घनी आफतों में मैं, मुस्काता चला गया,
ख़ास दुश्मन और पास आता चला गया,
किसी समय तो वो लगता था इक बेगाना,
बेगाना दिल में जगह बनाता चला गया।
अकेला हूँ रौनकेबज़्म का नज़ारा चला गया,
लोग कहते हैं कि आपका सहारा चला गया,
किससे कहूँ कि मेरा तो सहारा है, महाकाल,
जी हाँ मैं ही महाकाल में, समाता चला गया।
मोक्ष का भाव भूलकर चलता चला गया,
इक अनजाने द्वन्द में फँसता चला गया,
परेशां मुझे करने को, चिन्ताएं बहुत थीं,
मैं चिन्ताओं की चिता, बनाता चला गया।
अवसाद घनीभूत मुझे चिढ़ाता चला गया,
मेरे सपनों को सैलाब में बहाता चला गया,
राहों में मेरी जानिब गर्द ए ग़ुबार बहुत था,
फ़ितरतन यूँ ही मैं खिलखिलाता चला गया।
मैं मस्त था वह मय को पिलाता चला गया,
झंझाओं में ज़िन्दगी की, डुबाता चला गया,
अधिकार जो जाना था,भ्रमजाल था केवल,
भ्रम,जाल में,हाँ मुझको फँसाता चला गया।
तम नर्क ज़िन्दगी को, बनाता चला गया,
मैं जिन्दादिली के गीत गवाता चला गया,
जब अस्तित्व डूब रहा गहन अन्धकार में,
आत्मविश्वासी रौशनी में नहाता चला गया।
जीवन की शाम में भी, उजाला पसर गया,
जीवन की समस्याओं से जब मैं भिड़ गया,
मुझको परास्त करने को काँटे तो बहुत थे,
‘नाथ’ काँटों से वन्दनवार बनाता चला गया।