश भरी होती है। बहुत सारे शरीर इस मौसम से इतने अधिक प्रभावित होते हैं कि उन्हें हमेशा गर्मी महसूस होती है जिससे उनके कार्य में बाधा पड़ती है। यहाँ प्रस्तुत हैं –

गर्मी में कूल कूल रहने के आठ उपाय

Eight ways to stay cool in summer

01 – जल का सेवन (Water intake)

02 – तरल खाद्य पदार्थों का उचित सेवन (Suitable intake of liquid foods)

03 – यथोचित प्राणायाम, योग, व्यायाम (Proper pranayama, yoga, exercises)

04 – फल, सब्जी और सुपाच्य भोजन (Fruits, vegetables and nutritious food)

05 – मसालेदार, अधिक तले भुने, अधिक नमक व कैफीन युक्त पदार्थों का सेवन नहीं

       (Do not consume spicy, excessive fried, high salt and caffeinated substances)

06 –मौसम के अनुसार वस्त्र (Clothing according to the season)

07 – नींद और स्नान (Sleep and bath)

08 – पैर के तलवे की देखभाल (Foot care)

01 – जल का सेवन (Water intake)-

गर्मी के दिनों में जल का सेवन सोच समझ कर किया जाना चाहिए पानी घूँट घूँट करके पिया जाना चाहिए केवल शौच निवृत्ति से पूर्व आप लगातार पानीपी सकते हैं। यदि  गुन गुना  जल नहीं ले सकते तो फ्रिज का बहुत ठण्डा पानी भी वर्जित है सादा जल या घड़े के जल का सेवन किया जा सकता है इसे आप अपने थर्मस में भरकर कार्य स्थल पर भी ले जा सकते हैं। सुबह सुबह, रात्रि को ताँबे के लोटे में रखे जल का सेवन किया जा सकता है। यह पूरे दिन में प्यास के अनुसार या तीन से चार लीटर लिया जा सकता है।गर्मी में बाहर निकलने से पहले पर्याप्त जल का सेवन करना चाहिए। पानी उंकड़ू बैठ कर पीना मुफीद है खड़े होकर नहीं पीना चाहिए।

02 – तरल खाद्य पदार्थों का उचित सेवन (Suitable intake of liquid foods) –

खाद्य सामग्री के मामले में भारत सचमुच बहुत भाग्य शाली है इसमें जहां विविधता पूर्ण व्यञ्जन उपलब्ध हैं वहीं मौसमानुकूल खाद्य सामग्री की बह भरमार है गर्मी में अधिक जल वाले तत्वों का विकल्प चुना जाना चाहिए जैसे नीबू पानी,नारियल पानी, छाछ, आम का पना, पानी की सेंधा नमक वाली शिकन्जी,जौ के सत्तू का शरबत,विविध दोष रहित जूस, दही की लस्सी आदि इनमें आवश्यकतानुसार पुदीना,प्याज,धनिया सौंफ आदि का प्रयोग किया जा सकता है। कृत्रिम शीतल पेय बोतल बन्द या डिब्बे बन्द बासी तरल पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। घाट की राबड़ी जिसमें जौ का दलिया व छाछ होता है, लिया जा सकता है।

03 – यथोचित प्राणायाम, योग, व्यायाम (Proper pranayama, yoga, exercises) –

प्राणायाम, योग और सूक्ष्म व्यायाम किया जाना चाहिए शीतली, शीतकारी प्राणायाम अधिक उपयोगी है educationaacharya.com पर Tip to Top Exercise दो भागों में पहले दी जा चुकी हैं जो उपयोगी रहेंगी। सुविधा की दृष्टि से इसका लिंक यू ट्यूब (Education Aacharya) के डिस्क्रिप्शन बॉक्स में दे दूँगा।[ https://youtu.be/-Pw39aG5-IQ, https://youtu.be/bl2uqMUk_f8] याद रखें मानसिक शान्ति भी शारीरिक शान्ति में योग देती है।

04 – फल, सब्जी और सुपाच्य भोजन (Fruits, vegetables and nutritious food) –

शारीरिक गर्मी पर नियन्त्रण हेतु भोजन सुपाच्य ही किया जाना चाहिए और भूख से कुछ कम लिया जाना चाहिए रात्रि के भोजन पर सर्वाधिक नियंत्रण की  आवश्यकता है और यह सोने से कम से कम दो घण्टे पहले किया जाना चाहिए। भोजन से पहले आप पानी पी सकते हैं लेकिन भोजन के उपरान्त कम से कम आधा घण्टे जल न पीएं।

05 – मसालेदार, अधिक तले भुने,अधिक नमक व कैफीन युक्त पदार्थों का सेवन नहीं

       (Do not consume spicy, excessive fried, high salt and caffeinated substances) –

       इस प्रकार के पदार्थ शरीर में अनावश्यक गर्मी का कारण बनाते हैं शरीर में पित्त ,एसिड आदि की वृद्धि के साथ वात, पित्त, कफ में असंतुलन पैदा कर विकार का कारण बनते हैं।

06 –मौसम के अनुसार वस्त्र (Clothing according to the season) –

 गर्मियों में हल्के, ढीले वाले सूती वस्त्रों का प्रयोग किया जाना चाहिए।टाइट ,शरीर से चिपके वस्त्र नहीं पहनने से बचना चाहिए। रंगों के चयन में सावधानी रखें हुए हलके रंग प्रयोग में लाएं जाएँ। वस्त्र ऐसे हों जिससे शरीर को आराम मिले पूरी बाँह के वस्त्र पहनें।आवश्यकतानुसार अँगोछा लिया जा सकता है।

07 – नींद और स्नान (Sleep and bath) –

जहाँ सुबह उठकर दैनिक क्रियाओं में स्नान को स्थान मिला हुआ है वहीं निद्रा पूर्व स्नान अच्छी आरामदायक नीं दिलाता  और शरीर की गर्मी पर नियन्त्रण रखता है यदि उस समय स्नान कर सकते तो पैरों को अच्छी तरह धोना अति आवश्यक है। 

08 – पैर के तलवे की देखभाल (Foot care) –

रात्रि में सोने से पहले पैर धोने की बात ऊपर आ चुकी है यह क्रिया शीतल नैसर्गिक जल से हो बर्फ के पानी या फ्रिज के पानी से नहीं। इसके पश्चात अच्छी तरह गोले के असली तेल से तलवों की मसाज अवश्य करें और तलवे के प्रत्येक भाग को अंगुलियों के दवाब का अहसास कराएं आनन्द आएगा। इतनी मसाज करें की तेल सूख जाए।

            यद्यपि गर्मी के प्रकोप के निदान में चिकित्सकीय परामर्श सर्वाधिक आवश्यक है लेकिन इलाज से पहले सावधानी के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।

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काव्य

वन्दन हो जाता है ।

May 14, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments


जब प्रारब्ध के फलने से

शिशु आगमन हो जाता है।

मात पिता के चिन्तन से

कर्मों का वरण हो जाता है।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है  । 1 ।

केवल एक हाथ के चलने से

वह तो थप्पड़ हो जाता है।

क्रोध संचरण हो मन से

प्रेम विघटन हो जाता है ।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है । 2 ।

अँगुष्ठ अंगुलियाँ कसने से

मुष्टिका स्वरुप हो जाता है।

क्रोध धधकता नेत्रों से

प्रेम भाव भी खो जाता है।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है । 3 ।

इन हाथों के टकराने से

ताली का चलन हो जाता है।

यह ताली बजती जब लय से

भावों का वरण हो जाता है।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है । 4 ।

दाएं बांयें इन हाथों से

कुछ नाम पुकारे जाते हैं।

उनकी कर्त्तव्य निपुणता से

कहने का चलन हो जाता है।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है । 5 ।

यह हस्त छुलें जब चरणों से

सुब कुछ पावन हो जाता है।

शक्ति मिलती उन चरणों से

आशीष वरण हो जाता है।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है । 6 ।

जब हाथ जुड़ उठें श्रद्धा से

दुआ का मन हो जाता है।

पावस विचार उठते मन से

पावन आचरण हो जाता है।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है । 7 ।

जब हाथ बढ़ें कुछ लम्बे से

तब आलिङ्गन हो जाता है।

जय माल युक्त इन हाथों से

वर वधु मिलन हो जाता है।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है । 8 ।

इन हाथों के स्पर्शों से

मृदुता संचरण हो जाता है।

श्रद्धा और नमन के भावों से

बस अभिनन्दन हो जाता है।

दोनों हाथों के जुड़ने से

देखो वन्दन हो जाता है । 9 ।

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शिक्षा

वैदिक कालीन शिक्षा[2500 ई ०पू ०-500 ई ०पू ०]

May 12, 2022 by Dr. Shiv Bhole Nath Srivastava No Comments

वैदिक कालीन शिक्षा एवम् सामाजिक व्यवस्था पर ब्राह्मणों का एक मात्र अधिकार था इसलिए वैदिक शिक्षा को ब्राह्मणीय शिक्षा के नाम से भी जानते हैं कुछ इतिहासकार इसे वैदिक काल,उत्तर वैदिक काल,ब्राह्मण काल,उपनिषद काल,सूत्र काल और स्मृतिकाल में विभक्त कर वर्णित करते हैं परन्तु इन सभी कालों में वेदों की प्रधानता रही अतः इस सम्पूर्ण काल को वैदिक काल कहते हैं।

वैदिक शिक्षा का अर्थ – वैदिक साहित्य में ‘शिक्षा’ शब्द विद्या,ज्ञान, प्रबोध एवम् विनय आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक शिक्षा का तात्पर्य शिक्षा के उस प्रकार से था जिससे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो सके और वह धर्म के आधार पर वर्णित मार्ग पर चलकर मानव जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सके जैसा  अल्तेकर महोदय ने लिखा –

“शिक्षा को ज्ञान, प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता था जो हमारीशारीरिक,मानसिक,भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का उत्तरोत्तर और सामन्जस्य पूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करती है और उत्कृष्ट बनाती है।”

“Education was regarded as a source of illumination and power which transforms and ennobles our nature by the progressive and harmonious development of our physical, mental, intellectual and spiritual powers and faculties.

 A.S.Altekar; Education in Ancient India    

1973, p. 8

शिक्षा के उद्देश्य एवम् आदर्श –

चूंकि जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना था इसलिए इसके अनुसार ही शिक्षा के उद्देश्य एवम् आदर्श निर्धारित किये गए जैसा कि अल्तेकर महोदय ने लिखा –

 “प्राचीन भारतीय उद्देश्यों एवम् आदर्शों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है – ईश्वर भक्ति की भावना एवम् धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण,व्यक्तित्व का विकास, सामाजिक कर्तव्यों को समझाना,सामाजिक कुशलता की उन्नति तथा संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार।”

“Infusion of a spirit of piety and religiousness, formation of character, development of personality, inculcation of civic and social duties, promotion of social efficiency and preservation and spread of national culture may be described as the chief aims and ideals of ancient Indian Education.” – A. S. Altekar,pp8-9

1 – धर्म परायणता की भावना एवम् धार्मिकता का समावेश

      (Infusion of a spirit of piety and religiousness)

2 – सामाजिक कुशलता की उन्नति (Promotion of Social Efficiency)

3 – चरित्र निर्माण (Formation of character)

4 – व्यक्तित्व का विकास (Development of personality)

5 – नागरिक एवम् सामाजिक कर्त्तव्यों की समझ (Inculcation of civic and social duties)

6 – राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व प्रसार (Preservation and spread of National culture)

शिक्षा व्यवस्था (Organization of Education) –

01 – गुरुकुल प्रवेश

02 – उपनयन संस्कार

03 – पाठ्य क्रम

04 – शिक्षण विधि

05 – शिक्षा की अवधि

06 – शिक्षण सत्र

07 – अवकाश

08 – शिक्षण संस्थाओं का समय

09 – शिक्षण शुल्क व अर्थ व्यवस्था

10 – शिक्षा वाह्य नियन्त्रण से मुक्त

11 – परीक्षाएं व उपाधियाँ

12 – समावर्तन संस्कार

विशिष्ट शिक्षाएं –

1 – स्त्री शिक्षा

2 – व्यावसायिक शिक्षा

3 – पुरोहितीय शिक्षा

4 – सैनिक शिक्षा

5 – वाणिज्य शिक्षा

6 – कला कौशल की शिक्षा

7 – आयुर्वेद शास्त्र 

8 – पशु चिकित्सा

वैदिक शिक्षा का मूल्याँकन –

गुण :-

1 – धार्मिक भावना का विकास

2 – चरित्र निर्माण

3 – व्यक्तित्व का विकास

4 – नागरिक व सामाजिक उत्तरदायित्व भावना का विकास

5 – सामाजिक सुख समृद्धि की वृद्धि

6 – राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व विकास

7 – गुरु छात्र सम्बन्ध

8 – पवित्र प्राकृतिक वातावरण

दोष :-

1 – धार्मिकता पर अधिक बल

2 – भौतिक विज्ञानों पर अपेक्षाकृत कम ध्यान

3 – लोक भाषाओँ की उपेक्षा

4 – विषयों में समन्वय का अभाव

5 – हस्त कार्य के प्रति हे भावना

6 – स्त्री शिक्षा की उपेक्षा

7 – शूद्रों के साथ न्याय नहीं

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