जब मेरा जन्म हुआ तब तक मेरा परिवार निर्धनता की श्रेणी में आ चुका
था पिताजी उस समय एक शुगर फैक्ट्री में फिटर की हैसियत से कार्य रहे थे मेरे पढ़ने के लिए वहाँ 12वीं तक विद्यालय था जिसे पूरा कर आगे पढ़ाना
हालाँकि चार बच्चों वाले परिवार में विलासिता जैसा था लेकिन मेरे माता पिता ने
जीवटता का परिचय दे आगे पढ़ाने का निश्चय किया। अपने स्नातक अध्ययन के दौरान कुछ
धनार्जन कर परिवार का सहयोग करने की इच्छा बलवती हुई। तमाम प्रयास के बाद कोई आय
का निश्चित साधन नहीं बन पा रहा था।
एक दिन मैं अत्याधिक चिन्ता से व्यथित फैक्ट्री
कालोनी में अपने दरवाजे पर मूढ़ा डाले बैठा था अचानक मुझे अपने एक परिचित का ध्यान
आया जो गलत तरीके से चोरी, डकैती व ठगी के माध्यम से पैसे कमा रहा था और
हमेशा उसकी जेब रुपयों से भरी रहती थी मैं उसके साथ काम करने के लिए उससे बात करने
की सोचने लगा तभी मेरे से एक घर पहले रहने वाले मेरे इण्टर मीडिएट वाले
प्रधानाचार्य जी आ गए उन्होंने मुझे चिन्तामग्न देखकर अपने पास बुलाया और परेशानी
का कारण जानना चाहा मैंने सच सच जो मेरे मन में आ रहा था सब बता दिया। उन्होंने
मुझे अपनी बैठक में बैठने का आदेश दिया।
मैं स्वचलित यन्त्र सा उनके समक्ष बैठा था
उन्होंने धीमी प्रभावशाली आवाज में मुझसे कहा कि तुम्हारे भविष्य की बहुत
सकारात्मक सम्भावनाएं मुझे दीख पड़ती हैं मैंने तुममें एक अच्छे वक्ता और कवि के
लक्षण देखे हैं मेर विद्यालय में तुम 7 वर्ष पढ़े हो,जहां तक मैं समझता हूँ तुम एक मेधावी छात्र हो
और जिन लोगों के बच्चों को तुम आजकल पढ़ा रहे हो वो सब तुम्हारी तारीफ़ करते हैं
क्या तुम किसी दूसरे का धन छीन सकोगे किसी अन्य को दुखी करके खुद सुख प्राप्त कर सकोगे किसी अन्य की मेहनत
की रोटी छीनकर स्वयम् खा सकोगे।
मैं अवाक रह गया किंकर्त्तवय विमूढ़ता की स्थिति
में मैंने सुना वे मुझसे पूछ रहे थे यदि तुम्हें कहीं जाने के लिए टिकट खरीदना हो
और दो जगह से टिकट मिल रहे हों एक जगह
लगभग तीन सौ लोग लाइन में हों और
दूसरी जगह तीन तो किससे टिकट लेना पसन्द करोगे। मैंने शान्तिपूर्वक उत्तर दिया
जहाँ तीन लोग खड़े हैं उन्होंने तुरन्त पुछा, क्यों ? मैंने कहा वहाँ जल्दी नम्बर आएगा और दूसरी जगह
से तो टिकट मिलते मिलते ट्रेन छूट भी सकती है।
प्रधानाचार्य जी मुस्कुराए और बोले यहाँ चोरों, डकैतों, ठगों, भ्रष्टाचारियों, बेईमानों और दुष्टों की बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियाँ लगी हैं यदि उस लाइन
में लग गए तो इस जन्म में तुम्हारा नंबर आ पाएगा इसमें संशय है दूसरी ओर सत्यनिष्ठ, ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ लोगों की लाइन बहुत
छोटी है जहां तुम सच्चाई और लगन से अपनी पहचान बना सकते हो।
उन्होंने बताया एक बार इन्दिरा गाँधी ने भी कहा
था -“मेरे दादाजी ने एक बार मुझसे कहा था कि दुनियाँ में दो तरह के लोग होते
हैं वो जो काम करते हैं और जो श्रेय लेते हैं,उन्होंने
मुझसे कहा कि पहले समूह में रहने की कोशिश करो वहाँ बहुत कम प्रतिस्पर्धा है।”
प्रधानाचार्य जी की बातों ने मेरी तन्द्रा तोड़
दी थी मुझे लग रहा था की किसी ने झकझोर कर मुझे जगा दिया था उसी दिन से मैंने
सच्चाई और कर्त्तव्य परायणता का जो पाठ सीखा उसी की बदौलत आज कई विषय में
स्नातकोत्तर, एम० एड० ,नेट
पीएच डी आदि करके एक प्रतिष्ठित पी ० जी ० महाविद्यालय में प्राचार्य पद पर हूँ और
मेरी कवितायें व वादविवाद परिक्षेत्र में जीता गया स्वर्णपदक मुझे अपने
प्रधानाचार्यजी द्वारा बताई सच्चाई की राह पर चलने की अनवरत प्रेरणा देता है।
परिवारों,व्यक्तियों,और अन्य स्तर के लोग जब समाज के एक वर्ग से दूसरे वर्ग में गति करते हैं तो इसे सामाजिक गतिशीलता कहते हैं इससे उसकी सामाजिक स्थिति में बदलाव हो जाता है। अर्थात एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति को प्राप्त करना सामाजिक गतिशीलता कही जाती है।
मिलर और वूक के शब्दों में –
“व्यक्तियों अथवा समूह का एक सामाजिक दूसरे
संचलन होना ही सामाजिक गतिशीलता है।”
“Social mobility is a movement of individuals or
group from one social class stratum to another.”
पी ०सोरोकिन महोदय के अनुसार –
“समाजिक गतिशीलता का अर्थ समाजिक समूहों
एवं सामाजिक स्तरों में किसी व्यक्ति का एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक
स्थिति में पहुँच जाना है। ”
By social mobility is meant any transition of an
individual from one social position to another in constellation of social group
and strata.”
कार्टर वी गुड के अनुसार –
“सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है -व्यक्ति या मूल्य
का एक समाजीक स्थिति से दूसरी समाजिक स्थिति में परिवर्तन।”
“Social mobility is the change of person or value from
one social position to another.”
समाजिक गतिशीलता, शैक्षिक विकास के सम्बन्ध में Social mobility in reference to educational development-
सामाजिक गतिशीलता और शैक्षिक विकास आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए
पहलू हैं जहां शिक्षा सामाजिक गतिशीलता में प्रभावी वृद्धि करती है वहीं सामाजिक
गतिशीलता के फलस्वरूप यह ज्ञात होता है की शिक्षा में इस हेतु कौन से सुधार आवश्यक
हैं यह अन्योनाश्रित गुण इनकी वर्तमान में उपादेयता परिलक्षित करता है। शैक्षिक
विकास द्वारा सामाजिक गतिशीलता की वृद्धि इन बिंदुओं द्वारा दर्शाई जा सकती है। –
1 – विद्यालय की प्रभावी भूमिका –
वस्तुतः जिस शिक्षा के आधार पर सामाजिक स्थिति में परिवर्तन होता है
वह विद्यालयों की देन है कार्ल वीनवर्ग के शब्दों में –
“विद्यालय का प्रमुख कार्य, नवीन मार्ग प्रशस्त करना तथा इनमें सभी को स्थान देना है जिससे वह
सामाजिक गतिशीलता के बदलते हुए ढाँचे के साथ कदम मिला सके। विद्यालय इस कार्य को
तभी पूरा कर सकता है जब वह सभी प्रकार के आर्थिक स्तरों के बालकों को अपनी उन्नति
के लिए व्यापक अवसर प्रदान करेगा।”
“The function of the school in keeping pace with the
changing structure of social mobility has been to open channels and keep them
open. This is accomplished by providing widespread opportunities to children of
all economic statutes to advance their position.”
2 – औपचारिक शिक्षा, सामाजिक गतिशीलता का अधिक प्रभावी साधन –
यह निर्विवाद सत्य है की बहुत से शैक्षिक संवर्धन के साधन अस्तित्व
में हैं लेकिन औपचारिक शिक्षा इस गतिशीलता का सशक्त साधन है मिलर और वूक लिखते हैं –
“औपचारिक शिक्षा, सामाजिक गतिशीलता से प्रत्यक्ष रूप में तथा कारणतः सम्बन्धित है। इस
सम्बन्ध को सामान्यतः इस रूप में समझा जाता है की शिक्षा स्वयं शीर्षात्मक सामाजिक
गतिशीलता का एक प्रमुख कारण है। ”
“Formal education is directly and causally related to
social mobility. Than relationship is generally understood to be one in which
formal education itself is a cause or one of the causes of vertical social
mobility.”
3 – सार्वभौम अनिवार्य शिक्षा दृष्टिकोण –
शासन का यह दृष्टिकोण भी गतिशीलता की वृद्धि में सहायक है क्योंकि एक
स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिक्षा के सम्बन्ध में परिपक़्व दृष्टिकोण
विकसित हो जाता है। भारत जैसे देश में जहां बेटे और बेटियों के प्रति दृष्टिकोण
में भिन्नता देखने को मिल जाती है वहां इस व्यवस्था से बेटे और बेटियां दोनों
लाभान्वित हो रहे हैं और पारिवारिक प्रगति का आधार बन रहे हैं।
4 – विविध पाठ्यक्रम
5 – प्रशिक्षण व व्यावसायिक पाठ्यक्रम
6 – वैज्ञानिक,
तकनीकी
व शोधपरक शिक्षा
7 – शैक्षिक अवसरों की यथार्थ समानता
8 – शिक्षक और सामाजिक गतिशीलता
अन्ततः यह कहा जा सकता है कि किसी भी देश की
प्रगति उसके यहाँ होने वाले सामाजिक उन्नयन या सामाजिक गतिशीलता पर निर्भर है और
निः सन्देह शिक्षा का इस क्षेत्र में महत्त्व पूर्ण योगदान है और रहेगा लेकिन इसका
अभाव पतन की कहानी लिखेगा नयी शिक्षा नीति भी अध्यापकों के साथ यदि न्याय हेतु
अपने को तैयार नहीं कर पाई तो वांछित परिणाम नहीं मिलेंगे।
क्रोध एक मानसिक भाव है शरीर का सॉफ्टवेयर बिगड़ने का संकेत है इसमें आवाज ऊँची होने लगती है मुखाकृति बिगड़ने लगती है बुराइयों का ज्वार उठने लगता है एक एक पुरानी भटकी हुई बातें याद आने लगती हैं एक दूसरे में कमी के सिवाय कुछ नहीं दीखता, मति भ्रम कब पैदा हुआ, कब नासूर बना। सम्बन्ध कब तिरोहित हुए। सब कुछ अनहोनी शीघ्रता से घाटित हो जाती है थोड़े से सजग रहकर इस अनहोने घटना क्रम से बचा जा सकता है। सम्बन्धों के रिक्ताकाश को लबालब प्रेम से भरा जा सकता है। क्रोध से निपटना दुष्कर अवश्य लगता है पर यह असम्भव कदापि नहीं है।
आइए जानने का प्रयास करते हैं कि समस्त विवाद
का मूल क्रोध का कैसे नाश किया जा सकता है ?
क्रोध शान्त करने के उपाय (Ways to calm anger) –
मानव की मूल प्रकृति शान्ति है लेकिन यह भी अटल सत्य है कि कुछ
परिस्थितियां मानव को क्रोध दिलाने में सक्षम हैं हालाँकि कोई क्रोध को जानबूझ कर
अपना स्वभाव बनाना नहीं चाहेगा। अपनी मूल प्रकृति शान्ति की और लौटने तथा वाणी के
घाव से खुद और दूसरे को बचाने के लिए कुछ उपाय प्रयोग में लाए जा सकते हैं आइए
ध्यानपूर्वक संज्ञान में लेने का प्रयास करते हैं। –
स्वभाव में परिवर्तन –
परदोष देखने
के मानवीय स्वभाव ने समाज में क्रोध के स्तर का उन्नयन किया है अपनी आदतों की और
ध्यान देना चाहिए स्वयम् का विश्लेषण करने का प्रयास होना चाहिए। कुछ भी अनायास
नहीं होता और प्रयास अन्ततः सफल होता है मिलनसार स्वभाव बनाना है यह हमेशा ध्यान
रखना चाहिए। व्यवहार परिवर्तन की शुरुआत स्वभाव परिवर्तन की अनुगामी होती है। हमें
गिले शिकवे की आदत नहीं बनानी है। अपने व्यवहार का रिमोट अपने पास ही रखना है भूल
कर भी नियन्त्रण नहीं खोना है। याद रखें हम स्वयम् में परिवर्तन शीघ्र ला सकते हैं
दूसरे में नहीं। इसीलिए कहना चाहूँगा –
स्वभाव
में सु परिवर्तन का आगाज़ हो जाए,
स्वयम्
की गलतियों का हमें दीदार हो जाए,
फिर
क्रोध को न मिल पाएगा कोई ठिकाना,
यदि
स्वभूलों के सुधार का व्यवहार हो जाए।
वाणी सदुपयोग –
कबीर दास जी ने कहा –
“ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन
को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।
इन
शब्दों में क्रोध विनाश का मूल मन्त्र छिपा हुआ है याद रखें सम्राट के क्रोध भरे
वचनों से भिखारी के मधुर शब्द ज्यादा अच्छे लगते हैं। वाणी से लगे घावों का आज तक
कोई मरहम नहीं बना इसीलिये मधुर गरिमामयी वाणी का सोच समझ कर प्रयोग करना चाहिए। अयोध्या
सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध‘ ने कितने सरल शब्दों समझाया –
लड़कों
जब अपना मुँह खोलो
तुम
भी मीठी बोली बोलो
इससे
कितना सुख पाओगे
सबके
प्यारे बन जाओगे ।
क्षमा –
जब हमसे गलती हो तो क्षमा मांग लेना चाहिए और यदि गलती
अन्य की हो तो उदारता से क्षमा कर देना चाहिए ध्यान रखना है कि क्षमा माँगने का
अधिकार क्षमा देने की बुनियाद पर खड़ा है क्षमा से आनन्द का वह प्रवाह जीवन से
जुड़ता है जो क्रोध तिरोहित कर जीवन को आनन्दमयी बना देता है रहीम दास जी ने कितना
सुन्दर कहा –
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात,
का रहीम हरी को घट्यो, जो भृगु मारी लात।
याद रखें क्षमा के प्रभाव से जवानी में गुस्सा मन्द और
बुढ़ापे में बन्द हो जाता है।
सत्संग –
सत्संग का मानव पर व्यापक प्रभाव पड़ता है सकारात्मक
परिवर्तन की चाह का प्रादुर्भाव सत्संग के प्रभाव से आता है और मानव मन पर फिर ऐसी
अमिट छाप पड़ती है कि बुरी मनोवृत्ति की छाया सत्संगी पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाती
रहीम जी ने कितना अच्छा समझाया है –
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग,
चंदन विष व्यापत
नहीं लिपटे रहत भुजंग
गहरी श्वाँस –
गहरी गहरी श्वाँस और इनकी निरन्तरता किसी भी
क्रोध आवेग का क्षरण करने का अचूक उपाय है इससे जहाँ ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा
का हम सेवन करते हैं वहीं समस्या पर विचार मन्थन का पर्याप्त समय मिल जाता है।
स्थान परिवर्तन व पूर्ण श्वाँस प्रश्वाँस क्रोध शमन में वह कार्य कर जाता है जो कई
बार वह पूर्वाग्रह युक्त मष्तिष्क नहीं कर पाता। इसी लिए कहता हूँ –
पूर्ण श्वांस प्रश्वांस का क्रम
वह जादू सा कर जाता है।
क्रोध आवेग और मतिभ्रम
सब का हरण कर जाता है।
06- कामना नियन्त्रण –
कामना
नियन्त्रण एक दुष्कर कार्य है असम्भव नहीं। कामना में बाधा पड़ने पर क्रोध उत्पन्न
हो जाता है इसीलिये यह जानना परमावश्यक है की आखिर कामना का जन्म कैसे हो जाता है
यह जन्म पाती है रूप, रस, गन्ध
आदि प्रधान कारणों से, इसका आधार होती हैं इन्द्रियाँ। इन्द्रियों पर
नियन्त्रण का सबल आधार है सच्चा अध्यात्म, कामना
अर्थात इच्छा भोग प्रवृत्ति से जन्म लेती है और योग इस पर अंकुश में सहायक है।
07- क्षमता सदुपयोग –
ज्यों
ज्यों हमारी क्षमता में वृद्धि होती है सामान्यजन विवेक खोने लगता है और क्रोध मद
में वृद्धि होने लगती है,
जोकि क्षमता का दुरूपयोग कराती है इसके उदाहरण
हमें यत्र तत्र सर्वत्र दीख पड़ते हैं। इसे साधने की क्षमता विवेक युक्त ज्ञान के
पास है। हमारी आत्मिक शक्ति ही दिशा बोध पैदा कर
सकती है। क्षमता के साथ विवेक जन्य संयम आवश्यक है। educationaacharya.com पर ‘हमें
क्रोध क्यों आ जाता है’ रचना में यह प्रश्न उठा है जिसका लिंक मैं
डिस्क्रिप्शन बॉक्स में दे दूँगा।
08- सम्यकविवेचन –
आज
होने वाले विवादों से उत्पन्न क्रोध सम्यक विवेचन के अभाव के कारण होता है जब दिशा
देने वाली शक्तियाँ और धर्म के तथा कथित मसीहा दिशाबोध स्वयं के स्वार्थ से युक्त
होकर देने लगते हैं तो सामान्य भोलाभाला जनमानस किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाता है और
क्रोध प्रादुर्भावित हो जाता है। इसीलिये कहा है –
क्रोध
को सिरे से दरकिनार करना चाहिए।
जीवन
छोटा है, बहुत
प्यार करना चाहिए।
किसी
विवाद से पूर्व विचार करना चाहिए।
प्रेम
व सम रसता का प्रसार करना चाहिए।।
09-क्रोध उपवास–
जिस प्रकार अन्न उपवास शरीर में भू तत्व नहीं
बढ़ने देता। अलग अलग उपवास अलग तरह के फल प्रदान करते हैं। ठीक उसी तरह क्रोध उपवास
आपको आनन्द से भर देगा पहले कोई एक दिन चुनें और अपने सेदृ दृढ़ प्रतिज्ञा करें आज
क्रोध उपवास करूंगा कुछ भी हो जाए आज विवाद नहीं करूंगा। हर हाल में उसे टालने का
मन बनाना है। आप देखेंगे वह दिन खुशनुमा होगा। धीरे धीरे इन उपवासों की संख्या बढ़ा
सकते हैं।
10 – एकान्त वास –
यदि
सम्भव हो तो पूर्व निर्धारित समय पर मौन का सहारा ले मोबाइल और तमाम संचार साधनों
से दूर रहकर देखें। अंग प्रत्यंग का चेतना स्तर उच्च हो जाएगा एक विलक्षण शक्ति की
अनुभूति करेंगे लोक कल्याण की भावना आपको और सबल करेगी व्यक्तित्व प्रखर होगा
प्रतिक्रियाओं में जान आएगी। क्रोध पर प्रभावी अंकुश लगेगा। याद रखें, करेंगे तो इसका महत्त्व समझ पाएंगे।
वस्तुतः आत्म साक्षात्कार हेतु साधक को इस गुण का अभ्यास करना ही चाहिए। मन प्रसन्न रहेगा और क्रोध छु मंतर
हो जाएगा।
11 – शान्ति की साधना-
श्री
मद्भगवद्गीता में सोलह कला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण स्वयम् कहते हैं –
नास्ति
बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न
चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
जिसके
मनइन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं ऐसे मनुष्यकी व्यवसाय आत्मिका बुद्धि नहीं होती।
व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणताकी भावना नहीं होती। ऐसी
भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल
सकता है।
वस्तुतः
जहां शान्ति नहीं है वहाँ अशान्ति है ,क्रोध
है, असन्तुलन है, तम है इसीलिए क्रोध मुक्ति हेतु शान्ति परमावश्यक है। इसीलिये शान्ति
के साधक ध्यान, धारणा, समाधि
आदि अन्तरङ्ग साधनों से इसे वरण करने में निरन्तर लगे रहते हैं।
ॐ
शान्ति शान्ति शान्ति।
परमपिता
परमेश्वर से यही प्रार्थना कि हम सब क्रोध पर नियन्त्रण रखना सीख सकें। उक्त
बिन्दु सभी के लिए मददगार साबित होंगे ऐसा विश्वास है। धन्यवाद
मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व को आधार प्रदान करने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है मानसिक स्वास्थ्य। सुन्दर सलोना मुखड़ा, सुन्दर गहरी झील सी आँखे, सुडौल शरीर में यदि मानसिक विकृति आ जाए तो व्यक्ति अपनी पहचान खो बैठता है। मानसिक स्वास्थय का अभाव जिन्दगी के 10 से 15 वर्ष तो कम कर ही देता है। सम्पूर्ण परिवार को एक त्रासदी, अनचाही यन्त्रणा भोगने को विवेश होना पड़ता है। शारीरिक आयु बढ़ने पर मानसिक आयु उससे साम्य रखने में खुद को असमर्थ पाती है। इसी लिए मानसिक स्वास्थय की यत्न पूर्वक रक्षा की जानी चाहिए।
मानसिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने हेतु उपाय
(Tips to maintain good mental health) –
इस
बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मानव शरीर, चेतन
जगत का अद्भुत उपागम है और इस अद्भुत उपागम का सशक्त आलम्ब है उत्तम मानसिक
स्वास्थय। विधाता विलक्षण शक्तियों को हमें प्रदान कर उनके संरक्षण की विशेष
जिम्मेदारी भी हमें प्रदान करता है इस जिम्मेदारी का निर्वहन करने हेतु कुछ
महत्त्वपूर्ण बिन्दु आपसे साझा कर रहा हूँ जो इस प्रकार हैं। –
स्वयम् से प्रेम (Self-esteem ) –
यदि
हम खुद से प्रेम नहीं कर सकते या खुद को सम्मान नहीं दे सकते तो अन्य के साथ भी हम
केवल दिखावा कर सकते हैं उसमें प्रमाणिकता नहीं होगी। इसलिए सबसे पहले खुद की
इज्जत करें और अपने प्रिय अच्छे कार्यों हेतु समय दें। प्रत्येक वह कार्य जो हमें
सचमुच खुशी प्रदान करता है और दूसरों के दुःख का कारण नहीं बनता वह हमें पूर्ण
मनोयोग से करना चाहिए। वह नृत्य, सङ्गीत, लेखन, बागवानी, प्रिय भोज्य पदार्थ बनाना आदि कुछ भी हो सकता
है।
आत्म संयम (Self-control) –
संसार की समस्त व्यवस्था का व्यवस्थापन हमारे
वश में नहीं है हम अपने ऊपर ही नियन्त्रण कर लें यही बड़ी बात है दूसरों को दिशा भर
देने का क्षमता भर प्रयास किया जा सकता है अपना कार्य पूर्ण करें दूसरे की
प्रतिक्रिया भिन्न हो तो खिन्न न हों। सभी का मानसिक स्तर व क्षमता भिन्न होती है।
संयम हमें व्यवस्थित रख मानसिक स्वास्थ्य को सम्बल देगा।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति: |
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत: || 36||
अर्थात
जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में
किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह
मेरा मत है॥36॥
सकारात्मकता का प्रशिक्षण (Training of positivity) –
अपने मष्तिस्क को सकारात्मकता प्रकीर्णन का अजस्र स्रोत बनाना है परिस्थितियों के वशीभूत नहीं हो जाना है उन्हें अपने अनुकूल बनाने की समग्र विशिष्ट रणनीति बनाकर अमल करने की आवश्यकता है इससे मष्तिस्क कुशल रहने हेतु सबल हो जाएगा और बहुत से मष्तिष्कों को दिशा देने में सफल रहेगा। मानसिक अस्वस्थता का तो सवाल
ही नहीं उठ सकता।
व्यायाम, प्राणायाम
(Exercise, Pranayam) –
मानसिक रूप से सबल बनाने का यह सबसे सशक्त माध्यम है, व्यायाम प्राणायाम, एरोबिक्स, स्ट्रैचिंग आदि इस तरह की क्रियाएं हैं जिससे फेफड़े और हृदय शक्तिशाली हो जाते हैं और अधिक क्षमता से ऑक्सीजन ग्रहण कर पाते हैं इससे शरीर की सब क्रियाएं व्यवस्थित हो जाती हैं और हम मानसिक रूप से सबल कब हो गए यह विषम स्थिति आने पर ही पता चलता है और लोग आपके नेतृत्त्व में कार्य करने को लालायित रहते हैं। व्यायाम, प्राणायाम में निरंतरता रहना परमावश्यक है। ये अपनी क्षमता के अनुसार सभी कर सकते हैं। Education Aacharya पर YOU TUBE पर TIP TO TOP Exercise part 1 & 2 में सभी के करने वाली सरलतम क्रियाएं दी हैं।
सत्संगति (Satsang)–
भारत में एक कहावत प्रसिद्ध है की खरबूजे को
देखकर खरबूजा रंग बदलता है जिससे आशय है की साथ का संगति का प्रभाव पड़ता ही है
इसीलिये अलग अलग तरह के लोग अलग अलग ग्रुप में दीख पड़ते हैं। चूंकि यहां बात
मानसिक स्वास्थय के सम्बन्ध में हो रही है इसलिए यह बताएं प्रासंगिक हो जाता है कि
सबल मानसिक स्वास्थ्य या सकारात्मक व्यक्तित्वों का साथ सत्संगति कहलायेगा तथा
मानसिक उत्थान व सशक्तिकरण में योग देगा। इसीलिए घर में उच्च मानसिक क्षमता वाले
व्यक्तित्वों के ही चित्र लगाए जाएँ भले ही वे सशरीर हों या नहीं।
विचार विनिमय व तार्किकता (Exchange of thoughts and reasoning)–
सत्य और तार्किकता का चोली दामन का साथ है इसे झुठलाया नहीं जा सकता। मानसिक
उत्थान हेतु हमें अध्ययन,
मनन, चिन्तन, अनुभव का आधार लेकर स्वस्थ विचार विनिमय में
सक्रियता दिखानी चाहिए और सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए। किसी भी विवाद में
बातचीत बंद नहीं करनी चाहिए हम सब आपस में दुश्मन नहीं हैं जो विचार त्याज्य है वह
तार्किकता की कसौटी पर हार जाएगा और सबल मानसिक स्वास्थय का पथ प्रशस्त होगा तथा
मन पर कोइ बोझ नहीं रहेगा। और हम पुनः उद्घोष कर सकेंगे।
–
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्
भवेत्।।
अर्थात
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी
मंगल के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।
स्वयम् को समय और उपहार दें(Give
yourself time and gifts, ) –
यदि हम मानसिक रूप से सशक्त महापुरुषों का
अध्ययन करें तो पाएंगे की इन्हें गढ़ने में एकान्त और इनके खुद के विचारों को धार
इन्होने स्वयम् के लिए समय निकाल कर दी है। वह समय कोई भी हो सकता है,स्थितप्रज्ञता की स्थिति तभी बनती है
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय में भगवन कहते हैं –
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।। 69
अर्थात्
सभी प्राणियों के लिये जब रात होती है, तब सयंमी(मुनि) जागता रहता है और जब सभी
प्राणियों के लिये जागने का समय होता है तब मुनि के लिये रात होती है।
मानसिक बल से युक्त होने हेतु हमें खुद को गढ़ना
होगा तथा अपने लिए दंड व उपहार का निर्णयन करना होगा।
समाज सेवा और चैन की नींद(Social
service and sleep in peace)–
मानसिक स्वास्थ्य की उच्चता का एक मापन यह भी
है की हम अपना ही नहीं समाज के उत्थान में योग दें सकें। रामचरित मानस में आया है
–
”परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
पर
पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।”
यह परहित चिन्तन जहां हमें मानसिक रूप से सशक्त
करता है वहीं इससे मिलने वाली संतुष्टि चैन की नींद लाने में मदद करती है इससे हम
उत्तरोत्तर मानसिक स्वास्थय की स्थिति को प्राप्त करते हैं।
अन्ततः कहा जा सकता है कि खुद से हारना छोड़ दो
आप इतने अधिक मानसिक स्वास्थ्य के मालिक बन जाओगे की दुनियाँ आपका कुछ नहीं बिगाड़
सकेगी।
संसार का सर्व श्रेष्ठ प्राणी मनुष्य कहा जाता है लेकिन किसी भी मनुष्य के ऊपर हावी हो सकता है तनाव। इसने अवतारों को भी नहीं बख्शा। भले ही आप उसे लीला कह लें। जिसने इन तनावों का जितनी कुशलता से निवारण किया वह उतना अधिक सफल हुआ। तनावों से बचाने के लिए न तो आपके ऊपर मनोवैज्ञानिक भारी भारी सिद्धान्तों का बोझ डालूँगा और न धर्माचार्यों के चक्र व्यूह में आपको फँसाऊँगा। यह एक असन्तुलन है जिसे सहजता से सन्तुलन की दहलीज पर लाया जा सकता है। तमाम साहित्य और दृश्य श्रव्य सामग्री से जो जवाब नहीं मिल पाया वह लगभग 500 लोगों के विचारों से मुझे प्राप्त हुआ आपके साथ उसी प्रतिक्रिया को बिन्दुवत तनाव मुक्ति के स्वीकृत विचारों के रूप में आपसे साझा करता हूँ। विश्वास रखिये तनाव उड़न छू हो जाएगा।
तनाव
से मुक्ति के उपाय –
आप इनकी सरलता पर मत जाना ये लोगों के विचारों का सार है जिन्हें इस
प्रकार क्रम दिया जा सकता है।
1⇒प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में जागरण
–
सुबह चार बजे उठने से पूरे दिन की दिनचर्या व्यवस्थित हो जाती है याद
रखें हमें तनाव प्रबन्धन नहीं करना है प्रबन्धन अच्छी चीजों का किया जाता है तनाव
का तो समूल विनाश किया जाना है इसीलिए जब उचित समय पर जागेंगे तो सारे कार्यों को
समय मिल सकेगा और तनाव उत्पत्ति के कई कारण दम तोड़ देंगे।
2⇒शौच स्नानादि क्रिया –
दैनिक क्रियाओं का व्यवस्थित सम्पादन करेंगे मल त्याग से पूर्व
पर्याप्त जल का सेवन मौसम के अनुसार करेंगे। मालिश और रगड़ रगड़ कर स्नान की आदत का
अनुपालन करेंगे।दन्त धावन के पश्चात आँख पर छपाके लगाते समय मुँह में पानी अवश्य
भरा हो। समय प्रबन्धन का विशेष ध्यान रखेंगे। यहीं से खुशनुमा दिन हमारी प्रतीक्षा
करेगा। ध्यान रखें इन छोटी छोटी बातों का तनाव मुक्ति
से सीधा सम्बन्ध है।
3⇒चिन्तन – मनन व व्यूह रचना –
आदि शक्तियों और अच्छे अच्छे विचारों का चिन्तन मनन करने के साथ पूरे
दिन के कार्यों हेतु व्यवस्थापन की व्यवस्थित रणनीति बनाई जानी चाहिए। किसी तरह का
कोई बोझ मन पर नहीं रखना चाहिए। कोई बोझिल विचार लम्बे समय तक जुड़कर तनाव में
परिवर्तित होता है इसीलिये उसे प्रारम्भ में ही दरकिनार कर देना चाहिए।
4⇒आसन, प्राणायाम, व्यायाम –
आसन और व्यायाम तन के तनाव का निदान करता है और प्राणायाम मन को तनाव
से बचाता है तन मन इससे तनाव मुक्त व्यवहार का निर्वहन करने का आदी हो जाता है
अचेतन मष्तिस्क अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ मानस में शक्ति संचरण के प्रवाह को
बनाये रखता है।
5⇒ ऊर्जा स्तर उन्नयन –
हमारा शरीर एक अत्याधिक उन्नत किस्म का यन्त्र है जो अपने आप अपने को
ठीक करने करने की व्यवस्था करता है और तनाव शैथिल्य हेतु दर्द,
आँसू, ऐंठन, बेहोशी, उन्माद आदि का प्रगटन करता है और कालान्तर में
स्वयं को ठीक कर लेता है। लेकिन लगातार तनाव उत्पादक विचार का चिन्तन इस शरीर को
अपूरणीय क्षति पहुँचाता है इसीलिए हमें अपने शरीर के ऊर्जा स्तर को बनाये रखना है
और हर वह सकारात्मक कार्य करना है जिससे हम अपने आप को तरोताज़ा महसूस करते हैं फिर
चाहे संगीत सुनना हो ,तैरना हो, नृत्य हो, या आपकी अन्य कोई अभिरुचि का क्षेत्र। कुछ नहीं
कर सकते तो पूर्ण श्वांस प्रश्वांस ही करें।
6⇒ स्वास्थ्य अनुकूल व्यवहार –
हमारी सम्पूर्ण क्रियांए मर्यादित व शारीरिक क्षमता में अभिवृद्धि
करने वाली हों, किसी भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तु का
सेवन न करने की आदत व्यवहार में लाई जानी चाहिए। नशे की चीजों का तत्काल प्रभाव से
परित्याग किया जाना चाहिए। स्वस्थ मस्तिष्क से किसी समस्या पर जितना गहन अध्ययन
किया जा सकता नशे की हालत में कदापि सम्भव नहीं। स्वास्थय के अनुकूल कृत्यों को
व्यवहार में लाने की आदत का परिष्करण किया जाना चाहिए।
7⇒ यथा योग्य निद्रा व जागरण –
किसी भी कार्य का अतिरेक सन्तुलन बिगाड़ने का कार्य करता है इसी लिए
यथायोग्य आहार विहार के साथ नींद की उचित मात्रा भी परम आवश्यक है श्रीमद्भगवद्गीता
में श्री कृष्ण जी ने अपने मुखारबिन्द से कहा –
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा
।।
अर्थात दुःखों का नाश करने वाला योग तो
यथायोग्य आहार विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का तथा यथा योग्य
सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
और जब दुखों का ही नाश हो जाएगा तो तनाव कहाँ बचेगा।
8⇒ सकारात्मक चिन्तन –
यदि नकारात्मकता हार का कारण है तो सकारात्मकता जीत की। शत प्रतिशत
यह मानने की आवश्यकता है नकारात्मकता मष्तिस्क और शरीर की सबसे बड़ी दुश्मन है इससे
हृदयाघात होता है और रोग प्रतरोधक क्षमता
पर बुरा असर होता है जो तनाव का प्रमुख कारण है इसीलिये सकारात्मक चिन्तन से
जुड़ें। ऐसे साहित्य ,व्यक्ति, विचार
का अनुकरण करें जो आपको सकारात्मक प्रेरणा देने में सक्षम हो।कितना सही कहा गया है
कि –
“Positive
thinking can reduce your stress level, help you feel better about yourself and
improve your overall well-being and outlook.”
“सकारात्मक
सोच आपके तनाव के स्तर को कम कर सकती है, आपको अपने बारे में बेहतर महसूस
करने में मदद करती है और आपके समग्र कल्याण और दृष्टिकोण में सुधार करती है।”
अन्ततः कहा जा सकता है कि अपना तनाव
हम स्वयम् दूर कर सकते हैं और दूसरों की मदद भी कर सकते हैं, यहाँ बताये गए तरीकों पर
सकारात्मकता के साथ अमल करें बाकी सब शुभ ही होगा। मुस्कुराइए आपके जीवन प्रगति की
चाभी आपके हाथ है।
पुस्तक समीक्षा एक अत्याधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है क्यों कि पुस्तक का लेखक जहाँ अपने मानस से निकाल कर विषय वस्तु सम्पूर्ण जनमानस को परोसता है वहीं समीक्षक के शब्द, जो की गरिमा पूर्ण विश्लेषण पर आधारित होते हैं विचारक को दिशा भी देते हैं और यह भी बताते हैं कि तत्सम्बन्धी साहित्य का कितनी गहराई से अध्ययन किया गया है और समीक्षक का मानसिक स्तर क्या है।
चूँकि यह एक महत्त्वपूर्ण कृत्य है इसीलिये इसे
शिक्षा के उच्च स्तरीय पाठ्य क्रम या एम० एड० के पाठ्य क्रम से जोड़ा गया है।
पुस्तक समाज को समर्पित होती है इसलिए लेखन और समीक्षा दोनों ही सामाजिक उत्थान
में योग देते हैं और अत्याधिक सावधानी पूर्वक किये जाने की अपेक्षा रखते हैं।
महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्व
विद्यालय, बरैली
के एम ० एड ० पाठ्यक्रम में Practicum में दिया है – Study of any one thinkers’
original literature (one book) and write review on it. इसी तरह विभिन्न विश्व विद्यालयों ने उच्च
शिक्षा स्तर पर पुस्तक समीक्षा सिखाने का प्रयास किया है। आज कल व्यावसायिक रूप से
यह धनार्जन के क्षेत्र के रूप में भी उभर कर सामने आया है। इसीलिये वर्तमान समय
उच्चकोटि के पुस्तक समीक्षकों की आवश्यकता महसूस कर रहा है।
बदलते परिवेश में पुस्तक समीक्षा,
समीक्षा के साथ कुछ अन्य तथ्यों की आवश्यकताओं
को महसूस करती है इसीलिए पहले की तुलना में कुछ नए बिंदुओं का समावेशन आवश्यक है।
इस सम्बन्ध में अलग अलग विद्वानों की राय अलग हो सकती है। यहाँ आज के दृष्टिकोण से
पुस्तक समीक्षा हेतु बिंदुओं का निर्धारण किया गया है।
पुस्तक समीक्षा (Book Review) लिखने की विधि –
Or
पुस्तक समीक्षा कैसे लिखें ?(How to write a book review?)
किसी भी पुस्तक की समीक्षा
लिखने में सबसे पहले निम्न जानकारी साझा की जनि चाहिए और उसके बाअद मुख्य रूप से
केवल समीक्षा सरल सुबोध भाषा में प्रस्तुत की जानी चाहिए। समस्त बिन्दुओं को इस
प्रकार क्रम दिया जा सकता है –
⇨ पुस्तक का नाम
⇨ लेखक का नाम
⇨ प्रकाशक
⇨ संस्करण
⇨ मूल्य
⇨ मुद्रक
⇨ समीक्षा –
पुस्तक को समीक्षा हेतु सम्यक भागों में विभक्त
कर लेना चाहिए और उन खण्डों को विषय वस्तु, चरित्रों, सम्वादों, भावनाओं, प्रस्तुति, प्रभाव उत्पादकता,
तुलना, प्रासंगिकता, भाषा शैली, गुणधर्मों आदि सम्यक मानदण्डों की कसौटी व
विश्लेषण के आधार पर समीक्षा की जानी चाहिए।
⇨ समीक्षक
का नाम, हस्ताक्षर
व दिनाँक सहित
पुस्तक समीक्षा में ध्यान रखने योग्य तथ्य [Facts
to keep in mind in book reviews]-
01 – विषय वस्तु को गम्भीरता पूर्वक कई बार देखा, सुना, पढ़ा और समझा जाना
चाहिए।
02 – सभी आवश्यक सूचनाओं का संग्रहण किया जाना
चाहिए।
03 – सम्यक दृष्टिकोण रखा जाना चाहिए।
04 – यह समीक्षा जिन लोगों के बीच जानी है उनके
स्तर को संज्ञान में रखा जाना चाहिए।
05 – आप किसी अन्तिम निर्णय पर किस आधार पर
पहुँचे? स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिए।
0 6 – अपने प्रस्तुत विचार
को तर्काधार भी दिया जाना चाहिए।
07 – जिस भाषा में समीक्षा
लिखी जा रही है उसकी भाषा शैली पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए।
08 – तुलना (Compare) और व्यतिरेक (Contrast) की सूक्ष्मताओं को जटिलता से बचाकर सहज, सरल, बोधगम्य और सम्प्रेषणीय बनाया जाना चाहिए।
09 – सम्पूर्ण का सारांश
देने से बचाव रखते हुए आवश्यक विषय वस्तु, तथ्य, समीक्षा के घेरे में मर्यादित ढंग से लिए
जाने चाहिए।
10 – याद रखें, यह प्राक्कथन नहीं है हमारी भाषा शैली, प्रस्तुति, तुलना आदि सभी में समीक्षात्मक दृष्टिकोण
दीख पड़ना चाहिए।
11 – पुस्तक के सम्बन्ध में कुछ वाक्य, पसन्दगी या नापसन्दगी
का कारण, आकर्षित होने का कारण समाहित किया जाना
चाहिए।
12 – अन्त में बिना कोई भेदभाव पूर्ण दृष्टिकोण
रखे हुए मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
अवसाद (Depression)एक स्वनिमन्त्रित मानसिक रोग कहा जाता है और अवसादग्रस्तता अनिद्रा, चिड़चिड़ापन,अनायास गुस्सा, नकारात्मकता गुमसुम रहना, अचानक एकान्त प्रियता, असन्तुलित व्यक्तित्व आदि आदि के रूप में पारिलक्षित होने लगता है। यह अवसाद मानव पर जब भारी पड़ने लगता है तो मानव हारने लगता है। यहाँ प्रस्तुत है अवसाद भगाने के अचूक उपाय, जो अवसाद ग्रस्तता के रूप के अनुसार अपनाए जा सकते हैं। –
1- सुबह जल्दी उठें –
ब्रह्म मुहूर्त में उठना या सूर्योदय से पूर्व उठना अपनी दिनचर्या
बना लें और उठते ही अपने ईष्ट को जिन्दगी नया दिन, नया अवसर देने के लिए धन्यवाद कहें। जो लोग विभिन्न मन्त्रोच्चार
करते हैं करें लेकिन अपनी भाषा अपनी बोली में ईश्वर के प्रति कृतज्ञता अपने शब्दों
में अभिव्यक्त करें। नित्य कर्मों से मुस्कुराते हुए आनन्द के साथ निवृत्त हों।
नया सुखद समय प्रतीक्षारत है ,याद
रखें –
हर सुबह नव जीत का ख़ास पैगाम लाती है।
सद्पात्र को स्वर्णिम अवसर ये बाँट आती है।।
(2) – शरीर को समय दें –
शरीर प्रकृति प्रदत्त एक विशिष्ट नेमत है यह अद्भुत जादुई शक्ति का
निमित्त साधन है शरीर को व्यवस्थित रखने हेतु रक्तसञ्चार व्यवस्थित रखना परमावश्यक है।
इस हेतु प्रातः भ्रमण, दौड़, व्यायाम, मालिश, प्राणायाम आदि अपनी क्षमता के अनुसार करें। निःसन्देह प्राणायाम इसमें सर्वोत्तम है।
यह अवसर चूक न जाएँ। स्नानादि के उपरान्त अपने
दैनिक कार्यों के सम्पादन हेतु खुद को खुशी खुशी तैयार करें। ध्यान दें –
काया प्रकृति प्रदत्त अनुपम उपहार है,
क्या इसके साथ सम्यक में व्यवहार है।
सुसमय ही सचेत होंअन्यथा
पछतायेंगे,
क्यों कि स्वस्थ तनमन असली श्रृंगार है।
(3) – सहज सुपाच्य भोजन –
अवसाद भगाने का सूक्ष्म तरीका भोजन में छिपा है, गरिष्ठ भोजन का सेवन न करें, भूख से थोड़ा काम खाएं, ताजा खाने का प्रयास करें। भूख से अधिक न खाएं
क्योंकि यदि कुण्डलिनी की समस्त शक्ति पचाने में व्यस्त रहेगी तो उन्नति पथ कब
प्रशस्त करेगी। तरल,
पोषक, रेशेदार,शरीरानुरूप भोजन शान्त मनोरम वातावरण में करें।
याद रखें –
सुपाच्य भोजन हम सब को स्वीकार हो जाए।
अवसाद की कड़ी टूटे और बेड़ा पार हो जाए।
(4) – मादक पदार्थों का त्याग –
आज विविध प्रकार के मादक पदार्थ उपयोग में लाये जाते हैं नशे का एक
बहुत बड़ा तन्त्र विकसित हो गया है अनपढ़ से लेकर पढ़ी लिखी मानवता इसकी गिरफ्त में
है इसके दुष्चक्र ने अवसाद को मिटाने में बहुत बड़ी बाधा खड़ी की है तत्काल प्रभाव
से इसका परित्याग सुनिश्चित करना होगा। educationaacharya.com पर इस सम्बन्ध में ‘नशा
छोड़ देते हैं लोग’ शीर्षक से ऐसी पंक्तियाँ लिखी गई हैं कि आप
सोचने पर विवश हो जाएंगे। इसीलिए कहना पड़ता है। –
मादक पदार्थ सच में,
हमारी खिल्ली उड़ाते हैं।
हम गटकते हैं उन्हें,
और वो हमें खा जाते हैं।
(5) – शौक पालें –
अवसाद से बचाव हेतु एक सरल मन्त्र है- व्यस्त रहें, मस्त रहें, स्वस्थ
रहें। इसीलिए खाली न बैठें। जो भी अच्छा लगता है यथा समाज सेवा, संगीत, लेखन, बागवानी, अध्ययन, भजन, क्रीड़ा
कुछ भी करें। खुलकर जियें। अवसाद की फुरसत ही नहीं मिलेगी।
(6) – सकारात्मक चिन्तन –
जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है,
मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं।
उक्त पंक्तियों में किसी विद्वान ने समाज को दिशा देने का प्रयास
किया है। वास्तव में सकारात्मक चिन्तन हमारे व्यवहार में नई ऊर्जा भर देता है
समस्याएं तो राम, कृष्ण के सम्मुख भी आईं पर उनके कृत्य हमारे
आदर्श हैं। जो भी महान हुआ है वह सकारात्मक चिन्तन से मानस को आकण्ठ डुबाने वाला
मष्तिस्क है। दशरथ माँझी,
स्वामी रामदेव, ए पी जे कलाम,
सरदार बल्लभ भाई पटेल …आदि का उदाहरण लिया जा
सकता है।
(7) – क्रोध करने से बचें –
अवसाद पीड़ित अनायास क्रोध करता है, चिड़चिड़ापन का असर कम होने पर ग्लानि अनुभव करता है इसलिए क्रोध आने
पर संयम रखें। 3 मिनट गहरी गहरी श्वांस लें और प्रभावी चिन्तन
का प्रयास करें। सोलह कला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र महाराज ने
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा –
अवसाद की औषधियों में भरपूर सुलाने की व्यवस्था रहती है इसी लिये खूब
श्रम करें। रात्रि में शयन पूर्व गर्म जल से या मौसमानुकूल जल से स्नान करें। हरी
इलायची का सेवन करें। खुद को प्रसन्न रखें। अधिगमार्थी अध्ययनोपरान्त सोने की आदत
डालें। इतना सोएं कि स्नायु सबल हो सकें व उठने
पर स्वयम् को तरोताज़ा महसूस कर सकें। याद रखें-
नींद केवल, वह नहीं
जो हमको, सुलाती है,
ये औषधि है, गात की
पुनः नवजीवन लाती है।
यहाँ केवल आठ सरलतम उपाय दिए गए हैं जिन्हे
आसानी से अपनाया जा सकता है और दीर्घकालिक दवाओं की नौबत आने से पूर्व स्वयम् को
मज़बूत किया जा सकता है।
यथार्थ वाद का आशय व परिभाषा (Meaning and Definition of Realism)-
वास्तव वाद या यथार्थ वाद का आंग्ल रूपान्तर है ‘Realism’ . शब्द Real की
उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘realis’ से हुई है यह शब्द res से बना है जिसका आशय है ‘वस्तु’ इसलिए
Realism का शाब्दिक अर्थ हुआ वस्तु के अस्तित्व
सम्बन्धी विचार धारा। कहने का आशय है कि मात्र इन्द्रिय जन्य ज्ञान सत्य है इसी
लिए ये वाह्य जगत को सत्य मानते हैं मिथ्या नहीं।
यथार्थवाद को विभिन्न विद्वानों ने जिस प्रकार पारिभाषित किया उनमें
से कुछ को यहाँ दिया गया है।
स्वामी रामतीर्थ(Ramtheerth) महोदय के अनुसार –
“Realism means a belief or theory which works upon the
world as it seems to us.”
“यथार्थवाद का अर्थ वह विश्वास या सिद्धान्त है, जो जगत को वैसा ही स्वीकार करता है, जैसा कि हमें दिखाई देता है।”
जे एस रॉस( J. S. Ross) के अनुसार
“The doctrine of realism asserts that there is a
real-world of things behind and corresponding to the objects of our
perception.”
“यथार्थवाद यह स्वीकार करता है कि जो कुछ हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते
हैं, उनके पीछे तथा मिलता जुलता वस्तुओं का एक
यथार्थ जगत है।”
बटलर( Buttler ) महोदय के अनुसार –
“Realism is the reinforcement of our common acceptance
of the world as it appears to us.”
“यथार्थवाद या वास्तववाद इस संसार को उसी रूप में स्वीकार करता है जिस
रूप में उसे दिखाई देता है।”
मीमांसाएं –
किसी भी दर्शन के वास्तविक स्वरुप को समझने के लिए यह परम आवश्यक है
कि उसकी तत्त्व मीमांसा(Meta
Physics), ज्ञान
व तर्कमीमांसा(Epistemology
and Logic) एवम्
मूल्य व आचार मीमांसा(Axiology
and Ethics) को
समझा जाए। यहाँ इन्ही को इसी क्रम में वर्णित करेंगे।
तत्त्व मीमांसा (Meta Physics )-
यथार्थवादी तात्त्विक विश्लेषण के क्रम में तत्त्व मीमांसक विश्लेषण
के आधार पर सरल वास्तव वाद (Naïve Realism), नववास्तव
वाद(Neo Realism), आलोचनात्मक वाद (Critical Realism),मानवतावादी यथार्थवाद (
Humanistic Realism), सामाजिकता वादी यथार्थवाद (Socialistic
Realism), ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद ( Sense Realism ),अवयव दर्शन (Philosophy of
Organism )आदि
का अभ्युदय हुआ। इस दर्शन के अनुसार पदार्थ का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और यह
ब्रह्माण्ड पदार्थजन्य है अर्थात इस जगत की उत्पत्ति का मूल कारण भौतिक यानी कि
स्थूल तत्त्व हैं। वास्तु के सम्बन्ध में ये अपने ज्ञान को प्रयोग सिद्ध(
Empirical ) मानते हैं। आत्मा को भी पदार्थजन्य चेतन तत्त्व मानते हैं।
ज्ञान व तर्कमीमांसा (Epistemology and Logic) –
यथार्थवादी वस्तु व चेतना दोनों के महत्त्व को स्वीकार करते हैं और
ज्ञान प्रक्रिया में ज्ञाता व ज्ञेय दोनों को महत्त्व देते हैं। ज्ञान के स्रोत
कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जब आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं तो ये तर्क
देते हैं कि वस्तु के ज्ञान का आधार यही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं इसलिए इनसे परे ज्ञान
नहीं होता ये शाब्दिक ज्ञान को भी प्रत्यक्षीकरण के बाद ही स्वीकारते हैं।
मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology
and Ethics) –
ये भौतिक संसार को सत्य मानते हुए कहते हैं कि जीवन रक्षा और सुख
पूर्वक जीना ही मानव का उद्देश्य है इसके लिए क्रियाशीलता हो और उत्पादकता को
बढ़ाया जाए। अगले क्रमिक चरण के रूप में ये उन मूल्यों पर बल देते हैं जिससे मानव
को सुखानुभूति हो। मानव में संवेदनशीलता का गुण ये मूल्यों की अनुभूति हेतु आवश्यक
मानते हैं साथ ही स्वीकार करते हैं मूल्य सबके लिए सामान नहीं हो सकते अतः आचार
संहिता बनाना सम्भव नहीं है।
यथार्थवाद के मूल सिद्धान्त (Basic
Principles of Realism) –
– प्रत्यक्ष जगत ही सत्य है (Phenomenal
world is true)-
वह जगत जिसे हम प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं वही सत्य है अर्थात यह
भौतिक जगत ही सत्य है जे0 एस0 रॉस महोदय कहते हैं-
“Realism
simply affirms the existence of an external world and is therefore the
antithesis of subjective Idealism. ”
“यथार्थवाद केवल वाह्य जगत की सत्ता को ही
स्वीकार करता है। अतः यह आत्मगत आदर्श वाद के विपरीत है।”
– ब्रह्माण्ड
पदार्थ पर आधारित है (Universe is based on substance) –
ये पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकारते
हैं और संसार को विविध तत्त्वों का योग मानते हैं संसार के सारे परिवर्तन पदार्थों
का रूप परिवर्तन ही है।
इन्द्रियाँ ज्ञान के द्वार हैं (Senses are the Gateways of knowledge)
–
ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख साधन इन्द्रियाँ हैं
इन्द्रियाँ ही संवेदना के आधार पर अनुभूति करतीं हैं रसेल महोदय कहते हैं –
“I content that ultimate
constituent of matter are not atoms … but sensation. I believe that the stuff
of our mental life …….. consists wholly of sensations and images.”
“पदार्थ के अन्तिम निर्णायक तत्त्व अणु नहीं हैं, वरन संवेदन हैं। मेरा विश्वास है कि हमारे
मानसिक जीवन के रचनात्मक तत्त्व पूर्णतः संवेदनाओं और प्रतिभाओं में निहित होते
हैं।”
– मनुष्य
संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ (Man is world’s best substance)-
यथार्थवादी मानव को पदार्थ रूप में स्वीकार
करते हैं लेकिन उसे अन्य पदार्थों से भिन्न मानते हैं क्यों कि मानव मन रखता है और
मन के आधार पर जगत का सुव्यवस्थित ज्ञान प्राप्त कर सुख पूर्वक जीवन यापन के उपागम
प्रयुक्त करता है आँख,कान,जिह्वा,नाक,त्वचा
के सम्यक प्रयोग से मानव प्रगति करता है अतः यह सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है।
– आंगिक सिद्धान्त (Theory of Organism)-
प्रसिद्द यथार्थवादी व्हॉइटहैड संसार की
प्रत्येक वस्तु को समष्टि का एक अंग मानते हैं और कहते हैं की समस्त अवयवों में
सम्मिलित रूप से तरंगित प्रक्रिया हो रही है इसी वजह से परिवर्तन हो रहे हैं ये
नियमों को शाश्वत न मानकर परिवर्तनशील मानते हैं। ए एन व्हॉइटहैड(A. N. Whitehead) महोदय कहते हैं –
“Realism is a system, which is
always organic. Every part of it is itself an active system, a coordinated
process. It is not only the result but also the cause itself the world is a
wavering element in the process of development. Change is this wavering process
is the fundamental quality of the universe. Truth is an essential process of
reality. Mind must be accepted as the function of the organ.’’
“यथार्थवाद एक व्यवस्था है,जो सदैव आंगिक है। इसका प्रत्येक भाग स्वयम् एक
सक्रिय व्यवस्था है,एक समन्वित प्रक्रिया है। यह केवल परिणाम नहीं
है,वरन स्वयं कारण भी है, संसार विकास की प्रक्रिया में एक तरंगित अवयव
है। परिवर्तन इस तरंगित विश्व का आधारभूत गुण है। सत्य वास्तविकता की एक सारभूत
प्रक्रिया है। मन को अवयवी के कार्य रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।”
– आत्मा
पदार्थजन्य चेतन तत्व (Soul material born, conscious element)-
मानव में चेतना आत्मिक विकास का प्रतिफल है और
चेतना की विलुप्ति ही मरण है अर्थात यथार्थवादियों के अनुसार आत्मा पदार्थजन्य
चेतन तत्त्व है।
– मानव जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना (The aim of human life is to live
happily) –
ये कहते हैं कि जीवन का कोई अंतिम उद्देश्य
नहीं होता,शरीर जैवकीय पदार्थ है जो क्षीण होकर ख़तम हो
जाता है इसलिए इसको स्वस्थ रखने का प्रयास हो और मष्तिस्क व अन्य इन्द्रियों के
प्रशिक्षण की आवश्यकता है जिससे ये सुचारु रूप से कार्य कर सकें।
रस्क (Rusk) महोदय
के अनुसार
“The aim of new realism is to expound
a philosophy which is not inconsistent with the fact of common life and with
the development of physical science.”
“नवयथार्थवाद का उद्देश्य एक ऐसे दर्शन का
प्रतिपादन करना है,जो सामान्य जीवन के तथ्यों तथा भौतिक विज्ञान
के विकास के अनुकूल हो।”
– वस्तु जगत की नियमितता स्वीकार करना (To accept regularity of materialistic
world) –
ये मन को यांत्रिक ढंग से क्रियाशील मानते हैं
इसीलिए इनका दृष्टिकोण भी यांत्रिक हो गया है प्रो 0 एम एल मित्तल के अनुसार यथार्थवादी स्वीकार करते हैं कि –
“Experience and knowledge
require regularity.”
“अनुभव और ज्ञान के लिए नियमितता का होना आवश्यक
है। ”
– प्रयोग पर बल (Emphasis on
experiment) –
चूंकि ये तथ्य निरीक्षण ,अवलोकन तथा प्रयोग पर इतना ध्यान देते हैं कि
किसी भी तथ्य को तब तक स्वीकार नहीं करते जब तक कि वह निरीक्षण व प्रयोग की कसौटी
पर खरा सिद्ध न हो गया हो।
यथार्थ वाद के रूप (Forms of Realism) –
Forms of Realism in Education-
यथार्थवादी दृष्टिकोण का अध्ययन करने में इसके कई रूपों के दर्शन
होते हैं जिन्हे इस प्रकार विवेचित किया जा सकता है।
[A] – मानवतावादी यथार्थवाद (Humanistic Realism) –
मानवतावादी यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों में इरेसमस,रैबले और मिल्टन का नाम आता है इनके अनुसार
शिक्षा यथार्थवादी होनी चाहिए जिससे मानव वास्तव में सुख से जी सके पॉल मुनरो के
शब्दों में –
“मानवता वादी यथार्थवाद का उद्देश्य – अपने जीवन की प्राकृतिक एवम्
सामाजिक परिस्थितियों का पूर्ण अध्ययन प्राचीन व्यक्तियों के जीवन की व्यापक
परिस्थितियों के माध्यम से करना था लेकिन यह कार्य केवल ग्रीक एवम् रोमन साहित्य के विस्तृत ज्ञान से पूर्ण किया
जा सकता था।”
[B] – ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद (Sense Realism) –
ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों
में रिचार्ड मूल कास्टर, फ्रांसिस बेकन, वूल्फगैंग रटके, जॉन
एमोस कमेनियस का नाम आता है। ये विचारक ज्ञानेन्द्रियों को ही ज्ञान का आधार मानते
हैं। पॉल मुनरो के अनुसार –
“The term (sense Realism) itself is drived from the
fundamental belief that knowledge comes through senses.”
“ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद उस मौलिक विश्वास से
विकसित हुआ है, जो यह मानता है कि ज्ञान प्राथमिक रूप से
ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है। ”
[C] – सामाजिक यथार्थवाद (Social Realism) –
सामाजिक यथार्थवादी दृष्टिकोण के समर्थकों में माइकेल डी माण्टेन, जॉन
लॉक का नाम आता है, सामाजिक यथार्थवादी पुस्तकीय शिक्षा के अत्याधिक विरोधी थे इनका
उद्देश्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के
माध्यम से जीवन को सुखी बनाना था। जे
एस रॉस के विचारों में इसकी झलक मिलती है –
“The social
realists looking askance at bookish studies, stressed the value of direct
studies of man and things, having in mind chiefly the upper class, they
advocated a period of travel, a grand tour, which would give real experience of
the varied aspects of life.”
“सामाजिक यथार्थवादी पुस्तकीय अध्ययन को व्यर्थ समझते हैं तथा
मनुष्यों एवं वस्तुओं के प्रत्यक्ष अध्ययन पर बल देते हैं, यद्यपि वे अपने मस्तिष्क में उच्च वर्ग का ही
ध्यान रखते हैं। इसी कारण वे लम्बी यात्रा करने के लिए कहते हैं, जिससे वास्तविक जीवन के विभिन्न पहलुओं का
यथार्थ अनुभव हो जाए।”
[D] – नव यथार्थवाद (Neo- Realism) –
नव यथार्थवाद दृष्टिकोण के समर्थकों में व्हॉइट हैड व
बर्टेन्ड रसेल का नाम आता है, इस
विचारधारा के अनुसार अन्य विभिन्न नियमों की तरह भौतिक विज्ञान के नियम भी
परिवर्तनशील हैं ये कुछ विशेष परिस्थितियों में ही सही साबित होते हैं। रस्क
महोदय कहते हैं –
“The positive contribution of neo-realism is its
acceptance of the methods and results of modern development in physics.”
“नव यथार्थवाद का महत्त्वपूर्ण योगदान उन पद्धतियों तथा निष्कर्षों को
मान लेने में है जो भौतिक शास्त्र के आधुनिक विकास से प्राप्त हुए हैं। ”
शिक्षा का सम्प्रत्यय (Concept of Education) –
यथार्थवादियों के अनुसार निरन्तर विकास की प्रक्रिया ही शिक्षा है ये
ज्ञान ज्ञान के लिए और ज्ञान मुक्ति के लिए जैसे सिद्धांतों का मुखर विरोध करते
हैं इनका कहना है की ज्ञान केवल जीवन के लिए ही होता है। आदर्श वादी अरस्तु के विचारों को यथार्थवादियों के निकट माना गया
जैसे अरस्तु का विचार है कि –
“Education is the creation of healthy mind in a healthy
body.”
“स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करना ही शिक्षा है। ”
जॉन मिल्टन (JohnMilton) महोदय के अनुसार
“मैं पूर्ण तथा उदार शिक्षा उसको कहता हूँ जो व्यक्ति को शान्ति तथा
युद्ध, दोनों समय में व्यक्तिगत और सार्वजनिक कार्यों
को न्यायोचित ढंग से दक्षता और उदारता के साथ करना सिखाती है। ”
“I call complete and generous education that which fits
a man to perform justly, skillfully and magnanimously all the offices both
private and public at peace and war.”
कमेनियस Comenius महोदयने व्यक्ति और समाज के उत्थान में शिक्षा की
भूमिका को स्वीकारते थेउन्होंने कहा –
“Education is the process of social and individual
rejenerating force.”
सामाजिक एवं वैयष्टिक शक्तियों को पुनर्जीवित
करने की प्रक्रिया ही शिक्षा है। ”
यथार्थवादी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएं
Main Characteristics of Realistic Education-
1 – ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल (Emphasis on training of senses)-
यथार्थवादी ज्ञान को इन्द्रिय से ज्ञात स्वीकारते हैं अतः इन्द्रियों
के प्रशिक्षण पर बल देते हैं इससे शिक्षा के परिक्षेत्र में सहायक सामग्री व दृश्य
श्रव्य सामग्री के महत्त्व को प्रश्रय मिला।
2 – प्रत्ययवाद का विरोध (Opposing of Idealism) –
इन्होने शिक्षा के माध्यम से जीवन को सुखी बनाने पर बल दिया और
आदर्शवाद का विरोध किया और कहा कि कोरा आध्यात्मिक सिद्धान्त आज बालक के लिए कोई
मायने नहीं रखता।
3 – वैज्ञानिकता को प्रश्रय (support of science) –
ये बालकों के लिए उपयोगी आधुनिक ज्ञान विज्ञान को आवश्यक समझते हैं
और कृत्रिम शिक्षा के स्थान पर प्रकृति की शिक्षा पर बल देते हैं ये चाहते हैं की
वैज्ञानिक विषयों को महत्ता प्रदान की जाए।
4 – पुस्तकीय ज्ञान का विरोध (Opposing bookish knowledge)-
ये पुस्तकीय ज्ञान का विरोध करते हैं और कहते हैं कि इससे वस्तु का
बोध नहीं होता वे शब्द के स्थान पर वस्तु और वातावरण के ज्ञान को आवश्यक समझते
हैं। रॉस महोदय कहते हैं कि –
“Just as naturalism has appeared in the field of
education as a protest against artificial teaching methods, so realism has come
against the curriculum, which has become bookish, unrealistic and
complex.”
“जिस प्रकार प्रकृतिवाद शिक्षा के क्षेत्र में
बनावटी शिक्षण पद्धतियों के विरोध स्वरुप उपस्थित हुआ है, उसी प्रकार यथार्थवाद उस पाठ्यक्रम के विरोध
में आया है,जो पुस्तकीय, अवास्तविक एवम् जटिल हो गया है। ”
5 – व्यावहारिकता पर बल (Emphasis on practicality)-
ये बालक को ऐसा ज्ञान देना चाहते हैं जिससे वह अपने जीवन में आने
वाली समयाओं को समाधान तक ले जा सकें। ये ‘ज्ञान
के लिए ज्ञान’ जैसे सिद्धान्तों का खंडन करते हैं और
व्यावहारिक प्रसन्नता प्राप्त करना चाहते हैं। कमेनियस Comenius ने कहा –
“The ultimate end of man is eternal happiness of God.”
“मनुष्य का अंतिम लक्ष्य ईश्वर के साथ शाश्वत प्रसन्नता को पाना है। ”
6 – नवीन शिक्षण विधियाँ व शिक्षा सूत्र (New Teaching Methods and Education
Formulas) –
इन्हें महत्त्वपूर्ण शिक्षण सहायकों के रूप में स्वीकार किया जाता है
क्योकि बेकन द्वारा प्रदत्त आगमन विधि आज भी स्वीकार्य है,ये निरीक्षण, परीक्षण,और सामयिक नियमीकरण के आधार पर ज्ञान से
सम्बद्ध करना चाहते हैं रटके और कमेनियस
ने प्रभावी शिक्षण सूत्र दिए। वास्तव में यथार्थवादियों ने शिक्षण विधियों के
क्षेत्र को दिशा दी।
7 – विस्तृत पाठ्यक्रम (Detailed Curriculum) –
यह इनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता में गिना जा सकता है क्योंकि इन्होने
विविध व्यवहारिक विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान देकर इसे व्यावहारिक व विस्तृत
बनाया जैसा कि कार्टर वी गुड ने कहा –
“The detailed curriculum was a key feature of
realism.”
“विस्तृत पाठ्यक्रम, यथार्थवाद की एक प्रमुख विशेषता थी। ”
8 – वैयक्तिकता व सामाजिकता दोनों को समान महत्त्व(Equal importance to both
individuality and sociality) –
ये शिक्षा द्वारा मनुष्य को समाज के लिए
उपयोगी बनाना चाहते हैं और वैयक्तिकता और सामाजिकता को समान महत्त्व प्रदान करते
हैं। जायसवाल महोदय ने कमेनियस के बारे में लिखा –
“कमेनियस की शिक्षा का
उद्देश्य व्यक्ति को जीवन में सफल बनाना और ज्ञान द्वारा नैतिक तथा धार्मिक भावना
का विकास करना है। ”
यथार्थवादी शिक्षा के
उद्देश्य (Realistic Education Objectives) –
1 – जीवन को व्यावहारिक व
सुखमय बनाना (To
make life practical and happy)
2 – मानसिक शक्तियों का सम्वर्धन
(Enhancement of Mental powers)
3 – प्रकृति का ज्ञान
कराना (To
make knowledge of nature)
4 – सामाजिक पर्यावरण का
ज्ञान (Knowledge of the social environment)
5 – वैज्ञानिक दृष्टिकोण
का विकास (Development
of scientific attitude)
6 – सुखी जीवन हेतु तैयार
करना (Preparing for a happy life)
7 – व्यावसायिक शिक्षा
प्रदान करना (Providing vocational education)
डेविनपोर्ट महोदय के अनुसार –
“No
individual shall be obliged to chose between an education without a vocation
and vocation without an education.”
“कोई भी व्यक्ति किसी
व्यवसाय के बिना शिक्षा का चयन न करे, और न बिना शिक्षा के
व्यवसाय का चयन करे।”
यथार्थवाद और
पाठ्यक्रम (Realism and curriculum)-
ये आधुनिक ज्ञान
विज्ञान को प्रश्रय प्रदान कर साहित्यिक, काल्पनिक, कलात्मक, दार्शनिक विषयों को
द्वित्तीयक स्थान प्रदान करते हैं यथार्थवादी दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम को दो भागों
में विभक्त कर सकते हैं –
प्रधान विषय – भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, उद्योग,व्यवसाय, कृषि, शिल्पकार्य, मातृ भाषा व अन्य
जीवनोपयोगी विषय
गौड़ विषय – साहित्य,कला,संगीत,दर्शन,इतिहास,भूगोल,नीतिशास्त्र,समाजशास्त्र,कानून आदि।
यथार्थ वाद और शिक्षण
विधि (Realism and Teaching Method) –
वस्तु व इन्द्रिय प्रशिक्षण पर ध्यान देने
वाले यथार्थवाद में मुख्यतः निम्न शिक्षण विधियों को प्रश्रय मिला है –
भ्रमण विधि, प्रयोग विधि,निरीक्षण विधि, अनुभव आधारित विधि,आगमन विधि,दृश्य श्रव्य सामग्री
युक्त विधि व अन्य क्रियात्मक विधियाँ।
यथार्थ वाद और
अनुशासन (Realism and Discipline ) –
ये विद्यालय का वातावरण घर की तरह बनाना
चाहते हैं और प्रेम, सुरक्षा,सहानुभूति के आधार पर न्याय, संयम, स्वतन्त्रता आदि का विकास करना चाहते हैं। ये वाह्य अनुशासन का विरोध व
वस्तुनिष्ठ अनुशासन का समर्थन करते हैं। ये प्रकृतिवादियों के विपरीत नैतिक व
धार्मिक विकास को जीवन नियंत्रित करने का साधन मानते हैं।
यथार्थवाद और शिक्षक (Realism
and Teacher) –
ये आदर्शवाद की तरह प्रमुख स्थान तो नहीं
देते लेकिन उसके महत्त्वपूर्ण स्थान को पूरी तरह नकारते भी नहीं। अध्यापक वातावरण
को नियन्त्रित करने के साथ अनुभव द्वारा सीखने का माहौल बनाएं। आचरण की शिक्षा
हेतु ये अध्यापकीय प्रशिक्षण पर बल देते हैं।
यथार्थवाद और
बालक (Realism and
Child) –
इन्होने बालक केन्द्रित शिक्षा प्रक्रिया को
प्रमुख स्थान प्रदान किया है और उनका सर्वांगीण विकास भी करना चाहता है ये प्रकृतिवादियों की भाँति बालक
को स्वतन्त्र छोड़ने की जगह सजग प्रहरी की तरह प्रत्येक गतिविधि व उनकी रुचियों पर
ध्यान देते हैं। ये विभिन्न परिस्थितियों व समस्याओं से जूझने हेतु बालक को तैयार
करना चाहते हैं।