पर्यावरण प्रबन्धन
प्रकृति ने जल, वायु, आकाश, ताप, प्रकाश, भूमि, वनस्पति, प्रचुर रूप से उपलब्ध कराई है जड़, जङ्गम और प्राकृतिक संसाधनों की यह नेमत निरापद रूप से यदि मानव तक नहीं पहुँचती तो संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जाती है। प्रकृति प्रदत्त इन संसाधनों का संरक्षण ही प्राकृतिक संरक्षण कहलाता है। इस प्रकृति का संरक्षण ही पर्यावरणीय संरक्षण का वाहक बनता है। पर्यावरण से आशय मानव को हर और से घेरे समस्त तत्वों से है। आज के औद्योगिक विकास ने मानव और प्रकृति के सम्बन्धों में ह्रास का भयंकर सिलसिला प्रारम्भ कर दिया व परवान चढ़ाया। समूची मानवता कराह कर कातर दृष्टि से विद्यालय से यह आशा रखती है कि पर्यावरण संरक्षण व सतत विकास हेतु विद्यालय अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करें। क्योंकि पर्यावरण प्रबन्धन हेतु विद्यालय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
Role of school in environment conservation and sustainable development.
पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास में विद्यालय की भूमिका। –
01 – पाठ्यक्रम परिवर्तन / Curriculum Change
02 – शिक्षण विधि परिवर्तन / Change in teaching method
03 – जागरूकता / Awareness
04 – समाजीकरण / socialization
05 – समायोजन शक्ति में सकारात्मक परिवर्तन / Positive change in adjustment power
06 – पुरूस्कार व दण्ड का सम्यक प्रयोग / Proper use of rewards and punishments
07 – पाठ्यसहगामी क्रियाएँ / co-curricular activities
08 – मनुष्य व प्राकृतिक सम्बन्धों की प्रगाढ़ता / Intensity of human-nature relationship
09 – सौर ऊर्जा का उपयोग / Use of solar energy
10 – प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा / Promotion of natural tourism
11 – सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास / Development of positive attitude
12 – पर्यावरण अनुकूल वस्तुओं को बढ़ावा / Promote eco-friendly products
13 – औद्योगिक कचरा निपटान / Industrial waste disposal
14 – सामाजिक सञ्चेतना / Social awareness
पर्यावरण प्रबन्धन का महत्त्वपूर्ण कार्य उक्त बिन्दुओं के आधार पर सम्पन्न किया जा सकता है आवश्यकता है जनजागरण की और जनजागरण का यह कार्य विद्यालय क्रमिक रूप से पूर्ण कर सकते हैं। आज यहाँ वहाँ दीप प्रज्जवलन से कार्य चलने वाला नहीं है विद्यालय और समाज को मिलकर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। विद्यालय को भी लगातार योगदान कर पथ आलोकित करना होगा।