जीवन की संध्या बेला में,

प्रीती का झरना बहने दो,

मन के ये सूने आँगन में,

उत्साह पूर्णतः खिलने दो।

जीवन की आपा धापी में,

जो कार्य रहे हैं करने दो

आभासी सत्य थे जीवन में

यथार्थ रंग अब भरने दो ।

जो रूढ़ियाँ ढोईं जीवन में,

मुक्त बयार अब चलने दो,

जो झूठ बसे घर आँगन में

उन्हें दहन अब करने दो।

जो गीत लिखे थे मधुवन में

उन्मुक्त भाव से पढ़ने दो।

व्यापक मन्तव्य स्थापन में

जीवन का सत जुड़ने दो।    

जो गुजरा है इतिहासों में

वर्तमान में साखें गढ़ने दो,

जञ्जीर न हो कोई पैरों में,

उन्मुक्त भाव से चलने दो।

परम्परा के ताने बाने में

नवसूर्य आज चमकने दो

भारत के कोने – कोने में

नव उन्नति पथ गढ़ने दो ।

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