प्रकृतिवाद की उत्पत्ति के उत्तरदाई कारण(Causes responsible for
arising Naturalism)
पाश्चात्य
चिन्तनधारा की दार्शनिकता अठारहवीं शताब्दी के मध्य में वह ज्वार लाई जिससे
प्रकृतिवाद उद्भवित हुआ वस्तुतः उक्त तथ्य के स्पष्टीकरण हेतु उस काल की सामाजिक
स्थिति का अवलोकन अपरिहार्य प्रतीत होता है, उस काल में जर्मनी में अति धार्मिकता या पूण्य
शीलता (Pietism), फ्रांस में जैनसेनिज्म(Jansenism), इंग्लैण्ड में अतिनैतिकतावाद (Puritanism)
के आन्दोलन से धर्म में नियम निष्ठता व नियमित
विनय (Formalism) बढ़ रहा था, धर्म की कठोरता आडम्बर की उत्पत्ति का कारण बन
रही थी।
लुई चतुर्दश का यह शासनकाल योरोप में फ्रान्स
की श्रेष्ठता का काल था, साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, प्रायः सभी क्षेत्रों में फ्रांस दूसरों हेतु
आदर्श स्वरुप हो रहा था चर्च सर्वेसर्वा था।
विचार और कार्य के क्षेत्र में उसकी ध्वनि अन्तिम थी। इस निरंकुशता ने धनिक
वर्ग को मदमस्त किया व साधारण जन वर्ग इस मस्ती का शिकार बना यथा साधारण लोगों को
आलू की तरह भून देना, 164 अपराध होने पर मृत्यु दण्ड (इंग्लैण्ड),
कल्पित नास्तिकों पर अत्याचार आदि के परिणाम
स्वरुप विरोध की ध्वनि का गुञ्जन हुआ।
यह मुख्यतः दो तरीकों से हुआ –
(a) – बुद्धि द्वारा विचारों के प्रसार की परिणति
प्रकृति वाद में हुई, जिसे बुद्धि द्वारा विरोध या प्रबोध (Enlightenment) कहते हैं। प्रबोध की लहर प्रकृतिवाद के उद्भव
का कारण बनी, इस लहर को फैलाने का श्रेय फ्रांस व जर्मनी के
दार्शनिकों, स्वतन्त्र विचारकों व आध्यात्मिक लेखकों को है
इंग्लैण्ड में लॉक को प्रबोध का प्रतिनिधि कहा जाता है कई विद्वान बौद्धिक शक्ति
की प्रथम लहर का प्रतिनिधि वाल्टेयर व उत्तर काल की लहर का प्रतिनिधि रूसो को स्वीकारते हैं।रूसो के
व्यापक प्रभाव को स्वीकारते हुए ही कहा गया कि जो दूसरे सोच रहे थे उसे वाल्टेयर
ने कहा परन्तु जो दूसरे अनुभव कर रहे थे उसे रूसो ने कहा।
(b) – जनवर्ग द्वारा अधिकार प्राप्ति के संघर्ष की
परिणति फ्रांस की राज्य क्रान्ति के रूप में हुई और प्रकृतिवाद को आधार मिला।
इस प्रकार राजनीति,
धर्म व विचार के क्षेत्र की निरंकुशता का
परिणाम प्रकृति वाद के रूप में अस्तित्व में आया अब धर्म का आधार चर्च नहीं बल्कि
मानव स्वभाव नया आदर्श बना।
प्रकृति
वाद की परिभाषा –
प्रकृति वाद की परिभाषा देते हुए W.E. Hocking ने कहा –
“Naturalism
is the type of metaphysics which takes nature as the whole of reality. That is
it excludes whatever is supernatural or otherworldly.”
“प्रकृतिवाद तत्त्वमीमांसा का वह रूप है जो
प्रकृति को पूर्ण वास्तविकता मानता है अर्थात यह परा प्राकृतिक या दूसरे जगत को
अपने क्षेत्र के बाहर रखता है।”
जबकि
James Ward महोदय का मानना है कि –
“Naturalism
is the doctrine which separates nature from God, subordinates spirit to the
matter, and sets up unchangeable laws as supreme.”
“प्रकृतिवाद वह सिद्धान्त है जो प्रकृति को
ईश्वर से अलग करता है आत्मा को पदार्थ के अधीन करता है तथा अपरिवर्तनीय नियमों को
सर्वोच्च मानता है।”
Thomas
and Lang महोदय कहते हैं –
“Naturalism
as opposed to Idealism subordinates mind to matter and holds that ultimate
reality is material not spiritual.”
प्रकृतिवाद
आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधीन मानता है और विश्वास करता है कि अन्तिम
वास्तविकता भौतिक है आध्यात्मिक नहीं।”
Joyse महोदय का मानना है
“Naturalism
is a system whose silent characteristics is the exclusion of whatever is
spiritual or indeed whatever is transcendental of experience from our
philosophy of nature and man.”
“प्रकृतिवाद वह तन्त्र है जिसकी प्रमुख विशेषता
आध्यात्मिकता को अस्वीकार करना है अथवा प्रकृति एवम् मनुष्य के दार्शनिक चिन्तन
में उन बातों को स्थान देना है जो हमारे अनुभवों से परे नहीं हैं।’’
प्रकृतिवाद
के प्रकार–
तत्त्व ज्ञान की दृष्टि प्रकृतिवाद को इस प्रकार विभाजित
किया जा सकता है –
(A) – वैज्ञानिक प्रकृतिवाद
–
इसमें भौतिक विज्ञान आधारित प्रकृतिवाद(आकस्मिकता
सिद्धान्त ) व जीव विज्ञान आधारित प्रकृतिवाद (डार्विन का विकास वाद )आते हैं।
(B) – यन्त्र वाद
प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएं (Characteristics
of Naturalistic Education) –
(1) – पूर्ण स्वतन्त्रता (Full
Freedom)
(2) – बालक केन्द्रित शिक्षा (Child Centered Education)
(3) – प्रगतिशीलता (Progressiveness)
(4) – किताबी ज्ञान का विरोध (Abolition
of Bookish Knowledge)
(5) – निषेधात्मक शिक्षा (Negative
Education)
Rousseau महोदय इसके समर्थन में कहते हैं –
“The first education ought to be purely negative.
It consists not all in teaching virtue or truth but in shielding the heart from
vice and the mind from the error.”
“बालक की प्रथम शिक्षा विशुद्ध रूप से निषेधात्मक
होनी चाहिए इसमें सत्य और सद्गुण की शिक्षा बिलकुल सम्मिलित न होकर बालक के हृदय
को अवगुण से तथा मन को त्रुटि से बचाना निहित है।”
(6) – प्राकृतिक पद्धतियों का अनुसरण (Follow
of Natural Process)
प्रकृतिवाद के मूल सिद्धान्त
Fundamental Principles of Naturalism –
(1) – ब्रह्माण्ड एक प्राकृतिक रचना
(2) – भौतिक संसार सत्य, इससे परे कोई
आध्यात्मिक संसार नहीं
(3) – आत्मा पदार्थजन्य चेतन तत्व
(4) – सर्वश्रेष्ठ सांसारिक कृति मानव
(5) – मानव विकास एक प्राकृतिक क्रिया
(6) – मानव जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना
(7) – सुखपूर्वक जीने हेतु प्राकृतिक जीवन
उत्तम
(8) – प्राकृतिक जीवन में सामर्थ्य, समायोजन और परिस्थिति
पर नियन्त्रण आवश्यक
(9) – राज्य केवल व्यावहारिक सत्ता
प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य (The
Aims of Education According to Naturalism)-
(1) – प्रकृति का अनुसरण – रूसो की प्रसिद्ध कृति
‘एमील’ के अंग्रेजी अनुवाद
में विलियम पैने अपने अनुवादकीय प्राक्कथन में लिखते हैं –
“Simplify your methods as much as possible,
distrust the artificial aids that complicate the process of learning, bring
your people face to face with reality connect symbol with substance, make
learning as for as possible process of personal discovery, depend as little as
possible on mere authority. This is my interpretation of Rousseau’s follow
nature.”
“अपनी पद्धतियों को यथा
सम्भव सरल बनाओ, शिक्षण प्रक्रिया को
जटिल बनाने वाले कृत्रिम साधनों में विश्वास न करो। अपने शिष्य को यथार्थ का सामना
करने दो। प्रतीक को पदार्थ से संयुक्त करो यथा सम्भव सीखने की क्रिया को
स्वानुसन्धान की प्रक्रिया बनाओ। केवल शब्द प्रमाण पर बहुत कम निर्भर रहो, मैं रूसो की उक्ति –
प्रकृति का अनुसरण करो – का यही तात्पर्य समझता हूँ।”
(2 – मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण एवम् शोधन
(3) – जीवन संघर्ष की सामर्थ्य का विकास
(4)- पर्यावरण से अनुकूलन
(5) – प्राकृतिक जीवन जीने योग्य बनाना
(6)- पूर्ण सामाजिक जीवन की तैयारी
(7)- व्यक्ति की वैयक्तिकता का विकास
(8)- जातीय गुणों का विकास व संरक्षण
(9)- अवकाश का सदुपयोग
(10) – आत्म रक्षा
प्रकृतिवाद
और बालक (Naturalism
And Child)-
बालक
जन्म के समय विकार रहित, निश्छल, निष्कपट, वर्ग, समुदाय, रीति रिवाज, रूढ़ियों
व सामाजिक विकृतियों से मुक्त होता है जबकि मनुष्य इसके विपरीत स्वभाव का होने के
कारण सुन्दर की जगह असुन्दर अच्छाई के स्थान पर बुराई प्रत्यारोपित करता है ऐसे
दूषित समाज के सम्पर्क में आकर बालक भी स्वाभाविक रूप से विकृत हो जाएगा।
प्रकृतिवादी बालकों की शिक्षा व्यवस्था उनकी रूचि, क्षमता और स्वाभाविक विकास को ध्यान में रखकर देना चाहते हैं।
प्रकृतिवाद
और अध्यापक (Naturalism and Teacher)-
प्रकृतिवादी
बाल केन्द्रित शिक्षा व स्वतन्त्रता पर अधिक बल देते हैं और इस हेतु अध्यापक को
वातावरण सृजित करने वाला मानते हैं वे अध्यापक में वैयक्तिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, मानवीय व प्रकृति प्रेम के गुणों को आवश्यक
मानते हैं। जिससे वे बालकों की योग्यताओं और अभिरुचियों को जान सकें उनके प्रति
समता स्नेह और सहानुभूति के भावों को प्रदर्शित कर सकेंऔर बच्चे उनसे भयभीत न हों।
बच्चों को प्रकृति के सानिध्य में लाकर ऐन्द्रिक विकास करने हेतु रूसो ने
अध्यापकों का आवाहन करते हुए कहा –
“All
wickedness comes from weakness, A child is bad because he is weak make him
strong and he will be good.”
“सारे
दोष कमजोरी से आते हैं बालक कमजोर है इसलिए बुरा है उसे बलिष्ठ बनाओ और वह अच्छा
हो जाएगा।”
प्रकृतिवाद
और शिक्षण विधि (Naturalism and Methods of Teaching )-
ये
बाल मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षण विधि को समर्थन देते हुए निम्न शिक्षण विधियों का
समर्थन करते हैं –
बाल
केन्द्रित शिक्षण विधि
क्रिया
प्रधान शिक्षण विधि
रूचि
आधारित शिक्षण विधि
भावना
आधारित शिक्षण विधि
भ्रमण
द्वारा शिक्षण
मुक्तयात्मक
शिक्षण विधि
प्रकृतिवाद
और अनुशासन (Naturalism and Discipline )-
प्रकृतिवादी
अध्यापक द्वारा किसी भी प्रकार दण्ड देने के खिलाफ थे उनका मानना था की प्रकृति
स्वयं दण्ड देगी। ये मुक्तयात्मक अनुशासन चाहते थे और प्राकृतिक दण्ड व्यवस्था के
कायल थे।
प्रकृतिवाद
और पाठ्यक्रम (Naturalism and Curriculum) –
इन्होंने
शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भौतिक विज्ञान पर अधिक व साहित्य, कला, सङ्गीत
पर उससे कम, धर्म शास्त्र
व नीति शास्त्र पर कोई ध्यान नहीं दिया।
रूसो
ने सैद्धान्तिक ज्ञान का विरोध किया, खेल
कूद, तैराकी, घुड़सवारी
व हस्त कार्यों को महत्त्व प्रदान किया व नारियों हेतु गृह कार्य को उचित
बताया।
हर्बर्ट
स्पेंसर महोदय ने क्रिया आधारित पाठ्यक्रम का सुझाव दिया। जो इस प्रकार है –
प्रकृतिवाद का मूल्यांकन(Estimate of Naturalism) –
मूल्यांकन
हेतु गुण दोषों का विवेचन आवश्यक है इसलिए पहले गुण उसके बाद कमियों पर विचार
करेंगे।
गुण
(Merits) –
प्रकृतिवाद
ने शिक्षा के क्षेत्र को दिशा दी जिससे प्रभावित होकर पॉल मुनरो महोदय कहते हैं –
“Naturalism
has given impetus to the clear formation of the psychological, Sociological and
Scientific conception of Education.”
“प्रकृतिवाद ने शिक्षा की मनोवैज्ञानिक
समाजशास्त्रीय तथा वैज्ञानिक धारणा के स्पष्ट निर्माण में प्रत्यक्ष प्रेरणा दी
है।”
प्रेरणा
के इस प्रभाव को निम्न गुणों में समावेशित देखा जा सकता है –
1 – बाल केन्द्रित शिक्षा का उद्भव
2 – पूर्ण स्वतन्त्रता
3 – दमन का विरोध
4 – बालक अनेक शक्तियों का केन्द्र
5 – प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों को समर्थन
6 – पाठ्यचर्या निर्माण में रूचि, स्वतन्त्रता, स्वक्रिया व विकास पर बल
7 – डॉल्टन, माण्टेसरी, किण्डर गार्टन व प्रोजेक्ट पद्धति का
विकास
8 – व्यवहार वाद की उत्पत्ति का कारक
9 – समाज शास्त्र के वैज्ञानिक अध्ययन को बढ़ावा
10 – बाल मनोविज्ञान का शिक्षा में प्रयोग
11 – प्राकृतिक वातावरण में विद्यालय
दोष
(Demerits)-
1 – स्वतन्त्रता पर आवश्यकता से अधिक बल
2 – प्राकृतिक अनुशासन न्याय आधारित नहीं
3 – भविष्य की उपेक्षा (वर्तमान पर बल)
4 – आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा
5 – पाठ्य क्रम के महत्त्व में कमी ( बालक पाठ्य
क्रम का आधार )
6 – अध्यापक को गौण स्थान
7 – आदर्श विहीनता की स्थिति का जन्म (स्वमूल्यांकन
भ्रामक)
8 – उपयोगितावाद को अधिक प्रश्रय (कार्य-परिणाम
आकलन)
9 – उच्च शैक्षिक उद्देश्यों का अभाव (लक्ष्य
आधारित योजना का अभाव )
10 – पुस्तकों की अवहेलना उचित नहीं (सभ्यता
संस्कृति संरक्षित )
11 – वैयक्तिकता को बढ़ावा (समाज विरोधी)
12 – प्रकृतिवादी शिक्षा की अभावात्मक परिकल्पना
भ्रामक
ममानवतावाद का उद्भव एक विशेष प्रकार की मानव स्थिति की अनुभूति पर
निर्भर है तथा वह अनुभूति इस मानवीय संवेदना की है जिससे आधुनिक काल का मानव घिरा
है, विज्ञान एवम् टैक्नोलॉजी की प्रगति से युक्त मानसिकता, विज्ञान
की मानकीकरण की विकृति, विश्व युद्ध की विभीषिकाओं की स्पष्ट अनुभूति, मानव के संत्रास,
कुण्ठा,
निराशा,
चिंता,
अकेलापन
व नीरसता की स्पष्ट अनुभूति – इसकी पृष्ठभूमि में मानवतावादी दृष्टि सर्जित होती
है प्रोटागोरस (Protagoras) ने 480 से 490 ईसा पूर्व कहा-
“मानव सभी बातों का माप दण्ड है जो है वह वास्तविक है और जो नहीं है
वह वास्तविक नहीं है।”
“Man is the measure of all things; of what is, that it is,
of what is not, that it is not.”
मानवतावाद का आशय उस वाद से है जिसमें मनुष्य के अस्तित्व को स्वीकार
किया गया है इसमें मानव ही सबकुछ है वह किसी का प्रतीक मात्र नहीं है उसकी
वैयक्तिकता पहचानी जा सकती है।
डॉ 0 राधाकृष्णन ने ऑक्सफ़ोर्ड में अपने एक भाषण में कहा था –
“Man has become the philosopher of man. A new humanism
is on the horizon. But this time it embraces the whole of mankind.”
– Dr. Radha Krishanan
“मनुष्य मनुष्य का दार्शनिक हो गया है। एक नया मानवतावाद क्षितिज पर
उदीयमान है किन्तु इस बार वह सम्पूर्ण मानवता को अपने में समेटे हुए है।”
मानवतावाद सम्बन्धी विचारधारा अनेक पाश्चात्य व भारतीय दार्शनिकों के
चिन्तन का विषय रही है डॉ राधा कृष्णन, जाकिर हुसैन, जवाहर लाल नेहरू,
विवेकानन्द,
रबीन्द्र
नाथ टैगोर सभी इसका समर्थन करते दीखते हैं यह दर्शन मानवता को दर्शाता है।
मानवतावादी दर्शन वह दर्शन है जो मनुष्य को सर्वोपरि मानता है उनके
अनुसार मनुष्य ही इस संसार का केन्द्र बिंदु है वह अपने भाग्य का निर्माण खुद करता
है।
ब्रह्मवादियों तथा निरपेक्ष वादियों के अनुसार –
“ब्रह्म कोई अतिरिक्त या पारलौकिक सत्ता नहीं है यह मनुष्य के स्वरुप
का ही एक आयाम है।”
वर्तमान में मानव पहचान की जो बेचैनी है उसके बीज इतिहास के अकुलाहट
युक्त पृष्ठों के बीच छिपे हैं इतिहास भी समस्त सृजन में मानव की भूमिका को नज़र
अन्दाज करने के पक्ष में नहीं है मैस्लो(Maslow) महोदय कहते हैं
–
“Humanism is a word which is used by writers in many
different senses, One of these implies that man makes up the entire framework
of human thought, that there is no God, no super human reality to which he can
be related or can relate himself.”
“मानवतावाद एक ऐसा शब्द है जो विभिन्न लेखकों द्वारा विभिन्न अर्थों
में प्रयुक्त किया गया है इनमें से एक में यह अर्थ निहित है कि मनुष्य मानव विचार
की समस्त पृष्ठ भूमि है, ईश्वर नहीं है, कोई अति मानवीय
वास्तविकता नहीं है जिससे मनुष्य को जोड़ा जा सके।”
वैज्ञानिक
मानवतावाद (Scientific
Humanism )-
वैज्ञानिक मानवता वाद जीवन के प्रति मानव केन्द्रित दृष्टिकोण है,
वैज्ञानिक
मानवतावाद सृष्टि के प्रति उसके दृष्टिकोण एवम् जीवन के लक्षण तथा मान्यताओं,
सत्य
के स्वरुप आदि के सम्बन्ध में विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है नेहरू जी ने
मानवतावाद एवम् वैज्ञानिक प्रवृत्ति के बीच के संश्लेषण को वैज्ञानिक मानवतावाद का
दर्जा दिया था।
वैज्ञानिक मानवतावादी सृष्टि को भ्रम न मानकर सत्य व विभिन्न
सम्भावनाओं से युक्त मानते हैं वैज्ञानिक मानवतावाद एक ऐसा दृष्टिकोण है जो केवल
वैज्ञानिक या केवल मानवीय नहीं है वैज्ञानिक मानवतावाद जीवन के प्रति मानव
केन्द्रित दृष्टिकोण है इस सम्बन्ध में साबिरा जैदी कहती हैं-
“It affirms in a resounding voice the dignity and
value of man and asserts unequivocaly that human happiness is the highest goal
of all social reforms.”
“यह मनुष्य की गरिमा व मूल्य की ध्वनि को पुनः
गुंजरित करता है और मानता है कि सभी समाज सुधारकों के लिए मनुष्य का सुख ही
सर्वोच्च भद्र या शिव है।”
वैज्ञानिक
मानवतावाद की शैक्षिक मान्यताएं (Educational premises of Scientific Humanism)-
1 – शिक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
2 – सर्जनात्मकता
3 – उत्तर दायित्व निर्वहन व स्वतन्त्रता के उचित प्रयोग हेतु शिक्षा
महत्त्वपूर्ण
4 – व्यावहारिकता व व्यवसाय प्रयोजन आवश्यक
मीमांसा
आधारित संक्षिप्त विवेचन-
किसी भी दर्शन को अधिगमित करने हेतु मीमांसाओं की महती भूमिका है
मानवतावाद के वास्तविक अर्थ को समझने हेतु उसकी तत्त्व मीमांसा (Metaphysics),
ज्ञान
व तर्क मीमांसा (Epistemology and Logic),एवं आचार व मूल्य मीमांसा (Ethics and
Axiology) संक्षेप में
प्रस्तुत हैं –
तत्त्व
मीमांसा – ये प्रकृति को मूल तत्त्व मानते हैं और किसी अलौकिक सत्ता पर
विश्वास नहीं करते। भौतिक जगत को सत्य मानते हुए मनुष्य को प्रकृति की श्रेष्ठतम
रचना स्वीकार करते हैं।
ज्ञान
व तर्क मीमांसा – इनके अनुसार सच्चे ज्ञान श्रेणी में पदार्थजन्य जगत व उसकी समस्त
क्रियाएं आती हैं विवेक आधारित ज्ञान व
तर्क की कसौटी पर खरा सत्य ही ज्ञान की श्रेणी में आएगा।
आचार व मूल्य मीमांसा –
मानवतावादियों की बड़ी संख्या प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सुन्दरता,सामाजिक
समानता, न्याय आदि को आचरण में उतारने व मूल्य के रूप में स्वीकारने की बात करते हैं इनके अनुसार
सम्पूर्ण मानवता की भलाई सबसे बड़ा मूल्य है।
मानवतावाद
की प्रमुख विशेषताएं (Chief Characteristics Of Humanism)-
1 – यह संसार सत्य है भ्रम नहीं। यह निरन्तर विकास की असीम सम्भावनाओं से
युक्त है।
2 – मानव सेवा हेतु मानवता वाद का अभ्युदय हुआ है।
3 – मानव शक्तिशाली है व अपनी समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है।
4 – मानव एक सृजनात्मक जीव है।
5 – मानव असीम प्रगति उन्मुख सम्भावनाओं से युक्त है और अपने भाग्य का
निर्माता है।
6 – मानवतावाद का मानव शिवम् व सुन्दरम की धारणा से युक्त है।
7 – मानवतावाद मानव को सबसे गुणयुक्त स्वीकार करता है।
8 – यह संस्कृति का पुनः जागरण करना चाहता है तथा यह मानवीय संस्कृति के
पुनरुद्धार हेतु विश्व रंगमञ्च पर अवतरित हुआ है।
9 – यह वाद विकासोन्मुखता पर विश्वास करता है और मानव को इस हेतु
विवेकयुक्त प्राणी स्वीकार करता है।
10 – मानवतावाद मानवीय प्रकृति को लचीला, परिवर्तनशील व
सहयोगी मानता है।
मानवतावादी
शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Humanistic Education)-
1 – आत्म विश्वास जाग्रत करना
2 – समस्त अन्तर्निहित शक्तियों का विकास
3 – मानवता का अधिकतम कल्याण
4 – मानव को सुखी बनाना
5 – समालोचनात्मक रचनात्मकता का विकास
“The cultivation of constructive criticism and a
critical constructiveness should be one of the foremost aims of education,
according to scientific humanism.” –
Sabira K Zaidi : Education and Humanism
(Indian Institute of Advanced Studies, Shimla 1971 p.110)
6 – सशक्त चेतना का विकास
7 – समाज
का विशिष्ट अंग बनाने हेतु आत्मबोध जाग्रत करना
8 – मानसिक
स्वास्थ्य
9 – मानवीय
मूल्य व सद् विवेक जागरण
10 – आत्म
अनुशासन की भावना का विकास
“Education to be complete must be human, it must
include not only the training of intellect but the refinement of the heart and
discipline of the spirit.” – Dr. Radha Krishanan
“शिक्षा पूर्ण होने के लिए मानवीय होना चाहिए,
इसमें न केवल बुद्धि का प्रशिक्षण शामिल करना चाहिए वरन ह्रदय का
परिष्करण तथा आत्मा का अनुशासन भी।”
मानवतावाद
व पाठ्यक्रम (Humanism and Curriculum)-
मानवतावादी पाठ्यक्रम में हृदय, आत्मिक विकास और
मानवता पर विशेष ध्यान देना चाहते हैं इस सम्बन्ध में डॉ 0 राधा कृष्णन के
शब्द भी यही इशारा करते हैं। – “No education can be regarded as
complete if it neglects the heart and the spirit.”
“कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं समझी जा सकती यदि वह हृदय तथा आत्मा की
उपेक्षा करती है।”
मानवतावादी भाषा के विकास के साथ मानवोपयोगी विषयों से मानव को जोड़ना
चाहते हैं इसीलिये मानवतावादी उद्देश्यानुरूप निम्न विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल
करना चाहते हैं –
शिक्षा के उद्देश्य
—————————-
विषय
मानसिक विकास
—————————- कला,
तर्क
शास्त्र, विज्ञान, गणित
शारीरिक विकास
—————————- व्यायाम, योग, शिल्प, क्रियात्मक शिक्षा
आध्यात्मिक विकास —————————- दर्शन, मूल्य शिक्षा, नीतिशास्त्र,
धर्म
शास्त्र
सामाजिक विकास
————————– इतिहास, साहित्य,
संस्कृति,
समाज
विज्ञान, दार्शनिक व शिक्षा शास्त्रियों की जीवनी
उक्त के अतिरिक्त मानवतावादी हर उस विषयवस्तु का समर्थन करते हैं जो
मानवतावादी विचार के प्रसार में आवश्यक हो।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –
ये जीवन से सम्बन्धित व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर
सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते हुए अधिगम कराना चाहते हैं इसीलिये तर्क विधि, प्रश्नोत्तर
विधि, समस्या
समाधान विधि, वाद
विवाद विधि पर विशेष जोर देते हैं ये उच्च मानवीय संवेदना को समेटे हुए इन्द्रिय
अनुभूत ज्ञान को भी विवेक और तर्क की कसौटी पर परखने के बाद आत्मसाती करण की
प्रेरणा देते हैं।
मानवतावाद
व शिक्षक (Humanism
and Teacher)-
मानवतावादी चाहते हैं की शिक्षण कार्य उन लोगों को मिले जो मानवीय
दृष्टिकोण पर बल देने वाले हों जैसा कि ब्रुबेकर (Brubacher) महोदय
कहते हैं –
“Humanism emphasises human nature and the human point
of view.”
“मानवतावाद मानव स्वभाव एवम् मानवीय दृष्टिकोण पर बल देता है।”
मानवतावादी शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अध्यापक
क्रान्तिकारी मानवतावादी हो एवम् निम्न गुणों से युक्त हो –
1 – शिक्षक, शिक्षण जैसे महान दायित्व बोध में सक्षम हो।
2 – अपने क्षेत्र का विद्वान् हो।
3 – मानसिक, आध्यात्मिक, शारीरिक, आन्तरिक आदि
विविध शक्तियों के सम्यक विकास हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन के योग्य
हो।
4 – मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समझ कर विकास का पथ प्रशस्त करने वाला
हो।
5 – सकारात्मक विकास व प्रेरणा देने में सक्षम हो।
मानवतावाद
व शिक्षार्थी (Humanism and Student)-
ये शिक्षार्थियों की स्वतन्त्रता व व्यक्तित्व का आदर करते हैं तथा शिक्षक व शिक्षार्थी के बीच शासक व शासित
जैसे सम्बन्धों के घोर विरोधी हैं। मानवतावादी प्रेम व सहयोग आधारित सम्बन्धों की
उम्मीद रखकर अध्यापकों से मानवतावादी दृष्टिकोण की अपेक्षा करते हैं और चाहते हैं
कि वे अपने बालकों को भय द्वन्द व तनाव से दूर रखें। इससे विद्यार्थियों में
मानवीय गुणों का विकास किया जा सकेगा।
शिक्षा
के अन्य विविध पक्ष –
1 – जन शिक्षा
2 – स्त्री शिक्षा
3 – व्यावसायिक शिक्षा
4 – धार्मिक शिक्षा
5 – यथार्थ शिक्षा
मूल्यांकन
(Evaluation)-
मानवतावाद
शिक्षा द्वारा मानव को मानवता का पाठ पढ़ाकर श्रेष्ठ नागरिक बनाना चाहता है यह
सम्पूर्ण मानवता को एक मानकर मनुष्य को विश्व का मूलभूत बिन्दु व केन्द्र मानता है यह धर्म,
जाति, राज्य, समाज किसी का भी विरोधी नहीं है यह मात्र मानव
मानव को अलग करने वाली संकीर्णताओं का विरोध करता है यह विध्वंसक आयुधों को उचित
नहीं समझता जिसने मानव मात्र के समक्ष अस्तित्व का खतरा पैदा कर दिया है।
ये
तर्क को ज्ञान का आधार मानते हैं इनके पाठ्यक्रम,शिक्षक, शिक्षार्थी,शिक्षण विधि विद्यालय आदि के विचारों का मूल
मन्तव्य मूल्य आधारित मानवीय गन्तव्य निर्धारित करना है। व्यक्तिगत भिन्नता,
जन शिक्षा, सामान शिक्षा,मूल्य आधारित शिक्षा,तर्क शक्ति उन्नयन,सृजनात्मकता उन्नयन सम्बन्धी विचार स्वागत
योग्य हैं लेकिन धर्म की जगह धार्मिक संकीर्णताओं से दूर रहने की प्रेरणा दी जानी
चाहिए।
Encyclopidia Britannica में मानवतावाद को सही पारिभाषित किया गया –
“Humanism is the attitude of mind which attaches
primary importance to mean and to his faculties, affairs, temporal aspirations
and well being,
“मानवता वाद मनुष्य के मस्तिष्क की वह अभिवृत्ति है जो मनुष्य को और
उसके विभिन्न पक्षों, कार्यों, इच्छाओ और
उसके हित को सर्वाधिक महत्त्व देती है।”
इन्होने
स्वार्थी और संकीर्ण मानसिकता को दिशा देने का भरपूर प्रयास किया लेकिन सार्थक
परिणाम आज भी दूर की कौड़ी जान पड़ते हैं मानवीय विकास के विभिन्न आयामों को समेटने
के बावजूद इनकी शिक्षा दर्शन को देन अप्रभावी
है इसे सच्चे धार्मिक दर्शन के आधारिक अवलम्ब की आवश्यकता है।
बोलचाल
की भाषा में सामान्यतः मनोवैज्ञानिक परीक्षण व्यक्ति के व्यावहारिक अध्ययन का वह
साधन है जो उसके प्रति निर्णय लेने एवम् उसे समझने में सहायक होता है इसके द्वारा
व्यक्ति की विभिन्न योग्यताओं का मापन तथा उसके व्यक्तित्व व चरित्र का अध्ययन भी
सम्भव होता है। मनोवैज्ञानिक परीक्षण के आशय को स्पष्ट
करते
हुए फ्रीमैन (Freeman) ने कहा →
“A
psychological test is a standardized instrument designed to measure objectively
one or more aspects of a total personality by means of other behavior.”
“मनोवैज्ञानिक
परीक्षण वह मानकीकृत यंत्र है जो समस्त व्यक्तित्व के एक पक्ष या अधिक पहलुओं का
मापन शाब्दिक या अशाब्दिक अनुक्रियाओं या अन्य किसी प्रकार के व्यवहार के माध्यम
से करता है।”
मनोवैज्ञानिक
शब्दकोष (Dictionary of
Psychological terms) के
अनुसार →
“मनोवैज्ञानिक
परीक्षण मानकीकृत एवम् नियन्त्रित स्थितियों का वह विन्यास(set) है जो व्यक्ति से अनुक्रिया प्राप्त करने हेतु
उसके सम्मुख पेश किया जाता है। जिससे वह पर्यावरण की माँगों के अनुकूल
प्रतिनिधित्व व्यवहार का चयन कर सके।”
एनस्तेसी
(Anastasi) महोदय कहते हैं →
“A psychological test is essentially an objective and
standardized measure of sample behavior.”
“मनोवैज्ञानिक परीक्षण आवश्यक रूप से व्यवहार के
प्रतिदर्श का एक वस्तुनिष्ठ एवम् मानकीकृत मापन है।”
मन (munn)
महोदय का विचार है →
“Test is an examination to reveal the relative
standing of an individual in the group with respect to intelligence,
personality, attitude or achievement.”
“परीक्षण वह परीक्षा है जो किसी समूह से सम्बन्धित व्यक्ति की बुद्धि,
व्यक्तित्व, अभिक्षमता एवम उपलब्धि को व्यक्त करती है।”
टाइलर
(Tyler) महोदय के अनुसार →
“A test can be defined as a standardized situation
designed to elicit a sample of an individual behavior.”
“परीक्षण वह मानकीकृत परिस्थिति है जिससे
व्यक्ति का प्रतिदर्श व्यवहार निर्धारित होता है।”
उक्त
परिभाषाओं के आलोक में कहा जा सकता है कि मनोवैज्ञानिक परीक्षण वह वस्तुनिष्ठ एवम्
मानकीकृत साधन है जिसके द्वारा सम्पूर्ण व्यवहार के विभिन्न मनोवैज्ञानिक पहलुओं
जैसे योग्यताओं, क्षमताओं, उपलब्धियों, रुचियों एवम् व्यक्तित्व विशेषताओं
का परिमाणात्मक एवम् गुणात्मक अध्ययन होता है। यह
व्यक्ति को समझने एवम समूह में उसकी तुलना करने में भी सहायक होता है।
मनोवैज्ञानिक
परीक्षण की आवश्यकता क्यों ? →
कालचक्र
अविरल गति से चलता हुआ जहाँ मानव विकास के विविध सोपान रच रहा था वहीं वैयक्तिक भिन्नताओं
के जटिल स्वरुप का महत्त्व भी स्थापित होने लगा उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में
जैसे जैसे गाल्टन, कैटिल, आदि
प्रवृत्ति मनोवैज्ञानिकों का ध्यान वैयक्तिक भिन्नताओं के स्वरुप इनकी उत्पत्ति
एवं विभिन्न समस्याओं के अध्ययन की और अग्रसर हुआ। वैयक्तिक विभिन्नताओं के उद्गम
से ही मनोवैज्ञानिक परीक्षण की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। व्यक्तियों के मानसिक
स्तर व्यक्तित्व के गुणों,
योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों, उपलब्धियों, एवं जीवन के विविध पहलुओं में असमानताएं झलकने
लगीं फलस्वरूप समायोजन की समस्या का स्वरुप विकृत होने लगा.इन विभिन्नताओं के जटिल
स्वरुप को समझने व नैदानिक उपाय पर विचार करने हेतु मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की
आवश्यकता की महत्ता स्थापित हो गयी।
परीक्षण
व प्रयोग में अन्तर →
1 -मनोवैज्ञानिक परीक्षण में व्यक्ति के सम्बन्ध
में जानकारी प्राप्त कर व्यावहारिक पक्ष का अध्ययन किया जाता है जबकि प्रयोग में प्रतिक्रियाओं का अध्ययन ही
सम्भव होता है।
2 – बुद्धि, रूचि, अभिक्षमता, उपलब्धि, आदि मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अध्ययन मनोवैज्ञानिक
परीक्षण के द्वारा होता है जबकि प्रयोग में स्वतंत्र चर के घटाने एवम् बढ़ाने के प्रभाव
का अध्ययन करते हैं।
3 – वैधता, विश्वसनीयता
आदि मानकों का स्थापन मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का निर्माण करते समय किया जाता है
जबकि प्रयोगों में योजना का स्वरुप ही बदल जाता है इसमें उद्दीपकों व जीव
परिवर्तियों को ही नियन्त्रित किया जाता है।
4 – परीक्षणों की तुलना में प्रयोगों का क्षेत्र
व्यापक होता है परीक्षण उन्हीं लोगों के लिए उपयुक्त होता है जिनपर उनका मानकीकरण
होता है।
5 – मनोवैज्ञानिक परीक्षणों में भाषा का प्रयोग
होने से यह केवल भाषा का ज्ञान रखने वालों के लिए ही उपयुक्त है जबकि मनोवैज्ञानिक
प्रयोग प्रत्येक परिस्थिति में क्रियान्वित किये जाने योग्य हैं।
परीक्षण
एवम् मापन में अन्तर →
1 – परीक्षण का क्षेत्र संकुचित होता है जबकि मापन का प्रयोग व्यापक रूप
से किया जाता है।
2 – परीक्षण का प्रयोग स्वयं उपकरण के रूप में किया जाता है जबकि मापन
में मानसिक एवम् भौतिक दोनों प्रकार के उपकरणों की आवश्यकता होती है।
3 – परीक्षण का सम्बन्ध अधिकतर मानसिक एवम् मनोवैज्ञानिक गुणों से होता
है जबकि मापन में मुख्यतः भौतिक गुणों का अध्ययन करते हैं।
4 – परीक्षण में विभिन्न प्रकार के पद सम्मिलित होते हैं जिन्हें
मानकीकृत करके उपयोग में लाते हैं। मापन में वस्तुओं की संख्यात्मक विवेचना एक निश्चित
नियमानुसार होती है।
मनोवैज्ञानिक
परीक्षण के उद्देश्य →
(1) – वर्गीकरण एवं चयन
(2) – पूर्व कथन
(3) – मार्ग निर्देशन
(4) – तुलना करना
(5) – निदान
(6) – शोध
मनोवैज्ञानिक
परीक्षणों का उपयोग
(a) ↦ वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन
(b) ↦ समूहों का अध्ययन
(c) ↦ शैक्षिक उपयोग
(d) ↦ उद्योग एवं व्यवसाय में उपयोग
(e) ↦ सेना में उपयोग
(f) ↦ नैदानिक उपयोग
(g) ↦ शोध कार्यों में उपयोग
(h) ↦ व्यावहारिक जीवन में उपयोग
परीक्षण
लिखने की विधि (संकेत)
परीक्षण
क्रमाङ्क
परीक्षण
का नाम
प्रस्तावना
परीक्षण
का विवरण
परीक्षण
का उद्देश्य
सामग्री
परीक्षण
के समय ध्यान रखने योग्य सावधानियाँ
प्रयोज्य
विवरण
परीक्षण
का प्रशासन
अन्तः
दर्शन विवरण
निरीक्षण
कार्य
फलांकन
(प्राप्तांक विश्लेषण व परिणाम)
परिणाम
की व्याख्या व सुझाव
➤विस्तार से विवेचना संलग्न वीडियो में कर दी गई
है।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म कलकत्ता के बंगाली कायस्थ परिवार में 12
जनवरी
1863 को हुआ ये कलकत्ता के उच्चन्यायालय में वकील पिता श्री विश्वनाथ दत्त व माता श्रीमति
भुवनेश्वर देवी की सन्तान थे। इनके बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था धार्मिक
प्रवृत्ति इन्हें विरासत में मिली थी। इनके प्रधानाचार्य मिस्टर हैस्टी ने इनके
बारे में कहा –
”नरेन्द्र नाथ दत्त वस्तुतः प्रतिभाशाली है।
मैंने विश्व के अनेक देशों की यात्राएं की हैं, किन्तु
किशोरावस्था में ही इसके सामान योग्य एवम् महान क्षमताओं वाला युवक मुझे जर्मन
विश्व विद्यालयों में भी नहीं मिला।”
इस बालक ने 7 वर्ष की आयु में पूरा व्याकरण रट डाला,
16 वर्ष
की आयु में इन्होने मेट्रोपोलिटन कॉलेज से मेट्रिकुलेशन (हाई स्कूल ) की परीक्षा
प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की अपने भाई भूपेन्द्र नाथ दत्त की तुलना में इन्होंने
पाठ्य सहगामी क्रियाओं खेलकूद,व्यायाम, संगीत, नाटक
आदि में बढ़ चढ़ कर भाग लिया बाद में ये
प्रेसीडेन्सी कॉलेज व जनरल असेम्बली कॉलेज में पढ़े। कॉलेज के विषयों के साथ धर्म,
दर्शन,
साहित्य
का भी अध्ययन किया 1884 में स्नातक होने से पहले स्वामी राम कृष्ण परमहंस से मुलाकात हुई और
इनका जीवन बदल गया। दिव्य शक्तियों की अनुभूति इन्हें गुरुकृपा से हुई। गुरु परमहँस
जी के दिवंगत होने पर इन्होंने उनकी शिक्षाओं का प्रसार किया।
31 मई 1893 को वे विश्व धर्म सम्मलेन में भाग लेने अमेरिका गए। जाने से पूर्व ही
आप विवेकानन्द नाम से पहचाने जाने लगे थे।
अमेरिका में हुए इनके अत्यन्त प्रभावशाली सारगर्भित वक्तव्य का सम्पूर्ण विश्व के
लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। वेदान्त के प्रसार हेतु इन्होने इंग्लैण्ड की यात्रा की
भारत आने पर सम्पूर्ण जीवन भारत को जाग्रत करने, संगठन व प्रचार
कार्य में लगा दिया। 39 वर्ष की अलप आयु में 4 जुलाई 1902 को वेल्लूर मठ
में मेधा के धनी इस विलक्षण व्यक्तित्व ने अन्तिम श्वांस ली।
जीवन दर्शन [Philosophy of Life]-
स्वामी विवेका नन्द ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के ज्ञान दिव्यालोक
से स्वयं को संयुक्त कर किसी भी सङ्कीर्णता को वरण नहीं किया उनका जीवन दर्शन
वेदान्त से अनुप्राणित है वे ईश्वर से मानव को युक्त समझते थे उन्होंने एक
व्याख्यान में कहा –
”जब हम दर्शन का अध्ययन हैं, तब
हमें यह ज्ञात होता है की सम्पूर्ण विश्व एक है आध्यात्मिक, भौतिक,
मानसिक तथा प्राणजगत ये
भिन्न भिन्न नहीं है। समस्त यहां से वहां तक एक है, इतनी ही है की अलग अलग दृष्टिकोण से देखे जाने
के कारण वह विभिन्न प्रतीत होता है।”
वर्तमान परिप्रेक्ष्य
में इनका जीवन दर्शन दुरूह पथ पर चलने व समसामयिक झंझावातों से निवृत्त होने के
लिए गौरवपूर्ण व प्रेरणास्पद मार्ग है इनके जीवन दर्शन को संक्षेप में इस प्रकार
वर्णित किया जा सकता है। –
01 – वे सृष्टि का कर्त्ता
ब्रह्मा को मानते थे और विश्व को परमात्मा का व्यक्त रूप स्वीकारते थे।
02 – उनहोंने माया और जगत
को भी सत्य माना और कहा कि भला सत्य से असत्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है।
03 – विवेकानन्द जी सबसे
बड़ा धर्म मानव मात्र की सेवा को मानते थे।
04 – योग,भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग को आत्मसात करते हुए उनकी स्वीकारोक्ति रही योग ज्ञान हेतु
सर्वोपरि है।
05 – ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म इन चारों से आत्मानुभूति होती है जो मुक्ति हेतु परमावश्यक है।
06 – इन्द्रिय निग्रह तथा
संयम, नैतिक विकास व ध्यान
हेतु आवश्यक कारक हैं।
07 – वे ज्ञान के दो रूप, वस्तु जगत व आत्म तत्व को स्वीकारते हैं
मानव को दोनों प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
08 – वे मानव मात्र को वीर
व निर्भय बनाना चाहते हैं उन्होंने कहा –
”वीर बनो, हमेशा कहो, मैं निर्भय हूँ, सबसे कहो – डरो मत, भय मृत्यु है, भय पाप
है, भय नर्क है, भय अधार्मिकता
है, तथा भय का जीवन में कोइ स्थान नहीं है।”
”Be a
hero, always say ‘I have no fear.’ Tell this to everybody -‘have no fear.’ To
him fear is death, fear is sin, fear is hell, fear is unrighteousness and fear
is wrong life.”
09 – इन्होंने प्रगति हेतु
निरंतर संघर्ष का आवाहन किया ।
10 – इनके अनुसार इस जीवन
का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति, ईश्वर प्राप्ति अथवा मुक्ति है।
शिक्षा दर्शन [Educational Philosophy]-
[1]- शिक्षा मात्र सूचना नहीं – ये मात्र सूचनाओं के संग्रहण को शिक्षा नहीं स्वीकारते, रटने की शक्ति को अनुचित ज्ञान स्वीकारते हुए ये कहते हैं –
”यदि तुम केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात कर उनके
अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो, तो एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा
अधिक शिक्षित हो। यदि शिक्षा का अर्थ जानकारी होता, तब तो पुस्तकालय संसार के सबसे बड़े सन्त हो जाते और
विश्वकोष महान ऋषि बन जाते।”
[2] – तत्कालीन शिक्षा
व्यवस्था से असहमति-
ये तत्कालीन मैकाले शिक्षा पद्धति के विरोधी
थे जिसका उद्देश्य मात्र बाबुओं की संख्या वृद्धि था।
[3] – जीवन संघर्ष व
चारित्रिक शिक्षा पर बल –
इन्होंने इन तत्वों की महत्ता स्वीकारते हुए
और शिक्षा पर प्रश्न चिन्ह टाँगते हुए कहा –
”………..It prepares a man for social service,
develops his character and finally imbues him with the spirit and courage of a
lion. Any other education is worse than useless.”
” …… जो शिक्षा जन साधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती, जो चरित्र निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं कर सकती
तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ है।”
[4] –आत्म निर्भरता –
ये चाहते थे की पढ़लिखकर अन्य गुण सीखने के साथ लोग आत्म निर्भर बनें, इसीलिये इन्होने कहा –
” हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने
पैरों पर खड़ा हो सकता है।”
[5]- व्यावहारिकता पर बल –
विवेकानन्द जी सैद्धांतिक की जगह व्यावहारिक
बनाने को शिक्षा का दायित्व मानते थे उन्होंने कहा –
” तुमको कार्य के हर क्षेत्र में व्यावहारिक बनाना पड़ेगा। सिद्धान्तों के
ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।”
”You will have to be practical in all spheres of
work. The whole country has been ruined by maas of theories.”
[6] – ज्ञान बालक में निहित –
ये कहते हैं की बालक के मार्ग की बाधाओं के
हटाने से ज्ञान का सामान्यतः प्रगटीकरण हो जाएगा वे कहते हैं –
”हमें बालकों के लिए
इतना ही करना है की वे अपने हाथ, पैर, कान और आँखों के उचित उपयोग के लिए अपनी बुद्धि का
प्रयोग करना सीखें।”
शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त (Basic Principles of Educational Philosophy)-
माँ भारती का अमर पुत्र अपने पूर्वजों की
थाती सँभाल, अतीत के ज्ञान का
ज्योति कलश ले साधना के दुरूह पथ पर बढ़ा तो अनायास ही शिक्षा जगत को महान शिक्षा शास्त्री विवेकानन्द मिल गया उनके
शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्तों को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
[1]- शिक्षा को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास का महत्त्वपूर्ण कारक बनना
चाहिए।
[2] – शिक्षा से मन का बल और
चरित्र का सौम्य सुगठन होना चाहिए।
[3] – शिक्षा द्वारा बौद्धिक
विकास और आत्मनिर्भर बनाने में योग दिया जाना चाहिए।
[4] – व्यवहार, आचरण व संस्कारों से धार्मिक शिक्षा दी जाए
पुस्तकों से नहीं।
[5] – बिना भेदभाव के सामान
शिक्षा बालक व बालिकाओं को दी जाए।
[6] – लौकिक व आध्यात्मिक
विषयों के सम्मिलन से पाठ्यक्रम सृजित किया जाए।
[7] – मन, वचन, कर्म की शुद्धि से आत्म नियन्त्रण शिक्षा द्वारा सिखाया
जाना चाहिए।
[8] – शिक्षक व शिक्षार्थी
में गरिमायुक्त श्रद्धा आधारित सम्बन्ध होने चाहिए।
[9] – नारी शिक्षा धर्म
केन्द्रित हो।
[10] – तकनीकी व औद्योगिक शिक्षा के आधार से देश का समुचित विकास किया
जाए।
[11] – जन साधारण की
शिक्षा व्यवस्था का सार्थक प्रयास होना चाहिए।
[12] – पुस्तक अध्ययन मात्र, शिक्षा नहीं कहा
जा सकता।
[13] – ज्ञान अन्तर में निहित है शिक्षा द्वारा
वातावरण सृजित होना चाहिए।
[14] – शिक्षक द्वारा
बालक के मस्तिष्क में स्थित ज्ञान का पथ प्रदर्शन, मित्र व
दार्शनिक के रूप में किया जाना चाहिए।
[15] – परिवार द्वारा
राष्ट्रीय व मानवीय शिक्षा दी जानी चाहिए।
स्वामी विवेकानन्द का शैक्षिक चिन्तन (Educational Thought of
Swami Vivekanand )-
शिक्षा से आशय –
भारतवर्ष का मेरुदण्ड धर्म है इस आधार पर मानवजाति का प्रासाद खड़ा है
इसके उत्तरोत्तर उन्नयन हेतु मनुष्य में निहित शक्तियों के पूर्ण विकास की
आवश्यकता है जिसे शिक्षा पूर्ण कर सकती है इसी लिए इन्होंने कहा –
”शिक्षा उस सन्निहित पूर्णता का प्रकाश है जो
मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है। “
”Education is the manifestation of the perfection,
already present in man.”
शिक्षा के उद्देश्य (Aims
of Education) –
स्वामीजी भौतिक एवम् आध्यात्मिक सत्ता पर विश्वास करते थे ये भारत
में ऐसा धर्म चाहते थे जो कमजोरी न पैदा करे उनका मानना था की इस विश्व में ‘नायमात्मा
बलहीनेन लक्ष्यः’ ( The weak does not get anything in this world) अर्थात
कमजोर को कुछ प्राप्त नहीं होता। उन्होंने शिक्षा के जिन उद्देश्यों पर बल दिया
उसे इस प्रकार क्रमबद्ध कर सकते हैं –
(1) – शारीरिक विकास [Physical Development]
(2) – पूर्णत्व प्राप्ति [Reaching Perfection]
(3) – मानसिक व बौद्धिक विकास [Mental and Intellectual
Development]
(4) – नैतिक व चारित्रिक विकास [Moral and Character Development]
(5) – व्यावसायिक विकास [Vocational
Development]
(6) – धार्मिक विकास [Religious Development]
(7) – विभिन्नता में एकता [Unity with in Diversity]
(8) – आत्म विश्वास की भावना का विकास [Development of feeling Self
Confidence]
”उठो
जागो और उस समय तक बढ़ते रहो जब तककि चरम उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाए। ”
”Arise,
awake and stop not till the goal is achieved”
(9) – राष्ट्रीयता का विकास [Development of Nationalism]
”जो
शिक्षा देशभक्ति की प्रेरणा नहीं देती वह राष्ट्रीय शिक्षा नहीं कही जा
सकती।”
”No
education can be called national unless it inspires love for the country.”
पाठ्यक्रम(Curriculum)-
स्वामी विवेकानन्द ने सांसारिक समृद्धि हेतु विज्ञान, मनोविज्ञान,गृहविज्ञान,
भाषा,
प्राविधिक विषय, व्यावसायिक विषय, इतिहास, भूगोल,
कला,
गणित,
राजनीति
शास्त्र, अर्थशास्त्र, खेलकूद, व्यायाम,
समाज
सेवा, राष्ट्रसेवा और आध्यात्मिक प्रगति हेतु दर्शन, पुराण, धर्म,
उपदेश,
भजन,
कीर्तन,
श्रवण
तथा साधू सङ्गति को शामिल किया। उनके शब्दों में –
”हमें अपने ज्ञान के विभिन्न अंगों के साथ
अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान का अध्ययन करने की आवश्यकता है। हमें
प्राविधिक शिक्षा और उन सब विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है, जिनसे
हमारे देश के उद्योगों का विकास हो और मनुष्य नौकरियां खोजने के बजाय अपने स्वयं
के लिए पर्याप्त धन का अर्जन कर सकें और दुर्दिन के लिए कुछ बचा भी सकें।”
शिक्षण विधि (Methods of Teaching) –
उनकी शिक्षण विधियों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1-आध्यात्मिक
उन्नयन हेतु
⧫स्वाध्याय विधि
⧫ध्यान विधि
⧫योग विधि
⧫मनन विधि
2-भौतिक
प्रगति हेतु
⧫व्याख्यान विधि
⧫अनुकरण विधि
⧫निर्देशन व परामर्श विधि
⧫तर्क व विचार विमर्श विधि
⧫प्रदर्शन व प्रयोग विधि
शिक्षण विधियों
के सम्बन्ध में प्रो 0 लक्ष्मीनारायण गुप्त कहते हैं –
”शिक्षा की विधि में स्वामी विवेकानन्द का अपना
एक विशिष्ट स्थान है। उनकी शिक्षा विधि एक मात्र आध्यात्मिक कही जा सकती है,
जिसका आधार धर्म है। इस विचार से उन्होंने धर्म की विशेष पद्धति को
अपनाकर शिक्षा देने के लिए कहा।”
अनुशासन (Discipline)-
स्वामीजी के विचार अनुशासन के सम्बन्ध में प्रकृतिवादियों से मेल
खाते हैं ये भी बालक को आत्म अनुशासन सिखाना चाहते हैं और उन्हें दिए जाने वाले
किसी भी शारीरिक दण्ड का विरोध करते हैं। ये चाहते हैं कि बालक को पर्याप्त
स्वतन्त्रता देने के साथ स्व अनुशासन की शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें सीखने हेतु
सहानुभूति पूर्वक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
अध्यापक (Teacher)-
स्वामीजी प्रेरक के रूप में अध्यापक को स्थान देते हैं उन्होंने कहा
–
”वास्तव में, किसी को,
किसी के द्वारा कभी शिक्षा नहीं दी गई है। हममें से प्रत्येक को
अपने-आपको शिक्षा देनी पड़ती है। वाह्य शिक्षक केवल ऐसे सुझाव देता है जिससे आत्मा
कार्य करने और समझने के लिए चैतन्य हो जाती है।”
वे अध्यापक से अपेक्षा करते हैं कि –
1 – अध्यापक परिश्रमी, संयमी, आत्मज्ञानी तथा आदर्श चारित्रिक गुणों से युक्त
होना चाहिए जिससे बालक अनुकरण द्वारा आदर्श व्यक्ति बन सकें।
2 – ये बालक को आध्यात्मिक व लौकिक जीवन हेतु तैयार करना चाहते हैं इसी
लिए अध्यापक को दोनों ज्ञान से युक्त होना चाहिए।
3 – ज्ञान प्राप्ति को अवरुद्ध करने वाली हर बाधा को दूर कर पाने में
समर्थ ही अध्यापक बनना चाहिए।
4 – अध्यापक को संसार के प्रति सम्यक दृष्टिकोण स्थापित करने में समर्थ
होना चाहिए।
5 – अधिगम कराने में व्यक्तिगत भिन्नता का ध्यान रखा जाना चाहिए।
6 – अधिगम प्रभावशीलता में वृद्धि हेतु बालक से घनिष्ठ, व्यक्तिगत,
स्नेह
युक्त सम्बन्ध बनाना चाहिए।
7 – अध्यापक बालक को इस प्रकार के अवसर प्रदान करे जिससे अधिगम हेतु अधिक
से अधिक इन्द्रिय का प्रयोग करना पड़े।
8 – बालक को ज्ञान युक्त करने की क्रिया में अध्यापक अपने को साधन समझे
और दायित्व निर्वहन करे।
शिक्षार्थी (Student) –
शिक्षक और शिक्षार्थी का सम्बन्ध केवल लौकिक नहीं होना चाहिए बल्कि
उन्हें एक दूसरे के दिव्य स्वरुप को देखना चाहिए।सीखने की प्रबल इच्छा व जिज्ञासा
हेतु ब्रह्मचर्य एक विशिष्ट कारक है
बालकों को ब्रह्मचर्य व ऐसी श्रद्धा से युक्त होना चाहिए अतीत और वर्तमान के संयोजन से सुफल प्राप्ति
संयोग बन सके।इस गुण का सफल प्रतिनिधि मानते हुए जवाहर लाल नेहरू ने स्वामीजी के
लिए कहा –
”Rooted in the past and full of pride in India’s
prestige, Vivekanand was yet modern in his approach to life’s problems and was
a kind of bridge between the past of India and her present.”
”मानव के अतीत में अडिग आस्था रखते हुए और भारत
की विरासत पर गर्व करते हुए भी, विवेकानन्द का जीवन की समस्याओं के प्रति
आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के संयोजक
थे।”
इसीलिए वे बालक को आधुनिक
दृष्टिकोण वाला संस्कृति का वाहक बनाना चाहते थे।
शिक्षालय (School)
स्वामीजी विद्यालय हेतु सर्वथा उपयुक्त स्थल गुरु गृह को मानते थे वे
इस तथ्य को स्वीकार करते वर्तमान परिस्थिति में प्रकृति की गोद या कोलाहल से दूर
का वातावरण मिलना दूभर है इसीलिए विद्यालय में अध्ययन, अध्यापन,
व्यायाम,
खेलकूद,
भजन,
कीर्तन,
ध्यान
आदि की सुविधा होनी चाहिए।
जन शिक्षा (Mass Education)
वे जनसाधारण की शिक्षा परमावश्यक मानते थे उनके भाव उनके इस विचार
में दृष्टिगत होते हैं –
”मेरे विचार से जनसाधारण की अवहेलना करना महान
राष्ट्रीय पाप और हमारे पतन का कारण है। जबतक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर
अच्छी शिक्षा, अच्छा भोजन और अच्छी सुरक्षा नहीं प्रदान की जाएगी, तब
तक अधिक से अधिक राजनीति भी व्यर्थ होगी। वे हमारी शिक्षा के लिए धन देते हैं,
वे हमारे मन्दिरों का निर्माण करते हैं, पर
इनके बदले में उन्हें मिलता क्या है मात्र ठोकरें। वे हमारे दासों के समान हैं।
यदि हम भारत का पुनरुत्थान करना चाहते हैं, तो हमें उनको
शिक्षित करना होगा।”
महिला शिक्षा (Women’s Education)
वे समाज में स्त्रियों की दीन हीन दशा से बहुत खिन्न थे वे उन्हें
परम आदर का पात्र बनाना चाहते थे और मानते थे कि नारी की प्रगति उचित शिक्षा के
बिना सम्भव नहीं और देश की प्रगति नारी उत्थान के बिना सम्भव नहीं। इसीलिये
उन्होंने कहा –
”पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब
वे आपको बताएंगी की उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं ? उनके
मामलों में बोलने वाले तुम कौन हो ?”
शिक्षा दर्शन का मूल्याङ्कन (Estimate of Educational
Philosophy)-
स्वामी विवेकानन्द के अद्भुत विलक्षण व्यक्तित्व की क्रान्तिकारी
उदात्त प्रवृत्ति में प्राचीन और आधुनिक भारतीयता के समन्वय का प्रगटन है दूसरी और
ज्ञान, कर्म,भक्ति का अद्भुत समन्वय है इनके शिक्षा दर्शन में हमें अद्भुत
सामन्जस्य दृष्टिगत होता है कर्म की श्रेष्ठता व संयम के आधार युक्त स्पष्टीकरण
उन्हें सहज भारतीय उत्कृष्ट चिन्तक के रूप में स्थापित करता है उन्होंने कहा –
”आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो
परम शान्ति और निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म का, तथा प्रबल
कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शान्ति एवम् निस्तब्धता का अनुभव करते हैं।
उन्होंने संयम का रहस्य जान लिया है -अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके हैं।”
इनका जन्म एक समृद्ध, सुसंस्कृत तथा प्रतिष्ठित परिवार में 6 मई 1861
को
कलकत्ता में हुआ इनके पिताश्री देवेन्द्र नाथ टैगोर विद्वान, धर्मनिष्ठ,
कलाप्रेमी,
समाज
सेवक, राष्ट्रभक्त व सज्जन प्रकृति के थे। सादा जीवन और उच्च विचार परिवार
की पहचान थी। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा ‘ओरिएन्टल सेमेनरी स्कूल’ में हुई। यहाँ
पढ़ाई में मन न लगने के कारण इन्हें हटा लिया गया और नार्मल स्कूल में प्रवेश
दिलाया गया जिसमें ये ब्रिटिश कालीन शिक्षा व्यवस्था के सम्पर्क में आये और इन्हें
कई कटु अनुभव हुए जिससे शिक्षा में सुधार का भाव इनके मानस में जाग्रत हुआ।
विद्यालय ये नाम
मात्र को गए समृद्ध पिता ने अध्ययन की सम्पूर्ण व्यवस्था घर पर ही कर दी, इन्हें घर पर
बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, संगीत व
चित्रकला आदि की अच्छी शिक्षा प्राप्त हुई पृथक विषय के अध्ययनार्थ पृथक अध्यापक
की व्यवस्था की गयी। 1878
में उच्च शिक्षार्थ ये इंग्लैण्ड गए रूचि अनुसार व्यवस्था न हो पाने
के कारण 1880 में
वापस स्वदेश लौट आये। 1881
में कानून की शिक्षा प्राप्त करने हेतु ये पुनः इंग्लैण्ड गए लेकिन
विचार परिवर्तन के कारण पुनः भारत लौट आये। सन 1901 में इन्होने शान्ति निकेतन की स्थापना बोलपुर
के निकट की, जो
आज विश्व भारती विश्वविद्यालय के नाम से विश्व विख्यात है।
1910 में इनका
महत्त्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ ‘गीताञ्जलि’ प्रकाशित हुआ
जिसके द्वारा किसी भारतीय को प्रथम बार नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसकी सम्पूर्ण
राशि इन्होने शान्ति निकेतन को भेंट कर दी। 1915 में इन्हे डी० लिट्० की मानक उपाधि कलकत्ता विश्व विद्यालय ने
प्रदान की। तत्कालीन भारत सरकार ने इन्हे ‘नाइट हुड’
(सर) की उपाधि सम्मानार्थ दी।
इस उपाधि को इन्होने अंग्रेजों की कुटिल नीतियों के विरोध में त्याग दिया और इन्हे
गाँधीजी द्वारा ‘गुरुदेव’ की उपाधि से
नवाजा गया। गुरुदेव ने देश को गौरवान्वित करते हुए जीवन पर्यन्त कार्य किया। 7 अगस्त 1941 को गुरुदेव ने
महाप्रयाण किया
और इस प्रकार परम यशस्वी साहित्य कार, संगीतकार,कला
और शिक्षा का सूर्य अस्ताचल गामी हो गया।
जीवन दर्शन(PHILOSOPHY
OF LIFE)-
रबीन्द्र नाथ टैगोर के जीवन दर्शन पर इनके सुसंस्कृत परिवार की
धार्मिकता का गहन प्रभाव पारिलक्षित होता है सादा जीवन और उच्च विचार की पृष्ठभूमि
में गठित इनके जीवन दर्शन को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं। –
1 – ईश्वर की निराकार और साकार दोनों सत्ताओं में विश्वास।
2 – अद्वैत वादी।
3 – सर्वोच्च मानव (Supreme Man ) के रूप में
ईश्वर की स्वीकारोक्ति।
4 – सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् जैसे आध्यात्मिक मूल्यों को समर्थन।
5 – ईश्वर की अभिव्यक्ति ही है सृष्टि।
6 – मानव मानव में समानता के पोषक।
7 – उच्चकोटि के दार्शनिक व समाज सुधारक।
8 – प्रखर राष्ट्रवादी।
9 – आत्मिकबल के उत्कर्ष हेतु सम्मान व स्वतन्त्रता के पोषक।
10 – छुआ छूत व निर्धनता पर कुठाराघात।
11 – प्रकृति और मानव की एकता पर बल।
12 – उच्च कोटि के मानवतावादी।
शिक्षा दर्शन और इसके आधारभूत सिद्धान्त (Educational
Philosophy and its Basic Principles)-
टैगोर ने शिक्षा को एक ऐसे साधन के रूप में
स्वीकार किया जो मानव मात्र को उत्थित करके उसमें परस्पर प्रेम, मेल,
सद्भावना,
विश्व
बन्धुत्व की भावना का विकास कर सके। वे बालकों को राष्ट्रीयता, अन्तर्राष्ट्रीयता,
वास्तविक
जीवन से परिचय कराते हुए विस्तृत दृष्टिकोण से युक्त करना चाहते थे। प्रकृति और
मानव के अटूट प्रेम पूर्ण रिश्ते बनें व सामाजिक सम्बन्धों का ताना बाना मजबूत हो।
सुनील चन्द सरकार ने ठीक ही लिखा है –
”He discovered for himself
all the theories and principles of education which he was later to formulate
for himself and use in his Shantiniketan experiment.”
”उन्होंने शिक्षा
के उन सभी सिद्धान्तों की खोज स्वयं ही की, जिनका प्रतिपादन
उन्हें आगे चलकर अपने लिए ही करना था तथा जिन्हें शांतिनिकेतन व्यावहारिक रूप देना
था।”
इनके
दर्शन, शिक्षा सम्बन्धी विचारों, व्यवहारों व पाश्चात्य ज्ञान के घालमेल में
इनके शिक्षा दर्शन के निम्न आधारभूत सिद्धान्त सहज दृष्टिगत होते हैं-
01 – भारत की आत्मा को आधुनिक भारत की आत्मा में
प्रतिस्थापित करने का हर सम्भव प्रयास होना चाहिए।
02 – सजीव व गतिशील होना शिक्षा की प्रमुख विशेषता
होनी चाहिए।
03 – शिक्षा का सामुदायिक जीवन से अटूट सम्बन्ध होना
चाहिए उन्होंने लिखा भी है –
”Next to
nature the child should be brought into touch with the stream of social
behaviour.”
”प्रकृति
के पश्चात बालक को सामाजिक व्यवहार की धारा के सम्पर्क में लाना चाहिए।”
04 – मातृ भाषा ही बालक की शिक्षा का माध्यम होना
चाहिए।
05 – रहस्यवाद को यथार्थ पर अवलम्बित होना चाहिए।
06 – प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा की व्यवस्था की
जानी चाहिए।
07 – स्वशासन व सामाजिक साहचर्य की भावना विकसित की
जानी चाहिए।
08 – सङ्गीत, चित्रकला,
अभिनय,
स्वाभाविक स्वछन्दता का विकास किया जाना चाहिए।
09 – मानवता वाद का पोषण जीवन के हर स्तर पर होना
चाहिए।
10 – भारतीय सांस्कृतिक विरासत आधारित सामाजिक
व्यवहार सिखाया जाना चाहिए।
11 – भारत के मौलिक चिन्तन व विशुद्ध भारतीयता से
परिचय अवश्य कराया जाना चाहिए।
12 – व्यक्तित्व का सामन्जस्य पूर्ण सर्वांगीण विकास
बालक की जन्मजात शक्तियों के आधार पर किया जाना चाहिए।
13 – सामाजिक मूल्यों व भारतीय दर्शन को शैक्षिक
पाठ्य क्रम में लिया जाना चाहिए।
14 – पाठ्यक्रम अवलम्बित ज्ञान हेतु बालक को बाध्य न
किया जाए बल्कि प्रत्यक्ष स्रोतों ज्ञान प्राप्ति के अवसर प्रदान किये जाएँ।
15 – सृजनात्मक शक्तियों के विकास हेतु आत्म
अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान किये जाएँ।
16 – प्राथमिक पाठशालाओं को आवश्यकतानुसार विकसित
किया जाए।
17- विश्व नागरिकता के भाव का पोषण किया जाए।
शिक्षा के
उद्देश्य (Aim of Education )-
रबीन्द्र नाथ टैगोर शिक्षा का सर्वोच्च
उद्देश्य समरसता के भाव के उन्नयन को मानते हैं उन्होंने कहा भी है –
”The highest education is
that which makes our life in harmony with all existence.”
”सर्वोच्च शिक्षा
वह है जो हमारे जीवन और समस्त सृष्टि के बीच समरसता स्थापित करती है।”
गुरुदेव के मनोभावों को इनके द्वारा प्रदत्त
शैक्षिक उद्देश्यों से समझ सकते हैं जिन्हे बिन्दुवार इस प्रकार क्रम दे सकते हैं।–
[1]- शारीरिक विकास [Physical
Development]
[2]- आध्यात्मिक एवम् नैतिक विकास [Spiritual and Moral Development]
[3]- बौद्धिक विकास [Intellectual
Development]
[4]- सामाजिक विकास [Social
Development]
[5]- व्यावसायिक विकास [Vocational
Development]
[6]- सांस्कृतिक विकास [Cultural
Development]
[7]- राष्ट्रीयता का विकास [Development
of Nationalism]
[8]- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास [Development of International Attitude]
उक्त उद्देश्यों की
प्राप्ति में यह बताना प्रासंगिक होगा कि उक्त का आधार केवल पुस्तकें नहीं हो
सकतीं बल्कि जानने की इच्छा अधिक महत्त्व पूर्ण है इसीलिये उन्होंने कहा –
”In comparison with book learning, knowing the
real living directly is true education. It not only promotes the acquiring of
some knowledge but develops the curiosity and faculty of knowing and learning
so powerfully that no class room teaching can match it.”
”पुस्तकों की अपेक्षा
प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्ति को जानने का प्रयास करना ही सच्ची शिक्षा है। इससे
कुछ ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता अपितु जानने की शक्ति का इतना विकास हो जाता है।
जितना कक्षा में दिए जाने वाले व्याख्यानों द्वारा होना असम्भव है।”
पाठ्यक्रम [Curriculum]-
इन्होने प्राकृतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास को महत्ता प्रदान की है अपनी भाषा के साथ
विश्वबन्धुत्व हेतु क्रिया प्रधान पाठ्यचर्या पर जोर दिया पूर्ण मानव बनाने के लिए
बालक के विकास हेतु व्यापक पाठ्यक्रम को समर्थन प्रदान किया हालांकि कोई
निश्चित योजना प्रदान नहीं की। इनके द्वारा
समर्थित विषय व तत्सम्बन्धी क्रियाऐं इस प्रकार हैं –
विषय – मातृ भाषा, इतिहास, भूगोल, संस्कृत, अंग्रेजी, साहित्य, विज्ञान, प्रकृति अध्ययन आदि।
आवश्यक क्रियाएं – कृषि, बागवानी, भ्रमण, नाटक, क्षेत्रीय अध्ययन, प्रायोगिक कार्य, कला, विविध वस्तु संग्रह, मौलिक रचना आदि।
शिक्षण विधियाँ [Methods of Teaching ]-टैगोर महोदय ने कृत्रिमता के आगोश से उद्भवित नीरस तथा बालकों को निष्क्रिय करने वाली शिक्षण पद्धतियों का विरोध किया एवम् शिक्षण को प्रभावशाली बनाने हेतु निम्न विधियों का समर्थन किया –
[1]- भ्रमण के समय पढ़ाना। (Teaching while Walking)
[2]- प्रश्नोत्तर विधि। (Question
Answer Method)
[3]- वादविवाद विधि। (Discussion
Method)
[4]- मातृ भाषा द्वारा शिक्षण। (Teaching
by Mother Tongue)
[5]- क्रिया द्वारा शिक्षण। (Teaching
through Activity)
[6]- खेल द्वारा शिक्षण। (Teaching
through Play)
[7]- प्रयोग विधि द्वारा शिक्षण। (Teaching
through Experiment)
[8]- विश्लेषण व संश्लेषण विधि। (Analytic
and Synthesis Method)
[9]- तर्क विधि। (Logical Method)
[10]- स्व अनुभव द्वारा शिक्षण। (Teaching
through Experience)
शिक्षक (Teacher)-
टैगोर को परम्परावादी कहा जाता है वे अध्यापक
को महत्त्व पूर्ण स्थान प्रदान करते हैं और कहते हैं कि –
”मनुष्य
केवल मनुष्य से ही सीख सकता है।“
इससे
यह तथ्य स्पष्ट है कि अधिगम के स्थान्तरण में अध्यापक की महत्ता को नकारा नहीं जा
सकता। वे अध्यापक के कार्य निर्धारण इस प्रकार करते हैं।
1 – बालक
को स्वानुभव से सीखने हेतु उचित वातावरण का निर्माण करना।
2 – सृजनात्मक
शक्ति का विकास करना।
3 – राष्ट्रीय
व अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध विकसित करना।
4 – शिक्षक
प्रशिक्षण की महत्ता समझ मानस में गरिमा पूर्ण स्थान देना।
5 – व्यक्तिगत
भिन्नता के आधार पर शिक्षण।
6 – स्वयं
के आचरण व नैतिक बोध द्वारा आदर्श स्थापित करना।
7 – सहानुभूति
व प्रेम पूर्ण व्यवहार।
8 – प्रकृति
और मानव के सह अस्तित्व का प्रकाशन।
अधिगमार्थी (Learner)
गुरुवर
बालक के व्यक्तित्व का आदर करते थे और उनसे ब्रह्मचर्य के नियमों का अनुपालन करने
की आशा करते थे ब्रह्मचर्य हेतु मन, वचन, कर्म शुद्धि व इन्द्रिय निग्रह पर विशेष बल देते थे। बालक को शुचिता, आज्ञा पालक, प्रकृति प्रेमी, सांसारिक व आध्यात्मिक ज्ञान पिपासु तथा जिज्ञासु होना चाहिए।
श्रद्धालुता , विनम्रता, दयालुता
व्यवहार में पारिलक्षित होनी चाहिए।
अनुशासन (Discipline)
प्रकृति
प्रेमी होने के साथ ये बालक की मूल प्रकृति से विशेष प्रेम करते थे और किसी भी
प्रकार की दण्ड व्यवस्था के विरोधी थे ये चाहते थे कि बालक पर अनुशासन थोपा न जाए
बल्कि स्वानुशासन की भावना का विकास किया जाए। अनुशासन व्यवस्थापन हेतु साहित्यिक,सांस्कृतिक व सामूहिक खेलों को प्रोत्हासित किया जाए।
टैगोर के शिक्षा
सम्बन्धी अन्य विचार (Other
Educational Views of Tagore)
1 – जन शिक्षा। (Mass Education)
2 – स्त्री शिक्षा। (women Education)
3 – धार्मिक शिक्षा। (Religious Education)
4 – व्यावसायिक शिक्षा। (Vocational Education)
5 – राष्ट्रीयता व अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास हेतु शिक्षा। (Education for National and International Development)
6 – शिक्षा में स्वतन्त्रता। (Freedom in Education)
उक्त आधार पर निर्विवाद रूप से यह माना जा सकता है कि शिक्षा शास्त्री के रूप में शिक्षा को यथोचित स्थान तक पहुँचने का मार्ग गुरुवर ने प्रशस्त किया।
शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षणविधि, शिक्षक, शिक्षार्थी, अनुशासन के सम्बन्ध में अमूल्य विचार देने के साथ व्यावसायिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा,जन शिक्षा व विश्व बन्धुत्व हेतु जो निर्देश दिए वे उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाते हैं.
इसीलिये एच० बी० मुखर्जी (H. B. Mukherjee) ने कहा –
”Tagore was the greatest prophet of educational renaissance in modern India. He waged a ceaseless battle to uphold the highest educational idea before the country, and conducted educational experiments at his own institutions, which made them living symbols of what an ideal should be.“
”टैगोर वर्तमान भारत के शैक्षिक पुनुरुत्थान के सबसे बड़े पैगम्बर थे। उन्होंने देश के सम्मुख शिक्षा के सर्वोच्च आदर्शों को स्थापित करने के लिए आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने अपनी शैक्षिक संस्थाओं में ऐसे शैक्षिक प्रयोग किए जिन्होंने उन्हें आदर्श का सजीव प्रतीक बना दिया।”
महात्मा गाँधी का नाम किसी परिचय का मुहताज नहीं है इनका पूरा नाम
मोहन दास करम चन्द्र गाँधी था और वास्तव में इनके कार्यों ने व्यवहार में परिणति
पाकर शैक्षिक जगत के कई विषयों में स्थान पाया अर्थ शास्त्र, राजनीति
शास्त्र, इतिहास, समाज शास्त्र, हिन्दी, दर्शन शास्त्र,
शिक्षाशास्त्र आदि विभिन्न विषयों में हम सब इनका अध्ययन करते
हैं।
गाँधीजी के व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रभावित होकर एम0 एस0
पटेल महोदय ने कहा –
” Gandhiji has
secured a unique place in the galaxy of the great teachers who have brought
fresh light in the field of education.”
”गाँधीजी ने उन महान शिक्षकों और उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में
स्थान प्राप्त किया है जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में नवज्योति दी
है।”
PHILOSOPHY OF
LIFE
जीवन दर्शन
आजाद भारत के प्रणेता महात्मा गाँधी का जीवन दर्शन जिन आधारों पर
अवलम्बित है उन्हें इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है। –
→ सृष्टि के सभी मानवों में आध्यात्मिक समानता है क्योंकि सृष्टि के
सभी मानव आत्माधारी हैं।
→ परमात्मा का अंश आत्मा है और परमात्मा सत्य है अतः आत्मा भी सत्य है।
→ मानव को ज्ञान प्राप्ति में भौतिकता व आध्यात्मिकता का यथायोग्य
सामन्जस्य करना चाहिए।
→ आत्मानुभूति मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है।
→ भक्ति आत्मानुभूति का पवित्र साधन है।
→ गाँधीजी के दर्शन का मूल आधार सत्य और अहिंसा हैं।
सत्य के बारे में इनका
मानना है की साधारणतः सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र समझा जाता है पर मैंने विशाल
अर्थ में सत्य का प्रयोग किया है। विचार में वाणी में और आचार में सत्य का होना ही
सत्य है।
गाँधीजी अपने दूसरे अमोघ शस्त्र अहिंसा के बारे में कहते हैं -”अहिंसा
बिना सत्य की खोज असम्भव है अहिंसा और सत्य ऐसे ओतप्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों
रूप ,उसमें किसे उल्टा कहें और किसे सीधा, फिर भी अहिंसा
को साधन और सत्य को साध्य मानना चाहिए। साधन
हाथ की बात है सत्य परमेश्वर है।”
→जीवन दर्शन के व्यावहारिक पक्ष में सत्याग्रह और निर्भयता दीख पड़ता
है।
गाँधीजी सत्याग्रह को सामाजिक व राजनीतिक बुराई से लड़ने की अचूक
प्राविधि मानते थे इसीलिए उन्होंने 8 अक्टूबर 1952 के यंग इंडिया
में लिखा –
”मैं अत्याचारी की तलवार की धार को पूरी तरह कुण्ठित करना चाहता हूँ
इसके विरोध में एक से अधिक तेज शस्त्र को रखकर नहीं,किन्तु उसकी इस
आशा को कि मैं उसका शारीरिक प्रतिरोध करूँगा,निराशा में
बदलकर। “
वे मानते थे कि जो निडर नहीं होगा वह सत्य और अहिंसा का अनुयायी हो
ही नहीं सकता भय कई प्रकार का हो सकता है शारीरिक आघात का भय, बीमारी
का भय,अधिकार या पद छिनने का भय। हमें सभी प्रकार के भय से मुक्त हो निर्भय
होना चाहिए।
→ गाँधीजी
के जीवन दर्शन में उनके सर्वोदय सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
EDUCATIONAL THOUGHT OF GANDHIJI
गाँधीजी के
शैक्षिक विचार
Or
GANDHIJI’S PHILOSOPHY OF
EDUCATION
गाँधीजी का शिक्षा
दर्शन
गाँधीजी कोई शिक्षाविद नहीं थे ये राजनैतिक पटल से उभरे व्यावहारिक
पक्ष का मूर्तिमान स्वरुप थे इन्होने स्वीकार किया –
”जो शिक्षा चित्त की शुद्धि न करे, निर्वाह
का साधन न बनाये तथा स्वतंत्र रहने का हौसला और सामर्थ्य न उपजाए,उस
शिक्षा में चाहे जितनी जानकारी का खजाना, तार्किक कुशलता
और भाषा पाण्डित्य मौजूद हो वह सच्ची शिक्षा नहीं। “
CONCEPT OF EDUCATION
शिक्षा का सम्प्रत्यय
गाँधीजी शिक्षा का दायरा विकसित कर इसमें
पढ़ने लिखने के साथ हाथ, मस्तिष्क और हृदय के
विकास को भी शामिल करना चाहते हैं। इसीलिये इन्होने कहा है कि –
”By education I mean an all round drawing out of the
best, in child and man-body,mind and spirit.”
”शिक्षा से मेरा
अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के उच्चतम विकास से है। “
ये केवल पढ़ना लिखना या साक्षरता को शिक्षा
की श्रेणी में नहीं रखते बल्कि स्पष्ट कहते हैं कि –
”Literacy
is not the end of education nor even the biginning. It is only one of the means
whereby men and women can be educated.”
”साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न प्रारम्भ। यह केवल
एक साधन है जिसके द्वारा पुरुष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है।”
Aims
of Education
शिक्षा के उद्देश्य
गाँधीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों के आधार पर उद्देश्यों को दो
भागों में बाँटकर अभिव्यक्त किया जा सकता है। यथा –
→Immediate
Aim of Education
शिक्षा के तात्कालिक
उद्देश्य
A –
शारीरिक विकास (Physical Development)-
गाँधीजी ने अपने जीवन के अनुभव के आधार पर आत्मिक विकास हेतु शारीरिक विकास को अवलम्ब के रूप में स्वीकार
किया।
B
— Intellectual and Mental Development
बौद्धिक व मानसिक विकास
गाँधीजी शारीरिक विकास के साथ बुद्धि एवं मानसिक विकास को आवश्यक
मानते थे सत्य व अहिंसा का आचरण सशक्त बौद्धिक व मानसिक स्थिति वाला व्यक्तित्व ही
कर सकता है।
C –
Individual and Social Development
वैयक्तिक तथा सामाजिक विकास
गाँधीजी समाज को पुष्ट करने हेतु उसकी प्रत्येक इकाई को सशक्त करने
के पक्षधर थे ये शासन द्वारा प्रदत्त साधनों को समाज केअन्तिम व्यक्ति तक पहुँचाना
व्यवस्था का धर्म समझते थे।मानव मानव में प्रेम के बढ़ने से सामाजिक समरसता का
विकास होगा जो अन्ततः विश्व बन्धुत्व की भावना को बलवती करेगा।
D –
Character Development
चारित्रिक विकास
गाँधीजी शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को चारित्रिक उत्कृष्टता प्रदान
करना चाहते थे इन्होने अपनी आत्म कथा में लिखा –
”मैंने सदैव हृदय की
संस्कृति अथवा चरित्रनिर्माण को प्रथम स्थान दिया है तथा चरित्र निर्माण को शिक्षा
का उचित आधार माना है
।
“
उत्तम चरित्र में ये सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य,
अस्तेय,
अपरिग्रह,
निर्भयता
आदि को शामिल करना चाहते थे इन्होने विद्यालय को चरित्र निर्माण की उद्योगशाला
मानते हुए लिखा। –
”The end of all knowledge must be the building up of character,
personal purity.”
”सभी ज्ञान का उद्देश्य उत्तम चरित्र का निर्माण व्यक्तिगत पवित्रता
होना चाहिए।”
E –
Spiritual and Cultural Development
आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक
विकास
वे गीता से बहुत प्रभावित थे इसलिए ज्ञान कर्म भक्ति तथा योग आदि
सद्गुणों का समर्थन करते थे और बालक के आध्यात्मिक पक्ष को प्रबल करना चाहते थे। सांस्कृतिक विकास के बारे में गाँधीजी का विचार था –
”मैं शिक्षा के
साहित्यिक पक्ष के स्थान पर सांस्कृतिक पक्ष को अधिक महत्त्व देता हूँ। संस्कृति
शिक्षा का आधार तथा विशेष अंग है। अतः मानव के प्रत्येक व्यवहार पर संस्कृति की छाप
होनी चाहिए। “
F –
Vocational Aim
जीविकोपार्जन का उद्देश्य –
गाँधीजी की बेसिक शिक्षा की अवधारणा बालक को किसी एक शिल्प में दक्ष
करने की थी ये स्पष्ट कहा करते थे –
”Education
ought to be a kind of insurance against unemployment.
”शिक्षा
को बेरोजगारी के विरुद्ध एक बीमा होना चाहिए।”
Ultimate
Aim of Education
शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य
यहाँ गाँधीजी के विचारों में आदर्शवादी दर्शन का प्रभाव पारिलक्षित
होता है ये ईश्वर प्राप्ति और आत्मानुभूति को सर्वोच्च वरीयता प्रदान करते हैं और
स्वीकार करते हैं कि शिक्षा के द्वारा अंतिम वास्तविकता से साक्षात्कार कराया जाना
चाहिए। आत्मानुभूति की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उद्देश्य निर्धारित करते हैं –
”Realization
of ultimate reality, a knowledge of God and self realization.”
”अन्तिम
वास्तविकता का अनुभव,
ईश्वर और आत्मानुभूति का ज्ञान। “
Curriculum
पाठ्यक्रम
गाँधीजी देश के नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाकर वर्गविहीन समाज को
स्थापित करना चाहते थे। इनके पाठ्यक्रम में सत्य, कल्याण व सौन्दर्यबोध जाग्रत करने वाले विषयों को स्थान मिला है
जिन्हे इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है।
1 – मातृ
भाषा
2 – विभिन्न
शिल्प यथा चर्म कार्य,
कताई,
बुनाई,
बागवानी,
कृषि,
काष्ठ कला,
मछली पालन,
मिट्टी का काम व क्षेत्र आधारित अन्य शिल्प।
3 – अंक
गणित, बीज
गणित, रेखा
गणित, नाप
तौल आदि।
4 – भौतिक
विज्ञान, रसायन
विज्ञान, जीव
विज्ञान, वनस्पति
विज्ञान,स्वास्थ्य
विज्ञान, शरीर
विज्ञान, गृह
विज्ञान, प्रकृति
ज्ञान, नक्षत्र
ज्ञान आदि।
5 – खेलकूद
व व्यायाम।
6 – कला
व संगीत।
7 – इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, अर्थ शास्त्र व
सामाजिक अध्ययन।
8 – नैतिक
शिक्षा व सामाजिक कार्य।
9 – हिन्दी
जहाँ यह मातृ भाषा नहीं है ।
Methods
of Teaching
शिक्षण विधि
गाँधीजी इस प्रकार की शिक्षण विधियों को प्रयोग करना चाहते थे जिसमें
शिक्षार्थी भी सक्रिय रहे वह प्रयोग कर्त्ता ,शोध कर्त्ता,
निरीक्षण
कर्त्ता के रूप में कार्य करे।
उन्होंने करके सीखना(Learning by doing), अनुभव द्वारा
सीखना (Learning by experience), सीखने की प्रक्रिया में समन्वयन (Correlation
in the process of learning), प्रशिक्षण द्वारा सीखना (Learning by training) आदि
पर जोर दिया।
Teacher
अध्यापक
गाँधीजी कहते थे कि जो शिक्षण कार्य को व्यवसाय न मानकर सेवा धर्म के
रूप में स्वीकार करता है वही अध्यापक बन सकता है वे चाहते थे कि सेवा भावी,सहिष्णु, सत्य का आचरण
करने वाले, धैर्यवान, ज्ञान पुञ्ज,साधन की
पवित्रता समझने वाले लोग इस पावन कार्य से जुड़ें।
Discipline
अनुशासन
गाँधीजी आत्म अनुशासन के पक्षधर थे ऊपर से थोपे जाने वाले अनुशासन
इन्हें स्वीकार्य नहीं था ये चाहते थे की अध्यापक अपने मर्यादित आचरण व अनुकरणीय
व्यवहार द्वारा विद्यार्थी में अनुशासन का समावेशन करे।
Student
विद्यार्थी
गाँधीजी बालकों के शारीरिक, मानसिक,
नैतिक,
बौद्धिक,
आध्यात्मिक उत्थान हेतु ब्रह्मचर्य पर बल देते थे। वे चाहते थे की
बालक संयमी, धैर्यवान,आत्म विश्वासी व
आध्यात्मिक बल से युक्त हों।
Other
aspects of Education
शिक्षा के अन्य पक्ष
गाँधीजी भारतीय जनमानस से घुले मिले विशिष्ट व्यक्तित्व थे, उन्हें भारतीय
सामाजिक संरचना का विशेष ज्ञान था इसीलिए वे शिक्षा से प्रत्येक वर्ग को बिना
विवाद के जोड़ना चाहते थे.समग्र को शिक्षा से जोड़ने के क्रम में उन्होंने निम्न
कारकों को भी स्थान प्रदान किया।
धर्म शिक्षा (Education
of Religion)
महिला शिक्षा(Women
Education)
जन शिक्षा(Mass
Education)
सह शिक्षा(Co
Education)
व्यावसायिक शिक्षा (Vocational
Education)
Evaluation
of Educational Thought of Mahatma Gandhi
महात्मा गाँधी के शैक्षिक विचारों का मूल्यांकन
गाँधीजी के विचार भारतीय
पृष्ठभूमि में भारत की आवश्यकता के अनुसार तत्कालीन परिस्तिथियों की उपज हैं और उस
समय के इनके विचार एक प्रयोग के रूप में भारत में धारित भी किये गए और आधिकांश को
विद्वतजनों का व जन समर्थन भी प्राप्त हुआ। बालकों की सक्रिय साझेदारी व बाल
केन्द्रित शिक्षण विधियाँ आज भी आवश्यक हैं प्रभावात्मक विधि द्वारा अनुशासन
स्थापन भी शिक्षा शास्त्रियों को स्वीकार्य हैं। आज की परिस्थितियों में भी लोग
शिक्षक में आदर्श तलाशते हैं भले ही वह बाजारवादी व्यवस्था का शिकार हो गया हो।
इन्होने जन शिक्षा,सह
शिक्षा, स्त्री
शिक्षा, प्रौढ़
शिक्षा आदि के विषय में जो अमूल्य विचार दिए उनके लिए देश उनका चिर ऋणी रहेगा।
अध्यापक, धर्म शिक्षा,बेसिक शिक्षा, आत्म निर्भर शिक्षण संस्थान आदि से जुड़े उनके विचार
कालातीत हुए से लगते हैं यद्यपि गाँधीजी के विचारों पर गीता दर्शन का प्रभाव
स्पष्ट पारिलक्षित होता है और यह प्रभाव कुछ पाश्चात्य दर्शनों से मेल खाता लगता
है एम0 एस0 पटेल महोदय कहते हैं-
“It is
naturalistic in its setting, Idealistic in its aim and pragmatic in its method
and programme of work. The real greatness of Gandhiji as educational
philosopher consists in the fact that the dominant tendencies of naturalism, idealism
and pragmatism are not seprate and independent in his philosophy, but they fuse
into a unity.”
“दार्शनिक के रूप में
गांधीजी की महानता इस बात में है की उनके शिक्षा दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद और प्रयोजनवाद की मुख्य
प्रवृत्तियां अलग और स्वतंत्र नहीं हैं वरन वे सब मिलजुलकर एक हो गयी हैं जिससे
ऐसे शिक्षा दर्शन का जन्म हुआ जो आज की आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त होगा, मानव आत्मा की सर्वोच्च आकांक्षाओं को
सन्तुष्ट करेगा।”
उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है की
शिक्षा जगत के निरभ्र आकाश में महात्मा गांधीजी एक जाज्वलयमान नक्षत्र के रूप में
युगों तक अपनी आभा से मानवता को आलोकित करते रहेंगे। उनके जैसे शिक्षाविद की
मौलिकता हमेशा संसार का इतिहास संजोकर रखेगा।