यहाँ एक बात पूर्ण रूप से स्पष्ट करना परम आवश्यक है कि यहाँ हम उस मीमांसा दर्शन की बात करने नहीं जा रहे हैं जो भारतीय दर्शनों में कर्मकाण्ड द्वारा उद्भवित दर्शनों में गिना जाता है। यहां केवल यह बताने का प्रयास है कि एम एड का विद्यार्थी विभिन्न दर्शनों की तत्त्व मीमांसा(Meta Physics), ज्ञान व तर्क मीमांसा(Epistemology and Logic), मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) कैसे करे। परीक्षा में पूछे गए प्रश्न में प्रदत्त दर्शन की उक्त मीमांसाएं कैसे लिखकर आए।
तत्त्व मीमांसा, ज्ञान व तर्क मीमांसा, मूल्य व आचार मीमांसा
(Meta Physics, Epistemology and Logic, Axiology and Ethics)
भारतीय दार्शनिक मुख्यतः उक्त मीमांसाओं के माध्यम से किसी भी दर्शन का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने की आशा उच्च शिक्षा के विद्यार्थी से करते हैं अतः यह जानना तर्क संगत होगा कि उक्त के तहत विविध दर्शनों की व्याख्या करते समय किन बातों का विशेषतः ध्यान रखा जाए। यहां हम एक एक करके इनके बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
1 – तत्त्व मीमांसा (Meta Physics) –
जब किसी भी दर्शन की तत्त्व मीमांसा करनी होती है है तो मुख्यतः ब्रह्माण्ड के वास्तविक स्वरुप व मानवीय जीवन की तात्त्विक विवेचना की जाती है मानव जीवन के मूल उद्देश्य व उनकी प्राप्ति के साधनों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है कोई भी शिक्षा दर्शन इसमें क्या भूमिका निर्वाहित कर सकता है, तय किया जाता है वास्तव में तत्त्व मीमांसा का क्षेत्र अत्याधिक व्यापक है इसमें सृष्टि के सम्बन्ध में तत्त्व ज्ञान अर्थात सृष्टि शास्त्र (Cosmogony), सृष्टि विज्ञान (Cosmology) और सत्ता विज्ञान (Ontology) का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत सृष्टि – सृष्टा, आत्मा -परमात्मा और जैविक जगत के साथ मानवीय जीवन की विवेचना की जाती है साथ ही अब तक जो भी सोचा विचारा और शोधा जा चुका है सभी की तात्त्विक विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की तात्विक विवेचना करते समय निम्न तथ्यों का ध्यान रखा जाना चाहिए। –
01 – ब्रह्माण्ड का स्वरुप ?
02 – ब्रह्माण्ड का निर्माण व निर्माता ?
03 – ब्रह्माण्ड का मूल तत्त्व
04 – ब्रह्माण्ड का अन्तिम सत्य
05 – ब्रह्माण्ड के अस्तित्व की प्रकृति
06 – सृष्टि स्वरुप ?
07 – सृष्टि का निर्माण व निर्माता ?
08 – आत्मा – परमात्मा ?
09 – मानव का वास्तविक स्वरुप ?
10 – अन्तिम उद्देश्य व उद्देश्य की प्राप्ति ?
2 – ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and Logic) –
जब किसी भी दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा की बात की जाती है तो उससे आशय उसमें निहित ज्ञान के वास्तविक स्वरुप तथा ज्ञान प्रदान करने वाले साधनों व विधियों से है वस्तुतः ज्ञान मीमांसा के परिक्षेत्र में मानवीय बुद्धि, उसके ज्ञान के स्वरुप ज्ञान की प्रमाणिकता, ज्ञान की सीमाएं, इसे प्राप्त करने की विधियाँ, ज्ञान प्राप्ति के साधन ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सम्बन्ध आदि की विवेचना की जाती है जब कि तर्क मीमांसा के परिक्षेत्र में विविध प्रमाणों, सत्य असत्य प्रमाण,तार्किक विधियों, सत्यता व भ्रम आदि की व्याख्या की जाती है तर्क व आज तक प्राप्त ज्ञान के आधार पर तार्किक विवेचना करते हुए सत्य को शोधा जाता है। सभी की ज्ञान व तर्क मीमांसा सम्बन्धी विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा करते समय निम्न तथ्यों का ध्यान रखा जाना चाहिए। –
01 – ज्ञान का स्वरुप ?
02 – ज्ञान प्राप्ति के साधन ?
03 – ज्ञान प्राप्ति के स्रोत ?
04 – ज्ञान प्राप्ति की विधियाँ ?
05 – ज्ञेय और ज्ञाता सम्बन्ध ?
06 – स्मरण ?
07 – विस्मरण ?
08 – सत्य व असत्य ज्ञान का अन्तर ?
09 – ज्ञान की सत्य सिद्धि हेतु तर्क प्रमाणिकता के आधार ?
10 – विविध तर्क विधियाँ ?
3 – मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) –
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि किसी भी दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा उसकी तत्व मीमांसा पर ही आधारित होती है किसी भी समाज के शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्य क्रम, शिक्षण विधियां, अनुशासन, शिक्षक व शिक्षार्थी सम्बन्धी विविध विचार मूल्य व आचार मीमांसा से ही अनुप्रेरित होते हैं कोई भी समाज अपनी नैतिकता की पराकाष्ठा हेतु विविध सामयिक मूल्यों की स्थापना पर पूरा ध्यान केंद्रित करता है और उनको स्थापित करना चाहता है। मूल्य व आचार मीमांसा के अन्तर्गत मानव समाज के जीवन हेतु आदर्श मूल्यों को विवेचित किया जाता है मूल्य विचारों और व्यवहारों को निर्देशित करते हैं नियन्त्रित करते हैं हमारा आचरण इन्ही मूल्यों को परिलक्षित करता है जीवन में कौन से कार्य किये जाने योग्य हैं और कौन से कार्य त्याज्य हैं इनका निर्धारण नीति शाश्त्र के अन्तर्गत आता है।सभी की मूल्य व आचार मीमांसा सम्बन्धी विवेचना को शामिल किया जाता है।किसी भी दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा करते समय निम्न तथ्यों का चिन्तन किया जाना चाहिए। –
01 – मानवीय जीवन उद्देश्य
02 – मूल उद्देश्य प्राप्ति साधन
03 – साध्य साधन सम्बन्ध
04 – उद्देश्य प्राप्ति उपाय
05 – मूल्य वरण
06 – शाश्वत मूल्य समझ
07 – नैतिकता
08 – उच्च नैतिक मानदण्ड स्थापन हेतु आवश्यक मूल्य
09 – करने योग्य कर्म
10 – त्याज्य कर्म
उक्त तत्त्व मीमांसा, ज्ञान व तर्क मीमांसा, मूल्य व आचार मीमांसा को बार बार पढ़कर हृदयंगम करना है लेकिन यह याद रहे की सम्यक मीमांसा करने हेतु उस दर्शन का गहन अध्ययन परमावश्यक है जब तक दर्शन को भली भाँति अधिगमित नहीं किया जाएगा तब तक सम्यक मीमांसा करना सम्भव नहीं होगा।
न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाणों की दुनियाँ में एक महत्त्वपूर्ण
प्रमाण है ‘अनुमान’ . यह शब्द दो शब्दों का योग है अनु +मान =अनुमान ।
अनु शब्द से आशय पश्चात से है मान का अर्थ होता है ज्ञान। अर्थात अनुमान
का तात्पर्य पूर्व ज्ञान के पश्चात होने वाले ज्ञान से है।
उदाहरण के लिए यदि हम कहते हैं कि पर्वत पर धुआँ है इसलिए वहाँ आग है
क्योंकि हमें यह पहले से ही पता है कि धुएं और आग में व्याप्ति सम्बन्ध है। अर्थात
जहाँ पर धुआँ होता है उस जगह पर आग अवश्य होती है।
अतः अनुमान को सरलतम रूप में इस तरह पारिभाषित किया जा सकता है जब दो
वस्तुओं की व्याप्ति के पूर्व ज्ञान के आधार पर उनमें से किसी एक को देखकर दूसरी
का ज्ञान प्राप्त करते हैं। अनुमान प्रमाण कहलाता है।
अनुमान
के भेद (Types of
inference ) –
चूँकि अनुमान एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है अर्थात विविध आधारों पर इसके
भेदों का अधिगमन आवश्यक है यहाँ प्रयोजन, व्याप्ति, और व्याप्ति स्थापना के आधार पर विविध भेदों को
सरलतम रूप में देने का प्रयास है।
प्रयोजन
भेद के आधार पर –
1
– स्वार्थानुमान
2 –
परार्थानुमान
1
– स्वार्थानुमान – जिस अनुमान को अपने लिए किया जाता है उसे
स्वार्थानुमान कहते हैं जैसे कोई व्यक्ति पर्वत पर धुआँ देखता है और व्याप्ति
सम्बन्ध के आधार पर यह निष्कर्ष निकालता है कि उक्त नियमानुसार पर्वत पर अग्नि है
और यह वह खुद के लिए निकालता है तो इसे स्वार्थानुमान कहेंगे।
2 –
परार्थानुमान – जो
अनुमान अन्य लोगों ज्ञान कराने हेतु पंचावयवों का प्रयोग कराते हुए किया जाता है
उसे परार्थानुमान कहते हैं। ये पॉंच अवयव इस प्रकार हैं –
i – प्रतिज्ञा
ii – हेतु
iii – दृष्टान्त
iv – उपनय
v – निगमन
i – प्रतिज्ञा – साध्य के पक्ष में होने का ज्ञान प्रतिज्ञा द्वारा कराया जाता है।
जैसे -पर्वत पर अग्नि है।
ii – हेतु – जिस साधन के द्वारा साध्य का अनुमान होता है
उसे हेतु कहते हैं। जैसे – क्यों कि पर्वत पर धुआँ है।
iii – दृष्टान्त – व्याप्ति की व्याख्या और प्रमाणिकता हेतु दिए
गए दृष्टान्त का वर्णन किया जाता है। यथा जहाँ -जहाँ धुआँ होता है वहाँ वहाँ अग्नि
होती है जैसे रसोई घर में।
iv – उपनय – जिस व्याप्ति का होना तृतीय अवयव के रूप में
दिया जाता है और उसे विशिष्ट हेतु का पक्ष होना दिखाया जाता है उपनय कहलाता है।
जैसे – अमुक पर्वत पर धुआँ है।
v – निगमन – जिससे साध्य के सिद्ध होने का प्रतिपादन करते
हैं निगमन कहलाता है। जैसे -अतः पर्वत पर अग्नि है ।
व्याप्ति
के भेद –
अनुमान के अनुसार व्याप्ति के तीन भेद इस प्रकार हैं –
पूर्ववत
– जब भविष्य के
कार्य का अनुमान वर्तमान के कारण से होता है अर्थात किसी कारण से कार्य के अनुमान
को पूर्ववत कहते हैं। जैसे बादलोँ की उमड़ घुमड़ को देखकर यह अनुमान लगाना कि आज
बारिश होगी।
शेषवत
– शेषवत कार्य से
कारण के अनुमान को कहते हैं व्याप्ति में साधन व साध्य के बीच कार्य कारण सम्बन्ध
होता है। इसमें इस समय यानी कि वर्तमान काल में जो कार्य सम्पन्न हो रहा होता है
उसके पिछले कार्य का अनुमान लगाया जाता है। जैसे अचानक नदी में पानी के बढ़ने और
उसके तीव्र वेग से यह अनुमान लगाना कि कहीं बारिश हुई होगी।
सामान्यतोदृष्ट
–
सामान्यतोदृष्टउस प्रमाण का नाम है जिसमें अप्रत्यक्ष के आधार पर भी सम्बन्ध का
अनुमान लगाया जाता है जैसे दो अलग अलग दूरस्थ स्थानों से चन्द्रमा को देखकर उसकी
गतिशीलता का अनुमान लगाना। यह अनुमान
कार्य कारण सम्बन्ध पर नहीं बल्कि इस आधार पर होता है साधन और साध्य एक दूसरे के
बराबर निकट पाए जाते हैं।
व्याप्ति
स्थापना प्रणाली –
अनुमान
के तीन भेद व्याप्ति स्थापना प्रणाली के आधार पर किये जाते हैं
केवलान्वयी
–
जब
साधन और साध्य में नियत साहचर्य पाया जाता है तो यह केवल अन्वयी कहलाता है। इस प्रकार की व्याप्ति केवल अन्वय द्वारा
स्थापित होती है इसमें व्यतिरेक का एकदम अभाव रहता है उदाहरणार्थ सभी ज्ञेय, अभिज्ञेय हैं।
केवल
अन्वय व्याप्ति के बल पर खड़ा किया हुआ हेतु केवलान्वयी कहलाता है। इसमें उपस्थित
शब्द ‘केवल’ उसकी
व्यतिरेक व्याप्ति की सम्भावना को दूर कर देता है।
केवल
व्यतिरेकी –
जब
हम जीवित शरीर को सिद्ध करने हेतु यह कहते हैं उसमें आत्मा है क्योंकि उसमें
प्राणदिमत्त्व (प्राण,इन्द्रियाँ,ह्रदय
आदि )हेतु उपस्थित है अर्थात जब साधन तथा साध्य की अन्वयमूलक व्याप्ति से नहीं
बल्कि साध्य के अभाव के साथ साधन के प्रभाव की व्याप्ति के ज्ञान से अनुमान होता
है तो इसे केवल व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं।
अन्वय
व्यतिरेकी –
जब
साधन के उपस्थित रहने पर साध्य भी उपस्थित रहता है एवम् साध्य के अनुपस्थित होने
पर साधन भी अनुपस्थित हो जाता है अर्थात व्याप्ति का ज्ञान अन्वय एवम् व्यतिरेक की सम्मलित उपस्थिति पर ही
निर्भर करता है। अतः अन्वय व्यतिरेकी अनुमान उसको कहा जा सकता है जिसमें साधन और
साध्य का सम्बन्ध अन्वय और व्यतिरेक दोनों के साथ स्थापित होता है।उदाहरण के लिए
जहाँ आग नहीं वहाँ धुआँ नहीं।
उक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि अनुमान प्रमाण एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है जिसे इससे
सम्बद्ध कुछ शब्दों को जानकर आसानी से समझा जा सकता है।
न्याय दर्शन को एक ऐसी शाखा के रूप में स्वीकारा जाता है जो भारतीय तर्कशास्त्र की रीढ़ कही जाती है। वर्तमान समय में इसे प्रमाण शास्त्र के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है इसके अनुसार मुख्यतः प्रमाणों की संख्या चार मानी जाती है – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। नवन्याय में इसकी विशद व्याख्याएं देखने को मिलती हैं। इसमें कालान्तर में परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन भी देखने को मिले। आपके NET के पाठ्यक्रम में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को भी प्रमाण में शामिल किया गया है। इसका विस्तृत आकाश है और उसमें से केवल प्रत्यक्ष के बारे में उसके प्रकारों के बारे में यहाँ अध्ययन करेंगे।
Pratyaksh Praman / प्रत्यक्ष प्रमाण / Perception –
प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण को उपस्थित करते हुए न्याय दर्शन में
उल्लेख है –
इससे आशय है इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग से जो
अव्यपदेश्य अर्थात अकथनीय,
अव्यभिचारि अर्थात संशय विपर्यादि दोषों से
रहित, व्यवसयात्मक अर्थात निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न
होता है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है।
वस्तु के साथ इन्द्रिय का संयोग होने से जो
ज्ञान प्राप्त होता है ये मानते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान ही प्रत्यक्ष है।
प्रत्यक्ष को छोड़कर सभी प्रमाण पूर्व-ज्ञान पर आश्रित रहते हैं।
प्रत्यक्ष के भेद / Types
of Perception – प्रत्यक्ष का वर्गीकरण विविध प्रकार से किया सकता है। प्रथम दृष्टिकोण से दो भागों में
प्रत्यक्ष को विभाजित किया जा सकता है।
1 – लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary Perception)
2 – अलौकिक
प्रत्यक्ष (Extra
Ordinary Perception)
1 – लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary Perception) –
जब सामान्य रूप से इन्द्रिय और उसके विषय का सन्निकर्ष (संयोग ) होता
है और इस प्रकार जो अनुभव प्राप्त होता है
उसे लौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। लौकिक प्रत्यक्ष को भी दो भागों में विभक्त किया
जा सकता है
i – वाह्य
(External)
ii – आन्तर
(Internal)
i – वाह्य (External) –
वाह्य इन्द्रियों द्वारा यह साध्य है
ii – आन्तर (Internal) –
इसे आन्तरिक अर्थात मन द्वारा साध्य माना गया
है
लौकिक प्रत्यक्ष को नव्य
न्याय में जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है उस आधार पर तीन भागों में विभक्त कर
समझ सकते हैं।
(A ) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष (Indeterminate
Perception)
(B) – सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate
Perception)
(C) – प्रत्यभिज्ञा ( Credentials)
(A ) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष (Indeterminate
Perception) – पदार्थ और इन्द्रिय के संयोग के तुरन्त बाद
वस्तु का जो यत्किञ्चित ज्ञान हमें प्राप्त होता है इसमें नामजात्यादि नहीं आता।
यह केवल वास्तु मात्र का ज्ञान है। यथा अन्धकारयुक्त कक्ष में एक मेज पर कोई गोल
सी वस्तु रखी है हमें उसकी सत्ता का बोध हो और यह पता न चले कि वह सन्तरा है या
अमरुद अथवा सेब है तो इसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाएगा।
(B) – सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate
Perception) – निर्विकल्प प्रत्यक्ष में नामजात्यादि की योजना
कर लेने पर वह सविकल्प प्रत्यक्ष हो जाएगा। जैसे अन्धकारयुक्त कक्ष में एक मेज पर
कोई गोल सी वस्तु रखी है हमें उसकी सत्ता का बोध हो और यह पता न चले कि वह सन्तरा
है या अमरुद अथवा सेब है तो इसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहा जाएगा। अगले ही क्षण यदि
हमें यह पता चले की वह सन्तरा है तो यह सविकल्प प्रत्यक्ष कहलायेगा। नाम ,जाति, गुणों का आभास निर्विकल्प प्रत्यक्ष को सविकल्प बना देता है।
(C) – प्रत्यभिज्ञा ( Credentials)
– प्रत्यभिज्ञा
से आशय है पहले से देखे हुए को पहचानना। इस प्रत्यक्ष में किसी वस्तु,
चेहरे आदि को देखने पर हमें यह लगता है कि इसे
पहले भी कहीं देखा है और जब हम उस आभास के आधार पर कहते हैं इसे मैंने अमुक शहर
में उस स्थान पर देखा था तो इस गुण धर्म को प्रत्यभिज्ञा प्रमाण कहा जाएगा।
2 – अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra
Ordinary
Perception) –
जिस
प्रकार लौकिक प्रत्यक्ष का अध्ययन दो वर्गों में विभाजित करके किया गया उसी तरह
अलौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं –
i – सामान्य लक्षण
ii – ज्ञान लक्षण
iii – योगज
i – सामान्य लक्षण –
अनुमान साहचर्य या व्याप्ति के सम्बन्ध पर खड़ा
होता है और इस साहचर्य ज्ञान हमें प्रत्यक्ष के आधार पर होता है यही प्रत्यक्ष
ज्ञान सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष है। यथा मनुष्य मरण शील है लेकिन मनुष्य की मरण के
साथ व्याप्ति अपने अस्तित्व के लिए उसके प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधरित रहेगी। इसे ही
सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष कहेंगे।
ii – ज्ञान लक्षण –
यह ज्ञान पूर्वाभास के कारण होता है एक के ज्ञान
के साथ ही जब दूसरा भी अनायास उठ खड़ा हो तो यह ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष कहलाता है
जैसे चन्दन देखने के साथ उसकी खुशबू का आभास। वास्तव में बार बार विविध अनुभव का
अभ्यास से हमारी इन्द्रियाँ पृथक पृथक प्राप्त ज्ञानों का युगपत ही प्रकट करने
लगती हैं। जैसे। पानी -तरल , बर्फ -ठण्डा, अग्नि -गरम, पत्थर -ठोस आदि
iii – योगज –
इस
प्रकार का ज्ञान योगियों को प्रत्यक्ष योग शक्ति के द्वारा होता है। योगियों को
भूत ,भविष्य
व विविध पदार्थों का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हो जाता है जो ज्ञान बिना इन्द्रिय और
अर्थ के सन्निकर्ष से प्राप्त हो वह अलौकिक ज्ञान ही है इस लिए इसे अलौकिक की
श्रेणी में रखा गया है।
योगियों को दो प्रकार का कह सकते हैं। 1 -युक्त
योगी , 2 –
युञ्जान
उक्त
योगियों को अपने योगाभयास के बल से देश व काल से व्यवहित पदार्थों के ज्ञानार्जन
की सामर्थ्य होती है जिन्हे सर्वदा सर्व प्रकारक ज्ञान उपलब्ध रहता है युक्त योगी
कहलाते हैं और जो चिन्तन द्वारा ज्ञान उपलब्ध करते हैं युञ्जान योगी कहलाते हैं।
उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्रमाणों की
दुनियाँ में प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है इसे वर्गीकृत करके
इसके प्रकारों को किस प्रकार सरलता से समझा जा सकता है। मुझे लगता है बोर्ड पर
किया वर्गीकरण इसका समुचित प्रतिनिधित्व कर रहा है।
वेदान्त दर्शन का नाम लेते ही बोध हो जाता है कि इसमें वेद का अन्तिम
भाग सामाहित है वेद के दो भाग हैं जिन्हे हम ब्राह्मण और मन्त्र नाम से जानते हैं
यज्ञ अनुष्ठान आदि का वर्णन करने वाला भाग ब्राह्मण नाम से जाना जाता है
और देवता की स्तुति में प्रयुक्त स्मारक वाक्य
मन्त्र का बोध कराता है।इन मन्त्रों के समुदाय को संहिता नाम से जाना जाता है ऋक ,यजुः ,साम व अथर्व ये संहिता हैं अर्थात सभी मन्त्र
ऋग्वेद, सामवेद,
यजुर्वेद,और अथर्व वेद नामक संहिताओं में संकलित हैं
ब्राह्मण भाग में कर्म काण्ड की और इस भाग में ज्ञान काण्ड की प्रमुखता है वेदों
का अन्तिम भाग उपनिषद कहलाता है इसे वेदान्त भी कहते हैं।
बादरायण व्यास (चतुर्थ शताब्दी) द्वारा लिखे गए
‘ब्रह्म सूत्र ‘को वेदान्त का आदि ग्रन्थ माना जाता है इसके पश्चात इसपर विविध भाष्य
ग्रन्थ लिखे गए और वेदांत की विविध शाखाओं उप शाखाओं का अभ्युदय हुआ जिसमें शंकर
नवीं शताब्दी का अद्वैत, रामानुजाचार्य तेरहवीं शताब्दी का
विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य व निम्बार्क तेरहवीं शताब्दी का द्वैत, श्री कण्ठ तेरहवीं शताब्दी का शैव
विशिष्टाद्वैत, श्री पति चौदहवीं शताब्दी का वीर शैव
विशिष्टाद्वैत और बल्लभाचार्य सोलहवीं शताब्दी का शुद्धाद्वैत प्रमुख है। इनमें शंकर और रामानुजाचार्य शिक्षा के
दृष्टिकोण से प्रमुख स्वीकारे जाते हैं।
किसी भी दार्शनिक विचारधारा को समझने के लिए उस
दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics०), ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology
and logic), तथा
मूल्य व आचार मीमांसा(Axiology and Ethics) को जानना आवश्यक है अतः पहले यही समझने का
प्रयास करेंगे।
वेदान्त दर्शन की तत्त्व मीमांसा (Metaphysics
of Vedant Philosophy)
शंकर के अनुसार ब्रह्म ही अन्तिम सत्य (Ultimate
Reality) है
जो ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण होने के साथ अनादि,
अनन्त और निराकार है जगत नाशवान व असत्य है
मानव ज्ञान का स्रोत व अनन्त शक्ति को धारण करने के साथ आत्मघाती है और आत्मा
सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान है। शंकर के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है कि तुम (आत्मा)
ब्रह्म हो। रामानुजाचार्य के अनुसार तत्त्वमसि से आशय है ब्रह्म तथा ईश्वर एक है
शंकर ने ब्रह्म को मूल तत्त्व व रामानुजाचार्य ने इसके तीन मूल तत्त्व स्वीकारे
हैं -चित् (चेतन,आत्मा ), अचित् (अचेतन, जड़ ) और ब्रह्म (ईश्वर) । सृष्टि के विनाश होने
पर चित् (चेतन,आत्मा
), अचित्
(अचेतन, जड़
) सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं और ईश्वर विशिष्ट ही शेष रह जाता है इसीलिये इसे
विशिष्टाद्वैत दर्शन कहते हैं। शंकर के
दर्शन में ब्रह्माण्ड का कर्त्ता व उपादान कारण में भेद न होने के कारण इसे अद्वैत
दर्शन कहते हैं।
वेदान्त दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology and logic of Vedant
Philosophy)
शंकर का दर्शन ज्ञान को दो भागों में विभाजित करता है –
1 – परा (आध्यात्मिक) – इनके अनुसार पराविद्या ही मुक्ति का साधन बन
सकती है वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद, गीता
आदि के ज्ञान को ये इस श्रेणी में स्थान देते हैं।
2 – अपरा (लौकिकव व्यावहारिक) – वस्तु जगत और मानव जीवन के विभिन्न पक्षों व
ज्ञान को इन्होने अपरा की श्रेणी में रखा है जो मुक्ति का साधन कभी नहीं बन सकते।
रामानुजाचार्य महोदय ने भी ज्ञान को दो भागों में विभाजित
किया है –
1 – धर्मी भूत ज्ञान – इनका इस ज्ञान से आशय कर्त्ता रूप ज्ञान से
है।
2 – धर्म भूत ज्ञान – इस ज्ञान में ये कर्म में विद्यमान ज्ञान को
समाहित करते हैं। ये आत्मोन्नति हेतु इस ज्ञान का समर्थन करते हैं।
वेदान्त दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Axiology
and Ethics of Vedant Philosophy)
शंकर के अद्वैत दर्शन के अनुसार वर्णक्रम के प्रति निष्ठां से
उद्देश्य प्राप्ति सुगम होती है अंतिम उद्देश्य मुक्ति को मानते हुए ये इसके दो
विभाग करते हैं एक जीवन मुक्ति और दूसरे विदेह मुक्ति जीवन मुक्ति से आशय है कि
जीवन जीते हुए कर्म फल से अनासक्त होना। विदेह मुक्ति से आशय आवागमन के चक्कर से
मुक्ति से है अर्थात जीवन के अन्त में ब्रह्म तत्त्व की प्राप्ति।
रामानुजाचार्य महोदय भी शंकर की भाँति जीवन का अन्तिम उद्देश्य
मुक्ति ही मानते हैं लेकिन ये जीवन मुक्ति को मुक्ति स्वीकार नहीं करते उनकी
दृष्टि में ब्रह्म (ईश्वर) की प्राप्ति ही मुक्ति है जो भक्ति से मिलती है।
वेदान्त दर्शन की परिभाषा / Definition of of Vedanta philosophy –
वेदान्त दर्शन को प्रो ० रमन बिहारी लाल ने बहुत सरल शब्दों में यूँ
संजोया है –
“वेदान्त दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को
ईश्वर (ब्रह्म) द्वारा निर्मित मानती है और उसे इस सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति तथा लय का कारण मानती है यह आत्मा को ब्रह्म का अंश मानती है
और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति है जिसे ज्ञान
योग, कर्म योग, राज
योग और भक्ति योग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”
“Vedanta philosophyis that school of Indian philosophy
which considers this universe to be created by God (Brahm) and considers it to
be the cause of the condition, origin, and rhythm of this universe. It
considers the soul as a part of Brahma and it renders that man The ultimate aim
of life is salvation which can be achieved through Jnana Yoga, Karma Yoga, Raja
Yoga, and Bhakti Yoga.”
वेदान्त दर्शन के मूल सिद्धान्त / Basic
principles of Vedanta philosophy –
वेदान्त दर्शन के मूल तत्वों व सिद्धान्तों को इस प्रकार विवेचित
किया जा सकता है –
1 – ब्रह्माण्ड
ब्रह्म (ईश्वर) द्वारा निर्मित /Universe created by Brahma (God)
2 – ब्रह्म
और जगत में ब्रह्म विशिष्ट /Brahma special in Brahma and the world
3 – आत्मा
के ब्रह्म अंश सम्बन्धी विचार /Thoughts on the Soul as the Part of Brahma
4 – मनुष्य
अनन्त ज्ञान और शक्ति का स्रोत / Man is the source of eternal knowledge and power
5 – मनुष्य
का विकास उसके कर्मों पर निर्भर / Development of man depends on his deeds
6 – मानव
जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति / Salvation is the ultimate aim of human life
7 – ज्ञान
योग, भक्ति योग, कर्म
योग के साथ साधन चतुष्टय आवश्यक /
Along with Gyan
Yoga, Bhakti Yoga, Karma Yoga, Sadhana Chatushtaya is essential.
8 – ज्ञान
हेतु श्रवण, मनन, निदिध्यासन
आवश्यक / Listening,
meditation, Nididhyasan is necessary for knowledge
9 – उत्तम
श्रवण, मनन, निदिध्यासन हेतु साधन चतुष्टय आवश्यक /
Sadhana Chatushtaya is
necessary for good hearing,
meditation and Nididhyasan.
i – नित्य अनित्य विवेक
ii – भोग विरक्ति
iii – शम दम संयम
iv – मुमुक्षत्व
वेदान्त दर्शन और शिक्षा /Vedanta
philosophy and Education
आज विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भारत शिक्षा पर खुल कर विचार
करता है और नए नए आयामों के शिखर को छूने का प्रयास कर रहा है लेकिन हम भारतीय आज
भी जड़ों से नहीं कटे हैं। और जीवन की समग्रता पर विचार करने वाले शंकराचार्यजी और
रामानुज सरीखे विद्वानों के कथनों का विश्लेषणात्मक अध्ययन कर वेदान्त दर्शन के
गूढ़ तत्वों का मनन करते हैं। यद्यपि इन्होने शिक्षा पर स्वतंत्र रूप से विचार से नहीं
किया है लेकिन इनका मीमांसात्मक विवेचन आज के मानव को सार्थक शिक्षात्मक दिशा देने
में सक्षम है।
शिक्षा का सम्प्रत्यय / Concept of Education –
शंकर का स्पष्ट रूपेण मानना है की शिक्षा का परम उद्देश्य मुक्ति
प्रदान करना है जब मानव में नित्य अनित्य विवेक जागृत हो जाता है और वह समझ जाता
है कि ब्रह्म सत्य है और जगत नश्वर है वह सबमें स्वयं को और स्वयं में सबको देखने
लगता है। शिक्षा अपने उद्देश्य की और अग्रसारित हो जाती
है अर्थात वे छान्दोग्य उपनिषद का सा
विद्याया विमुक्तए का समर्थन करते हैं और शिक्षा को मुक्ति का साधन मानते हैं।
शिक्षा के अंगों पर प्रभाव / Impact on education
शिक्षा के उद्देश्य / Aims of Education
ये जीवन के दो पक्ष परा (आध्यात्मिक) और अपरा
(व्यावहारिक) स्वीकारते हैं और जीवन के उद्देश्यों को इसी आधार पर गठित करते हैं
जिसे इस प्रकार दर्शा सकते हैं –
परा (आध्यात्मिक) उद्देश्य –
1 – मुक्ति का उद्देश्य
अपरा (व्यावहारिक उद्देश्य) –
1 – शारीरिक विकास
2 – मानसिक विकास
3 – नैतिक विकास
4 – वर्ण के अनुसार शिक्षा
5 – साधन चतुष्टय प्राशिक्षण
6 – सर्वाङ्गीण व्यक्तित्व विकास
7 – ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति
पाठ्यक्रम
शंकर के अनुसार परा एवं अपरा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु
विविध विषयों का समर्थन करते हैं यथा आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु साहित्य, धर्म, दर्शन
जैसे परमार्थिक विषयों को शामिल करना चाहते हैं और परमार्थिक क्रियाओं अर्थात
अष्टांग योग का समर्थन करते हैं।
परा (व्यावहारिक) उत्थान हेतु भाषा, चिकित्सा शास्त्र, वर्ण
क्रम, गणित के साथ व्यायाम, आसन, ब्रह्मचर्य
को भी शामिल करना चाहते हैं।
रामानुजाचार्य के विचार आधुनिक विचार धारा का समावेशन करते प्रतीत
होते हैं इनके अनुसार सभी जीव ईश्वर की अनुपम रचनाएँ हैं इनमें वर्ण के अनुसार भेद
न करना चाहिए कर्म के अनुसार भेद स्वाभाविक रूप से दृष्टिगत होगा ही। अतः
स्वकर्म के कुशलता पूर्वक सम्पादन हेतु
कर्मानुसार समान शिक्षा का विधान होना चाहिए।
शिक्षण विधियाँ / Teaching Methods
इन्होने अपने शिक्षण उद्देश्यों के अनुरूप ही शिक्षण विधियों का चयन
किया जिन्हे इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
i – प्रश्नोत्तर
विधि
ii – प्रवचन
विधि
iii – व्याख्या विधि
iv – स्वाध्ययन
विधि
v – प्रत्यक्ष
विधि
vi – श्रवण, मनन,निदिध्यासन
विधि
vii – अध्यारोप – अपवाद विधि
viii – विश्लेषण विधि
अनुशासन / Discipline –
ये आत्म अनुशासन को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार
एकाग्रता ही सच्चा अनुशासन लाती है। जब मन, बुद्धि,अहंकार, पर
आत्म नियन्त्रण स्थापित हो तो अनुशासन होगा। जब बिना किसी बाहरी दवाब के अपने आत्म
तत्त्व से प्रेरित होकर सदमार्ग का अनुसरण किया जाए तब सच्चा अनुशासन स्थापित
होगा। शंकर की दृष्टि से सच्चा अनुशासन तभी स्थापित होगा जब अष्टांग के योग मार्ग का अनुसरण होगा।
शिक्षक और शिक्षार्थी / Teacher and Learner
वेदान्त दर्शन की उपादेयता इस सम्बन्ध में विशिष्ट है शङ्कर का
स्पष्ट मानना है की गुरु अपने विद्यार्थी को व्यावहारिक जीवन की शिक्षा दे और साथ
ही यह बोध कराये कि वह ब्रह्म है। ‘तत्त्व
मसि’ अर्थात तू ही ब्रह्म है अन्ततः शिक्षार्थी यह
महसूस करेगा कि ‘अहम् ब्रहास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ।
रामानुजाचार्य के विचार इस सम्बन्ध में पृथक हैं ये मानते हैं की कोइ
पूर्ण नहीं हो सकता ,शिक्षक भी। शिक्षक को फिर भी ज्ञान व आचरण हेतु
उत्कृष्ट प्रयास निरन्तर करते रहने चाहिए।
वेदान्त के अनुसार प्रत्येक शिक्षार्थी अनन्त ज्ञान और ऊर्जा का
स्रोत है और उनमें भिन्नता कर्म की भिन्नता के कारण ही दृष्टिगत होती है।शंकर के
अनुसार ब्रह्म की प्राप्ति हेतु इच्छुक छात्रों को साधन चतुष्टय का अनुपालन करने
के साथ गुरु में श्रद्धा,
भोग से विरक्ति, इन्द्रिय निग्रह, मन
की एकाग्रता के गुणों में उत्तरोत्तर प्रगति के प्रयास अवश्य करने चाहिए।
शिक्षालय / School
नगर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक सुरम्य वातावरण से युक्त गुरु गृह ही
उस काल के विद्यालय थे। व्यावहारिक व आध्यात्मिक शिक्षा समुदायों और गुरुकुलों में
दी जाती थी। यहाँ जीवन मुक्ति और साधन चतुष्टय पुष्पित पल्लवित करने के सार्थक
प्रयास होते थे।
वेदान्त दर्शन का मूल्याङ्कन / Evaluation
of Vedanta Philosophy
किसी
भी दर्शन का मूल्याङ्कन उसके गुण दोषों के आधार पर किया जाता है और सामान्यतः उस
काल विशेष के विशिष्ट कालखण्ड की जगह आज के अनुसार समीक्षा की जाती है आइए इस
दर्शन के गन दोषों पर विचार करते हैं।
A – वेदान्त दर्शन के गुण
1 – व्यावहारिकता
2 – इहलोक और अध्यात्म का समन्वय
3 – गुरु शिष्य आदर्श सम्बन्ध
4 – उच्च आदर्श अनुपालन
5 – शिक्षण विधियां
6 – मूल्य बोध
B
– वेदान्त
दर्शन की सीमायें
1 – जन शिक्षा का अभाव 2 – अध्यात्म पर अधिक बल
उपसंहार
/ Epilogue
भारत में शङ्कर के बाद जो भी दार्शनिक विचार
धारा फलीफूली उस पर वेदान्त का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है अद्यतन काल तक की
विकास यात्रा के प्रमुख चिन्तक दयानन्द सरस्वती, मोहन दास करम चन्द्र गाँधी, विवेकानन्द, रबीन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द घोष सभी कहीं न कहीं वेदान्त से प्रभावित रहे
हैं। किसी को योग
क्रिया अच्छी लगती है ,कोई
व्यावहारिकता तो कोई इसके मूल्यों पर नत मस्तक है।
वास्तव में वेदान्त समग्र दृष्टिकोण है समस्त
धर्म व दर्शन इसकी प्रस्फुटित शाखाएं हैं
इसे सार्वभौम व सार्वकालिक दर्शन कहना न्याय सांगत होगा। आज हम जिस धर्म
निरपेक्ष, समाजवादी और वर्गहीन व्यवस्था की बात करते हैं
उसके बीज इसमें संरक्षित हैं। आज की शिक्षा यदि वेदान्त पर आधारित हो तो मन्तव्य
प्राप्ति अपेक्षाकृत सुगम हो जाएगी।
योग एक भारतीय दर्शन है यह प्रतिनिधि दर्शन की श्रेणी में आता है योग
दर्शन तीन मार्गों का प्रमुखतः निर्देशन प्रदान करता है ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। व्यक्ति को अपनी क्षमता, अभिरुचि, योग्यता
के आधार पर स्व हेतु मार्ग का चयन करना चाहिए। इसके अष्टांग मार्ग का विवेचन पहले
ही educationaacharya.com किया जा चुका है।
योग दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पतञ्जलि के नाम पर इसे पातञ्जल दर्शन
भी कहा जाता है। भारत में योग दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ पातञ्जलयोग सूत्र(महर्षि पतञ्जलि),
भारतीय आस्तिक षडदर्शनों में से एक है योग दर्शन,महर्षि पातञ्जलि इसके प्रमुख प्रणेता हैं यह
दर्शन सांख्य दर्शन के पूरक के रूप में भी जाना जाता है। इस दर्शन का मुख्य लख्य
मानव को मोक्ष या परमआनन्द से जोड़ना है। प्रो।
रमन बिहारी लाल जी ने योग दर्शन को पारिभाषित करते हुए बताया –
“योग दर्शन भारतीय दर्शन भारतीय दर्शन की वह
विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर द्वारा प्रकृति एवं पुरुष के योग से
निर्मित मानती है और यह मानती है कि
प्रकृति, पुरुष
व ईश्वर तीनों अनादि और अनन्त हैं। यह
ईश्वर को कर्मफल के भोग से मुक्त और आत्मा को कर्म फल का भोक्ता मानती है
और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन काअन्तिम उद्देश्य परमानन्द अनुभूति है
जिसे अष्टांग योग साधन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”
आँग्ल भाषा में इसे इस प्रकार अनुवादित कर सकते हैं –
“Yoga Darshan is that ideology of Indian philosophy which
believes that this universe is created by God from the combination of Prakriti
and Purusha and believes that Prakriti, Purush and God all three are eternal
and infinite. It regards God as free from the enjoyment of the fruits of action
and the soul as the enjoyer of the fruits of action and renders that the
ultimate aim of human life is the feeling of ecstasy which can be achieved by
means of Ashtanga Yoga.”
योग दर्शन को अधिगमित करने हेतु यह परमावश्यक
होगा की इसकी विविध मीमांसाओं को जान लिया जाए यहां क्रमशः समझने का प्रयास है –
(A)-योग दर्शन की तत्व मीमांसा (Metaphysics of yoga philosophy) –
सांख्य दर्शन की भाँति ही योग दर्शन प्रकृति और पुरुष की सत्ता को स्वीकार करता है अर्थात इस दर्शन ने सांख्य की तत्व मीमांसा को स्वीकार कर लिया है। योग दर्शन सृष्टि का निमित्त कारण (कर्त्ता) ईश्वर को मानता है तथा उसके उपादान कारण (आधारभूत साधन)
प्रकृति व पुरुष को स्वीकार करता है, पुरुष
चेतनतत्व अर्थात जीवात्मा है ईश्वर अनादि है अनन्त है और भोग से रहित है आत्मा
भोक्ता है।
(B) – योग दर्शन की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology
and logic of yoga philosophy)
योग दर्शन चित्त की अवधारणा का प्रयोग करता है
जिसमें मन, बुद्धि,अहंकार शामिल हैं जैसा कि
सांख्यदर्शन में भी देखने को मिलता है योग
दर्शनयह मानता है कि मानव को पदार्थ का
ज्ञान इन्द्रियों व चित्त के माध्यम से प्राप्त होता है और आत्मा को इसका
साक्षात्कार होता है। वस्तुतः शरीर ,चित्त,और पुरुष भिन्न भिन्न होते हुए भी इस प्रकार
समेकित रहते हैं कि पृथक्करण सम्भव नहीं लगता।योग दर्शन के अनुसार योगी अंततः
समाधि को प्राप्त कर लेता है इस स्थिति में उसका यानि आत्मा का परमात्मा से योग हो
जाता है और वह सर्वज्ञ हो जाता है।
(C) – योग दर्शन की मूल्य व आचार मीमांसा (Values and Ethics of yoga
philosophy) –
योग दर्शन में योग हेति चित्तवृत्तियों के
निषेध हेतु अष्टांग मार्ग बताया है इसमें यम, नियम, आसन. प्राणायाम मुख्य रूप से शरीर से सम्बंधित हैं
और इसीलिये इन्हें अन्तरङ्ग साधन कहते है जबकि प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, व समाधि आध्यात्मिक विकास से सम्बन्धित हैं व
इन्हें बहिरंग साधन कहा जाता है। अन्तिम मूल्य की प्राप्ति अष्टांग मार्ग के आचरण से
सम्भव है।
योग दर्शन के मूल सिद्धान्त
Basic principles of yoga philosophy
01 – प्रकृति, पुरुष
के योग से ईश्वर द्वारा सृष्टि प्रक्रिया (Creation process by God with the combination of
Prakriti, Purusha)
02 – मूल तत्व – प्रकृति, पुरुष,
ईश्वर
(Basic elements –
Prakriti, Purusha, God)
03 – आत्मा कर्मफल भोक्ता ईश्वर नहीं (The soul is the enjoyer of the fruits
of action, not God.)
04 – प्रकृति, पुरुष, ईश्वर का मेल मानव (Prakriti, Purusha, God’s Combination
– Human)
05 – प्रकृति, पुरुष
व ईश्वर द्वारा मानव विकास सम्भव (Human development possible by nature, man and God)
06 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष (Salvation is the ultimate goal of
human life)
07 – चित्तवृत्ति निरोध मोक्ष हेतु आवश्यक (Control of mind is essential for
salvation)
08 – चित्तवृत्ति निरोध हेतु आवश्यक अष्टांग मार्ग(Eightfold path necessary for control
of mind)
योग दर्शन व
शिक्षा
Yoga philosophy and education
योग एक मानस शास्त्र है जिसमें मानव मात्र को मन संयत करना और पाशविक
वृत्तियों से बचाव हेतु दिशा प्राप्त होती है। इस छोटे से जीवन में सफलता किसी भी
क्षेत्र में संयत मन पर निर्भर करती है संयत मन से आशय एक कालखण्ड में एक ही
वास्तु पर चित्त की एकाग्रता। वैसे योग दर्शन ने शिक्षा को कोई निश्चित विचार
पृथकतः नहीं दिया लेकिन इसकी विभिन्न मीमांसाओं का विश्लेषण कर सार ग्रहण किया जा
सकता है यहाँ मुख्यतः यही प्राप्त करने का प्रयास रहेगा।
शिक्षा के उद्देश्य/Aims of education
योग शिक्षा अपने उद्देश्य कालानुरूप तय करती है। श्रीमद्भगवद्गीता
में सोलह कला सम्पूर्ण भगवान् श्री कृष्ण ने 18 योग
के माध्यम से अर्जुन को शिक्षा प्रदान की यद्यपि इनमें से कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग पर अधिक चर्चा की जाती
है और इस में से ही प्राप्त ज्ञान के आधार
पर आज की योग गठित करती है शिक्षा अपने मुख्य उद्देश्य गठित करती है जिन्हे अध्ययन
की सुविधा की दृष्टि से इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं –
A – साध्य उद्देश्य (Achievable objective)
1 – मुक्ति
का उद्देश्य /The purpose
of salvation
B – साधन
उद्देश्य (Instrument
purpose)
1 – शारीरिक विकास / Physical
development
2 – मानसिक विकास /
Mental development
3 – बौद्धिक विकास / Intellectual
development
4 – भावात्मक विकास / Emotional
development
5 – आध्यात्मिक विकास / Spiritual
development
6 – नैतिक विकास /Moral development
पाठ्यक्रम / Syllabus
योग दर्शन का सम्यक विश्लेषण यह इंगित करता कि आत्म ज्ञान के विषयों को अधिक और
पदार्थगत विषयों की और अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है योग दर्शन की पाठ्य चर्या
में मनोविज्ञान, नीति शास्त्र, धर्म शास्त्र,
दर्शन, योगाभ्यास, वेद, पुराण, भाषा, तर्क शास्त्र,
आयुर्विज्ञान,
शरीर विज्ञान आदि को स्थान दिया जा सकता है।
शिक्षण विधियाँ।/ Teaching methods
योग दर्शन चूंकि साँख्य दर्शन की ज्ञान मीमांसा का अनुमोदन करता है
इस लिए ज्ञान का विकास अन्तः कारन की बुनियाद पर होने का इसे सहज समर्थन प्राप्त
हो जाता है। जिसे
योग दर्शन चित्त स्वीकार करता है वही सांख्य दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार
के रूप में वर्णित है। दोनों की एकरूपता के कारण जो साधन ज्ञान प्राप्ति के सांख्य
दर्शन द्वारा सुझाये गए वही योग हेतु स्वीकार किये जा सकते हैं जिन्हे इस प्रकार
क्रम दिया जा सकता है
प्रत्यक्ष विधि – भ्रमण विधि, इन्द्रिय प्रत्यक्षीकरण।
अनुमान विधि – शोध विधि, परिकल्पना, आगमन -निगमन, विश्लेषण -संश्लेषण , खोज
विधि आदि।
शब्द विधि -प्रश्नोत्तर, व्याख्या, प्रवचन, तर्क
विधि, स्वाध्याय आदि।
योग विधि – ज्ञाता और ज्ञेय का भेद ख़तम लम्बी योगिक
साधना द्वारा ,योगी
द्वारा ही सम्भव सामान्य शिक्षार्थी द्वारा नहीं।
अनुशासन / Discipline
अनुशासन के सम्बन्ध में इस दर्शन को विशिष्ट स्थान प्राप्त है चित्त
वृत्तियों के निरोध को अनुशासन की परिणति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और स
हेतु अष्टाङ्ग मार्ग भी सुझाया गया है इसके विविध अंग गहन उपादेयता रखते हैं यदि
सचमुच अनुकरण का प्रयास उच्च कोटि का
अनुशासन स्वतः स्थापित हो जाएगा। इस दर्शन ने चित्त की स्थितियाँ और उनके आरोहण की
स्थिति द्वारा भी क्रमशः उच्च अनुशासन स्थापन की स्थिति को बताया है जिसे समझने
हेतु इस प्रकार वर्णित कर सकते हैं –
चित्त
की स्थितियाँ —–प्रधान गुण
———————–प्रवृत्ति
मूढ़ तमोगुण अकरणीय कार्यों की ओर
विवेक शून्य
क्षिप्त रजोगुण अति चञ्चल
विक्षिप्त
सतोगुण सुख के साधनों की ओर
एकाग्र
अधिक सतोगुण एक विषय पर केन्द्रित
निरुद्ध
अपेक्षाकृत अधिक सतोगुण स्थिर
योग
दर्शन के अनुसार मनुष्य इनमें से जितनी अधिक स्थितियां पार कर लेता है वह उतना ही
अधिक अनुशासित हो जाता है।
शिक्षक व शिक्षार्थी / Teacher and student
योग
दर्शन क्रिया आधारित दर्शन है यह गुरु से अष्टांग योग में महारत की आशा करता है और
विद्यार्थी द्वारा उसके सम्यक अनुकरण की। चित्त को साध अंतिम लक्ष्य की ओर निरन्तर
प्रगति की अन्तः प्रेरणा जगाने वाला शिक्षक ही उत्तम शिक्षक है तथा अष्टांग योग से
समाधि की और तीव्र प्रवृत्त विद्यार्थी उत्तम विद्यार्थी है।
विद्यालय / School
यह
सुरम्य वातावरण में योग के अष्टांग मार्ग के अनुसरण हेतु अध्ययन स्थली को
प्रशिक्षण स्थली के रूप में विकसित करने पर बल देते हैं। विद्यालय ऐसे हों जो
अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति के साधन के
रूप में कार्य कर सकें।
शिक्षा
के अन्य पक्ष –
जनस्वास्थय
2 – आध्यात्मिक
और नैतिक शिक्षा
मूल्याँकन
/ Evaluation
भारतीय पुरातन गौरवशाली इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्तम्भों में से एक
है योग दर्शन। इस दर्शन के सम्यक आकलन में, संरक्षण
व विकास में लम्बे समय तक तत्सम्बन्धी शोध का अभाव रहा है। लेकिन यह दर्शन मानसिक
और शारीरिक विकास में अद्भुत योग प्रदान करता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी
महत्ता को सम्पूर्ण विश्व स्वीकार कर रहा है इसके शिक्षा के अंगों पर प्रभाव गहन
गरिमा से युक्त हैं जो मानवता का पोषण करने में समर्थ है। शोध के अभाव में इसके
विविध आयाम आज भी अछूते हैं। सम्यक विश्लेषण व सार संकलन से इससे सम्पूर्ण मानवता
को शिक्षा परिक्षेत्र में विकास हेतु शारीरिक क्षमताओं की वृद्धि का वरदान प्राप्त
हो सकता है।
आधुनिक युग का वह पुरोधा जिसे हम श्रेष्ठ दार्शनिक, चिन्तक, शिक्षा शास्त्री के रूप में स्वीकारते हैं। इनके क्रान्तिकारी विचारों ने मानवता की दिशा निर्धारण का गम्भीर प्रयास किया मानव को विविध संकीर्णताओं से ऊपर उठा यथार्थ ज्ञान दर्शन का साक्षात्कार कराया और तत्कालीन मानवता को सरल दिशा बोध का सम्यक प्रयास किया।
जीवन की विसंगतियों से जूझते हुए ये थियोसोफिकल
सोसायटी की अध्यक्षा डॉ ० एनी बेसेन्ट के सम्पर्क में आये इनकी प्रतिभा को पहचान
कर उन्होंने इनकी शिक्षा दीक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया और उच्च शिक्षा की
प्राप्ति हेतु इंग्लैण्ड भेजा। जब इन्हे 1922 में
अध्यात्म की अनुभूति हुयी तभी से इनके जीवन की दिशा मानव कल्याणार्थ चिन्तन के
धरातल पर उतरी। मानव को दुखों से छुटकारा दिलाने का मार्ग तलाशना ही जीवन का
उद्देश्य हो गया।
इन्होंने
बौद्धिक वर्ग के बीच अपनी बात रखने के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया,
इंग्लैण्ड, भारत, हालेण्ड में व्याख्यान दिए। इनके विचारों में प्यार (Love)
पर विशेष ध्यान देने की ओर ध्यानाकर्षण किया गया। इन्होने कहा –
“यदि
आपके हृदय में प्यार है तो फिर किसी ईश्वर को तलाश करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि प्यार ही ईश्वर है।”
प्यार हेतु ये
आत्म ज्ञान और आत्म शोध को आवश्यक तत्व स्वीकारते हैं।
शैक्षिक
चिन्तन (Educational thinking)-
इन्होंने
अपने विचारों के प्रसार हेतु व्याख्यान, पुस्तक
लेखन, व्याख्यान संग्रह प्रकाशन आदि को माध्यम बनाया आज इनकी
कैसेट्स भी उपलब्ध है इनका मूल कार्य अंग्रेजी में है लेकिन आज विविध भारतीय भाषाओँ
में इनका अनुवाद हो चुका है। हिन्दी में
अनुवादित कुछ रचनाओं को इस प्रकार क्रम दे सकते हैं –
संस्कृति का प्रश्न,स्कूलों
के नाम पत्र, हिंसा से परे, ज्ञान से मुक्ति, जीवन
की पुस्तक,प्रथम एवं अंतिम मुक्ति,जो
मनुष्य कुछ नहीं है वह सुखी है,
ध्यान,
आनन्द की खोज,दिमाग ही दुश्मन
है?, ईश्वर क्या है?, प्रेम क्या है?, मन क्या है?, शिक्षा क्या है?, जीवन
और मृत्यु, सत्य और यथार्थ, सोच
क्या है? आदि ।
शिक्षा से आशय /Meaning of education -
इनके द्वारा
स्थापित संस्था ‘कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन’ आज
भी इनके विचारों के क्रियान्वयन कर रही है
इनके लेखन व विचारों से शिक्षा की प्रभाव शीलता स्पष्ट होती है इन्होने कहा
–
“शिक्षा द्वारा ही मनुष्य को जीवन का सही अर्थ समझाया जा सकता है और शिक्षा
द्वारा ही उसको गलत रास्ते से सही रास्ते पर लाया जा सकता है।”
इनका मानना हे कि शिक्षा विश्व को वस्तुगत रूप से देखना सिखाती है
इसीलिये जे ० कृष्णमूर्ति महोदय
स्पष्ट रूप से कहते हैं –
“शिक्षा का कार्य तुम्हें एक पूर्णतया मित्र बुद्धिमत्ता पूर्ण तरीके से
संसार का सामना करने में सहायता करना है।”
“The function of education is to help you to face
the world in a totally different intelligent way.”
अर्थोपार्जन को यह मात्र एक पक्ष के रूप में स्वीकारते
हैं और रटना, डिग्री प्राप्त करना, परीक्षा
पास करना आदि को शिक्षा नहीं मानते ये कहते हैं –
“अन्तः मन का ज्ञान ही शिक्षा है।”
शिक्षा के उद्देश्य /Aims of education –
बहुत से विद्वानों से भिन्न मत रखते हुए जे ० कृष्ण मूर्ति महोदय कहते हैं -
"To be really educated means not to confirm, not to imitate, not to do what millions and millions are doing. If you feel like doing that, do it, but be awake to what you are doing.''
"वास्तविक रूप से शिक्षित होने का अर्थ करोड़ों जो कर रहे हैं उससे अनुरूपता, उसका अनुसरण, उसे करना नहीं है। यदि तुम वह करना चाहते हो तो करो? परन्तु जो कुछ तुम कर रहे हो उसके प्रति जागरूक रहो। ''
जे ० कृष्ण मूर्ति एकीकृत मानव, समग्र या सम्पूर्ण मानव के प्रगटन हेतु शिक्षा को एक आवश्यक कारक के रूप में स्वीकार करते हैं और इसकी प्राप्ति हेतु शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य इनके विचारों द्वारा स्पष्ट होने लगते हैं जिन्हे हम इस प्रकार क्रम दे सकते हैं -
1 - आत्म ज्ञान का उद्देश्य/Purpose of self-knowledge -
इनका मानना है कि प्रत्येक मानव स्वयं को जानने का प्रयास करे इनका अपने को
जाने से आशय चेतन आत्म तत्व को जानने से नहीं है बल्कि ये चाहते हैं कि शिक्षा यह जानने में मदद करे कि हम क्षण
क्षण क्या हैं अर्थात विभिन्न क्षणों में हम क्या सोचते, विचार
करते, अनुभव करते हैं हमें उसे जानने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा
न हो कि जिस धर्म का उद्भव मानव से हुआ है वह उसका गुलाम बनकर न रह जाए।
2 - सृजन शीलता का विकास/Development of creativity -
इससे इनका आशय शरीर, आत्मा, मन
तीनों की सृजनशीलता से है। विद्यार्थियों को स्वतंत्र निर्णयन के अवसर प्रदान किये
जाएँ इनके ऊपर अपने विचार थोपने का प्रयास न किया जाए। यह भयमुक्त वातावरण
सृजनशीलता की वास्तविक पृष्ठ भूमि तैयार करेगा।
3 - वर्तमान महत्त्वपूर्ण/Importance ofPresent time -
ये कहते हैं कि काल की सत्ता नहीं है और शुद्ध चेतना मात्र का अस्तित्व है।
हमारे जीवन का वर्तमान क्षण ही प्रिय अप्रिय भूत या भविष्य से सम्बन्ध रखने वाला
हो सकता है इसीलिये ये जीवन में वर्तमान को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। अतः शिक्षा
वर्तमान में जीना सिखाये।
4 - विज्ञान का यथोचित समावेशन /Reasonable inclusion of science-
ये विज्ञान व तकनीकी के विरोधी नहीं थे इनका मानना था की विज्ञान को मानव
के विकास का सहयोगी होना चाहिए। ये विज्ञान के सम्यक प्रयोग द्वारा मानव मात्र का
कल्याण करना चाहते थे।विज्ञान व तकनीकी को कोई ऐसा कार्य सम्पादित नहीं करना चाहिए
जो मानवता विरोधी हो।मानव मात्र के कल्याणार्थ अध्यात्म और विज्ञान का यथायोग्य
सम्मिलन भी होना चाहिए।
5 - संवेदनशीलता में वृद्धि /Increased sensitivity-
इनका मानना था कि बालकों को प्रतिस्पर्धा और भय मुक्त वातावरण मिले अनुशासन
के साथ संवेदनशीलता का गन अपरिहार्य है। बच्चों में प्रेम का ऐसा प्रस्फुटन हो
जिससे वे प्रकृति व मानव मातृ से प्रेम करना सीख सकें। वे इतने संवेदनशील बनें की
क्रोध, घृणा,
हिंसा,
द्वेष को भाव पूर्ण तिरोहित हो जाए।
6 -व्यावसायिक योग्यता का विकास/Development of professional competence-
यह नितान्त पलायनवादिता की जगह व्यावहारिकता से बालक को जोड़ना चाहते थे इसी
लिए बालक को व्यावसायिक निपुणता सिखाना चाहते थे क्योंकि जीवन यापन हेतु कोइ न कोइ
व्यवसाय प्रत्येक को करना ही होता है।शिक्षा को इंगित करते हुए मानव को एक विशेष
सन्देश देते हुए इन्होने कहा –
“Education must help in facing the world in a totally different,
intelligent way, knowing you have to earn a livelihood, knowing all the
responsibilities the miseries of it all.” Begning of Learning, p 171
“यह जानते हुए की तुमने जीविकोपार्जन करना है, सम्पूर्ण
जिम्मेदारियों को निभाना है उस सबका दुःख उठाना है। शिक्षा को तुम्हें एक पूर्णतया
मित्र, बुद्धिमत्ता पूर्ण तरीके से संसार का सामना करने में
सहायता करनी चाहिए। ”
7 - नवीन मूल्यों की वाहक संस्कृति का निर्माण/Creating a culture of new values-
इनका स्पष्ट रूप से मानना था कि विविध संस्कृतियों का प्रभाव हमारे
दृष्टिकोण को संकीर्ण कर देता है जबकि आवश्यकता है पूर्व धारणाओं व पूर्वाग्रहों
से मुक्त होने की। शिक्षा का उद्देश्य ऐसी अन्तः चेतना व आत्मिक उत्थान की पृष्ठ
भूमि बनाना है जो दृढ़तापूर्वक हमें पूर्वाग्रहों के खिलाफ खड़ा कर सके। तभी नवीन
मूल्यों व नव संस्कृति का उद्भवन सम्भव हो सकेगा।
पाठ्यक्रम Syllabus
जे ० कृष्णमूर्ति जी का मानना था कि पाठ्यक्रम ऐसा हो जो सम्पूर्ण मानव
बनाने में सहयोग प्रदान कर सके। इन्होने आर्थिक पक्ष की सबलता हेतु व्यावसायिक शिक्षा, भौतिक
विज्ञान, मानवोपयोगी विज्ञान तकनीकी के प्रयोग पर बल दिया। तथा
भावात्मक पक्ष के प्रबलन हेतु सृजनात्मकता, सौन्दर्य
बोध, कविता कला, सङ्गीत को
पाठ्यक्रम में स्थान देने की बात कही है।
शिक्षण विधियाँTeaching methods
इन्होंने अधिगम की प्रभावशीलता की वृद्धि हेतु निम्न विधियों का समर्थन
किया।
1 – निरीक्षण
विधि
2 – अनुभव
आधरित विधि
3 – स्वाध्याय
4 – परीक्षण
विधि
5 – श्रवण
6 – शान्ति
व मनन
7 – ध्यान
इन्होने ध्यान की महत्ता की गहन
अनुभूति की। जिससे उसके गूढ़ अर्थ निकलते हैं ये मानते हैं कि ध्यान इच्छा शक्ति, निष्प्रयोजन, और
चेष्टा विहीन होता है। जिससे एकाग्रता उद्भूत होकर आत्म ज्ञान के प्रति सचेष्ट
रखती है।
अध्यापक/Teacher
इन्होने बहुत स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया की गुरु एक एकीकृत मानव होना
चाहिए वह धैर्य की प्रतिमूर्ति हो और बच्चों के साथ उसका व्यवहार प्रेम पूर्ण हो।
अपनी इच्छा थोपने की जगह वह विद्यार्थियों की सीखने में मदद करने वाला हो। इस
प्रकार अच्छा अध्यापक वह होगा जो प्रेम के आधार पर बच्चों में लोकप्रिय होगा।
विद्यार्थी/Student
ये विद्यार्थियों को ऐसी चेतना से युक्त करना चाहते हैं जो उनमें वह शक्ति पैदा कर सके जिससे वे स्वयम्
मूल्य सिद्धान्त व नियमों का चयन कर सकें। वे यह बिलकुल नहीं चाहते की उनपर किसी
तरह के सामाजिक, राजनैतिक,
आर्थिक,
सांस्कृतिक,धार्मिक
पूर्वाग्रह थोपे जाएँ। इन्होने
विद्यार्थियों से स्पष्ट रूप से कहा –
“Education implies to live a life of
tremendous order in which obedience is under stood, in which it is seen
where conformity in necessary and where it is totally unnecessary, as to see
when you are imitating.” Ibid p.187
“वास्तविक शिक्षा एक जबरदस्त व्यवस्था का जीवन जीना
है जिसमें आज्ञापालन को समझ लिया जाता है, जिसमें
यह जान लिया जाता है कि कहाँ अनुरूपता आवश्यक है और कहाँ वह पूर्णतया अनावश्यक है, यह
देख लिया जाता है कि कब आप अनुकरण कर रहे हैं।”
अनुशासन/Discipline
ये विद्यार्थियों को आतंरिक व वाह्य दोनों प्रकार की स्वतन्त्रता देना
चाहते हैं। और आत्म अनुशासन के प्रचलित सिद्धान्तों को भी नहीं मानते। लेकिन साथ
हे यह भी कहते हैं की स्वतन्त्रता का अर्थ स्वछंदता नहीं है दूसरों का ध्यान रखा
जाए उनके प्रति विवेकशील,
नम्र व यथोचित व्यवहार किया जाए।
विद्यालय /School
यह प्रभावी अधिगम,
अध्यापन,
व्यवस्थापन हेतु विद्यालय की भूमिका को स्वीकार करते थे।
इन्होने विद्यालय सुसंचालन हेतु प्रशासन में अध्यापक व विद्यार्थियों की भागीदारी
की बात कही। ये चाहते थे कि विद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या को सीमित रखा
जाए। विद्यालय की समस्याओं के निराकरण हेतु शिक्षक परिषद व छात्र परिषद का निर्माण
किया जाए। छात्र परिषद में भी शिक्षकों का प्रतिनिधित्व हो ,विद्यालय
की साफसफाई ,अनुशासन,
भोजन आदि की जिम्मेदारी विद्यार्थियों को दी जाए। ऐसे
पर्यावरण का निर्माण किया जाए जिससे विद्यार्थी अपनी शक्तियों को पहचान सकें और
स्वयम् समस्या निराकरण में सक्षम बन सकें।
अन्य आवश्यक पक्ष/Other necessary dimensions
1 – नैतिक व
धार्मिक शिक्षा
2 – जन शिक्षा
3 – स्त्री
शिक्षा
4 – व्यावसायिक
शिक्षा
शैक्षिक चिन्तन का मूल्याङ्कन/Assessment of academic thinking
जे ० कृष्णमूर्ति महोदय शिक्षा को साधारणतया जिन अर्थों में स्वीकार किया जाता
है उसके अनुसार ये पुनः विचार की विषय वस्तु है इन्होने कहा –
“Education generally used to mean learning out of
books, storing up information and using it either selfishly or a particular
cause or a particular sect, and marketing oneself important in that sect of
organisation.”
“साधारणतया शिक्षा का अर्थ पुस्तकों को पढ़ना, जानकारी
का संग्रह करना और उसे या तो स्वार्थ के लिए या किसी विशिष्ट कारण के लिए, किसी
विशेष सम्प्रदाय के लिए स्वयं को उस सम्प्रदाय में अथवा संगठन में महत्त्वपूर्ण
बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। ”
ये अन्तः चेतना के विकास की बात करते हैं जबकि सर्वांगीण विकास में प्रगति
के अधिक बीज संग्रहीत हैं।
उद्देश्यों के क्रम जो पूर्ण मानव के विकास की बात इनके द्वारा रखी गयी
उसके निर्माण हेतु सुझाये गए साधन और बताया गया पाठ्यक्रम अपर्याप्त है। यहां तक
स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अन्तः चेतना विकास की यात्रा इस पाठ्य क्रम से होना
संभव नहीं है। शिक्षण विधियों में मनोवैज्ञानिकता अच्छी विचारधारा है पर कोई नई
विधि सुझाई नहीं गयी है। गुरु शिष्य सम्बन्धों को ये आवश्यक नहीं मानते और कहते
हैं –
“Disciple means one who learns but the generally
accepted meaning is that a disciple is one who follows someone, some guru, some
silly person. But both the follower and the one who follows are not learning,”
“शिष्य का अर्थ है जो सीखता है परन्तु शिष्य का साधारण स्वीकृत अर्थ वह है
जो किसी का, किसी गुरु का, किसी
बुद्धिहीन व्यक्ति का अनुसरण करता है,ऐसी
स्थिति में गुरु और शिष्य दोनों नहीं सीख रहे हैं।”
यदि निष्पक्षता के चश्मे से देखा जाए तो इसमें सत्य का अंश परिलक्षित होता
है। शिक्षण को प्रभावी बनाने हेतु जो कम संख्या विद्यालय से संयुक्त करने की बात
इन्होने की वह सैद्धांतिक दृष्टिकोण से अच्छी लगती है पर भारत जैसे अधिक जनसंख्या
वाले देश में व्यावहारिक नहीं है।
कुल मिलाकर इनके विचार नवपरिवर्तन की इच्छा से युक्त लगते हैं पर स्पष्ट
रूप रेखा के अभाव में मजबूत सम्बल नहीं मिल सका है। ध्यान, आत्म
ज्ञान ,आत्म शोध हेतु स्तर का अभाव दिखता है। परन्तु इनके
द्वारा स्थापित विद्यालय प्रेम,
सौंदर्य बोध, सहयोग की अपनी
विचार श्रृंखला के कारण ये हमेशा याद किये
जाएंगे।
रूसो का जीवन बहुत से विरोधाभासों का एक समुच्चय है,वह जेनेवा के एक साधारण कसवे में पैदा हुआ
जिसकी माँ बाल्यावस्था में चल बसी और पिता ने उपन्यासों, कल्पना, संवेदना
द्वारा उसे अकाल प्रौढ़ता प्रदान कर दी, वह
दो वर्ष जेनेवा से बाहर रहा जिसमें उसे प्रकृति के प्रति अनुराग जाग्रत हुआ। उसका
निजी जीवन निम्न कोटि का रहा काहिली और बुरी सङ्गति में उसने कई वर्ष व्यतीत किये
बाद में जीवन की कृत्रिमताओं ने उसे व्यथित कर दिया लेकिन इन सारी स्थितियों में
वह अध्ययन करता रहा वह उसकी निम्न कोटि की नौकरी के कारण जैसा भी रहा। कृत्रिमता
के प्रति घृणा का स्तर बढ़ा और प्रतिक्रिया स्वरुप व्यर्थ सामाजिक आदर्श, कृत्रिमता के आवरण में लिपटी चरित्र हीनता को
जब उसने जनमानस के समक्ष रखा तो सुषुप्त जनमानस में क्रांतिकारी ज्वार आ गया और वह
अकस्मात् प्रसिद्द हो गया। अन्ततः वह एक अच्छे अध्यापक, नाटककार, संगीतज्ञ
व लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उसने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सृजित किये।
1 – प्रोजेक्शन फॉर द एजुकेशन ऑफ़ एम० डीसेंट मैरी
2 – डिस्कोर्स ऑन द साइंसेज
एन्ड आर्ट्स (1750)
3 – ओरिजिन ऑफ़ इनइक्विलिटी एमंग मैन (1755)
4 – डिस्कोर्सऑन पोलिटिकल इकोनॉमी (1755)
5 – द न्यू हेलाइस (1761)
6 – द सोशल कॉन्ट्रेक्ट (1762)
7 – एमील (1762)
8 – सोशल इनइक्विलिटी(1754)
9 – कॉनफैशन ऑफ़ द विकार ऑफ़
सेवाय
रूसो के अनुसार शिक्षा (Education according to Rousseau)-
1 – शिक्षा
एक स्वाभाविक प्रक्रिया
2 – शिक्षा
के दो रूप
(a) – सार्वभौमिक शिक्षा -राज्य द्वारा जैसा कि
प्लैटो की रिपब्लिक में
(b) – घरेलू शिक्षा – घर द्वारा जैसा कि एमील में
वर्णित
3 – आन्तरिक
शक्ति का विकास सच्ची शिक्षा
Rousseau –
“True education is something
that happens from within the individual. It is an unfolding of his own latent
powers.”
“सच्ची शिक्षा वह है जो व्यक्ति के भीतर से होती है। यह उसकी अपनी
गुप्त शक्तियों का प्रकटीकरण है।”
4 – शिक्षा
सभी के लिए आवश्यक
5 – शिक्षा
का परम लक्ष्य – सुव्यवस्थित स्वतन्त्रता
रूसो महोदय के अनुसार –
“वही व्यक्ति स्वतन्त्र है जो उसी बात की
कामना करता है जो करना चाहता है और वही करता है जो चाहता है।”
6 – शिक्षा
आयु के अनुसार →शैशवावस्था →बाल्यावस्था →किशोरावस्था →युवावस्था
7 – शिक्षा
का उद्देश्य मानव को मानव बनाना →रूसो
स्वयं कहते हैं कि →
“मैं यह बात स्वीकार करता हूँ कि मेरे पढ़ाने के
बाद वह सबसे पहले मनुष्य बनेगा,न्यायाधीश,सैनिक,पादरी
बाद में। ”
8 – शिक्षा
प्राकृतिक शक्तियों का विस्तार → उन्होंने
स्पष्ट रूप से कहा –
“यह प्राकृतिक शक्तियों का एक विस्तार है न कि
सूचनाओं का एक संग्रह। यह स्वयं जीवन है न कि बाल्यजीवन की रुचियों एवं विषमताओं से दूर भावी जीवन की एक तैयारी। ” ((भाषा और भूगोल थोपना गलत)
शिक्षा के उद्देश्य (Aims of education) –
1 – इन्द्रिय
प्रशिक्षण (Sense training)
2 – शारीरिक
विकास (Physical
development)
3 – बुध्दि
का विकास (Development of intelligence)
4 – भावात्मक
विकास Emotional
development)
5 – जीवन
कला (Life art)
6 – अधिकार
रक्षा (Protection of
rights)
7 -व्यक्तित्व
विकास (Personality development)
पाठ्यक्रम (Syllabus) →
रूसो महोदय ने पाठ्यक्रम को तीन भागों में बाँटा –
A – प्रकृति
सम्बन्धी विषय – प्राकृतिक विज्ञान,भूगोल
आदि
B – मनुष्य
सम्बन्धी विषय – भाषा,मनोविज्ञान,समाजिकशास्त्र, राजनीति शास्त्र,अर्थशास्त्र,आदि।
C – वस्तु
सम्बन्धी विषय – भौतिक शास्त्र और पदार्थ विज्ञान।
4 – युवावस्था
→ धर्म, नीति, इतिहास, कला, संगीत, यौन
शिक्षा, प्राकृतिक विज्ञान, अर्थ शास्त्र, राजनीति शास्त्र,सामाजिक
शास्त्र आदि
नारी शिक्षा हेतु गृह
विज्ञान,संगीत,नृत्य,सिलाई,बुनाई,धर्म,नीति
आदि ।
*निषेधात्मक शिक्षा – रूसो महोदय के अनुसार -→
“शिक्षा निषेधात्मक होनी चाहिए। निषेधात्मक शिक्षा का अर्थ आलस्य में
समय बिताना नहीं है बल्कि जो ज्ञान देने के पूर्व बालक के शारीरिक व मानसिक विकास
के द्वारा उसे विचारशील बनाती है वही निषेधात्मक शिक्षा है। इस शिक्षा के द्वारा
बालक अपना अच्छा बुरा पहचानने में समर्थ हो जाता है।”
रूसो तत्कालीन व्यवस्था से इतना दुःखी था कि उसे कहना पड़ा -→
“Take the reverse of the accepted practice and you will
almost always do right.”
“शिक्षा के जितने प्रचलित सिद्धान्त हैं उसके विपरीत कार्य करो तभी
तुम सही काम कर सकोगे।”
शिक्षण विधियाँ (Teaching methods) –
व्यवसाय की शिक्षा तथा हाथों का प्रयोग उसे प्रिय है पुस्तकों में
संलग्नता की जगह हाथों का काम उचित है इस हेतु ‘योजना पद्यति’
का एक रूप उसने दिया। करके सीखना, योजना
पद्यति का वर्णन उसने व्यवहार वाद से पहले ही कर दिया। केवल भाषण व आदेशात्मक
शिक्षा का वह विरोधी था। भ्रमण द्वारा शिक्षा, प्रकृति
निरीक्षण व स्व अनुभव द्वारा शिक्षण पर वह बल देता था। उसने स्वयं शोध व
उपदेशात्मक शिक्षण विधि को स्वीकार किया।
गुरु शिष्य सम्बन्ध (Teacher-disciple relationship) –
वह बालकेन्द्रित शिक्षा पर अधिक बल देता है, अध्यापक शिक्षा हेतु वातावरण सृजित करे उसकी
महती भूमिका परदे के पीछे है। कृत्रिमता से हटाकर प्रकृति सानिध्य में लाने का
कार्य अध्यापक का है उसने ऐन्द्रिक विकास हेतु शिक्षक का आवाहन किया और कहा –
“All wickedness comes from weakness, a child is
bad because hi is weak, make him strong and hi will be good.”
“सारे दोष कमजोरी से आते हैं बालक कमजोर है
इसलिए बुरा है उसे बलिष्ठ बनाओ और वह अच्छा हो जाएगा।”
अनुशासन (Discipline) –
ये बच्चे को समाज से दूर प्राकृतिक वातावरण में रखना चाहते थे इनका
मानना था –
“Everything is good as it comes from the hands of
the author of nature, men maddle with it and it degenerates.”
“सब कुछ अच्छा है क्योंकि यह प्रकृति के लेखक के
हाथों से आता है, पुरुष इसके साथ खिलवाड़ करते हैं और यह पतित हो जाता है।”
इसीलिये इन्होने स्वतन्त्रता का सिद्धान्त व प्राकृतिक परिणामों को
स्वीकारने की बात कही।
विद्यालय (School)-
ये चाहते थे की प्राकृतिक वातावरण में विद्यार्थी स्वतन्त्रता पूर्वक
अध्ययन करें और अध्यापक उनके सहयोगी के रूप में कार्य करें न कि अनुदेशक के रूप
में। बच्चे को प्रेम पूर्वक सिखाएं व अधिकतम स्वतन्त्रता प्रदान करें।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनके कई विचार
अर्थहीन हो चुके हैं लेकिन उनका ‘प्रकृति की ओर लौटो‘
का नारा आज भी प्रासंगिक है और बाल केन्द्रित
शैक्षिक अवधारणाएं आज भी रूसो के विचारों की प्रदक्षिणा करती दीखती हैं। उन्हें
लोकतन्त्र के प्रणेता के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।
भारतीय षड दर्शन में सांख्य सर्वाधिक प्राचीन
है सांख्य सिद्धान्त के संकेत छान्दोग्य, प्रश्न, कठ और विशेषतया श्वेताश्वर उपनिषद से प्राप्त
होते हैं याकोबी के अनुसार इसका प्रगटन उपनिषदों के रचनाकाल के बीच हुआ। प्राचीन
काल से ‘नहि
सांख्य सम ज्ञानम्’
कहकर इसकी प्रशंसा की जाती रही है इसी आधार पर
मैक्समूलर जैसे पाश्चात्य विद्वान ने इसे
अद्वैत वेदान्त के बाद हिन्दुओं का प्रिय और प्रमुख दर्शन कहा है। आचार्य शंकर ने
इसे वेदान्त का प्रमुख मल्ल कहा है। सांख्य दर्शन को ‘षष्टि तन्त्र ‘ के नाम से भी जाना जाता है आचार्य कपिल सांख्य के प्रतिस्थापक आचार्य
माने जाते हैं।
इस दर्शन ने सर्वप्रथम तत्वों की गिनती की
जिसका ज्ञान हमें मोक्ष की ओर ले जाता है गिनती को संख्या कहते हैं संख्या की
प्रधानता के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।
दूसरी व्याख्या के अनुसार सांख्य का अर्थ विवेक
ज्ञान है प्रकृति तथा पुरुष के विषय में अज्ञान होने से यह संसार है और जब हम इन
दोनों के ‘विवेक’ को
जान लेते हैं कि पुरुष प्रकृति से भिन्न तथा स्वतन्त्र है तब हमें मोक्ष की
प्राप्ति होती है। इसी विवेक ज्ञान की
प्रधानता होने के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा।
आचार्य कपिल की दो रचनाएँ उपलब्ध हैं एक तत्व
समास और दूसरी सांख्य सूत्र। तत्व समास सांख्य दर्शन की प्राचीनतम रचना है इसमें
केवल 22 सूत्र हैं सांख्य सूत्र में केवल 537 सूत्र हैं इसकी व्याख्या में निम्न सांख्य
ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
1 – सांख्य कारिका (ईश्वर कृष्ण)
2 – जय मङ्गला
3 – युक्ति दीपिका
4 – हिरण्य सप्तति (परमार्थ भिक्षु)
5 – सांख्य तत्व कौमुदी (वाचस्पति मिश्र)
6 – चन्द्रिका (नारायण तीर्थ)
7 – सरल सांख्य योग (हरि हराण्यक
8 – सांख्य प्रवचन (विज्ञान भिक्षु)
9 – सांख्य तत्व विवेचन
(सोमा नन्द)
10 – सांख्य तत्व यथार्थ दीपन (भाव गणेश)
सांख्य दर्शन के अनुसार शिक्षा :-
सांख्य दर्शन में प्रकृति तथा पुरुष दोनों को
मूल तत्व माना गया है और इन दोनों में मूल भूत अन्तर किया गया है इस प्रकार शिक्षा
की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जो प्रकृति और पुरुष
भेद का ज्ञान प्रदान कर सके। यह शिक्षा प्रक्रिया को बालकेन्द्रित बताते
हुए प्रतिपादित करती है कि मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है। जो विवेक ज्ञान एवम् योग साधना द्वारा प्राप्त
किया जा सकता है। हम
सृष्टि प्रक्रिया को इस प्रकार समझ सकते हैं –
त्रिगुणात्मक
पुरुष —-प्रकाश ——— ↓
महत
(बुद्धि)
↓
अहंकार
↓
पञ्च महाभूत
आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी
सांख्य
दर्शन के मूल सिद्धान्त :-
1 – प्रकृति व पुरुष के योग से सृष्टि निर्मित
2 – प्रकृति व पुरुष दोनों मूल तत्व – पूरक
3 – पुरुष की स्वतन्त्र सत्ता – वह अनेक –
अनेकात्मवादी दर्शन
4 – मनुष्य (प्रकृति व पुरुष का योग) – सप्रयोजन
5 – मनुष्य का विकास उसके जड़ व चेतन तत्वों पर
निर्भर -तीन दशाएं -1 -शारीरिक, 2 – मानसिक, 3 –
आध्यात्मिक
6 – मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति (दुःख
त्रय से मुक्ति) – शरीर का नाश
7 – मुक्ति के लिए विवेक ज्ञान आवश्यक
8 – विवेक ज्ञान के लिए अष्टांग मार्ग (योग साधन
आवश्यक)
9 – योग मार्ग की प्रमाणिकता हेतु नैतिक आचरण
आवश्यक (यम, नियम अनुपालन)
सांख्य
दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य :-
1 – शारीरिक विकास
2 – मानसिक विकास
3 – भावनात्मक विकास
4 – बौद्धिक विकास
5 – नैतिक विकास
6 – मोक्ष प्राप्ति
7 – सद् तथा असद् को समझना (उचित आचरण विकास)
8 – सर्वाङ्गीण विकास
शिक्षा
का पाठ्यक्रम :-
इन्होने
अपने पाठ्यक्रम को भौतिक व आध्यात्मिक आधार प्रदान किया।
भौतिक
विकास के अन्तर्गत ये कर्मेन्द्रिय का विकास लक्ष्य मानते हैं और इसके लिए विविध
पाठ्य सहगामी क्रियाओं व खेल कूद को प्रश्रय देना चाहते हैं।
आध्यात्मिक
विकास हेतु ये ज्ञानेन्द्रियों का विकास करना चाहते हैं और इस हेतु योग,दर्शन,मनोविज्ञान
को प्रश्रय देना चाहते हैं।
शिक्षण
विधि :-
सांख्य
दर्शन मुख्यतः तीन विधियों प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द को प्रयोग करने पर जोर देता है।
प्रत्यक्ष
विधि – इसमें ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को क्रिया शील बनाया जाता है
जिससे अनुभव व प्रत्यक्षीकरण का अवसर मिलता है।
अनुमान
विधि – इसमें इन्द्रियों से परे चेतना को जिसमें अनुभूति हेतु अवसर प्रदान किया
जाता है इसमें भाव पक्ष प्रधान होता है।
शब्द
विधि – इसके अन्तर्गत दृष्टान्तों,उदाहरणों का उपयोग किया जाता है जिसमें ज्ञान
की प्रमाणिकता सिद्ध होती है।
इनके
अतिरिक्त यह कुछ अन्य विधियों के प्रयोग को भी उचित समझते हैं यथा – सूत्र विधि, कहानी विधि, व्याख्यान
विधि,तर्क विधि, क्रिया
एवम् अभ्यास विधि।
शिक्षक
शिष्य सम्बन्ध –
सांख्य
गहन मीमाँसा का दर्शन है अतः शिक्षक का विषय पर स्वामित्व परमावश्यक है। अध्यापक
में यह योग्यता होनी चाहिए कि वह प्रकृति, पुरुष, जगत सम्बन्धी ज्ञान रखने के साथ विविध सूक्ष्म
अन्तरों को व्यवस्थित तरीके से अधिगम कराने में समर्थ हो।
शिष्य
–
इस
दर्शन के अनुसार विद्यार्थी का व्यवहार नैतिकता पर अवलम्बित हो वह ज्ञान लब्धि
हेतु जिज्ञासु हो व अपने गुरुओं के प्रति आदरभाव रखने वाला हो। सांख्य दर्शन अनुशासन को सर्व प्रथम वरीयता देता
हैं वस्तुतः सांख्य और योग दर्शन एक दूसरे के पूरक हैं और इसीलिये ये यम (अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य)
व नियम (शौच, सन्तोष, तप,स्वाध्याय,ईश्वर
प्राणिधान) का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहते हैं।
विद्यालय
–
योग
और सांख्य समकालीन दर्शन हैंइस समय गुरुकुल प्रणाली प्रचलित थी तथा शिक्षा गुरु
आश्रम में प्रदान की जाती थी।
सांख्य दर्शन का प्रभाव शिक्षा के विभिन्न अंगों पर आज भी परिलक्षित
होता है और इसे किसी प्रकार कमतर नहीं आँका जा सकता।
अस्तित्व वाद एक ऐसा चिन्तन है जिसे दायरे में कैद करना बहुत मुश्किल
है विश्लेषक कई बार इस भ्रम का शिकार हो जाते हैं कि क्या इसे दार्शनिक चिन्तन के
परिक्षेत्र में स्वीकारा जाए। वस्तुतः यह एक सङ्कट का दर्शन है मानव आज स्वयं से
भी अजनबी होता जा रहा है। यह विविध चिन्तनों के विरोध स्वरुप उत्पन्न हुआ है। और
मानव मात्र के अस्तित्व से जुड़ा है, इसीलिए इस वाद के चिन्तन की धुरी मानव व उसका
अस्तित्व ही है। अस्तित्ववाद सङ्कट (Crises) का वह दर्शन है जो बीसवीं शताब्दी की देन है और
व्यक्ति के मौलिक व्यक्तिगत अस्तित्व पर बल देता है।
सोरेन किर्कगार्द, मार्टिन
हीडेगर,जीन पॉल सात्रे वे प्रसिद्ध नाम हैं जो
अस्तित्ववाद के पोषकों में सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।
सोरेन किर्कगार्द(Soren Kierkegaard) चाहते थे कि व्यक्ति को चयन की पूर्ण स्वतन्त्रता मिले और जो वह
बनाना चाहता है उसके लिए वह स्वतंत्र हो।
मार्टिन हीडेगर(Martin Heidegger) मानते थे कि मनुष्य का अस्तित्व नश्वर है सीमित है मृत्यु सभी
सम्भावनाओं का अन्त कर देती है और सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है।
जीन पॉल सात्रे Jean Paul Satre (1905 -82) ने अपने दर्शन को अस्तित्ववादी स्वीकारा है वह
इस दर्शन को किसी का पिछलग्गू नहीं मानता। वे स्वीकार करते हैं कि मनुष्य का अस्तित्व किसी पूर्वसत्ता और
सिद्धान्त पर निर्भर नहीं करता बल्कि वे कहते हैं
‘मैं
हूँ इस लिए मेरा अस्तित्व है।’
DEFINITIONS OF
EXISTENTIALISM
अस्तित्व वाद की परिभाषाएं –
अस्तित्ववाद वह दर्शन है जिसमें मानव की स्वतन्त्रता के सच्चे दर्शन
होते हैं इसे हम एक अभिमत के रूप में स्वीकार कर सकते हैं इसे मानव जीवनके प्रति
एक दृष्टिकोण कहना भी तर्क संगत होगा आर०एन० बेक महोदय कहते हैं –
“The term
(Existentialism) refers to a type of thinking that Emphasizes human existence
and the qualities peculiar to it rather than to nature or Physical world.”
“अस्तित्ववाद एक प्रकार के चिन्तन की और संकेत
करता है जो प्रकृति अथवा भौतिक संसार की अपेक्षा मनुष्य के अस्तित्व और उसके गुणों
पर बल देता है।”
एक अन्य प्रसिद्ध विचारक एच० एच० टाइटस महोदय कहते हैं –
“Existentialism is an attitude and outlook that
Emphasizes human existence that is distinctive qualities of individual persons
rather than man in the abstractor nature and the world in general.”
“अस्तित्ववाद सामान्य रूप में विश्व और प्रकृति
अथवा सामान्य मानव की अपेक्षा ‘व्यक्ति‘ के रूप में मनुष्य के विशिष्ट गुणों पर जोर
देता है।”
अस्तित्ववाद के सम्बन्ध में प्रो ० रमन बिहारी लाल का कहना है
–
“अस्तित्ववाद एक ऐसा बन्धनमुक्त चिन्तन है जो
नियतिवाद एवं पूर्व निश्चित दार्शनिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं नियमों में विश्वास नहीं करता
और यह प्रतिपादन करता है कि मनुष्य का स्वयं में अस्तित्व है और जो वह बनाना चाहता
है उसका चयन करने के लिए स्वतंत्र है। इसके अनुसार मनुष्य वह है जो वह बन सका है
अथवा बन सकता है और उसका यह बनना उसके स्वयं के प्रयासों पर निर्भर करता है। ”
अस्तित्व वाद की विभिन्न मीमांसाएँ –
किसी दर्शन किसी को समझना उसकी मीमांसाओं को जानने से सरल हो जाता है
आइये सबसे पहले जानते हैं –
अस्तित्ववाद की तत्व मीमांसा (Metaphysics of Existentialism) –
सात्रे चेतना और पदार्थ दोनों की सत्ता के स्वतन्त्र अस्तित्व को
स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि वास्तु का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है ,मानव की चेतना में आने से पहले भी वस्तु
अस्तित्व में थी, है और रहेगी। ये मानव के अस्तित्व को व्यक्तिगत मानते थे और विश्वास
करते थे कि यह उसके साथ ही समाप्त हो जाने वाला है इनके अनुसार मनुष्य जन्म के साथ
अस्तित्व में आता है और मृत्यु के साथ अस्तित्व विहीन हो जाता है। हीदेगर के
अनुसार हताशा,चिन्ता तथा इसके द्वारा होने वाला दुःख स्वयं
प्रमाणित है इनका अनुभव प्रत्येक मानव करता है।
अस्तित्ववाद की ज्ञान व तर्क मीमांसा (Epistemology of Existentialism)
–
इन विचारकों का मानना था कि मनुष्य जीवन पर्यन्त जो अनुभव विभिन्न
माध्यमों से करता है और इस माध्यम से अपनी चेतना और भावनाओं को जिस प्रकार युक्त
करता है वही ज्ञान है इस ज्ञान को वह स्वतंत्र तरीकों से विभिन्न विधियों द्वारा
प्राप्त करता है। लेकिन यह सत्य तभी स्वीकारा जाएगा जब सत्यापित हो जाएगा। ये
अनुभव जनित ज्ञान के ठीक विपरीत विचार को लेकर तर्क द्वारा ज्ञान की सत्यता को
प्रमाणित करना आवश्यक मानते हैं।
अस्तित्ववाद की मूल्य व आचार मीमांसा (Values and Ethics of
Existentialism)-
ये मानव हेतु किसी पूर्व स्वीकृत मूल्य या आचार संहिता को स्वीकार
नहीं करते,इनका तो मूल मन्त्र ही यह है की वह अपने अनुसार
चयन के लिए स्वतन्त्र है ये स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्व को ही मानव जीवन के आधार
भूत मूल्य मानते हैं। सात्रे कहता है कि संसार बहुत कठोर है
और इस कठोरता व दुरूहता का सामना कोई तभी कर
सकता है यदि वह साहसी हो। अधिकाँश अस्तित्ववादी विचारक मृत्यु को सबसे बड़ा सत्य
मानते हैं और स्वीकारते हैं कि मृत्यु का ज्ञान ही मनुष्य को सही मार्ग पर लाता
है।
अस्तित्व वाद के मूल तत्व और सिद्धान्त
Fundamental Elements and Principles of Existentialism-
01 – केन्द्र
बिन्दु मानव मात्र
02 – केवल
भौतिक जगत सत्य
03 – नियामक
सत्ता के बिना ब्रह्माण्ड का अस्तित्व
04 – निराशा
व दुःख विशद तत्व
05 – जीवन
अन्तिम उद्देश्य विहीन
06 – मानव
की स्वतन्त्र सत्ता
07 – चयन
की स्वतन्त्रता
08 – विकास
की निर्भरता स्वयं पर
अस्तित्ववाद और शिक्षा
Existentialism and Education
अस्तित्ववाद
और शिक्षा
Existentialism
and Education
शिक्षा
एक सामाजिक प्रक्रिया है और इनका समूचा ध्यान वैयक्तिकता पर है यह दर्शन एक
स्वतन्त्र दृष्टिकोण तो रखता है लेकिन कहीं कहीं अन्य दर्शनों को छूटा सा दीखता है
वैयक्तिकता के क्षेत्र में यह आदर्शवादियों की तरह वैयक्तिकता के महत्त्व को
स्वीकारता है आत्मविकास और आत्म अनुभव के विचार भी आदर्शवादियों से साम्य रखते हैं
लेकिन फिर भी यह कई विचारों में इतना अलग है कि पलायन वाद की कोइ गुंजाइश नहीं
छोड़ता ये कहते हैं –
“शिक्षा मनुष्य को उसके अस्तित्व और
उत्तरदायित्व का बोध कराने की प्रक्रिया होनी चाहिए।”
मानव
को अस्तित्वहीनता के दौर से हटाकर उसकी पुनः प्रतिष्ठा के क्रम में शिक्षा को
उपयोगी साधन स्वीकार किया है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्यों व
अंगों पर जो प्रभाव परिलक्षित हुए हैं उन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया जा सकता
है।
शिक्षा
के उद्देश्य (Aims of Education ) –
1 – उत्तरदायित्व की क्षमता का विकास (To Development of Responsibility)
2 – अपने भाग्य का निर्माता स्वयं (The maker of own destiny)
3 – सृजनात्मकता का विकास (Development of creativity)
4 – शक्तिशाली व साहसी बनाना
(Make strong and courageous)
5 – श्रेष्ठ मानव प्रजाति का विकास
(Evolution of the best human species)
पाठ्य क्रम (Curriculum)
–
इनके अनुसार व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के कारण विविध
विषयों को स्थान मिलना चाहिए। सौन्दर्यात्मकता और भावनाओं का महत्त्व अस्तित्ववादी
महसूस करते हैं यही तो उन्हें अन्य प्राणियों से अलग करते हैं इस लिए कला,साहित्य,संगीत विषयों को स्थान मिलना चाहिए। किर्क
गार्द मानव को नैतिक प्राणी मानते हैं इसलिए नीति शास्त्र की उपादेयता है।
अस्तित्व रक्षार्थ व्यावसायिक विषयों को पाठ्य क्रम में स्थान आवश्यक है। धार्मिक
विषयों के स्थान पर ये क्रियात्मक व वैज्ञानिक विषयों को संकट निवारणार्थ रखना
चाहते हैं अर्थात भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान,जीव विज्ञान ,कृषि विज्ञान,चिकित्सा शास्त्र,व तकनीकी विषयों पर बल देना चाहते हैं।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) –
यह समूह शिक्षण के पक्षधर नहीं हैं इसलिए निर्धारित पूर्व नियोजित
शिक्षण विधियों कीजगह स्वाध्याय, चिन्तन, मनन,व
अनुभव द्वारा सीखने की महत्ता प्रतिपादित करते हैं व तार्किक विधि का समर्थन करते
हैं।ये विविध मंतव्यों हेतु विविध विधियों के समर्थक हैं।
शिक्षक (Teacher) –
इनका विचार है की अध्यापक अपने निर्णय बालकों पर न थोपें बल्कि
उन्हें इस योग्य बनाएं कि वे अपने लिए उचित निर्णय ले सकें, विभिन्न परिस्थितियों से लड़ने हेतु उसे समर्थ
बनाते हुए यह बोध भी कराना है कि वह अकेला है आत्मबोध से युक्त कर कर्मपथ पर बढ़ने
का कौशल विकसित किया जाना है। इस प्रकार अध्यापक की भूमिका दुरूह है।
विद्यार्थी (Student) –
विद्यार्थी चयन हेतु स्वतन्त्र है और इस चयन व स्वतन्त्रता की रक्षा
अध्यापक द्वारा की जानी चाहिए ये बालक की पूर्ण स्वतन्त्रता के समर्थक हैं और उसके सम्मान का कार्य शिक्षा
द्वारा सम्पादित होना चाहिए।
विद्यालय (School) –
जिस तरह ये विद्यार्थी की स्वतन्त्रता के पक्षधर हैं ठीक उसी तरह ये
विद्यालयों को नियन्त्रण मुक्त रखना चाहते हैं
सामूहिक शिक्षा के स्थान पर व्यक्तिगत शिक्षा के पक्षधर हैं। ये मानते हैं
की कुछ सिखाने या बालकों की स्वतन्त्रता छीनने के प्रयास न हों वे अपने आप ही
सीखेंगे। कुछ चुने हुए लोगों का बौद्धिक
विकास कर उन्हें उत्तरदायित्व दिया जाना चाहिए।
अनुशासन (Discipline) –
ये मानते हैं की मनुष्य स्वभाव से ही अनुशासन प्रिय है और यदि उससे
चयन में गलती हो जाती है तो इसका दुःख वह स्वयं भोगेगा सुधार कर लेगा। ये किसी भी आचार संहिता के
विरोधी थे। इस विचार धारा के अनुसार बालकों द्वारा उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार
सच्चा अनुशासन है।
मूल्याङ्कन (Evaluation)
–
अस्तित्ववाद पूर्व निश्चित ,मान्यताओं,धारणाओं,मूल्यों,धार्मिक नैतिक अवधारणाओं से छिटक खड़ा हो गया है। संकट ग्रस्त हेतु इसने आकर्षक
छवि बनाने का प्रयास अवश्य किया पर कोइ भी भारतीय विचारक इसे न तो शैक्षिक चिंतन
में स्थान दे पायेगा दार्शनिक चिन्तन में।
ये मानव हेतु कोइ ऐसा आलम्ब न दे सका जो उज्जवल भविष्य हेतु बोधक हो। शिक्षा के हर अंग पर इस वाद का प्रभाव
कोई निशाँ न छोड़ सका। इन्हें सब कुछ मानव विरोधी लगता है।यही कह सकते हैं कि इनके
इरादे बुरे नहीं थे बस सही रास्ता नहीं बना सके।