किसी से शिकायत नहीं है,
पर समस्या वहीं की वहीं है,
है सब कुछ पर मानव दुखी है,
बस चिन्ता का कारण यही है।
पर निराशा ने हमको है घेरा,
प्रभु बताओ कहाँ सुख का डेरा,
भीड़ में नर चले है अकेला,
है, परेशानियों का बस मेला।
हो गयी है, घनी-भूत पीड़ा,
अब नहीं है, खुशी-युक्त क्रीड़ा,
जिन्दगी ने अजब, खेल खेला,
खो गया है, खुशियों का मेला।
शान्ति खोई, मन का चैन खोया,
इस दुनियाँ में, हर कोई रोया,
सुख भौतिक है, लोगों में धुन है,
मुश्किल में मानव, प्रेम गुम है।
क्यों, बैचैन तन और मन है,
जिधर देखता हूँ, तम ही तम है,
क्यों, सुवासित नहीं जीवन है,
कहाँ सम्बल, कहाँ प्रियतम है।
गलत चिन्तन ने, ये खेल खेला,
मानव मन में है,खुशियों का मेला,
गर नहीं ढंग से खेल खेला,
तो ये जीवन लगेगा विषैला।
ये सारा विचारों का तम है,
न खोई खुशी, न प्रेम गुम है,
न निराशा, न पीड़ा सघन है,
ये सब मानव मन का, भरम है।
मानव -चिन्तन ने डाला है फेरा,
कभी रहता नहीं, मन अकेला,
मानव -मन ने, अजब खेल खेला,
है ,अन्तस में खुशियों का मेला।