कर्ज ये जो लिया है, चुकेगा नहीं,
गुरुओं से फक़त एक डपट चाहिए।
मैं तो कोरा था मुझ पास अक्षर नहीं,
अक्षरों को समझना तो गुरु चाहिए।
बिना अक्षर मिले, शब्द बनते नहीं,
पंक्ति सृजन को समूची लड़ी चाहिए।1।
कर्ज ये जो लिया है, चुकेगा नहीं,
गुरुओं से फक़त एक डपट चाहिए।
शब्द कोष खँगालूं, ये क्षमता नहीं,
करने क्षमता ये अर्जित गुरु चाहिए।
बिन शब्दों के पंक्ति तो बनती नहीं,
पैरा पूरे को तो पँक्तियां चाहिए।2।
कर्ज ये जो लिया है, चुकेगा नहीं,
गुरुओं से फक़त एक डपट चाहिए।
समझ पंक्तियों की तो विकसित नहीं,
मोल पँक्ति का समझूँ, गुरु चाहिए।
पंक्ति पैरा के बिन पाठ, बनता नहीं,
ग्रन्थ अधिगम पाठ वन सघन चाहिए।3।
कर्ज ये जो लिया है, चुकेगा नहीं,
गुरुओं से फक़त एक डपट चाहिए।
कोरा पन्ना भरा, दृष्टि शोधक नहीं,
शोध की पूर्णता को, बस गुरु चाहिए।
पढ़ने लिखने से आती वो क्षमता नहीं,
शोधने को समझ कुछ नया चाहिए।4।
कर्ज ये जो लिया है, चुकेगा नहीं,
गुरुओं से फक़त एक डपट चाहिए।
नाथ समझा ये जीवन है पुस्तक नहीं,
नव सृजित पुस्तकों को गुरु चाहिए।
ज्ञान सागर में डूबूँ वह कुव्वत नहीं,
ज्ञान रश्मि समेटूँ, गुरु कृपा चाहिए।5।
कर्ज ये जो लिया है, चुकेगा नहीं,
गुरुओं से फक़त एक डपट चाहिए।