­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­ऋषि मुनि सोते रह जाते तब उनका मान नहीं होता,

बिन ‘चरैवेति’ की धारणा धारे, महाप्रयाण नहीं होता,

जीवन है, चलने का नाम ठहराव पसन्द नहीं करती,

शायद सुरक्षित रह पाते पर जगत में नाम नहीं होता।

घर में छिप बैठे रहने से जग का कल्याण नहीं होता।

संघर्षों से फिर भगजाने पर बेड़ा भव पार नहीं होता,

गर एकजगह रुकजाते तो जग में व्यापार नहीं होता,

कर्तव्यपथ से भगजाने पर धरती सम्मान नहीं करती,

यदि कूप मण्डूक बने रहते तो ज्ञान प्रसार नहीं होता।

घर में छिप बैठे रहने से जग का कल्याण नहीं होता।

जब तक न अग्नि परीक्षा हो सीता का मान नहीं होता,

श्री रामचन्द्र निज घर रहते पुरुषोत्तम नाम नहीं होता,

धातु न ताप सहन करती तो किसी काम की न रहती,

यदि पूर्वज वीर भाव खोते, तो जग में नाम नहीं होता।

घर में छिप बैठे रहने से जग का कल्याण नहीं होता।

हृदयों के दावानल का, कोई प्रगटी करण नहीं होता,

हम पंगु बनके रहजाते फिर जय श्री वरण नहीं होता,

हम क्या और जग क्या है जिज्ञासा मन में दबी रहती,

वृहताकार रहस्यों का जग के अनावरण भी ना होता।

घर में छिप बैठे रहने से जग का कल्याण नहीं होता।

न अनुसन्धान का क्रम होता दर्शन विज्ञान नहीं होता,

सब हो जाते पोंगा पन्थी ज्ञान का दिनमान नहीं होता,

तो प्राणप्रतिष्ठा की बातें कल्पना भी वरण कैसे करती,

सब वीराना होता जाता, मानवमन उन्माद नहीं होता।

घर में छिप बैठे रहने से जग का कल्याण नहीं होता।

‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा’ का महती मन भाव कहाँ होता,

सब कुछ बेसुरा होजाता फिर सुन्दर राग कहाँ होता,

मानवमन अभिव्यक्ति भी फिर सोई – सोई सी रहती,

तो नाथ संकल्पना न होती, नाथों का नाथ नहीं होता।

घर में छिप बैठे रहने से जग का कल्याण नहीं होता।

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