समाज के अपने नियम, परम्पराएं, मर्यादाएं निर्धारित हैं नारी शक्ति जागरण के प्रयास इन दायरों से तालमेल बिठा मन्थर गति से हुए लेकिन अब काल उस शक्ति के अभिनन्दन को विवश दीख पड़ता है प्रयास इतनी खामोशी व गाम्भीर्य लिए थे कि जल,थल, व्योम को मातृ शक्ति का लोहा मानना पड़ा,उसी शक्ति को समर्पित उत्प्रेरक पंक्तियाँ :-
क्या हुआ? कैसे हुआ ? और क्या होना चाहता है ?
वक़्त के इतिहास में, ये क्या गुम होना चाहता है ?
सद्कर्म की अदृश्य मूरत, क्यों हुई हलकान है ?
ये जमाना, ये फ़साना, क्या अब उससे चाहता है।।
रात गुज़री, चाँद गुज़रा, अब भोर होना चाहता है,
गहन कालिमा को तज, उजियार होना चाहता है,
उसकी चमकती धवल पंक्ति और जो मुस्कान है,
वक़्त की तब्दीलियों में नवसफर जुड़ना चाहता है।।
अदृश्य करम का कारवाँ, साकार होना चाहता है,
धैर्य मिलकर श्रमकणों से यूँ शोख़ होना चाहता है,
साथ निभाना, ख़ुद संभलना ये तो बस पहचान है,
मृदु सरलता, प्रेम, ममता स्वरूप धरना चाहता है।।
ये समय कहता छोड़ जड़ता मुखर होना चाहता है,
दृढ़कर्म निष्ठा और लगन, साँचे में ढलना चाहता है,
अब करुणामयी, ममतामयी, तेजोमयी गुणगान है,
मधु हास्य संग शालीनता नवरूप गढ़ना चाहता है।।
गुणों के नवअम्बार का शुभ श्रृंगार होना चाहता है,
मूढ़ता सहित रूढ़ता का, अवसान होना चाहता है,
कर्म के विविध क्षेत्र में, गढ़ती जो नव – प्रतिमान है,
नारी नवस्वरूप को,काल अब मान देना चाहता है।।
त्याग जड़ता जगत, अद्भुत रूप धरना चाहता है,
क्षमता प्रमा स्वीकार विशिष्ट स्थान देना चाहता है,
दीर्घकालिक संघर्ष से अब नारी ने रची पहचान है,
काल महिमा मानकर अब सिर झुकाना चाहता है।।
थक हार लोहा मानकर नवसम्मान देना चाहता है,
नवसमय, नवसंस्कार को, नवमान देना चाहता है,
लम्बी अवधि तक रहा परदा जिसकी पहचान है,
जल, थल, व्योम नारी को सम्मान देना चाहता है ।।