न्याय दर्शन को एक ऐसी शाखा के रूप में स्वीकारा जाता है जो भारतीय तर्कशास्त्र की रीढ़ कही जाती है। वर्तमान समय में इसे प्रमाण शास्त्र के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है इसके अनुसार मुख्यतः प्रमाणों की संख्या चार मानी जाती है – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। नवन्याय में इसकी विशद व्याख्याएं देखने को मिलती हैं। इसमें कालान्तर में परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन भी देखने को मिले। आपके NET के पाठ्यक्रम में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को भी प्रमाण में शामिल किया गया है। इसका विस्तृत आकाश है और उसमें से केवल प्रत्यक्ष के बारे में उसके प्रकारों के बारे में यहाँ अध्ययन करेंगे।
Pratyaksh Praman / प्रत्यक्ष प्रमाण / Perception –
प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण को उपस्थित करते हुए न्याय दर्शन में उल्लेख है –
‘इन्द्रयार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेशमव्यभिचारि व्यव्सायात्मकं प्रत्यक्षम्‘।
इससे आशय है इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग से जो अव्यपदेश्य अर्थात अकथनीय, अव्यभिचारि अर्थात संशय विपर्यादि दोषों से रहित, व्यवसयात्मक अर्थात निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है।
वस्तु के साथ इन्द्रिय का संयोग होने से जो ज्ञान प्राप्त होता है ये मानते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष को छोड़कर सभी प्रमाण पूर्व-ज्ञान पर आश्रित रहते हैं।
प्रत्यक्ष के भेद / Types of Perception – प्रत्यक्ष का वर्गीकरण विविध प्रकार से किया सकता है। प्रथम दृष्टिकोण से दो भागों में प्रत्यक्ष को विभाजित किया जा सकता है।
1 – लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary Perception)
2 – अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra Ordinary Perception)
1 – लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary Perception) –
जब सामान्य रूप से इन्द्रिय और उसके विषय का सन्निकर्ष (संयोग ) होता है और इस प्रकार जो अनुभव प्राप्त होता है उसे लौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। लौकिक प्रत्यक्ष को भी दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
i – वाह्य (External)
ii – आन्तर (Internal)
i – वाह्य (External) – वाह्य इन्द्रियों द्वारा यह साध्य है
ii – आन्तर (Internal) – इसे आन्तरिक अर्थात मन द्वारा साध्य माना गया है
लौकिक प्रत्यक्ष को नव्य न्याय में जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है उस आधार पर तीन भागों में विभक्त कर समझ सकते हैं।
(A ) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष (Indeterminate Perception)
(B) – सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate Perception)
(C) – प्रत्यभिज्ञा ( Credentials)
(A ) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष (Indeterminate Perception) – पदार्थ और इन्द्रिय के संयोग के तुरन्त बाद वस्तु का जो यत्किञ्चित ज्ञान हमें प्राप्त होता है इसमें नामजात्यादि नहीं आता। यह केवल वास्तु मात्र का ज्ञान है। यथा अन्धकारयुक्त कक्ष में एक मेज पर कोई गोल सी वस्तु रखी है हमें उसकी सत्ता का बोध हो और यह पता न चले कि वह सन्तरा है या अमरुद अथवा सेब है तो इसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाएगा।
(B) – सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate Perception) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष में नामजात्यादि की योजना कर लेने पर वह सविकल्प प्रत्यक्ष हो जाएगा। जैसे अन्धकारयुक्त कक्ष में एक मेज पर कोई गोल सी वस्तु रखी है हमें उसकी सत्ता का बोध हो और यह पता न चले कि वह सन्तरा है या अमरुद अथवा सेब है तो इसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाएगा। अगले ही क्षण यदि हमें यह पता चले की वह सन्तरा है तो यह सविकल्प प्रत्यक्ष कहलायेगा। नाम ,जाति, गुणों का आभास निर्विकल्प प्रत्यक्ष को सविकल्प बना देता है।
(C) – प्रत्यभिज्ञा ( Credentials) – प्रत्यभिज्ञा से आशय है पहले से देखे हुए को पहचानना। इस प्रत्यक्ष में किसी वस्तु, चेहरे आदि को देखने पर हमें यह लगता है कि इसे पहले भी कहीं देखा है और जब हम उस आभास के आधार पर कहते हैं इसे मैंने अमुक शहर में उस स्थान पर देखा था तो इस गुण धर्म को प्रत्यभिज्ञा प्रमाण कहा जाएगा।
2 – अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra Ordinary Perception) –
जिस प्रकार लौकिक प्रत्यक्ष का अध्ययन दो वर्गों में विभाजित करके किया गया उसी तरह अलौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं –
i – सामान्य लक्षण
ii – ज्ञान लक्षण
iii – योगज
i – सामान्य लक्षण –
अनुमान साहचर्य या व्याप्ति के सम्बन्ध पर खड़ा होता है और इस साहचर्य ज्ञान हमें प्रत्यक्ष के आधार पर होता है यही प्रत्यक्ष ज्ञान सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष है। यथा मनुष्य मरण शील है लेकिन मनुष्य की मरण के साथ व्याप्ति अपने अस्तित्व के लिए उसके प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधरित रहेगी। इसे ही सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष कहेंगे।
ii – ज्ञान लक्षण –
यह ज्ञान पूर्वाभास के कारण होता है एक के ज्ञान के साथ ही जब दूसरा भी अनायास उठ खड़ा हो तो यह ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष कहलाता है जैसे चन्दन देखने के साथ उसकी खुशबू का आभास। वास्तव में बार बार विविध अनुभव का अभ्यास से हमारी इन्द्रियाँ पृथक पृथक प्राप्त ज्ञानों का युगपत ही प्रकट करने लगती हैं। जैसे। पानी -तरल , बर्फ -ठण्डा, अग्नि -गरम, पत्थर -ठोस आदि
iii – योगज –
इस प्रकार का ज्ञान योगियों को प्रत्यक्ष योग शक्ति के द्वारा होता है। योगियों को भूत ,भविष्य व विविध पदार्थों का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हो जाता है जो ज्ञान बिना इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से प्राप्त हो वह अलौकिक ज्ञान ही है इस लिए इसे अलौकिक की श्रेणी में रखा गया है।
योगियों को दो प्रकार का कह सकते हैं। 1 -युक्त योगी , 2 – युञ्जान
उक्त योगियों को अपने योगाभयास के बल से देश व काल से व्यवहित पदार्थों के ज्ञानार्जन की सामर्थ्य होती है जिन्हे सर्वदा सर्व प्रकारक ज्ञान उपलब्ध रहता है युक्त योगी कहलाते हैं और जो चिन्तन द्वारा ज्ञान उपलब्ध करते हैं युञ्जान योगी कहलाते हैं।
उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्रमाणों की दुनियाँ में प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है इसे वर्गीकृत करके इसके प्रकारों को किस प्रकार सरलता से समझा जा सकता है। मुझे लगता है बोर्ड पर किया वर्गीकरण इसका समुचित प्रतिनिधित्व कर रहा है।