जीवन भर गीली लकड़ी सा सुलगता रहा हूँ मैं, जमाने के सारे दर्दो – ग़ुबार समझता रहा हूँ मैं, आत्मघाती तत्वों के ताप से, पिघलता रहा हूँ मैं, फिर भी दुरुस्त होशोहवास में चलता रहा हूँ मैं ।
मानस-पटल पर छाई धुन्ध से लड़ता रहा हूँ मैं, सत्य की हिमायत हित सदा,तड़पता रहा हूँ मैं, ग़म मजदूर और किसानों के लखता रहा हूँ मैं, फिर भी जहरीले घूँट पी कर, जिन्दा रहा हूँ मैं।
लोभलालच के अन्धड़ों से उलझता रहा हूँ मैं, ईमान औ लगन की दौलत से,पलता रहा हूँ मैं, वक़्त के जन्जालों में, अन्य का मुहरा रहा हूँ मैं, फिर भी वक़्त की तब्दीलियाँ, सहता रहा हूँ मैं।
आँसू औ मुस्कान के फलसफे पढ़ता रहा हूँ मैं, युवा दिशाबोध का सार्थक प्रयास कर रहा हूँ मैं, जमाने की टीस, रुसवाईयों से रिसता रहा हूँ मैं, फिर भी फकीरी की मस्तचाल चलता रहा हूँ मैं।
पैमाइश,आजमाईश के दौर में तपता रहा हूँ मैं, हालात की दुरूह थापों पर, मटकता रहा हूँ मैं, बेरोजगारी,भूख के आलम में भटकता रहा हूँ मैं, फिर भी जला खुद को, मशाल बनाता रहा हूँ मैं।
पाकर आपका असीम दुलार, संवरता रहा हूँ मैं, मुख़्तलिफ़ दौर के विचारों से टकराता रहा हूँ मैं, कूप मण्डूक विचार जकड़न सेभिड़ता रहा हूँ मैं, फिर भी संकीर्ण कालिमा से निकलता रहा हूँ मैं।
समस्याएं इस दौरे दुनियाँ की लपकता रहा हूँ मैं, समाधान की सौम्य तलाश में, उलझता रहा हूँ मैं, देखकर बेबसी इस देश की, सिसकता रहा हूँ मैं, फिर भी पुष्प पंखुड़ी मानिन्द, बिखरता रहा हूँ मैं।
काल के कण्टकाकीर्ण पथ का,प्रवक्ता रहा हूँ मैं, गहन अँधेरे छाँटने के प्रयास में जलता रहा हूँ मैं, विश्वबन्धुत्व सिद्धान्त का हरदम कायल रहा हूँ मैं, फिर भी राष्ट्रवाद के उत्थान को, लड़ता रहा हूँ मैं।
रंग बदलते चेहरों का विज्ञान, तकता रहा हूँ मैं, कलुषता पर पावस लबादा, निरखता रहा हूँ मैं, खासअपनों से मिले जख्म को ढकता रहा हूँ मैं, फिर भी जिन्दादिली से जिन्दगी जीता रहा हूँ मैं।