संसार के जड़ जङ्गम हमें प्रभावित करते हैं उनके बारे में सोचने पर जिज्ञासा का प्रबल भाव उत्पन्न होता है और यह कुहासा चिन्तन स्तर उच्च होने के साथ और घनीभूत होता जाता है जब इसका प्रवाह स्वयम् की ओर होता है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर हम हैं कौन, क्या आदि आदि, लेकिन अपने स्वरुप का बोध सरल नहीं है।
अपने अस्तित्व को गुम करके स्वयम् के विराट से साक्षात्कार हो सकता है जिस प्रकार हवा में तैरता कोई जलकण तब तक लघु है जब तक वह विशाल समुद्र से एकाकार करती है तब स्वयम् को खो देती है। लेकिन खोने के तुरन्त बाद वह समुद्र है उस जैसी बिन्दुओं के समूह से ही विशाल समुद्र बना है जिसकी शक्ति अपरम्पार है, जिसमें बहुमूल्य निधियाँ आज भी विराजमान हैं लेकिन हाय रे मानव तुझे आज भी स्वयम् की तलाश है।और यह तलाश भी बाहर की ओर है जो बढ़कर कर्म न करने आसक्ति की ओर बढ़ रही है हम वह भूल रहे हैं जो भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के द्वित्तीय अध्याय के ४७ वें श्लोक में कहा है –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
अर्थात
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है,उसके फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मों के फल का हेतु मत बन और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
वस्तुतः बाहर की तलाश में कुछ भी मिलने वाला नहीं है जो भी है अन्तर में है। लघु और विराट के भेद को समझने के बाद स्वयम् की दृष्टि समदृष्टा होकर तमाम भित्तियों का अस्तित्व परिवर्तन कर देती हैं। हमारा अस्तित्व जड़ होने से पूर्व चैतन्य का है, निज स्वरुप का बोध होने के साथ सम्बन्धों की तमाम दीवारें धराशाई हो जाती हैं।कोई भी सम्बन्ध अक्षुण्ण नहीं है यह सारे सम्बन्ध काया के हैं कायिक हैं इन सम्बन्धों के साथ दम्भ ही माया की गिरफ्त में आ जाने का द्योतक है।हम देह नहीं हैं बल्कि शुद्ध चैतन्य आत्म तत्व हैं जो कभी नष्ट नहीं होता। श्रीमद्भगवद्गीता के द्वित्तीय अध्याय के २३वें श्लोक में बोध जागरण प्रयास में कहा भी है-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥2.23॥
अर्थात
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग जला नहीं सकती। जल इसको गला नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती।
जिस तरह जल की बूँद सागर में या फुटबाल या अन्य स्थल में घनीभूत वायु बाहर आकर सम्पूर्ण व्योम हो जाती है ठीक इसी तरह हम सब आत्म तत्त्व जो कि शुद्ध चैतन्य स्वरुप हैं अन्ततः परमात्म में, उस विराट में लय होकर उससे एकाकार कर लेते हैं और जो किसी भी कारणवश इस स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, वे बारम्बार आवागमन के चक्र में रहते हैं और प्रारब्ध व उसके परिणाम से ग्रसित हो अपने शुद्ध चैतन्य स्वरुप को जानने की दिशा में अग्रसर रहते हैं।ऐसे ही योगी मानस हेतु श्रीमद्भागवद्गीता के द्वित्तीय अध्याय के ६९वें श्लोक में कहा है –
“या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥2.69॥
अर्थात
सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है।
जब तक स्वयं में शुद्ध चैतन्य आत्म स्वरुप के दर्शन नहीं होते और परमसत्य मानस से उद्भूत नहीं होता तब तक समदृष्टि विकसित नहीं होती इसी कारण हम सभी में उस विशुद्ध चैतन्य आत्म तत्व का दर्शन नहीं कर पाते और इस स्वरुप की काया परिवर्तन की स्थिति बनी रहती है।
आइए इस तरह से समझने का प्रयास करते हैं यदि कोई विशालकाय दीपक ज्योति दैदीप्यमान है और छोटा दीपक उस प्रज्ज्वलित दीपशिखा में अपना अस्तित्व खोकर मिल जाता है, जिसमें तृष्णा, अहंकार और अज्ञान का दीपक, बाती, तेल शेष है वह अपने चैतन्य शुद्ध स्वरुप से आत्म साक्षात्कार नहीं कर सकता।