माँ,कैसे समझाऊँ,आजभी तुझे बहुत प्यार करता हूँ,
दूर रह कर भी दिल से,हमेशा तेरे ही पास रहता हूँ,
मन में उठी गहरी हूक को आँसू नहीं बनने देता हूँ,
मैं, जिम्मेदारी और वक्त की पाटी में बुरादा होता हूँ,
जिन्दगी मुझे हरपल झकझोरती है ,हाँ नहीं रोता हूँ,
घर,बाहर,दुनियाँ के शब्द, मुझे छलनी कर देते हैं,
न जाने क्यों मैं मज़बूत दिखने का प्रयास करता हूँ ,
अस्तित्व बचाने की खातिर, रोज ही कुर्बान होता हूँ,
माँ, अन्दर ही अन्दर, मैं बहुत लहू-लुहान होता हूँ,
दुनियाँ के रन्जो ग़म सुन, उन्हें ढाँढस बंधाता हूँ,
पर अपना दर्द जमाने के लोगों से बाँट नहीं पाता हूँ,
कैसे कहूँ, कि पैसा इस दौर में, लोकाचार गढ़ता है,
मैं समाज को नहीं बाजार मुझे वस्तु समझ पढ़ता है,
वह मेरी आवाज़ काम कुर्बानी की कीमत लगाता है,
तेरा ये बेटा, कई अनगढ़ टुकड़ों में, बँटता जाता है,
माँ,कई दिनों से कोई रात मुझे सुलाने नहीं आती है,
कई रातें दायित्व निर्वाह को इधर से उधर भगाती हैं,
यादें घेर लेती हैं माँ, पर जाने क्यों नींद नहीं आती है,
ऐसा लगता है इन टुकड़ों में, जिन्दगी छिनी जाती है,
अब भी कोई भौतिक सुविधा,मुझे बाँध नहीं पाती है,
बचपन से जुड़ी हर बात,हर कहानी याद आती है,
हर मौसम की वो गुजरी बिसरी रवानी जाग जाती है,
मेरी खुशी हित आप दोनों की, कुर्बानी याद आती है,
माँ- बाप द्वारा पसीने से लिखी,कहानी याद आती है,
इन स्मृतियों में सुबह हो जाती है, नींद नहीं आती है,
अगले दिन जूझने वास्ते, मैं खुद को तैयार करता हूँ,
ऊपर से मजबूत, अन्दर खुद को जार जार करता हूँ,
मुझे याद है माँ स्कूल से आ, हर बात तुझे बताता था,
आज बहुत कुछ सबसे से नहीं खुद से भी छिपाता हूँ,
और इसी कशमकश में, मैं खुद ही बिखर जाता हूँ,
लेकिन चेहरे पर शिकन,आँखों में पानी नहीं लाता हूँ,
जमाने का कुछ हिस्सा मुझे भी पैसे वाला समझता है,
उन्हें नहीं पता कि मैं स्वयम को किस तरह छलता हूँ,
यहाँ वक़्त के साथ जमाना बहुत कुछ रंग बदलता है,
प्राइवेट नौकरियों में बहुत कुछ उलटपुलट चलता है,
कभी वेतन बढ़ता,तो कभी आधे से कम रह जाता है,
और ऐेसे थपेड़े खाने में अब, अजब आनन्द आता है,
कभी बच्चों की फीस का खर्चा वेतन से बढ़ जाता है,
गतबचत का इस चक्कर में दिवाला निकल जाता है,
प्रारब्धवश हुआ मन ये बताता है गुस्सा नहीं आता है,
जमाने के गणित से रिश्तों का गणित बिगड़ जाता है,
माँ, जिन्दगी में ईमानदार रहना कठिन हुआ जाता है,
कितना भी प्रारब्ध मानूँ मष्तिस्क समझ नहीं पाता है,
कभी लगता है कि अब मैं भी मशीन हुआ जाता हूँ,
माँ, आज भी तेरी पूरी शिद्दत से बहुत याद आती है,
आँख डबडबाने की इस कशमकश में छटपटाती है,
शरीर यहाँ रहता है ऑ,आत्मा तेरेपास चली जाती है,
जिन्दगी मुझे पुनः, यथार्थ धरातल पर खींच लाती है,
कभी भावनाओं के गुबार में चकनाचूर हुआ जाता हूँ,
सुबह,शाम केआवर्तन में ख़ुदको समझ नहीं पाता हूँ,
सर्वोत्थान के चाह में अनसुलझा रहस्य हुआ जाता हूँ,
ऊपर से सशक्त और अन्दर तार तार हुआ जाता हूँ।