हिंदुस्तान परिक्षेत्र के जनमानस की अवधारणा पुनर्जन्म व प्रारब्ध से जुड़ी रही है जो विभिन्न विषादयुक्त क्षणों में मानसिक आलम्बन का कार्य करती है और उसे कुछ भी आश्चर्ययुक्त नहीं लगता बल्कि प्रारब्धवश घटित घटना लगती है व तब शब्द इस प्रकार गीत में ढलते हैं।
लेखन का परिक्षेत्र पुराना लगता है ,
लेकिन वह जाना- पहिचाना लगता है.
इतने सारे दिन गुजरे तब भान हुआ,
अब दर्शन का उनवान पुराना लगता है.
इनका, उनका ,अपना ,सबका ,
हाँ, युगों- युगों का नाता है.
यह तेरा है ,वह मेरा है ,
ओछे नारे सा लगता है।
जब से मेरा मनवा भारत आया है,
वसुधा से नाता है पुराना लगता है।
हम तो केवल क्षेत्र बदलते रहते हैं ,
आत्मा के परिवेश बदलते रहते हैं।
हम सब जब रोने चिल्लाने लगते हैं ,
ईश्वर पर आरोप लगाने लगते हैं।
कभी कभी जो अनपेक्षित सा घटता है,
प्रारब्धों का खेल पुराना लगता है।
– डॉ0 शिव भोले नाथ श्रीवास्तव