जिसमें हो सुकून वही राह ढूँढते हैं,
जो भी हो पसन्द वो खुशबू सूँघते हैं,
सम्बन्धों की खैर तो छोड़िए ज़नाब,
वो हमें औ हम उन्हें कहाँ पूछते हैं ?
कब होती सुबह की शाम कहाँ चीन्हते हैं,
अपने खुद के बारे में भी कहाँ सोचते हैं,
बाजारों के चक्कर ने चकरा दिया हमको,
चक्कर के भँवर जाल में ही हम घूमते हैं।
इस पीढ़ी की शिकायत करें भी किससे ,
जो बोया है हमने, हम उसे काटते हैं,
दादी,नानी के किस्से हैं इतिहास के हिस्से,
वो कहानी भी अब हम कहाँ बाँचते हैं।
न वो दंगल न जंगल अब यहॉं दीखते हैं,
गुरुजन से बच्चे भी अब कहाँ सीखते हैं,
इस जमाने को अद्भुत हवा लग गयी है,
अब के बच्चे भी खुद से बड़े दीखते हैं।
वो शर्मो- हया भी अब खो सी गयी है,
क्यों बाजारों में नंगे बदन दीखते हैं,
वो कहते हैं फ्यूजन का फैशन चला है ,
न जाने क्यों हमें, चीथड़े दीखते हैं।
जिन्दगी के फासले से हम यह सीखते हैं,
दिन भर दौड़े- धूपे बच्चे थके दीखते हैं,
आराम का हमारा सा वक्त नहीं होता है,
साधन हीअक्सर श्रम का खून खींचता है।
बेचैनियों में मुस्कराहट के क्षण ढूंढते हैं,
खुश रहने दो जिसमें ये खुश दीखते हैं,
दुःख दर्द की शिकायत मत करो इनसे,
दुनियादारी में शायद मशगूल दीखते हैं।
वो हमारी कहानी, हो गयी है पुरानी,
बच्चों की खुशी में, निज खुशी ढूंढते हैं,
हम- सब भी तो पहले आनन्द से रहे थे,
अब इन सब के लिए, आनन्द ढूंढते हैं।