बाल संसार एक अनोखा ही संसार है,इसमें कहीं कल्पना की उड़ान है ,कहीं मनुहार, कहीं बाल हठ दीख पड़ता है बाल लीलाएं मन मोह लेती हैं। प्रस्तुत शब्दों में ऐसी ही जिद है। हठ कर बैठी बिटिया मेरी, माता से यूँ बोली–
बाल संसार एक अनोखा ही संसार है,इसमें कहीं कल्पना की उड़ान है ,कहीं मनुहार, कहीं बाल हठ दीख पड़ता है बाल लीलाएं मन मोह लेती हैं। प्रस्तुत शब्दों में ऐसी ही जिद है। हठ कर बैठी बिटिया मेरी, माता से यूँ बोली–
काले बादल, ठण्डी हवा ,महाविद्यालय से वापसी का समय ,अनायास मेरी निगाह ऊपर उठी और लगा कि बादलों के रूप में एक समुद्र ऊपर से झाँक रहा है बादल फटने का दृश्य मेरे जेहन में कौंध उठा ,जब मैंने उन यादों को झटकना चाहा तो मेरी कड़कड़ाती ठण्ड में हुई ‘मैदान से वार्ता’ जीवन्त हो उठी। प्रस्तुत हैं स्मृति पटल से उस वार्ता के प्रमुख अंश
शोध कार्य की परिणति जब लघुशोध (Dissertation) या शोधग्रन्थ (Thesis) के रूप में हो जाती है तो कार्य पूर्ण नहीं हो जाता तथा कम शब्दों में सम्पूर्ण शोध कार्य को “शोध सार” के रूप में बोधगम्य बनाया जाता है जिससे कम समय में तत्सम्बन्धी कार्य क्षेत्र के बुद्धिजीवी उसे समझ सकें।
किसी भी देश का उत्थान और पतन उस देश की सोच पर निर्भर करता है लेकिन कुछ भटके और विकृत मानसिकता वाले लोग देश और देश के संसाधनों को अपूरणीय क्षति पहुँचाना चाहते हैं ऐसी स्थिति में सजग मस्तिष्क और देश से सच्चे प्रेम की नितान्त आवश्यकता है हमें राष्ट्रवाद का सच्चा प्रहरी बनाना ही होगा.
हिंदुस्तान परिक्षेत्र के जनमानस की अवधारणा पुनर्जन्म व प्रारब्ध से जुड़ी रही है जो विभिन्न विषादयुक्त क्षणों में मानसिक आलम्बन का कार्य करती है और उसे कुछ भी आश्चर्ययुक्त नहीं लगता बल्कि प्रारब्धवश घटित घटना लगती है व तब शब्द इस प्रकार गीत में ढलते हैं।
लेखन का परिक्षेत्र पुराना लगता है ,
लेकिन वह जाना- पहिचाना लगता है.
इतने सारे दिन गुजरे तब भान हुआ,
अब दर्शन का उनवान पुराना लगता है.
इनका, उनका ,अपना ,सबका ,
हाँ, युगों- युगों का नाता है.
यह तेरा है ,वह मेरा है ,
ओछे नारे सा लगता है।
जब से मेरा मनवा भारत आया है,
वसुधा से नाता है पुराना लगता है।
हम तो केवल क्षेत्र बदलते रहते हैं ,
आत्मा के परिवेश बदलते रहते हैं।
हम सब जब रोने चिल्लाने लगते हैं ,
ईश्वर पर आरोप लगाने लगते हैं।
कभी कभी जो अनपेक्षित सा घटता है,
प्रारब्धों का खेल पुराना लगता है।
– डॉ0 शिव भोले नाथ श्रीवास्तव
किसी भी क्षेत्र में शोध करने से पूर्व मनोमष्तिष्क में एक तूफ़ान एक हलचल महसूस होती है, शोध परिक्षेत्र की तलाश प्रारम्भ होती है, विषय की तलाश से लेकर परिणति तक का आयाम मुखर होने लगता है और इसी मनोवेग वैचारिक तूफ़ान को शोध एक सृजनात्मक आयाम देता है एवं अस्तित्व में आता है शोध प्रोपोज़ल या शोध प्रारूपिका। हमारे शोधार्थियों में इसके लिए शब्द प्रचलन में है: —-Synopsis.