रात किस्से सुबह के मैं कहता रहा,
दिन गुजरते रहे, वक़्त ढलता रहा।
खुशी का कारवाँ यूँ सरकता रहा,
रंग मौसम का प्रतिक्षण बदलता रहा
हर सितम को अन्तिम समझता रहा,
वो जुल्म करते रहे और मैं सहता रहा ।1।
रंग बादल का हरदम बदलता रहा,
तपन बढ़ती रही, ताप बढ़ता रहा।
रंग मौसम का आँखों में घुलता रहा,
मन दहकता रहा दिल सुलगता रहा।
हर सितम को अन्तिम समझता रहा,
वो जुल्म करते रहे और मैं सहता रहा ।2।
देख दर्पण में सब, कुछ चटकता रहा,
दम तो घुटता रहा मन सिसकता रहा।
बेरुखी वक़्त लख, तन भटकता रहा,
महल सपनों का, यूँ ही दरकता रहा।
हर सितम को अन्तिम समझता रहा,
वो जुल्म करते रहे और मैं सहता रहा ।3।
देख नीति नियति सिर पटकता रहा,
सबकी सुनता रहा अपनी कहता रहा।
उनके जेहन में लालच बस घुलता रहा,
घाव रिस रिस बहा, मन तड़पता रहा।
हर सितम को अन्तिम समझता रहा,
वो जुल्म करते रहे और मैं सहता रहा ।4।
प्रेम का पंछी, आँसू निगलता रहा,
गम उदासी भरे बस निरखता रहा।
‘नाथ’ जड़वत संगसंग थिरकता रहा,
पाप बढ़ता रहा, पूण्य घटता रहा।
हर सितम को अन्तिम समझता रहा,
वो जुल्म करते रहे और मैं सहता रहा ।5।