मैं न बोलूँ कुछ भी तो नयन बोल देता है,
प्रेम-रस भीगे मन की, गाँठ खोल देता है,
भाव अभिव्यक्ति में तन जब अक्षम होता है,
भाव सम्प्रेषण में मन तब सक्षम होता है।
कहो तन सम्बन्धों की गाँठ कब खोलता है,
पीर जब पराई हो, मन दरारों से बोलता है,
अपनों की चोट से मन जब व्यथित होता है,
पीछे तन कहाँ रहता, अश्रुवाणी बोलता है।
पड़ा पड़ा जब तन, विगत पन्ने खोलता है,
सम्बन्धों की एकता मनवा तो टटोलता है,
विवशता को जान बालक तो न बोलता है,
बालक भले न बोले, चेहरा सब बोलता है।
भूखे रहो कई दिन, क्षुधा कहाँ बोलती है,
बेहोशी शरीर की अपनी भाषा बोलती है,
अहित में अन्य के समाज कहाँ बोलता है,
निज के अहित में चीखा चीखा डोलता है।
खोकर प्रिय वस्तु , मन व्यथित दीखता है,
अन्य से खोने पर, वही मानव चीखता है,
अपने पराए में ये अन्तर क्यों दीखता है,
मानव हुआ दानव,जो प्रेम न सीखता है।
आवागमन का ये, चक्कर नहीं छूटता है,
ये तेरा है, वो मेरा है, बस यही बूझता है,
लोभ,मोह,लालच का मेला यहाँ दीखता है,
जीवन श्रेष्ठ मानव का अज्ञानी सा बीतता है।