भारतीय षड दर्शन में सांख्य सर्वाधिक प्राचीन
है सांख्य सिद्धान्त के संकेत छान्दोग्य, प्रश्न, कठ और विशेषतया श्वेताश्वर उपनिषद से प्राप्त
होते हैं याकोबी के अनुसार इसका प्रगटन उपनिषदों के रचनाकाल के बीच हुआ। प्राचीन
काल से ‘नहि
सांख्य सम ज्ञानम्’
कहकर इसकी प्रशंसा की जाती रही है इसी आधार पर
मैक्समूलर जैसे पाश्चात्य विद्वान ने इसे
अद्वैत वेदान्त के बाद हिन्दुओं का प्रिय और प्रमुख दर्शन कहा है। आचार्य शंकर ने
इसे वेदान्त का प्रमुख मल्ल कहा है। सांख्य दर्शन को ‘षष्टि तन्त्र ‘ के नाम से भी जाना जाता है आचार्य कपिल सांख्य के प्रतिस्थापक आचार्य
माने जाते हैं।
इस दर्शन ने सर्वप्रथम तत्वों की गिनती की
जिसका ज्ञान हमें मोक्ष की ओर ले जाता है गिनती को संख्या कहते हैं संख्या की
प्रधानता के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।
दूसरी व्याख्या के अनुसार सांख्य का अर्थ विवेक
ज्ञान है प्रकृति तथा पुरुष के विषय में अज्ञान होने से यह संसार है और जब हम इन
दोनों के ‘विवेक’ को
जान लेते हैं कि पुरुष प्रकृति से भिन्न तथा स्वतन्त्र है तब हमें मोक्ष की
प्राप्ति होती है। इसी विवेक ज्ञान की
प्रधानता होने के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।
आचार्य कपिल की दो रचनाएँ उपलब्ध हैं एक तत्व
समास और दूसरी सांख्य सूत्र। तत्व समास सांख्य दर्शन की प्राचीनतम रचना है इसमें
केवल 22 सूत्र हैं सांख्य सूत्र में केवल 537 सूत्र हैं इसकी व्याख्या में निम्न सांख्य
ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
1 – सांख्य कारिका (ईश्वर कृष्ण)
2 – जय मङ्गला
3 – युक्ति दीपिका
4 – हिरण्य सप्तति (परमार्थ भिक्षु)
5 – सांख्य तत्व कौमुदी (वाचस्पति मिश्र)
6 – चन्द्रिका (नारायण तीर्थ)
7 – सरल सांख्य योग (हरि हराण्यक
8 – सांख्य प्रवचन (विज्ञान भिक्षु)
9 – सांख्य तत्व विवेचन
(सोमा नन्द)
10 – सांख्य तत्व यथार्थ दीपन (भाव गणेश)
सांख्य दर्शन के अनुसार शिक्षा :-
सांख्य दर्शन में प्रकृति तथा पुरुष दोनों को
मूल तत्व माना गया है और इन दोनों में मूल भूत अन्तर किया गया है इस प्रकार शिक्षा
की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जो प्रकृति और पुरुष
भेद का ज्ञान प्रदान कर सके। यह शिक्षा प्रक्रिया को बालकेन्द्रित बताते
हुए प्रतिपादित करती है कि मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है। जो विवेक ज्ञान एवम् योग साधना द्वारा प्राप्त
किया जा सकता है। हम
सृष्टि प्रक्रिया को इस प्रकार समझ सकते हैं –
त्रिगुणात्मक
पुरुष —-प्रकाश ——— ↓
महत
(बुद्धि)
↓
अहंकार
↓
पञ्च महाभूत
आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी
सांख्य
दर्शन के मूल सिद्धान्त :-
1 – प्रकृति व पुरुष के योग से सृष्टि निर्मित
2 – प्रकृति व पुरुष दोनों मूल तत्व – पूरक
3 – पुरुष की स्वतन्त्र सत्ता – वह अनेक –
अनेकात्मवादी दर्शन
4 – मनुष्य (प्रकृति व पुरुष का योग) – सप्रयोजन
5 – मनुष्य का विकास उसके जड़ व चेतन तत्वों पर
निर्भर -तीन दशाएं -1 -शारीरिक, 2 – मानसिक, 3 –
आध्यात्मिक
6 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति (दुःख
त्रय से मुक्ति) – शरीर का नाश
7 – मुक्ति के लिए विवेक ज्ञान आवश्यक
8 – विवेक ज्ञान के लिए अष्टांग मार्ग (योग साधन
आवश्यक)
9 – योग मार्ग की प्रमाणिकता हेतु नैतिक आचरण
आवश्यक (यम, नियम अनुपालन)
सांख्य
दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य :-
1 – शारीरिक विकास
2 – मानसिक विकास
3 – भावनात्मक विकास
4 – बौद्धिक विकास
5 – नैतिक विकास
6 – मोक्ष प्राप्ति
7 – सद् तथा असद् को समझना (उचित आचरण विकास)
8 – सर्वाङ्गीण विकास
शिक्षा
का पाठ्यक्रम :-
इन्होने
अपने पाठ्यक्रम को भौतिक व आध्यात्मिक आधार प्रदान किया।
भौतिक
विकास के अन्तर्गत ये कर्मेन्द्रिय का विकास लक्ष्य मानते हैं और इसके लिए विविध
पाठ्य सहगामी क्रियाओं व खेल कूद को प्रश्रय देना चाहते हैं।
आध्यात्मिक
विकास हेतु ये ज्ञानेन्द्रियों का विकास करना चाहते हैं और इस हेतु योग,दर्शन,मनोविज्ञान
को प्रश्रय देना चाहते हैं।
शिक्षण
विधि :-
सांख्य
दर्शन मुख्यतः तीन विधियों प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द को प्रयोग करने पर जोर देता है।
प्रत्यक्ष
विधि – इसमें ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को क्रिया शील बनाया जाता है
जिससे अनुभव व प्रत्यक्षीकरण का अवसर मिलता है।
अनुमान
विधि – इसमें इन्द्रियों से परे चेतना को जिसमें अनुभूति हेतु अवसर प्रदान किया
जाता है इसमें भाव पक्ष प्रधान होता है।
शब्द
विधि – इसके अन्तर्गत दृष्टान्तों,उदाहरणों का उपयोग किया जाता है जिसमें ज्ञान
की प्रमाणिकता सिद्ध होती है।
इनके
अतिरिक्त यह कुछ अन्य विधियों के प्रयोग को भी उचित समझते हैं यथा – सूत्र विधि, कहानी विधि, व्याख्यान
विधि,तर्क विधि, क्रिया
एवम् अभ्यास विधि।
शिक्षक
शिष्य सम्बन्ध –
सांख्य
गहन मीमाँसा का दर्शन है अतः शिक्षक का विषय पर स्वामित्व परमावश्यक है। अध्यापक
में यह योग्यता होनी चाहिए कि वह प्रकृति, पुरुष, जगत सम्बन्धी ज्ञान रखने के साथ विविध सूक्ष्म
अन्तरों को व्यवस्थित तरीके से अधिगम कराने में समर्थ हो।
शिष्य
–
इस
दर्शन के अनुसार विद्यार्थी का व्यवहार नैतिकता पर अवलम्बित हो वह ज्ञान लब्धि
हेतु जिज्ञासु हो व अपने गुरुओं के प्रति आदरभाव रखने वाला हो। सांख्य दर्शन अनुशासन को सर्व प्रथम वरीयता देता
हैं वस्तुतः सांख्य और योग दर्शन एक दूसरे के पूरक हैं और इसीलिये ये यम (अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य)
व नियम (शौच, सन्तोष, तप,स्वाध्याय,ईश्वर
प्राणिधान) का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहते हैं।
विद्यालय
–
योग
और सांख्य समकालीन दर्शन हैंइस समय गुरुकुल प्रणाली प्रचलित थी तथा शिक्षा गुरु
आश्रम में प्रदान की जाती थी।
सांख्य दर्शन का प्रभाव शिक्षा के विभिन्न अंगों पर आज भी परिलक्षित
होता है और इसे किसी प्रकार कमतर नहीं आँका जा सकता।
सुविधा की दृष्टि से हमने शिक्षार्थी स्वायत्तता को कुछ भागों में बाँट लिया है।
शिक्षार्थी स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective
of learner autonomy
शिक्षार्थी
स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education
1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy
2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy
3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy
4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner
autonomy
5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy
निष्कर्ष
/conclusion
शिक्षार्थी
स्वायत्तता से आशय/ Meaning of learner autonomy
शिक्षार्थी
की स्वायत्तता को अधिगम कर्त्ता के मनन, चिन्तन, निर्णयन, कार्य
इच्छा और और स्वशक्ति पर विश्वास के रूप में परिकल्पित किया जा सकता है। इसे अधिगम
कर्त्ता की जिम्मेदारी लेने की क्षमता के रूप में देखा जा सकता है।
अधिगम करने वाले को अधिगम हेतु स्वायत्त स्थिति
प्रदान करना मानवीय दृष्टिकोण से एक वहनीय जिम्मेदारी है।
शिक्षार्थी
की स्वायत्तता के बारे में Henri Holec महोदय
का विचार है –
“Autonomy
is the ability to take charge of one’s own learning.”
“स्वायत्तता अपने स्वयं के सीखने का प्रभार लेने
की क्षमता है।”
Leslie
Dickinsion महोदय
का विचार है कि
“Autonomy
is a situation in which the learner is totally responsible for all the
decisions concerned with his learning and the implementation of those
decisions.”
“स्वायत्तता एक ऐसी स्थिति है जिसमें शिक्षार्थी
अपने सीखने और उन निर्णयों के कार्यान्वयन से संबंधित सभी निर्णयों के लिए पूरी
तरह जिम्मेदार है।”
उक्त
विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिगम कर्त्ता की स्वायत्तता से आशय अधिगम
के परिक्षेत्र में उसके
सीखने व निर्णयन हेतु स्वयं जिम्मेदारी लेने से है।
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य /Objective of learner autonomy
वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में अपनी जवाबदेही हेतु खुद जिम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति को बल मिला
है और सभी अपने अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं शिक्षार्थी को गुण सिखाना ही शिक्षार्थी स्वायत्तता का उद्देश्य
है। आज की पीढ़ी निःसन्देह पूर्व पीढ़ी से अधिक जागरूक है और विभिन्न संसाधनों का
प्रयोग कर ज्ञान परिक्षेत्र बढ़ा रही है। शिक्षार्थी स्वायत्तता उसे उसके अधिकारों
के प्रति सचेष्ट करना एक उद्देश्य मानती है। Phill Bension महोदय लिखते हैं –
“Autonomy
is a recognition of the rights of learner within educational system.”
“स्वायत्तता शैक्षिक प्रणाली के भीतर शिक्षार्थी
के अधिकारों की मान्यता है।”
शिक्षार्थी
स्वायत्तता का उद्देश्य शिक्षार्थी को प्रभावी निर्णयन क्षमता की दक्षता प्रदान कर
उसके परिणामों की जिम्मेदारी स्वीकार करने योग्य बनाती है।
संक्षेप
में उद्देश्यों को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –
1 – स्वायत्त निर्णय लेने की क्षमता का विकास/Develop the ability to make autonomous decisions
2 – सहयोग
की भावना का विकास / Develop a spirit of cooperation
3 – स्वमूल्यांकन व स्वप्रबन्धन /Self-evaluation and self-management
4 – शिक्षार्थी की सम्प्रभुता को महत्त्व /Importance of learner’s sovereignty
5 – व्यक्तिगत भिन्नता की स्वीकारोक्ति /Acknowledgment of individual
difference
6 – आत्मविश्वास वृद्धि /Confidence Increase
7 – सृजनात्मकता का विकास /Development of creativity
8 – शैक्षणिक दवाब में कमी / Reduction of academic pressure
शिक्षार्थी
स्वायत्तता व शिक्षा के अंग /Learner autonomy and part of education
परिवर्तन
प्रकृति का अटल नियम है शिक्षा जगत को क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए स्वयं को
तैयार करना होगा और शिक्षा के समस्त अंगों को बदलते परिदृश्य के अनुसार शिक्षार्थी
स्वायत्तता के अनुरूप स्वयं ढालना होगा। David Little महोदय ने कहा –
“Autonomy
is essentially a matter of the learner’s psychological relation to the process
and content of learning.”
“स्वायत्तता अनिवार्य रूप से सीखने की प्रक्रिया
और सामग्री के लिए शिक्षार्थी के मनोवैज्ञानिक संबंध का मामला है।”
1 – पाठ्यक्रम व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Curriculum and learner autonomy
2 – शिक्षक व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Teacher and learner autonomy
3 – शिक्षार्थी व शिक्षार्थी स्वायत्तता /learner and learner autonomy
4 – शिक्षण विधि व शिक्षार्थी स्वायत्तता /Method of teaching and learner
autonomy
5 – विद्यालय व शिक्षार्थी स्वायत्तता /School and learner autonomy
निष्कर्ष
/conclusion
आज
के परिप्रेक्ष्य में जब हम शिक्षार्थी स्वायत्तता की बात करते हैं समस्त शिक्षा
जगत को शिक्षार्थी स्वायत्तता के हिसाब से स्वयं को परिवर्तित करना होगा। गुरुदेव
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा –
“The
boys were encouraged to manage their own affairs, and to elect their own judge,
if any punishment was to be given. I never punished them myself.”
“लड़कों को अपने मामलों का प्रबंधन करने के लिए
प्रोत्साहित किया गया था, और
यदि कोई सजा दी जानी थी, तो
अपने स्वयं के न्यायाधीश का चुनाव करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। मैंने
उन्हें स्वयं कभी दंडित नहीं किया।”
निष्कर्षतः कहा सकता है कि
इस अवधारणा द्वारा शिक्षार्थी सशक्तीकरण
का नया अध्याय हेतु शिक्षा जगत को
तैयार रहना होगा। शिक्षार्थी को मानसिक सशक्त बनाने में ही शिक्षक व शिक्षा जगत की
खुशी छिपी है।
शिक्षा
पर तार्किक प्रत्यक्षवाद का प्रभाव (Impact Of Logical
Positivism On Education)-
तार्किक
प्रत्यक्षवाद ने शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्य क्रम, शिक्षक एवम शिक्षार्थी,
शिक्षण विधियों व अनुशासन को स्वानुसार विवेचित
किया जिसे इस प्रकार अभिव्यक्त कर सकते हैं।
उद्देश्य
( Aims ) –
चूंकि
ये ज्ञान का आधार अनुभव जन्य ज्ञान को मानते हैं इस लिए सार्थक निरर्थक, ज्ञान अज्ञान एवम नीर क्षीर विवेक में समर्थ
ज्ञान को शिक्षा के उद्देश्यों में शामिल करना चाहते हैं और भाषा व स्वशक्ति
परिमार्जन पर जोर देते हुए इस प्रकार उद्देश्य निर्धारण करते हैं –
[A ]- सृजनात्मक शक्ति का विकास [Development Of Creativity
]
[B ]- भाषा पर अधिकार [Command on Language]
[C ]- शारीरिक विकास व इन्द्रिय प्रशिक्षण [Physical
Development and Sensuous Training ]
[D ]- विवेक जागरण [ Intellectual Awakening ]
[E ]- विश्वसनीयता एवम वैद्यता [Reliability and
Validity]
[F ]- व्यावसायिक दक्षता [Vocational Efficiency]
पाठ्य
क्रम [Syllabus ]-
इन्होने
विचार, अध्यात्म, पूर्व
निश्चित नैतिकता का खण्डन कर प्राकृतिक विज्ञानों की सत्यता को सिद्ध कर पाठ्यक्रम
हेतु उपयोगी माना। प्रत्यक्ष अनुभव पर अधिक जोर देने के कारण भाषा,
व्याकरण, तार्किकता के महत्त्व को स्वीकार किया।
शिक्षक
और शिक्षार्थी [Teacher
And Learner]-
ये
वैज्ञानिक सोच वाले यथार्थ के धरातल पर खड़े अध्यापकों को शिक्षा प्रसार हेतु
आवश्यक मानते हैं शिक्षा को बालकेन्द्रित करते हुए विद्यार्थियों को उनकी रूचि मानसिक
योग्यता क्षमता को ध्यान में रखते हुए
शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
अनुशासन
[Discipline ] –
ये प्रमाणिकता, वस्तुनिष्ठता, यथार्थता, अनुभववादिता, कट्टरता विरोध धार्मिकनैतिकता विरोध का समर्थन
कर अनुशासन स्थापित करना चाहते हैं।
शिक्षण
विधि [Teaching
Methodology ]-
इस
दर्शन के आधार पर कहा जा सकता है कि ये इन प्रमुख शिक्षण विधियों के समर्थक हैं। –
(1)- करके सीखना (Learning
By Doing)
(2)- भाषा विश्लेषण विधि (Language Analytical Method)
(4)- विज्ञान प्रयोगात्मक विधि (Scientific Experimental Method)
(5)- प्रत्यक्षीकरण विधि (Observation Method )
(6)- आगमन विधि (Inductive Method )
विद्यालय
(SCHOOL)-
ये विद्यालयों
में प्रबन्धकों के साथ विद्यार्थियों एवम अध्यापकों को शामिल करना चाहते हैं। ये
अधिगम के अनुकूल माहौल बनाने व अनुभव के आधार पर उत्तरोत्तर प्रगति के पक्षधर हैं।