भारतीय पर्वों का शिक्षा में कलात्मक महत्त्व
किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति पर अवलम्बित होती है और इस संस्कृति का विकास दीर्घकालिक सभ्यता और उस क्षेत्र के व्यक्तित्वों के कठिन प्रयासों से गढ़ा जाता है।जब किसी राष्ट्र की पीढ़ियाँ दीर्घकाल तक मर्यादाओं और परम्पराओं का अनुपालन करती हैं तब रीति रिवाज और धरती से जुडी व्यवस्थाओं का उद्भव होता है। वे सर्वस्वीकार्य तब हो पाती हैं जब उनसे आस्था और विश्वास जुड़ता है। इन आस्था, विश्वास, परम्पराओं का सहज जुड़ाव पर्वों से इस प्रकार हो जाता है कि पर्व और कला आपस में इतने गुत्थमगुत्था हो जाते हैं कि समरस हो जाते हैं।
भारत पर्वों का देश है इससे लोक कलाएं स्वाभाविक रूप से ऐसी जुड़ गई हैं जिससे अलगाव की सोच भी मानस को व्यथित करती है। भारत में जहां विविधताओं के दर्शन होते हैं वहीं देवी देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा भाव परिलक्षित होता है यहाँ भूमि पूजन किया जाता है और पृथ्वी को माँ कहा जाता है। यहाँ का सहज उद्घोष है –
‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’‘
धरती माँ के प्रति श्रद्धा की अभिव्यञ्जना अलग अलग परिक्षेत्र में विविध रूपों में होती है और इन सब का आधार बनती है कला।कला से माँ का श्रृंगार कर मानस को आध्यात्मिक आलम्बन मिलता है। विविध त्यौहारों पर धार्मिक भावना का प्रगटन विविध कलात्मक स्वरूपों से दृष्टिगत होता है।
कलात्मक महत्ता स्थापित करती रीतियाँ व पर्व (Rituals and festivals establishing artistic importance) –
माँ भारती का श्रृंगार भूमि व भित्ति के विविध श्रंगारों में विविध पर्वों पर स्वाभाविक रूप से दिखाई पड़ता है। कुछ को यहाँ उल्लिखित करने का प्रयास है यथा
1 – रंगोली – भारत के विभिन्न प्रान्तों में रंगोली के विविध स्वरुप दृष्टिगत होते हैं वर्तमान में रंगोली बनाने हेतु गेहूँ या चावल का आटा, हल्दी, विभिन्न रंगों के लकड़ी व पत्थर के बुरादे, अबीर, गुलाल, खड़िया, विविध भूसी, विविध रंगीन चूर्ण आदि प्रयुक्त होता है। इस माध्यम से भूमि को विविध रूप अलंकृत करते हैं इनमें पत्तियों, फूलों, बेलबूटों, मङ्गलमय प्रतीकों का प्रयोग दीख पड़ता है लेकिन इस माध्यम से ईश्वर का स्वागत (Welcome to God) अभिव्यंजित होता है। विकीपीडिया के अनुसार –
“रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा और लोक कला है अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है।”
2 – माण्डना – यह राजस्थानी लोक कला का बेहतरीन उदाहरण है वहाँ मेहँदी माण्डने की प्रथा भी पुरातन काल से प्रचलित है विवाहित, कुँवारियाँ विविध त्योहारों पर हाथ, पैरों पर मेहँदी माण्डने का कार्य उत्साह पूर्वक करती रही हैं आज यह शरीर के विविध अंगो तक विस्तार प् चूका है और पुरुष भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। राजस्थान में विविध पर्वों, विवाह समारोहों,और उत्सवों में आज भी इसकी धूम देखी जा सकती है। यह आलेखन केवल भूमि तक सीमित नहीं है बल्कि दीवारों,खम्भों,वाहनों आदि पर भी इन्हें बनाया जाता है। दीवाली पर चमकदार रंगों से और होली पर विविध अबीर ,गुलाल व् अन्य रंगों तक से यह चित्रण किया जाता है।
3 – अल्पना – इसमें ज्यामितीय चित्रण की प्रधानता रहती है बंगाल में इसका अधिक प्रचलन है गीली खड़िया, पत्र रस, हल्दी, चावल का अहपन आदि से विभिन्न त्यौहारों पर दीवारों पर देवी देवताओं का चित्रण किया जाता है। विधिवत पूजा भी की जाती है।
4 – गोदना – शरीर की खाल पर गुदना गुदाने की प्रथा बहुत प्राचीन है इसमें कुछ भी चित्रित करवाया जा सकता है अपने ईष्ट का चित्र, नाम, गहना, पुष्प, बेल बूटे, कुल देवता, विविध वंशों से जुड़े चित्र, विविध पर्वों के आराध्य आदि।
5 – साँझी – यह कला उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में अधिक प्रचलित है इसमें सम्पूर्ण चित्रण गोबर की पतली पतली बत्तियों के माध्यम से किया जाता है इससे सम्पूर्ण आकृति को पूर्ण कर लिया जाता है और पत्तियों व गहनों का प्रयोग कर उसे और प्रभावी बनाया जाता है विविध फिल्मों में आपने ये आकृतियाँ देखि होंगी। नवरात्रि के देवी स्वरुप की परम्परागत रूप से साँझी के माध्यम से आज भी बनाया और पूजा जाता है।
6 – विविध पर्वों पर विशिष्ट कलात्मक चित्रण –
भारत में यूँ तो विविध पर्वों की लम्बी श्रृंखला कला से युक्त रही है यहाँ कुछ को देने भर का प्रयास है।
i – अहोई
ii – करवा चौथ
iii – गोवर्धन पूजा
iv – चित्र गुप्त पूजा
v – जन्माष्टमी
vi – दुर्गा पूजा
अन्ततः कहा जा सकता है कि भारत में पर्वों और कलाओं का अटूट सम्बन्ध है सामाजिक अभिव्यक्त का कलाएं प्रबलतम साधन हैं और भारत में उत्तरोत्तर आनन्द प्राप्ति का कला पवित्र साधन है। कला और पर्व का यह सम्मिलन हमें सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम्,से जोड़ता है।