वेदान्त दर्शन
वेदान्त दर्शन का नाम लेते ही बोध हो जाता है कि इसमें वेद का अन्तिम भाग सामाहित है वेद के दो भाग हैं जिन्हे हम ब्राह्मण और मन्त्र नाम से जानते हैं यज्ञ अनुष्ठान आदि का वर्णन करने वाला भाग ब्राह्मण नाम से जाना जाता है और देवता की स्तुति में प्रयुक्त स्मारक वाक्य मन्त्र का बोध कराता है।इन मन्त्रों के समुदाय को संहिता नाम से जाना जाता है ऋक ,यजुः ,साम व अथर्व ये संहिता हैं अर्थात सभी मन्त्र ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद,और अथर्व वेद नामक संहिताओं में संकलित हैं ब्राह्मण भाग में कर्म काण्ड की और इस भाग में ज्ञान काण्ड की प्रमुखता है वेदों का अन्तिम भाग उपनिषद कहलाता है इसे वेदान्त भी कहते हैं।
बादरायण व्यास (चतुर्थ शताब्दी) द्वारा लिखे गए ‘ब्रह्म सूत्र ‘को वेदान्त का आदि ग्रन्थ माना जाता है इसके पश्चात इसपर विविध भाष्य ग्रन्थ लिखे गए और वेदांत की विविध शाखाओं उप शाखाओं का अभ्युदय हुआ जिसमें शंकर नवीं शताब्दी का अद्वैत, रामानुजाचार्य तेरहवीं शताब्दी का विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य व निम्बार्क तेरहवीं शताब्दी का द्वैत, श्री कण्ठ तेरहवीं शताब्दी का शैव विशिष्टाद्वैत, श्री पति चौदहवीं शताब्दी का वीर शैव विशिष्टाद्वैत और बल्लभाचार्य सोलहवीं शताब्दी का शुद्धाद्वैत प्रमुख है। इनमें शंकर और रामानुजाचार्य शिक्षा के दृष्टिकोण से प्रमुख स्वीकारे जाते हैं।
किसी भी दार्शनिक विचारधारा को समझने के लिए उस दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics०), ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic), तथा मूल्य व आचार मीमांसा(Axiology and Ethics) को जानना आवश्यक है अतः पहले यही समझने का प्रयास करेंगे।
वेदान्त दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics of Vedant Philosophy)
शंकर के अनुसार ब्रह्म ही अन्तिम सत्य (Ultimate Reality) है जो ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण होने के साथ अनादि, अनन्त और निराकार है जगत नाशवान व असत्य है मानव ज्ञान का स्रोत व अनन्त शक्ति को धारण करने के साथ आत्मघाती है और आत्मा सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान है। शंकर के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है कि तुम (आत्मा) ब्रह्म हो। रामानुजाचार्य के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है ब्रह्म तथा ईश्वर एक है शंकर ने ब्रह्म को मूल तत्त्व व रामानुजाचार्य ने इसके तीन मूल तत्त्व स्वीकारे हैं -चित् (चेतन,आत्मा ), अचित् (अचेतन, जड़ ) और ब्रह्म (ईश्वर) । सृष्टि के विनाश होने पर चित् (चेतन,आत्मा ), अचित् (अचेतन, जड़ ) सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं और ईश्वर विशिष्ट ही शेष रह जाता है इसीलिये इसे विशिष्टाद्वैत दर्शन कहते हैं। शंकर के दर्शन में ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण में भेद न होने के कारण इसे अद्वैत दर्शन कहते हैं।
वेदान्त दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic of Vedant Philosophy)
शंकर का दर्शन ज्ञान को दो भागों में विभाजित करता है –
1 – परा (आध्यात्मिक) – इनके अनुसार पराविद्या ही मुक्ति का साधन बन सकती है वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद, गीता आदि के ज्ञान को ये इस श्रेणी में स्थान देते हैं।
2 – अपरा (लौकिकव व्यावहारिक) – वस्तु जगत और मानव जीवन के विभिन्न पक्षों व ज्ञान को इन्होने अपरा की श्रेणी में रखा है जो मुक्ति का साधन कभी नहीं बन सकते।
रामानुजाचार्य महोदय ने भी ज्ञान को दो भागों में विभाजित किया है –
1 – धर्मी भूत ज्ञान – इनका इस ज्ञान से आशय कर्त्ता रूप ज्ञान से है।
2 – धर्म भूत ज्ञान – इस ज्ञान में ये कर्म में विद्यमान ज्ञान को समाहित करते हैं। ये आत्मोन्नति हेतु इस ज्ञान का समर्थन करते हैं।
वेदान्त दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics of Vedant Philosophy)
शंकर के अद्वैत दर्शन के अनुसार वर्णक्रम के प्रति निष्ठां से उद्देश्य प्राप्ति सुगम होती है अंतिम उद्देश्य मुक्ति को मानते हुए ये इसके दो विभाग करते हैं एक जीवन मुक्ति और दूसरे विदेह मुक्ति जीवन मुक्ति से आशय है कि जीवन जीते हुए कर्म फल से अनासक्त होना। विदेह मुक्ति से आशय आवागमन के चक्कर से मुक्ति से है अर्थात जीवन के अन्त में ब्रह्म तत्त्व की प्राप्ति।
रामानुजाचार्य महोदय भी शंकर की भाँति जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति ही मानते हैं लेकिन ये जीवन मुक्ति को मुक्ति स्वीकार नहीं करते उनकी दृष्टि में ब्रह्म (ईश्वर) की प्राप्ति ही मुक्ति है जो भक्ति से मिलती है।
वेदान्त दर्शन की परिभाषा / Definition of of Vedanta philosophy –
वेदान्त दर्शन को प्रो ० रमन बिहारी लाल ने बहुत सरल शब्दों में यूँ संजोया है –
“वेदान्त दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर (ब्रह्म) द्वारा निर्मित मानती है और उसे इस सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति तथा लय का कारण मानती है यह आत्मा को ब्रह्म का अंश मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति है जिसे ज्ञान योग, कर्म योग, राज योग और भक्ति योग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”
“Vedanta philosophyis that school of Indian philosophy which considers this universe to be created by God (Brahm) and considers it to be the cause of the condition, origin, and rhythm of this universe. It considers the soul as a part of Brahma and it renders that man The ultimate aim of life is salvation which can be achieved through Jnana Yoga, Karma Yoga, Raja Yoga, and Bhakti Yoga.”
वेदान्त दर्शन के मूल सिद्धान्त / Basic principles of Vedanta philosophy –
वेदान्त दर्शन के मूल तत्वों व सिद्धान्तों को इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है –
1 – ब्रह्माण्ड ब्रह्म (ईश्वर) द्वारा निर्मित /Universe created by Brahma (God)
2 – ब्रह्म और जगत में ब्रह्म विशिष्ट /Brahma special in Brahma and the world
3 – आत्मा के ब्रह्म अंश सम्बन्धी विचार /Thoughts on the Soul as the Part of Brahma
4 – मनुष्य अनन्त ज्ञान और शक्ति का स्रोत / Man is the source of eternal knowledge and power
5 – मनुष्य का विकास उसके कर्मों पर निर्भर / Development of man depends on his deeds
6 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति / Salvation is the ultimate aim of human life
7 – ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग के साथ साधन चतुष्टय आवश्यक /
Along with Gyan Yoga, Bhakti Yoga, Karma Yoga, Sadhana Chatushtaya is essential.
8 – ज्ञान हेतु श्रवण, मनन, निदिध्यासन आवश्यक / Listening, meditation, Nididhyasan is necessary for knowledge
9 – उत्तम श्रवण, मनन, निदिध्यासन हेतु साधन चतुष्टय आवश्यक / Sadhana Chatushtaya is necessary for good hearing, meditation and Nididhyasan.
i – नित्य अनित्य विवेक
ii – भोग विरक्ति
iii – शम दम संयम
iv – मुमुक्षत्व
वेदान्त दर्शन और शिक्षा / Vedanta philosophy and Education
आज विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भारत शिक्षा पर खुल कर विचार करता है और नए नए आयामों के शिखर को छूने का प्रयास कर रहा है लेकिन हम भारतीय आज भी जड़ों से नहीं कटे हैं। और जीवन की समग्रता पर विचार करने वाले शंकराचार्यजी और रामानुज सरीखे विद्वानों के कथनों का विश्लेषणात्मक अध्ययन कर वेदान्त दर्शन के गूढ़ तत्वों का मनन करते हैं। यद्यपि इन्होने शिक्षा पर स्वतंत्र रूप से विचार से नहीं किया है लेकिन इनका मीमांसात्मक विवेचन आज के मानव को सार्थक शिक्षात्मक दिशा देने में सक्षम है।
शिक्षा का सम्प्रत्यय / Concept of Education –
शंकर का स्पष्ट रूपेण मानना है की शिक्षा का परम उद्देश्य मुक्ति प्रदान करना है जब मानव में नित्य अनित्य विवेक जागृत हो जाता है और वह समझ जाता है कि ब्रह्म सत्य है और जगत नश्वर है वह सबमें स्वयं को और स्वयं में सबको देखने लगता है। शिक्षा अपने उद्देश्य की और अग्रसारित हो जाती है अर्थात वे छान्दोग्य उपनिषद का सा विद्याया विमुक्तए का समर्थन करते हैं और शिक्षा को मुक्ति का साधन मानते हैं।
शिक्षा के अंगों पर प्रभाव / Impact on education
शिक्षा के उद्देश्य / Aims of Education
ये जीवन के दो पक्ष परा (आध्यात्मिक) और अपरा (व्यावहारिक) स्वीकारते हैं और जीवन के उद्देश्यों को इसी आधार पर गठित करते हैं जिसे इस प्रकार दर्शा सकते हैं –
परा (आध्यात्मिक) उद्देश्य –
1 – मुक्ति का उद्देश्य
अपरा (व्यावहारिक उद्देश्य) –
1 – शारीरिक विकास
2 – मानसिक विकास
3 – नैतिक विकास
4 – वर्ण के अनुसार शिक्षा
5 – साधन चतुष्टय प्राशिक्षण
6 – सर्वाङ्गीण व्यक्तित्व विकास
7 – ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति
पाठ्यक्रम
शंकर के अनुसार परा एवं अपरा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विविध विषयों का समर्थन करते हैं यथा आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु साहित्य, धर्म, दर्शन जैसे परमार्थिक विषयों को शामिल करना चाहते हैं और परमार्थिक क्रियाओं अर्थात अष्टांग योग का समर्थन करते हैं।
परा (व्यावहारिक) उत्थान हेतु भाषा, चिकित्सा शास्त्र, वर्ण क्रम, गणित के साथ व्यायाम, आसन, ब्रह्मचर्य को भी शामिल करना चाहते हैं।
रामानुजाचार्य के विचार आधुनिक विचार धारा का समावेशन करते प्रतीत होते हैं इनके अनुसार सभी जीव ईश्वर की अनुपम रचनाएँ हैं इनमें वर्ण के अनुसार भेद न करना चाहिए कर्म के अनुसार भेद स्वाभाविक रूप से दृष्टिगत होगा ही। अतः स्वकर्म के कुशलता पूर्वक सम्पादन हेतु कर्मानुसार समान शिक्षा का विधान होना चाहिए।
शिक्षण विधियाँ / Teaching Methods
इन्होने अपने शिक्षण उद्देश्यों के अनुरूप ही शिक्षण विधियों का चयन किया जिन्हे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
i – प्रश्नोत्तर विधि
ii – प्रवचन विधि
iii – व्याख्या विधि
iv – स्वाध्ययन विधि
v – प्रत्यक्ष विधि
vi – श्रवण, मनन,निदिध्यासन विधि
vii – अध्यारोप – अपवाद विधि
viii – विश्लेषण विधि
अनुशासन / Discipline –
ये आत्म अनुशासन को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार एकाग्रता ही सच्चा अनुशासन लाती है। जब मन, बुद्धि,अहंकार, पर आत्म नियन्त्रण स्थापित हो तो अनुशासन होगा। जब बिना किसी बाहरी दवाब के अपने आत्म तत्त्व से प्रेरित होकर सदमार्ग का अनुसरण किया जाए तब सच्चा अनुशासन स्थापित होगा। शंकर की दृष्टि से सच्चा अनुशासन तभी स्थापित होगा जब अष्टांग के योग मार्ग का अनुसरण होगा।
शिक्षक और शिक्षार्थी / Teacher and Learner
वेदान्त दर्शन की उपादेयता इस सम्बन्ध में विशिष्ट है शङ्कर का स्पष्ट मानना है की गुरु अपने विद्यार्थी को व्यावहारिक जीवन की शिक्षा दे और साथ ही यह बोध कराये कि वह ब्रह्म है। ‘तत्त्व मसि’ अर्थात तू ही ब्रह्म है अन्ततः शिक्षार्थी यह महसूस करेगा कि ‘अहम् ब्रहास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ।
रामानुजाचार्य के विचार इस सम्बन्ध में पृथक हैं ये मानते हैं की कोइ पूर्ण नहीं हो सकता ,शिक्षक भी। शिक्षक को फिर भी ज्ञान व आचरण हेतु उत्कृष्ट प्रयास निरन्तर करते रहने चाहिए।
वेदान्त के अनुसार प्रत्येक शिक्षार्थी अनन्त ज्ञान और ऊर्जा का स्रोत है और उनमें भिन्नता कर्म की भिन्नता के कारण ही दृष्टिगत होती है।शंकर के अनुसार ब्रह्म की प्राप्ति हेतु इच्छुक छात्रों को साधन चतुष्टय का अनुपालन करने के साथ गुरु में श्रद्धा, भोग से विरक्ति, इन्द्रिय निग्रह, मन की एकाग्रता के गुणों में उत्तरोत्तर प्रगति के प्रयास अवश्य करने चाहिए।
शिक्षालय / School
नगर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक सुरम्य वातावरण से युक्त गुरु गृह ही उस काल के विद्यालय थे। व्यावहारिक व आध्यात्मिक शिक्षा समुदायों और गुरुकुलों में दी जाती थी। यहाँ जीवन मुक्ति और साधन चतुष्टय पुष्पित पल्लवित करने के सार्थक प्रयास होते थे।
वेदान्त दर्शन का मूल्याङ्कन / Evaluation of Vedanta Philosophy
किसी भी दर्शन का मूल्याङ्कन उसके गुण दोषों के आधार पर किया जाता है और सामान्यतः उस काल विशेष के विशिष्ट कालखण्ड की जगह आज के अनुसार समीक्षा की जाती है आइए इस दर्शन के गन दोषों पर विचार करते हैं।
A – वेदान्त दर्शन के गुण
1 – व्यावहारिकता
2 – इहलोक और अध्यात्म का समन्वय
3 – गुरु शिष्य आदर्श सम्बन्ध
4 – उच्च आदर्श अनुपालन
5 – शिक्षण विधियां
6 – मूल्य बोध
B – वेदान्त दर्शन की सीमायें
1 – जन शिक्षा का अभाव 2 – अध्यात्म पर अधिक बल
उपसंहार / Epilogue
भारत में शङ्कर के बाद जो भी दार्शनिक विचार धारा फलीफूली उस पर वेदान्त का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है अद्यतन काल तक की विकास यात्रा के प्रमुख चिन्तक दयानन्द सरस्वती, मोहन दास करम चन्द्र गाँधी, विवेकानन्द, रबीन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द घोष सभी कहीं न कहीं वेदान्त से प्रभावित रहे हैं। किसी को योग क्रिया अच्छी लगती है ,कोई व्यावहारिकता तो कोई इसके मूल्यों पर नत मस्तक है।
वास्तव में वेदान्त समग्र दृष्टिकोण है समस्त धर्म व दर्शन इसकी प्रस्फुटित शाखाएं हैं इसे सार्वभौम व सार्वकालिक दर्शन कहना न्याय सांगत होगा। आज हम जिस धर्म निरपेक्ष, समाजवादी और वर्गहीन व्यवस्था की बात करते हैं उसके बीज इसमें संरक्षित हैं। आज की शिक्षा यदि वेदान्त पर आधारित हो तो मन्तव्य प्राप्ति अपेक्षाकृत सुगम हो जाएगी।