कालचक्र का आवर्तन अद्भुत खेल दिखाता है,

मानस चाहे मुक्ति पथ ये दुनियाँ में उलझाता है,

परम पवित्र आत्म तत्व को बन्धन में बंधवाता है,

नवजन्मे नवागत को जग रिश्तों में फँसवाता है।

जगती का सम्बन्ध सुनो नित मोहित करवाता है,

बचपन की लीलाऐं लख ज्ञानीजन भी भरमाता है,

शैशव चौखट लाँघ जब विद्यालय से जुड़जाता है,

नवआगत उत्थान हेतु गुरु तो उसमें रम जाता है।

गुरुओं का तो बाल वृन्द से परम सनेही नाता है,

पावनता के सम्बन्धों में झूठ न कुछ लगपाता है,

सरल भाव भोला आनन गुरुता लघु करजाता है,

गुरु कर्त्तव्य बोध में,फँसकर सम्बन्ध निभाता है।

शिष्यगुरु के सम्बन्धों का युगों से गहरा नाता है,

छात्रों की कक्षाएं बढ़तीं गुरु तरु बढ़ता जाता है,

हरवर्ष नवपीढ़ी आती गुरुउर आनन्द समाता है,

बालक तोआगे बढ़ते गुरु मात्र वहीं रह जाता है।

आते बच्चों से मन पुलकित जाने से मन दुःख जाता है,

जाने के क्रम को सहज जान शुभकामना देता जाता है,

नव युग की नव आशाओं से बँधता गुरु है, गुरुमाता है,

शिष्य मनवाञ्छित पाले गुरु को सबकुछ मिलजाता है। 

पाने खोने के चक्कर में जो मोह पाश पड़ जाता है,

सचमानो वह मोहपाश ही मुक्तिपथ से भटकाता है,

कर्त्तव्यों का यह बन्धन  मन तन  पर यूँ छा जाता है,

प्रकृति के घेरे रहें याद पर पुरुष कहीं खो जाता है।

प्रकृति जड़ है पुरुष चेतन यह वर्षों याद न आता है,

जड़ से सम्बन्ध निर्वहन में सत्पथ ही बिसरा जाता है,

पुरुषार्थ व जीवनमूल्यों पर भ्रम भारी पड़ता जाता है,

युग को जिससे बचना,स्वयं गुरु उसमें फँस जाता है।

युग बोध के प्रक्रम में नर स्वयं को समझ न पाता है,

मिथ्या बन्धन के भ्रम में, प्रभु से सम्बन्ध बिसराता है,

माया के जञ्जालों में जब तक कुछ समझ में आता है,

सम्पूर्ण सफर होता जीवन का और पर्दा गिर जाता है।

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