सुबह कालिमा को यूँ निगलती रहेगी,

यह दुनियाँ अजब है, बदलती रहेगी,

गम का अँधेरा मिटेगा उजाला रहेगा,

रूप परिवर्तित प्रकृति सँवरती रहेगी । 

नदी नवपथ बदल के मचलती रहेगी,

खुशी नवरूप धर के उछलती रहेगी,

गम सागर मिटेगा, ज्वार ऐसा उठेगा,

ऋतु भावों पर सरगम थिरकती रहेगी।

यह अँधेरे की दुनियाँ सिमटती रहेगी,

आत्मनिर्भरता अगनी धधकती रहेगी,

कण्टक पथ मिटेगा मार्ग ऐसा बनेगा,

नवआगत पीढ़ियाँ सब बरतती रहेंगी।

निराशा हटाके आशा चमकती रहेगी,

मनस प्रतिकूलता सब चटकती रहेगी,

रूढ़ियाँ तज आत्मविश्वास ऐसा बढ़ेगा,

खुशियाँ हर दामन में खनकती रहेंगी।

भ्रष्टचिन्तन पे बिजली कड़कती रहेगी,

क्रान्ति जनित धड़कन धड़कती रहेगी,

काटकर प्रस्तरों को स्वर्ग ऐसा गढ़ेगा,

कर्म आधार पर आभा पसरती रहेगी ।

विश्व- कल्याण ज्योति चमकती रहेगी,

दिल की कश्ती स्वतः सरकती रहेगी,

लक्ष्य जीवन मिलेंगे भाग्य ऐसा बनेगा,

जनगण मन बगिया ये महकती रहेगी।

सुबह कालिमा को ……………………

निगलती रहेगी…. निगलती रहेगी…

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