काले बादल, ठण्डी हवा ,महाविद्यालय से वापसी का समय ,अनायास मेरी निगाह ऊपर उठी और लगा कि बादलों के रूप में एक समुद्र ऊपर से झाँक रहा है बादल फटने का दृश्य मेरे जेहन में कौंध उठा ,जब मैंने उन यादों को झटकना चाहा तो मेरी कड़कड़ाती ठण्ड में हुई ‘मैदान से वार्ता’ जीवन्त हो उठी। प्रस्तुत हैं स्मृति पटल से उस वार्ता के प्रमुख अंश
रात्रि की नीरवता को तोड़ती घडी की टिक टिक मुझे साफ़ सुनाई पड़ रही थी। प्रकृति अपने आँगन में खेलने का मौन निमंत्रण दे रही थी। गली में गश्त करते मानव की सीटी की आवाज ने मुझे उनीदी नींद से जगा दिया। आदत से मजबूर मैंने बिस्तर त्यागा पूर्वाहन 3 बजे का समय, मैं उठकर नित्य कर्मों में निवृत्त हो ट्रैक सूट आदि धारण कर एस एम कॉलेज के ट्रैक पर अपनी प्रिय मोटर बाइक से पहुँचा, घना कुहरा छाया था शीत अपना प्रकोप और वायु सिहरन पैदा करने का काम कर रही थी। दिसंबर का जाड़ा चरम पर था मैंने दौड़ना प्रारम्भ किया, दौड़ना वजन की अधिकता से जॉगिंग में तब्दील हो चुका था। उस मध्यम गति से भी मौन की तन्द्रा टूट रही थी अचानक मुझे लगा की कोई मुझे पुकार रहा है लेकिन मैदान में मेरे सिवा कोई न था मुझे फिर एहसास हआ कि वह क्रीड़ांगन ही मुझसे बात करने को आतुर था। वह मेरा इतिहास से साक्षात्कार कराना चाहता था बीते भौगोलिक परिवेश से परिचय के क्रम में मैं निरन्तर धावक पथ पर था।
मैंने महसूस किया वह कल कल नाद जो युवा नदी के जल प्रवाह की तीव्रता और उछल कूद होता है मुझे प्रत्यक्षत: पारिलक्षित हुआ कि मेरे हर ओर लम्बे लम्बे वृक्षों का जंगल उग आया था हर वृक्ष, हर वल्लरी अपने गुजरे लम्हों को मुझसे शेयर करने को आतुर प्रतीत होती थी, लम्बे वृक्षों के ऊपर बादल, वर्षा, बिजली की कड़क कौंध सबसे ही मिलन हो रहा था। मैदान मुझसे बात कर रहा था।
उसने कहा मैंने काल के थपेड़ों में बहुत कुछ खोया और पाया है मैंने अपने वक्ष स्थल पर घना जंगल देखा है। मैंने वर्षा के जल की अथाह राशि को घूँट घूँट पिया है। अपने पर विचरते जंगल के जानवरों की हर श्वास का मैं गवाह हूँ। फुदकते खरगोश, नेवलों से लेकर रेंगते सर्पों का हर स्पर्श मुझे याद है। जंगली कुत्तों, शेर, गीदड़, लोमड़ी, लकड़बग्घों की हर उछल कूद मुझे याद है। भांति भांति के वृक्षों पर लौटने वाले पक्षियों के लौटने का हर स्पंदन मुझे सिहरित करता है। जल भराव के समय मछली, कछुओं और मगरमच्छों तक से मेरा वास्ता रहा है। आज तुम अपनी बुद्धि विवेक से जो अंदाजा लगाते हो ना, वह कल्पना मेरे यथार्थ से कोसों दूर है। मैंने अपने नदी होने से जंगल होने की यात्रा के हर भाव को संजो रखा है। तेरे कदमों की धमक की तरह जीव जन्तुओं की हज़ारों प्रजातियॉं मुझ पर विचरण कर चुकी हैं। जंगल से शहर होने की यात्रा का हर पड़ाव मुझे याद है जाड़ा गर्मी बरसात का हर गुज़रता लम्हा वर्षों से मेरे जेहन पर अंकित है। लाखों रातों की नीरवता, प्रभात की मदमस्त वायु, वायु की सिहरन, लू के थपेड़े, भूला नहीं हूँ मैं। जंगल से शहर होने की यात्रा का मैं प्रत्यक्ष गवाह हूँ। योगियों का मौन, भोगियों की वासना, शिशुओं का किलोल और आज की तमाम प्रतिस्पर्धाओं का मौन साक्षात्कार मैंने किया है, बदलते समय की हर थाप ने मुझे मेरे स्वरुप को बदला है भूकम्प की थर थराहट और बिजली गिरने का दर्द मेरी यादों में अब भी ताजा है। टूटी दीवार से निकल मेरे ऊपर लगातार दौड़ती हे दिव्यात्मा, तू भी मेरी तरह अनन्त की यात्रा कर रही है। कभी उस टूटी दीवार की जगह विशालकाय वृक्ष हुआ करता था। उसकी जीवन यात्रा में हज़ारों वल्लरियों ने उसके सहारे चढ़ना सीखा, पक्षियों ने घोंसले बनाये । शाखाएं विविध जन्तुओं का आश्रय भी बनी, सब बदल गया, काल के गाल में समा गया आने वाली पीढ़ियां यह सब कल्पना भी कर सकेंगी । मुझे संशय है पर उससे क्या, मेरा स्वरुप लगातार बदलेगा मेरे अनन्त विस्तार पर बहुत कुछ तुम्हारी पीढ़ियों ने बनाया बिगाड़ा है यह छोटा सा खुला हिस्सा जिस पर तुम दौड़ रहे हो न, चिन्तन, चिता और चिन्ता सभी से साक्षात्कार कर चुका है मेरा एक हिस्सा जो सबसे करीबी है। तुम्हारे विद्यादान के केंद्र की वर्तमान में भूमिका अभिनीत कर रहा है। मानवों की कई प्रजातियां यहाँ विचरण कर मेरे में विलीन हो चुकी हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि अपनी कथा, अपनी व्यथा कहाँ से शुरू करूँ। मैदान की वह सरगोशी धावक पथ के हर ओर वृक्षों की मौजूदगी का अहसास करा रही है। गगनचुम्बी वृक्ष उनके बीच झांकती चाँद की उपस्थिति, मैंने महसूस किया कि पथ के चक्करों की आवृत्ति मैं भूल चुका हूँ। मैदान की वार्ता के आभास के बीच कुछ और दिव्यात्माओं का आगमन हो चुका है। मैं घर वापसी को उद्यत हुआ तो मैदान बोला कोई बात नहीं फिर आना एकांत वार्ता जारी रहेगी। मैंने बाइक स्टार्ट की घर पहुँचा। घड़ी देखी तो एहसास हुआ कि मैं उस दौड़ पर सवा दो घण्टा मैं मौन वार्ता का साक्षी रहा। शून्य का विस्तार, समय का कोई छोर भी तो मानव के हाथ नहीं। अनन्त की यात्रा में भौतिकता कब तिरोहित हो जाती। है समझ ही नहीं आता। मैदान की कई बातें तो लिखते समय तक दम तोड़ चुकीं हैं। कुछ शब्द मानस पटल पर है। सुनामी, प्रलय, निर्माण, सृजन मुझे लगता है वह एहसास जिया जा सकता है, शब्दों में वह दम नहीं जो अभिव्यक्ति हो सके, चम्मच में समुद्र का जल लेकर समुद्र का वह एहसास सम्भव नहीं।