भारतीय षड दर्शन में सांख्य सर्वाधिक प्राचीन
है सांख्य सिद्धान्त के संकेत छान्दोग्य, प्रश्न, कठ और विशेषतया श्वेताश्वर उपनिषद से प्राप्त
होते हैं याकोबी के अनुसार इसका प्रगटन उपनिषदों के रचनाकाल के बीच हुआ। प्राचीन
काल से ‘नहि
सांख्य सम ज्ञानम्’
कहकर इसकी प्रशंसा की जाती रही है इसी आधार पर
मैक्समूलर जैसे पाश्चात्य विद्वान ने इसे
अद्वैत वेदान्त के बाद हिन्दुओं का प्रिय और प्रमुख दर्शन कहा है। आचार्य शंकर ने
इसे वेदान्त का प्रमुख मल्ल कहा है। सांख्य दर्शन को ‘षष्टि तन्त्र ‘ के नाम से भी जाना जाता है आचार्य कपिल सांख्य के प्रतिस्थापक आचार्य
माने जाते हैं।
इस दर्शन ने सर्वप्रथम तत्वों की गिनती की
जिसका ज्ञान हमें मोक्ष की ओर ले जाता है गिनती को संख्या कहते हैं संख्या की
प्रधानता के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।
दूसरी व्याख्या के अनुसार सांख्य का अर्थ विवेक
ज्ञान है प्रकृति तथा पुरुष के विषय में अज्ञान होने से यह संसार है और जब हम इन
दोनों के ‘विवेक’ को
जान लेते हैं कि पुरुष प्रकृति से भिन्न तथा स्वतन्त्र है तब हमें मोक्ष की
प्राप्ति होती है। इसी विवेक ज्ञान की
प्रधानता होने के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।
आचार्य कपिल की दो रचनाएँ उपलब्ध हैं एक तत्व
समास और दूसरी सांख्य सूत्र। तत्व समास सांख्य दर्शन की प्राचीनतम रचना है इसमें
केवल 22 सूत्र हैं सांख्य सूत्र में केवल 537 सूत्र हैं इसकी व्याख्या में निम्न सांख्य
ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
1 – सांख्य कारिका (ईश्वर कृष्ण)
2 – जय मङ्गला
3 – युक्ति दीपिका
4 – हिरण्य सप्तति (परमार्थ भिक्षु)
5 – सांख्य तत्व कौमुदी (वाचस्पति मिश्र)
6 – चन्द्रिका (नारायण तीर्थ)
7 – सरल सांख्य योग (हरि हराण्यक
8 – सांख्य प्रवचन (विज्ञान भिक्षु)
9 – सांख्य तत्व विवेचन
(सोमा नन्द)
10 – सांख्य तत्व यथार्थ दीपन (भाव गणेश)
सांख्य दर्शन के अनुसार शिक्षा :-
सांख्य दर्शन में प्रकृति तथा पुरुष दोनों को
मूल तत्व माना गया है और इन दोनों में मूल भूत अन्तर किया गया है इस प्रकार शिक्षा
की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जो प्रकृति और पुरुष
भेद का ज्ञान प्रदान कर सके। यह शिक्षा प्रक्रिया को बालकेन्द्रित बताते
हुए प्रतिपादित करती है कि मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है। जो विवेक ज्ञान एवम् योग साधना द्वारा प्राप्त
किया जा सकता है। हम
सृष्टि प्रक्रिया को इस प्रकार समझ सकते हैं –
त्रिगुणात्मक
पुरुष —-प्रकाश ——— ↓
महत
(बुद्धि)
↓
अहंकार
↓
पञ्च महाभूत
आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी
सांख्य
दर्शन के मूल सिद्धान्त :-
1 – प्रकृति व पुरुष के योग से सृष्टि निर्मित
2 – प्रकृति व पुरुष दोनों मूल तत्व – पूरक
3 – पुरुष की स्वतन्त्र सत्ता – वह अनेक –
अनेकात्मवादी दर्शन
4 – मनुष्य (प्रकृति व पुरुष का योग) – सप्रयोजन
5 – मनुष्य का विकास उसके जड़ व चेतन तत्वों पर
निर्भर -तीन दशाएं -1 -शारीरिक, 2 – मानसिक, 3 –
आध्यात्मिक
6 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति (दुःख
त्रय से मुक्ति) – शरीर का नाश
7 – मुक्ति के लिए विवेक ज्ञान आवश्यक
8 – विवेक ज्ञान के लिए अष्टांग मार्ग (योग साधन
आवश्यक)
9 – योग मार्ग की प्रमाणिकता हेतु नैतिक आचरण
आवश्यक (यम, नियम अनुपालन)
सांख्य
दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य :-
1 – शारीरिक विकास
2 – मानसिक विकास
3 – भावनात्मक विकास
4 – बौद्धिक विकास
5 – नैतिक विकास
6 – मोक्ष प्राप्ति
7 – सद् तथा असद् को समझना (उचित आचरण विकास)
8 – सर्वाङ्गीण विकास
शिक्षा
का पाठ्यक्रम :-
इन्होने
अपने पाठ्यक्रम को भौतिक व आध्यात्मिक आधार प्रदान किया।
भौतिक
विकास के अन्तर्गत ये कर्मेन्द्रिय का विकास लक्ष्य मानते हैं और इसके लिए विविध
पाठ्य सहगामी क्रियाओं व खेल कूद को प्रश्रय देना चाहते हैं।
आध्यात्मिक
विकास हेतु ये ज्ञानेन्द्रियों का विकास करना चाहते हैं और इस हेतु योग,दर्शन,मनोविज्ञान
को प्रश्रय देना चाहते हैं।
शिक्षण
विधि :-
सांख्य
दर्शन मुख्यतः तीन विधियों प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द को प्रयोग करने पर जोर देता है।
प्रत्यक्ष
विधि – इसमें ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को क्रिया शील बनाया जाता है
जिससे अनुभव व प्रत्यक्षीकरण का अवसर मिलता है।
अनुमान
विधि – इसमें इन्द्रियों से परे चेतना को जिसमें अनुभूति हेतु अवसर प्रदान किया
जाता है इसमें भाव पक्ष प्रधान होता है।
शब्द
विधि – इसके अन्तर्गत दृष्टान्तों,उदाहरणों का उपयोग किया जाता है जिसमें ज्ञान
की प्रमाणिकता सिद्ध होती है।
इनके
अतिरिक्त यह कुछ अन्य विधियों के प्रयोग को भी उचित समझते हैं यथा – सूत्र विधि, कहानी विधि, व्याख्यान
विधि,तर्क विधि, क्रिया
एवम् अभ्यास विधि।
शिक्षक
शिष्य सम्बन्ध –
सांख्य
गहन मीमाँसा का दर्शन है अतः शिक्षक का विषय पर स्वामित्व परमावश्यक है। अध्यापक
में यह योग्यता होनी चाहिए कि वह प्रकृति, पुरुष, जगत सम्बन्धी ज्ञान रखने के साथ विविध सूक्ष्म
अन्तरों को व्यवस्थित तरीके से अधिगम कराने में समर्थ हो।
शिष्य
–
इस
दर्शन के अनुसार विद्यार्थी का व्यवहार नैतिकता पर अवलम्बित हो वह ज्ञान लब्धि
हेतु जिज्ञासु हो व अपने गुरुओं के प्रति आदरभाव रखने वाला हो। सांख्य दर्शन अनुशासन को सर्व प्रथम वरीयता देता
हैं वस्तुतः सांख्य और योग दर्शन एक दूसरे के पूरक हैं और इसीलिये ये यम (अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य)
व नियम (शौच, सन्तोष, तप,स्वाध्याय,ईश्वर
प्राणिधान) का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहते हैं।
विद्यालय
–
योग
और सांख्य समकालीन दर्शन हैंइस समय गुरुकुल प्रणाली प्रचलित थी तथा शिक्षा गुरु
आश्रम में प्रदान की जाती थी।
सांख्य दर्शन का प्रभाव शिक्षा के विभिन्न अंगों पर आज भी परिलक्षित
होता है और इसे किसी प्रकार कमतर नहीं आँका जा सकता।
सर्व प्रथम यहाँ शब्द पाठ्यक्रम की
विवेचना कर आशय समझने का प्रयास करते हैं। शब्द पाठ्यक्रम लैटिन भाषा के
शब्द ‘Currere’ शब्द से निकला है जिसका आशय है दौड़ का मैदान (Race Course ) अर्थात पाठ्यक्रम (Curriculum) से आशय उस साधन से है जिसके द्वारा शिक्षा के मन्तव्य प्राप्त
किये जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है की यह वह साधन है जिसके माध्यम से
शिक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति एक तर्कपूर्ण क्रम का अनुसरण कर प्राप्त की जा सकती
है।
शिक्षा की तरह
पाठ्यक्रम के आशय के सम्बन्ध में भी दो धारणाएं प्रचलित हैं जिसे संकुचित अर्थ व
व्यापक अर्थ के नाम से जाना जाता है। संकुचित अर्थ में पाठ्यक्रम भी केवल विभिन्न
विषयों के पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित है लेकिन व्यापक अर्थ में वे सभी ज्ञान व अनुभव
आ जाते हैं जिसे नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से प्राप्त करती है साथ ही विद्यालय में
अध्यापकीय संरक्षण में विद्यार्थी द्वारा जो भी क्रियाएं सम्पादित होती हैं सारी
की सारी पाठ्यक्रम के तहत स्वीकार की जाती हैं इसके अतिरिक्त पाठ्य सहगामी
क्रियाएं भी पाठ्यक्रम का ही भाग होती हैं अर्थात वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाठ्यक्रम
से आशय उसके इसी व्यापक स्वरूप से ही है।
पाठ्यक्रम की
परिभाषाएं / Definition of Curriculum –
पाठ्यक्रम की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषों को इस
प्रकार क्रम दे सकते हैं। जॉनसन महोदय के अनुसार –
“A
curriculum is a structured series of intended learning outcomes.”
“पाठ्यक्रम भावी सीखने
के परिणामों की एक संरचित श्रृंखला है।”
एक अन्य विचारक मोनरो महोदय का मानना है –
“Curriculum
embodies all the experiences which are utilized by the school to atain the aims
of education.”
“पाठ्यचर्या उन सभी अनुभवों
को समाहित करती है जो स्कूल द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए
उपयोग किए जाते हैं।”
भारतीय शिक्षाविद डॉ ० एन ० एल ० शर्मा जी
कहते हैं –
“Curriculum
is the statement of cource content to be learnt and tought during the course of
a specific study within a stipulated time period.”
“पाठ्यचर्या एक निश्चित
समय अवधि के भीतर एक विशिष्ट अध्ययन के दौरान सीखी और पढ़ी जाने वाली पाठ्यक्रम
सामग्री का विवरण है।”
एक सुप्रसिद्ध चिन्तक Cunningham
ने अपने भावों को इस
प्रकार शब्दों में ढाला है –
“The curriculum
is a tool in the hands of into artist (teacher) is mauld his material (the
pupil) according to his ideals (objectives) in the studio (the school).
“पाठ्यक्रम कलाकार
(शिक्षक) के हाथों में एक उपकरण है जो स्टूडियो (स्कूल) में अपने आदर्शों
(उद्देश्यों) के अनुसार अपनी सामग्री (छात्र) को ढालता है।”
वेण्ट और क्रोनबर्ग के अनुसार
“Curriculum
is the systematic from the subject matter which is prepared to fulfil the needs
of pupils.”
“पाठ्यचर्या उस विषय
वस्तु से व्यवस्थित है जो बालकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार की जाती
है।”
इस प्रकार पाठ्यक्रम
वह साधन मात्र है जो समय की मॉंग के आधार पर कालानुरूप विविध आवश्यकताओं को ध्यान
में रखकर तैयार किया जाता है।
पाठ्यक्रम की प्रकृति
(Nature of Curriculum) –
पाठ्यक्रम की प्रकृति के सम्बन्ध में यह
नहीं कहा जा सकता कि यह स्थाई रहेगी। इसकी प्रकृति में स्थान, काल, दिशा, व्यवस्था,दर्शन आदि के अनुसार परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं।
पाठ्यक्रम हर काल की आवश्यकता के अनुसार स्वयम् को व्यवस्थित कर मानवता का कल्याण
करता है।पाठ्यक्रम की मूल प्रकृति मानव कल्याण की है डॉ० सोती शिवेन्द्र सिंह व
अन्य द्वारा इसकी विशेषता जिसमें इसकी प्रकृति के दर्शन होते हैं भली भाँति
विवेचित किया गया है। जो इसके नाम में ही छिपा है यथा –
C –
Central point of Education / शिक्षा का केन्द्रीय बिन्दु
U –
Understanding of educational demand./ शैक्षिक माँग की स्थिति की समझ
M –
Management of educational process / शैक्षिक प्रक्रिया का प्रबंधन।
पाठ्यक्रम को प्रभावित
करने वाले घटक / Curriculum
Affecting Factors –
शिक्षा व्यवस्था का गहन अध्ययन यह स्पष्ट
संकेत देता है कि शिक्षा और पाठ्यक्रम का एक दूसरे से गहन सम्बन्ध रहा है इसी आलोक
में पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाले घटकों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।
सुविधा की दृष्टि से हमने शिक्षार्थी स्वायत्तता को कुछ भागों में बाँट लिया है।
शिक्षार्थी स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective
of learner autonomy
शिक्षार्थी
स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education
1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy
2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy
3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy
4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner
autonomy
5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy
निष्कर्ष
/conclusion
शिक्षार्थी
स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy
शिक्षार्थी
की स्वायत्तता को अधिगम कर्त्ता के मनन, चिन्तन, निर्णयन, कार्य
इच्छा और और स्वशक्ति पर विश्वास के रूप में परिकल्पित किया जा सकता है। इसे अधिगम
कर्त्ता की जिम्मेदारी लेने की क्षमता के रूप में देखा जा सकता है।
अधिगम करने वाले को अधिगम हेतु स्वायत्त स्थिति
प्रदान करना मानवीय दृष्टिकोण से एक वहनीय जिम्मेदारी है।
शिक्षार्थी
की स्वायत्तता के बारे में Henri Holec महोदय
का विचार है –
“Autonomy
is the ability to take charge of one’s own learning.”
“स्वायत्तता अपने स्वयं के सीखने का प्रभार लेने
की क्षमता है।”
Leslie
Dickinsion महोदय
का विचार है कि
“Autonomy
is a situation in which the learner is totally responsible for all the
decisions concerned with his learning and the implementation of those
decisions.”
“स्वायत्तता एक ऐसी स्थिति है जिसमें शिक्षार्थी
अपने सीखने और उन निर्णयों के कार्यान्वयन से संबंधित सभी निर्णयों के लिए पूरी
तरह जिम्मेदार है।”
उक्त
विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिगम कर्त्ता की स्वायत्तता से आशय अधिगम
के परिक्षेत्र में उसके
सीखने व निर्णयन हेतु स्वयं जिम्मेदारी लेने से है।
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective of learner autonomy
वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में अपनी जवाबदेही हेतु खुद जिम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति को बल मिला
है और सभी अपने अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं शिक्षार्थी को गुण सिखाना ही शिक्षार्थी स्वायत्तता का उद्देश्य
है। आज की पीढ़ी निःसन्देह पूर्व पीढ़ी से अधिक जागरूक है और विभिन्न संसाधनों का
प्रयोग कर ज्ञान परिक्षेत्र बढ़ा रही है। शिक्षार्थी स्वायत्तता उसे उसके अधिकारों
के प्रति सचेष्ट करना एक उद्देश्य मानती है। Phill Bension महोदय लिखते हैं –
“Autonomy
is a recognition of the rights of learner within educational system.”
“स्वायत्तता शैक्षिक प्रणाली के भीतर शिक्षार्थी
के अधिकारों की मान्यता है।”
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य शिक्षार्थी को प्रभावी निर्णयन क्षमता की दक्षता प्रदान कर
उसके परिणामों की जिम्मेदारी स्वीकार करने योग्य बनाती है।
संक्षेप
में उद्देश्यों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –
1 – स्वायत्त निर्णय लेने की क्षमता का विकास/Develop the ability to make autonomous decisions
2 – सहयोग
की भावना का विकास / Develop a spirit of cooperation
3 – स्वमूल्यांकन व स्वप्रबन्धन /Self-evaluation and self-management
4 – शिक्षार्थी की सम्प्रभुता को महत्त्व /Importance of learner’s sovereignty
5 – व्यक्तिगत भिन्नता की स्वीकारोक्ति /Acknowledgment of individual
difference
6 – आत्मविश्वास वृद्धि /Confidence Increase
7 – सृजनात्मकता का विकास /Development of creativity
8 – शैक्षणिक दवाब में कमी / Reduction of academic pressure
शिक्षार्थी
स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education
परिवर्तन
प्रकृति का अटल नियम है शिक्षा जगत को क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए स्वयं को
तैयार करना होगा और शिक्षा के समस्त अंगों को बदलते परिदृश्य के अनुसार शिक्षार्थी
स्वायत्तता के अनुरूप स्वयं ढालना होगा। David Little महोदय ने कहा –
“Autonomy
is essentially a matter of the learner’s psychological relation to the process
and content of learning.”
“स्वायत्तता अनिवार्य रूप से सीखने की प्रक्रिया
और सामग्री के लिए शिक्षार्थी के मनोवैज्ञानिक संबंध का मामला है।”
1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy
2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy
3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy
4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner
autonomy
5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy
निष्कर्ष
/conclusion
आज
के परिप्रेक्ष्य में जब हम शिक्षार्थी स्वायत्तता की बात करते हैं समस्त शिक्षा
जगत को शिक्षार्थी स्वायत्तता के हिसाब से स्वयं को परिवर्तित करना होगा। गुरुदेव
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा –
“The
boys were encouraged to manage their own affairs, and to elect their own judge,
if any punishment was to be given. I never punished them myself.”
“लड़कों को अपने मामलों का प्रबंधन करने के लिए
प्रोत्साहित किया गया था, और
यदि कोई सजा दी जानी थी, तो
अपने स्वयं के न्यायाधीश का चुनाव करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। मैंने
उन्हें स्वयं कभी दंडित नहीं किया।”
निष्कर्षतः कहा सकता है कि
इस अवधारणा द्वारा शिक्षार्थी सशक्तीकरण
का नया अध्याय हेतु शिक्षा जगत को
तैयार रहना होगा। शिक्षार्थी को मानसिक सशक्त बनाने में ही शिक्षक व शिक्षा जगत की
खुशी छिपी है।
अस्तित्व वाद एक ऐसा चिन्तन है जिसे दायरे में कैद करना बहुत मुश्किल
है विश्लेषक कई बार इस भ्रम का शिकार हो जाते हैं कि क्या इसे दार्शनिक चिन्तन के
परिक्षेत्र में स्वीकारा जाए। वस्तुतः यह एक सङ्कट का दर्शन है मानव आज स्वयं से
भी अजनबी होता जा रहा है। यह विविध चिन्तनों के विरोध स्वरुप उत्पन्न हुआ है। और
मानव मात्र के अस्तित्व से जुड़ा है, इसीलिए इस वाद के चिन्तन की धुरी मानव व उसका
अस्तित्व ही है। अस्तित्ववाद सङ्कट (Crises) का वह दर्शन है जो बीसवीं शताब्दी की देन है और
व्यक्ति के मौलिक व्यक्तिगत अस्तित्व पर बल देता है।
सोरेन किर्कगार्द, मार्टिन
हीडेगर,जीन पॉल सात्रे वे प्रसिद्ध नाम हैं जो
अस्तित्ववाद के पोषकों में सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।
सोरेन किर्कगार्द(Soren Kierkegaard) चाहते थे कि व्यक्ति को चयन की पूर्ण स्वतन्त्रता मिले और जो वह
बनाना चाहता है उसके लिए वह स्वतंत्र हो।
मार्टिन हीडेगर(Martin Heidegger) मानते थे कि मनुष्य का अस्तित्व नश्वर है सीमित है मृत्यु सभी
सम्भावनाओं का अन्त कर देती है और सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है।
जीन पॉल सात्रे Jean Paul Satre (1905 -82) ने अपने दर्शन को अस्तित्ववादी स्वीकारा है वह
इस दर्शन को किसी का पिछलग्गू नहीं मानता। वे स्वीकार करते हैं कि मनुष्य का अस्तित्व किसी पूर्वसत्ता और
सिद्धान्त पर निर्भर नहीं करता बल्कि वे कहते हैं
‘मैं
हूँ इस लिए मेरा अस्तित्व है।’
DEFINITIONS OF
EXISTENTIALISM
अस्तित्व वाद की परिभाषाएं –
अस्तित्ववाद वह दर्शन है जिसमें मानव की स्वतन्त्रता के सच्चे दर्शन
होते हैं इसे हम एक अभिमत के रूप में स्वीकार कर सकते हैं इसे मानव जीवनके प्रति
एक दृष्टिकोण कहना भी तर्क संगत होगा आर०एन० बेक महोदय कहते हैं –
“The term
(Existentialism) refers to a type of thinking that Emphasizes human existence
and the qualities peculiar to it rather than to nature or Physical world.”
“अस्तित्ववाद एक प्रकार के चिन्तन की और संकेत
करता है जो प्रकृति अथवा भौतिक संसार की अपेक्षा मनुष्य के अस्तित्व और उसके गुणों
पर बल देता है।”
एक अन्य प्रसिद्ध विचारक एच० एच० टाइटस महोदय कहते हैं –
“Existentialism is an attitude and outlook that
Emphasizes human existence that is distinctive qualities of individual persons
rather than man in the abstractor nature and the world in general.”
“अस्तित्ववाद सामान्य रूप में विश्व और प्रकृति
अथवा सामान्य मानव की अपेक्षा ‘व्यक्ति‘ के रूप में मनुष्य के विशिष्ट गुणों पर जोर
देता है।”
अस्तित्ववाद के सम्बन्ध में प्रो ० रमन बिहारी लाल का कहना है
–
“अस्तित्ववाद एक ऐसा बन्धनमुक्त चिन्तन है जो
नियतिवाद एवं पूर्व निश्चित दार्शनिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं नियमों में विश्वास नहीं करता
और यह प्रतिपादन करता है कि मनुष्य का स्वयं में अस्तित्व है और जो वह बनाना चाहता
है उसका चयन करने के लिए स्वतंत्र है। इसके अनुसार मनुष्य वह है जो वह बन सका है
अथवा बन सकता है और उसका यह बनना उसके स्वयं के प्रयासों पर निर्भर करता है। ”
अस्तित्व वाद की विभिन्न मीमांसाएँ –
किसी दर्शन किसी को समझना उसकी मीमांसाओं को जानने से सरल हो जाता है
आइये सबसे पहले जानते हैं –
अस्तित्ववाद की तत्व मीमांसा (Metaphysics of Existentialism) –
सात्रे चेतना और पदार्थ दोनों की सत्ता के स्वतन्त्र अस्तित्व को
स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि वास्तु का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है ,मानव की चेतना में आने से पहले भी वस्तु
अस्तित्व में थी, है और रहेगी। ये मानव के अस्तित्व को व्यक्तिगत मानते थे और विश्वास
करते थे कि यह उसके साथ ही समाप्त हो जाने वाला है इनके अनुसार मनुष्य जन्म के साथ
अस्तित्व में आता है और मृत्यु के साथ अस्तित्व विहीन हो जाता है। हीदेगर के
अनुसार हताशा,चिन्ता तथा इसके द्वारा होने वाला दुःख स्वयं
प्रमाणित है इनका अनुभव प्रत्येक मानव करता है।
अस्तित्ववाद की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology of Existentialism)
–
इन विचारकों का मानना था कि मनुष्य जीवन पर्यन्त जो अनुभव विभिन्न
माध्यमों से करता है और इस माध्यम से अपनी चेतना और भावनाओं को जिस प्रकार युक्त
करता है वही ज्ञान है इस ज्ञान को वह स्वतंत्र तरीकों से विभिन्न विधियों द्वारा
प्राप्त करता है। लेकिन यह सत्य तभी स्वीकारा जाएगा जब सत्यापित हो जाएगा। ये
अनुभव जनित ज्ञान के ठीक विपरीत विचार को लेकर तर्क द्वारा ज्ञान की सत्यता को
प्रमाणित करना आवश्यक मानते हैं।
अस्तित्ववाद की मूल्य व आचार मीमांसा (Values and Ethics of
Existentialism)-
ये मानव हेतु किसी पूर्व स्वीकृत मूल्य या आचार संहिता को स्वीकार
नहीं करते,इनका तो मूल मन्त्र ही यह है की वह अपने अनुसार
चयन के लिए स्वतन्त्र है ये स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्व को ही मानव जीवन के आधार
भूत मूल्य मानते हैं। सात्रे कहता है कि संसार बहुत कठोर है
और इस कठोरता व दुरूहता का सामना कोई तभी कर
सकता है यदि वह साहसी हो। अधिकाँश अस्तित्ववादी विचारक मृत्यु को सबसे बड़ा सत्य
मानते हैं और स्वीकारते हैं कि मृत्यु का ज्ञान ही मनुष्य को सही मार्ग पर लाता
है।
अस्तित्व वाद के मूल तत्व और सिद्धान्त
Fundamental Elements and Principles of Existentialism-
01 – केन्द्र
बिन्दु मानव मात्र
02 – केवल
भौतिक जगत सत्य
03 – नियामक
सत्ता के बिना ब्रह्माण्ड का अस्तित्व
04 – निराशा
व दुःख विशद तत्व
05 – जीवन
अन्तिम उद्देश्य विहीन
06 – मानव
की स्वतन्त्र सत्ता
07 – चयन
की स्वतन्त्रता
08 – विकास
की निर्भरता स्वयं पर
अस्तित्ववाद और शिक्षा
Existentialism and Education
अस्तित्ववाद
और शिक्षा
Existentialism
and Education
शिक्षा
एक सामाजिक प्रक्रिया है और इनका समूचा ध्यान वैयक्तिकता पर है यह दर्शन एक
स्वतन्त्र दृष्टिकोण तो रखता है लेकिन कहीं कहीं अन्य दर्शनों को छूटा सा दीखता है
वैयक्तिकता के क्षेत्र में यह आदर्शवादियों की तरह वैयक्तिकता के महत्त्व को
स्वीकारता है आत्मविकास और आत्म अनुभव के विचार भी आदर्शवादियों से साम्य रखते हैं
लेकिन फिर भी यह कई विचारों में इतना अलग है कि पलायन वाद की कोइ गुंजाइश नहीं
छोड़ता ये कहते हैं –
“शिक्षा मनुष्य को उसके अस्तित्व और
उत्तरदायित्व का बोध कराने की प्रक्रिया होनी चाहिए।”
मानव
को अस्तित्वहीनता के दौर से हटाकर उसकी पुनः प्रतिष्ठा के क्रम में शिक्षा को
उपयोगी साधन स्वीकार किया है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्यों व
अंगों पर जो प्रभाव परिलक्षित हुए हैं उन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया जा सकता
है।
शिक्षा
के उद्देश्य (Aims of Education ) –
1 – उत्तरदायित्व की क्षमता का विकास (To Development of Responsibility)
2 – अपने भाग्य का निर्माता स्वयं (The maker of own destiny)
3 – सृजनात्मकता का विकास (Development of creativity)
4 – शक्तिशाली व साहसी बनाना
(Make strong and courageous)
5 – श्रेष्ठ मानव प्रजाति का विकास
(Evolution of the best human species)
पाठ्य क्रम (Curriculum)
–
इनके अनुसार व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के कारण विविध
विषयों को स्थान मिलना चाहिए। सौन्दर्यात्मकता और भावनाओं का महत्त्व अस्तित्ववादी
महसूस करते हैं यही तो उन्हें अन्य प्राणियों से अलग करते हैं इस लिए कला,साहित्य,संगीत विषयों को स्थान मिलना चाहिए। किर्क
गार्द मानव को नैतिक प्राणी मानते हैं इसलिए नीति शास्त्र की उपादेयता है।
अस्तित्व रक्षार्थ व्यावसायिक विषयों को पाठ्य क्रम में स्थान आवश्यक है। धार्मिक
विषयों के स्थान पर ये क्रियात्मक व वैज्ञानिक विषयों को संकट निवारणार्थ रखना
चाहते हैं अर्थात भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान,जीव विज्ञान ,कृषि विज्ञान,चिकित्सा शास्त्र,व तकनीकी विषयों पर बल देना चाहते हैं।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –
यह समूह शिक्षण के पक्षधर नहीं हैं इसलिए निर्धारित पूर्व नियोजित
शिक्षण विधियों कीजगह स्वाध्याय, चिन्तन, मनन,व
अनुभव द्वारा सीखने की महत्ता प्रतिपादित करते हैं व तार्किक विधि का समर्थन करते
हैं।ये विविध मंतव्यों हेतु विविध विधियों के समर्थक हैं।
शिक्षक (Teacher) –
इनका विचार है की अध्यापक अपने निर्णय बालकों पर न थोपें बल्कि
उन्हें इस योग्य बनाएं कि वे अपने लिए उचित निर्णय ले सकें, विभिन्न परिस्थितियों से लड़ने हेतु उसे समर्थ
बनाते हुए यह बोध भी कराना है कि वह अकेला है आत्मबोध से युक्त कर कर्मपथ पर बढ़ने
का कौशल विकसित किया जाना है। इस प्रकार अध्यापक की भूमिका दुरूह है।
विद्यार्थी (Student) –
विद्यार्थी चयन हेतु स्वतन्त्र है और इस चयन व स्वतन्त्रता की रक्षा
अध्यापक द्वारा की जानी चाहिए ये बालक की पूर्ण स्वतन्त्रता के समर्थक हैं और उसके सम्मान का कार्य शिक्षा
द्वारा सम्पादित होना चाहिए।
विद्यालय (School) –
जिस तरह ये विद्यार्थी की स्वतन्त्रता के पक्षधर हैं ठीक उसी तरह ये
विद्यालयों को नियन्त्रण मुक्त रखना चाहते हैं
सामूहिक शिक्षा के स्थान पर व्यक्तिगत शिक्षा के पक्षधर हैं। ये मानते हैं
की कुछ सिखाने या बालकों की स्वतन्त्रता छीनने के प्रयास न हों वे अपने आप ही
सीखेंगे। कुछ चुने हुए लोगों का बौद्धिक
विकास कर उन्हें उत्तरदायित्व दिया जाना चाहिए।
अनुशासन (Discipline) –
ये मानते हैं की मनुष्य स्वभाव से ही अनुशासन प्रिय है और यदि उससे
चयन में गलती हो जाती है तो इसका दुःख वह स्वयं भोगेगा सुधार कर लेगा। ये किसी भी आचार संहिता के
विरोधी थे। इस विचार धारा के अनुसार बालकों द्वारा उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार
सच्चा अनुशासन है।
मूल्याङ्कन (Evaluation)
–
अस्तित्ववाद पूर्व निश्चित ,मान्यताओं,धारणाओं,मूल्यों,धार्मिक नैतिक अवधारणाओं से छिटक खड़ा हो गया है। संकट ग्रस्त हेतु इसने आकर्षक
छवि बनाने का प्रयास अवश्य किया पर कोइ भी भारतीय विचारक इसे न तो शैक्षिक चिंतन
में स्थान दे पायेगा दार्शनिक चिन्तन में।
ये मानव हेतु कोइ ऐसा आलम्ब न दे सका जो उज्जवल भविष्य हेतु बोधक हो। शिक्षा के हर अंग पर इस वाद का प्रभाव
कोई निशाँ न छोड़ सका। इन्हें सब कुछ मानव विरोधी लगता है।यही कह सकते हैं कि इनके
इरादे बुरे नहीं थे बस सही रास्ता नहीं बना सके।
शिक्षा
पर तार्किक प्रत्यक्षवाद का प्रभाव (Impact Of Logical
Positivism On Education)-
तार्किक
प्रत्यक्षवाद ने शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्य क्रम, शिक्षक एवम शिक्षार्थी,
शिक्षण विधियों व अनुशासन को स्वानुसार विवेचित
किया जिसे इस प्रकार अभिव्यक्त कर सकते हैं।
उद्देश्य
( Aims ) –
चूंकि
ये ज्ञान का आधार अनुभव जन्य ज्ञान को मानते हैं इस लिए सार्थक निरर्थक, ज्ञान अज्ञान एवम नीर क्षीर विवेक में समर्थ
ज्ञान को शिक्षा के उद्देश्यों में शामिल करना चाहते हैं और भाषा व स्वशक्ति
परिमार्जन पर जोर देते हुए इस प्रकार उद्देश्य निर्धारण करते हैं –
[A ]- सृजनात्मक शक्ति का विकास [Development Of Creativity
]
[B ]- भाषा पर अधिकार [Command on Language]
[C ]- शारीरिक विकास व इन्द्रिय प्रशिक्षण [Physical
Development and Sensuous Training ]
[D ]- विवेक जागरण [ Intellectual Awakening ]
[E ]- विश्वसनीयता एवम वैद्यता [Reliability and
Validity]
[F ]- व्यावसायिक दक्षता [Vocational Efficiency]
पाठ्य
क्रम [Syllabus ]-
इन्होने
विचार, अध्यात्म, पूर्व
निश्चित नैतिकता का खण्डन कर प्राकृतिक विज्ञानों की सत्यता को सिद्ध कर पाठ्यक्रम
हेतु उपयोगी माना। प्रत्यक्ष अनुभव पर अधिक जोर देने के कारण भाषा,
व्याकरण, तार्किकता के महत्त्व को स्वीकार किया।
शिक्षक
और शिक्षार्थी [Teacher
And Learner]-
ये
वैज्ञानिक सोच वाले यथार्थ के धरातल पर खड़े अध्यापकों को शिक्षा प्रसार हेतु
आवश्यक मानते हैं शिक्षा को बालकेन्द्रित करते हुए विद्यार्थियों को उनकी रूचि मानसिक
योग्यता क्षमता को ध्यान में रखते हुए
शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
अनुशासन
[Discipline ] –
ये प्रमाणिकता, वस्तुनिष्ठता, यथार्थता, अनुभववादिता, कट्टरता विरोध धार्मिकनैतिकता विरोध का समर्थन
कर अनुशासन स्थापित करना चाहते हैं।
शिक्षण
विधि [Teaching
Methodology ]-
इस
दर्शन के आधार पर कहा जा सकता है कि ये इन प्रमुख शिक्षण विधियों के समर्थक हैं। –
(1)- करके सीखना (Learning
By Doing)
(2)- भाषा विश्लेषण विधि (Language Analytical Method)
(4)- विज्ञान प्रयोगात्मक विधि (Scientific Experimental Method)
(5)- प्रत्यक्षीकरण विधि (Observation Method )
(6)- आगमन विधि (Inductive Method )
विद्यालय
(SCHOOL)-
ये विद्यालयों
में प्रबन्धकों के साथ विद्यार्थियों एवम अध्यापकों को शामिल करना चाहते हैं। ये
अधिगम के अनुकूल माहौल बनाने व अनुभव के आधार पर उत्तरोत्तर प्रगति के पक्षधर हैं।